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छोटे से कमरे में ख़त्म हुआ 236 साल का साम्राज्य?

14 जनवरी 2023 को नवाब मीर बरकत अलीख़ान वालाशन मुकर्रम जाह बहादुर का निधन हो गया.

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कभी भारत के सबसे आदमी अमीर रहे निज़ाम मुकर्रम ज़ाह एक वक्त में ऑस्ट्रेलिया के एक फ़ार्म में जाकर बस गए थे (तस्वीर: नेशनल आर्काइव्स)

पी. बी. शेली नाम के एक अंग्रेज़ी लेखक हुए. ओज़ीमेंडियस नाम की उनकी एक कविता बड़ी फेमस है. ओज़ीमेंडियस मिश्र के एक राजा का नाम था. कविता कुछ यूं है कि ओज़ीमेंडियस की एक मूर्ति रेगिस्तान में पड़ी है. मूर्ति का सर टूट के रेत में धंसा हुआ है. और बगल में लिखी हैं ये पंक्तियां-

“मेरा नाम ओज़ीमेंडियस है, मैं राजाओं का राजा हूं
मैंने जो काम किए हैं, हे शक्तिमान लोगों देखो,
और मायूसी में जियो!”

दुनिया को अपनी मुट्ठी में समझने वाले ऐसे जितने भी शासक हुए, तारीख ने उन सब का अंजाम यही बताया. उनके महलों पर वक्त की रेत जम गई और साम्राज्य धूल में उड़ गए. आज कहानी एक ऐसे ही साम्राज्य की. जिसके बारे में कहा जाता था कि यदि केवल उसके ख़ज़ाने के मोती-मोती निकालकर चादर की तरह बिछाए जाएं, तो पिकाडिली सरकस के सारे फुटपाथ ढक जाएं. जिसके ख़ज़ानों में माणिक, मुक्ता, नीलम, पुखराज आदि के टोकरे भर-भर कर तलघरों में रखे हुए थे- जैसे कि कोयले के टोकरे भरे हुए हों.

14 जनवरी 2023 - ये वो तारीख थी जिस दिन 236 साल पुराने इस साम्राज्य ने अपने आठवें निज़ाम का अंत देखा. हम बात कर रहे हैं हैदराबाद रियासत की. 14 तारीख को हैदराबाद के आख़िरी निज़ाम नवाब मीर बरकत अलीख़ान वालाशन मुकर्रम जाह बहादुर (Mukarram Jah) का इंस्ताबुल में इंतकाल हो गया. क्या थी उनकी कहानी और क्या हुआ उनकी हैदराबाद रियासत की अकूत धन दौलत का. चलिए जानते हैं. (Last Nizam of Hyderabad) 

निज़ामों की शुरुआत 

रोपर लेथब्रिज अपनी किताब ‘द गोल्डन बुक ऑफ इंडिया’ में बताते हैं कि निजामों की वंशावली पहले खलीफा अबु बक्र तक जाती है. आधुनिक काल की बात करें तो 1650 के आसपास उनके वंशज ख्वाजा आबिद खान समरकंद से दक्कन आए. यहां उसकी मुलाकात मुग़ल शहजादे औरंगज़ेब से हुई. जो तब दक्कन के गवर्नर हुआ करते थे. 1657 में जब औरंगज़ेब और दारा शिकोह के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ी, आबिद खान ने औरंगज़ेब का साथ दिया. औरंगज़ेब ने आबिद के बेटे ग़ाज़ीउद्दीन खान की शादी पिछले वजीर की बेटी से करवा दी. इन शादी से एक बेटा हुआ. मीर कमरुद्दीन खान. 

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आसफ ज़ाह प्रथम और ख्वाजा आबिद खान (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

औरंगज़ेब की मौत के बाद मुग़ल साम्राज्य में एक और उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ी. अगले दो दशक मुग़ल बादशाह एक के बाद एक बदलते रहे. 1713 में मुग़ल गद्दी पर बैठे फर्रुखसियर ने मीर कमरुद्दीन खान को दक्कन का गवर्नर नियुक्त किया. उन्हें 6 सूबों का सूबेदार और कर्नाटक का फौजदार बनाया गया. कमरुद्दीन सफल शासक थे. लेकिन सय्यद भाइयों की चाल से उन्हें इस पद से हाथ धोना पड़ा. बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला के काल में उन्हें पहले मुरादाबाद और फिर मालवा भेज दिया गया. यहां भी उनकी ताकत में इजाफा होता गया. सय्यद भाई कमरुद्दीन की बढ़ती ताकत से खबरदार थे. उन्होंने एक बार फिर कमरुद्दीन को पद से हटाने की कोशिश की. लेकिन कमरुद्दीन ने तंग आकर अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया और सीधे दक्कन का रुख कर लिया. 

सय्यद भाइयों की मौत के बाद मुहम्मद शाह ने कमरुद्दीन को वजीर का पद ऑफर किया. इस बीच दक्कन के एक सूबेदार मुबरेज़ खान ने कमरुद्दीन के खिलाफ विद्रोह कर डाला. कमरूदीन और मुबरेज़ खान के बीच हुई लड़ाई में जीत कमरुद्दीन की हुई. और इसके बाद दक्कन में उनका वर्चस्व हो गया. साल था 1724. अब तक मुहम्मद शाह रंगीला को अहसास हो चुका था कि कमरूदीन से लड़ाई में उन्हें ही ज्यादा नुकसान होगा, इसलिए उन्होंने कमरुद्दीन को आसफ़ ज़ाह की उपाधि से नवाजा, जो तब मुग़ल सल्तनत में मिलने वाली सबसे बड़ी उपाधि हुआ करती थी. आसफ जगह का मतलब, आसफ के बराबर. इस्लामी धर्मग्रंथों के हिसाब से आसफ, राजा सोलोमन के दरबार में वजीर का नाम था. 

निज़ाम 'अमीर' नहीं थे 

बहरहाल यहीं से हैदराबाद रियासत में आसफ़जाही सल्तनत की शुरुआत हुई. आसफ जाह ने कभी खुद को मुगलों से आजाद घोषित नहीं किया. आसफ जाह के राज में भी मुगलों का झंडा फहराया जाता रहा. और साल 1948 तक जुम्मे की नमाज औरंगज़ेब के नाम पर पढ़ी जाती रही. हालांकि व्यावहारिक रूप से आसफ जाही एक अलग आजाद रियासत थी. इसके अगले 100 सालों में मुगलों की ताकत कमजोर हुए और दक्कन में मराठा ताकतवर होते गए. मराठाओं और हैदराबाद के निजामों के बीच कई जंगें हुईं. जिनमें मिली हार के चलते, निजाम मराठाओं को चौथ चुकाया करते थे. इसके बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का दौरा शुरू आया. और इस दौर में भी निजाम अपनी रियासत बचाने में कामयाब रहे. 

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मुकर्रम जाह,आज़म जाह और राजकुमारी दुर्रु शहवर के बेटे थे (तस्वीर: रॉयल आर्काइव्स )

आसफ़जाह की परंपरा में आगे चलकर कुल 8 निजाम हुए. जिनमें से सबसे मशहूर हुए, आसफ़ जाह मुज़फ़्फ़ुरुल मुल्क सर मीर उस्मान अली खां. जो 1911 में हैदराबाद के सातवें निजाम बने. यूं तो निज़ाम वो हैदराबाद के थे. लेकिन ब्रिटिश सरकार से उनकी नजदीकी के चलते उन्हें दुनिया का ताकतवर मुसलमान नेता माना जाता था. 1921 में उन्होंने अपने दोनों बेटों की शादी अब्दुल माजिद यानी तुर्की के आख़िरी खलीफा की बेटियों से करवाई. तुर्की के खलीफा तब फ़्रांस में निर्वासन में रह रहे थे. निजाम के बेटे से शादी का एक महत्वपूर्ण पहलू ये था कि इस शादी के बाद निज़ाम के बेटे को अगला खलीफा घोषित कर दिया गया. जिसके चलते उनकी राजनैतिक शक्ति में काफी इजाफा हुआ.

जहां तक दौलत की बात है, निजाम अमीरों में गिने जाते थे. हालांकि इस बात में पूरी सच्चाई नहीं है. निजाम के पास अपनी दौलत से आधी दौलत होती तब शायद वो अमीर के श्रेणी में आते. कहने का मतलब कि निजाम के पास जितनी दौलत थी, उसे किसी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता था. इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल गार्जियन के एक लेख में बताते हैं. एक बार एक ब्रिटिश नागरिक आईरिस पोर्टल को निजाम के तहखानों में जाने का मौका मिला. सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए उन्होंने पाया कि तहखाना ट्रक और लॉरियों से भरा था. उनके टायरों की हवा निकल गई थी. और ऊपर से तारपोलीन बिछा रखा था. तारपोलीन हटाया तो देखा, हर ट्रक सोने के सिक्कों और हीरों से भरा हुआ था.

निज़ाम की कंजूसी 

डेलरिम्पल लिखते हैं, निज़ाम को बहुत पहले से ये डर था कि उनके राज्य का भारत में विलय हो जाएगा. इसलिए वो ये सब खज़ाना अलग रखे हुए थे. ताकि वक्त आने पर इसे देश से बाहर ले जाया जा सके. वक्त के साथ हालांकि वो इस ख़ज़ाने को भूल गए और वो सालों से तहखाने में धूल खाता रहा. इसके बाद भी निजाम को इन सब से कोई फर्क न पड़ता था. 1937 में टाइम पत्रिका ने उन्हें 'दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति.' बताया. एक आंकड़े के हिसाब से उनकी कुल संपत्ति तब अमेरिकी की GDP के 2 % के आसपास थी. 2008 में फोर्ब्स पत्रिका की इतिहास के सबसे अमीर लोगों की श्रेणी में निजाम पांचवें नंबर पर थे. हालांकि अमीर होने के साथ साथ निजाम अपनी कंजूसी के लिए काफी फेमस थे.

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अप्रैल 1967 में एक ताजपोशी समारोह के बाद मुकर्रम जाह औपचारिक रूप से आठवें निज़ाम बने थे (तस्वीर: रॉयल आर्काइव्स)

किस्सा है कि जब भी निजाम को उनके विदेशी दोस्त सिगरेट ऑफर करते तो निजाम एक सिगरेट निकालने की बजाय 4-5 निकाल कर अपनी जेब में रख लेते थे. एक और किस्सा है कि एक बार जब कपूरथला की महारानी प्रेम कौर निजाम के बुलावे पर हैदरबाद गई. निजाम ने उन्हें देखा और देखते ही दिल दे बैठे. एक शाम जब महारानी खाने की मेज पर बैठी तो उन्होंने देखा कि उनके नैपकिन में हीरे रखे हुए हैं. हालांकि बाद में जब हीरों की परख की गई तो पता चला हीरे नकली हैं.

निजाम के पास तमाम दुनिया की दौलत थी. दुनिया का सबसे बड़ा, 282 कैरेट का जैकब हीरा, वो पेपरवेट की तरह इस्तेमाल करते थे. इसके बावजूद हैदराबाद रियासत की हालत खस्ता थी. आम लोगों की. डेलरिम्पल लिखते हैं कि 1940 के आसपास हैदराबाद में माहौल कुछ ऐसा था जैसे फ्रेंच क्रांति की पूर्व संध्या पर था. सारी ताकत जमींदारों के हाथ में थी. वो पैसा पानी की तरह बहाते थे. जबकि आम जनता मानों मध्यकाल में जी रही थी. डेलरिम्पल लिखते हैं कि हैदराबाद की हालत देख कोई भी बता सकता था, ताश का ये महल जल्द दिनों तक टिकने वाला नहीं है. ऐसा ही हुआ भी. आजादी के बाद निजाम हैदराबाद को भारत से अलग रखने की भरपूर कोशिश की. लेकिन उनकी ये कोशिश काम नहीं आई. ऑपरेशन पोलो के तहत 562वीं रियासत के रूप में हैदराबाद का भारत में विलय करा दिया गया.

पानी लाने के लिए 28 नौकर 

25 जनवरी, 1950 को निज़ाम ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तख़त किए जिसके तहत भारत सरकार ने उन्हें प्रति वर्ष 42 लाख 85 हज़ार 714 रुपए प्रिवी पर्स देने की घोषणा की. निज़ाम ने 1 नवंबर, 1956 तक हैदराबाद के राजप्रमुख के तौर पर काम किया. इसके बाद राज्य पुनर्गठन विधेयक के तहत उनकी रियासत को तीन भागों महाराष्ट्र, कर्नाटक और नवगठित राज्य आंध्र प्रदेश में बांट दिया गया. साल 1967 में मीर उस्मान अली खां की मृत्यु हो गयी. इसके बाद औपचारिक रूप से आठवें निजाम बने मुकर्रम जाह. मुकर्रम ज़ाह उस्मान अली ख़ान के पोते थे और उन्होंने अपने बेटों को दरकिनार कर अपने पोते को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था.

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प्रधानमंत्री नेहरू के साथ मुकर्रम ज़ाह (तस्वीर: नेशनल आर्काइव्स)

यूं तो मुकर्रम औपचारिक रूप से निज़ाम थे बेहद अमीर व्यक्ति भी थे, लेकिन चूंकि ये एक लोकतान्त्रिक देश है इसलिए इनकी एक और पहचान यहां पर बताना जरूरी हो जाता है. मुकर्रम जाह कुछ वक्त के लिए देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल के हॉनररी ऐड डी कैम्प (ADC) रहे थे. साथ ही 2010 में उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान बताया कि नेहरू उन्हें किसी मुस्लिम देश का राजदूत बनाना चाहते थे. 

गार्जियन के लेख में विलियम डेलरिम्पल लिखते हैं, निज़ाम के महलों में 14 हजार 718 लोगों का स्टाफ था. निजाम ओस्मान अली खान की 42 मिस्ट्रेस हुआ करती थीं. उनका स्टाफ अलग से. निज़ाम के मुख्य महल चौमोहल्ला में 6000 नौकर काम करते थे. 3 हजार अरब बॉडीगार्ड्स थे. 28 नौकर तो सिर्फ पानी लाने के काम के लिए रखे थे. वहीं 38 का काम झूमरों की सफाई करना होता था. इसके अलावा 10-12 ऐसे नौकर थे, जो सिर्फ निजाम के लिए अखरोट पीसने का काम किया करते थे.

इन सब के बावजूद निजाम की प्रॉपर्टी की हालत खस्ता थी. गैराज में 60 गाड़ियां थीं, जिनमें से सिर्फ 4 चलने की हालत में थीं. इनमें से एक लिमोज़ीन को जब निज़ाम की ताजपोशी के लिए ले जाया जा रहा था, वो बीच में ही ख़राब हो गई. इन सब चीजों के रखरखाव और तनख्वाह का चौड़ा बिल बनता था. फिर भी 1971 तक सब ठीक रहा. सरकार से मिलने वाले भत्ते से काम मजे में चल रहा था. फिर 1971 में एक और घटना हुई. इंदिरा गांधी सरकार ने प्रिवी पर्स पर रोक लगा दी. जिसके चलते निजाम के सामने लिक्विडिटी की दिक्कत खड़ी हो गयी.

इसके अलावा पिछले निज़ाम मीर ओस्मान के 16 बेटे और अठारह बेटियों सहित सैकड़ों में पोते पोतियां थे. ये सभी निजाम की दौलत में से हिस्सा चाहते थे. जिसके चलते नए निजाम को कई सारे कोर्ट केसेस से उलझना पड़ रहा था. इस सबसे परेशान होकर 1972 में मुकर्रम जाह ने हैदराबाद छोड़ दिया और वो ऑस्ट्रेलिया के पर्थ राज्य में जा बसे. और यहां के एक शीप फ़ार्म में रहने लगे. इस चक्कर में उनकी पहली बेगम, प्रिंसेज़ एज्रा ने भी उनसे तलाक ले लिया. 

भेड़ चराने वाला निज़ाम 

ऑस्ट्रेलिया में रहने के दौरान वो समाचार पत्रिकाओं के लिए कौतुहल का विषय थे. एक बार एक इंटरव्यू के उनसे पूछा गया, निजामों का वंशज ऑस्ट्रेलिया में भेड़ क्यों चरा रहा है?
इस पर उन्होंने जवाब दिया, “इस्लाम के पहले खलीफा अबु बक्र भी चरवाहे थे, फिर मैं क्यों नहीं”? जॉन जुब्रज़ीकी अपनी किताब ‘द लॉस्ट निज़ाम’ में लिखते हैं कि एक बार ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री बॉब हॉक ने निज़ाम से मुलाकात की इच्छा जताई. निज़ाम ने जवाब दिया, “मुझे अकेला छोड़ दो. मैं जानता हूं मैं हैदराबाद का निज़ाम हूं. इतना काफी है”.

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मुकर्रम जाह 89 वर्ष के थे (तस्वीर: nawabtipukhanbahadur.com)

करीब दो दशक ऑस्ट्रेलिया में रहने के बाद 1990 के दशक में मुकर्रम जाह ने ऑस्ट्रेलिया छोड़ दिया. और इसके बाद कभी लन्दन तो कभी तुर्की में समय बिताया. इस दौरान मुकर्रम जाह ने चार और शादियां की. उनकी एक बीवी हेलेन सिमंस का 1989 में एड्स से निधन हो गया था. कुछ शादियों में तलाक के बाद उन्हें अपनी दौलत का एक बड़ा हिस्सा देना पड़ा. जिसके चलते हैदराबाद में उनकी जितनी प्रॉपर्टी थी, उसका रखरखाव मुश्किल हो गया.

डैलरिम्पल लिखते हैं कि साल 2001 में उन्हें हैदराबाद में निजाम के कमरे में जाने का मौका मिला. वहां सैकड़ों साल पुराने बहुमूल्य अस्त्र शस्त्र रखे हुए थे. कुल आठ हजार डिनर डेट थे. जिनमें से हर डिनर सेट में 2600 बर्तन शामिल थे. कोठीमहल का एक कमरा पूरा फ्रेंच शैम्पेन की कैरेट से सीलिंग तक भरा हुआ था. 30 सालों से ये सब चीजें धूल खा रही थीं. क्योंकि निजाम मुकर्रम ज़ाह को इन सब की कोई फ़िक्र न थी. 

साल 1996 मेंहैदराबाद के इन पुराने महलों और ऐतिहासिक धरोहरों को दुबारा सहेजने का काम शुरू हुआ. साल 2002 में निजाम की जायदाद को रिस्टोर कर एक संग्रहालय बनाया गया. उनकी कई सम्पत्तियों को पर मामला 2023 में कोर्ट में है. जहां तक आख़िरी निज़ाम मुकर्रम ज़ाह की बात है, 1980 तक वो भारत के सबसे अमीर शख्स हुआ करते थे. एक अनुमान के अनुसार एक समय में उनकी कुल संपत्ति लगभग 25 हजार करोड़ रूपये के बराबर थी. इसके बावजूद अपने उन्होंने अंतिम दिन इस्तांबुल टर्की में एक दो बैडरूम अपार्टमेंट में रहकर गुजारे.

निज़ाम गोवा खरीदने चाहते थे 

साल 2002 में जब अधिकारी हैदराबाद में निज़ाम की जायजाद का हिसाब किताब कर रहे थे. उन्हें एक खास दस्तावेज़ मिला. इस दस्तावेज़ से सामने आई भारतीय इतिहास की एक छुपी हुई कहानी. पता चला कि 1940 के आसपास निजाम ओस्मान अली पुर्तगालियों से गोवा खरीदने की कोशिश कर रहे थे. गोवा क्यों?

क्योंकि उन्हें अपने राज्य के लिए एक पोर्ट की जरुरत थी. जिसके जरिये वो बाकी दुनिया से ट्रेड कर पाते. उन्हें अहसास हो गया था कि वक्त आने पर भारत सरकार उनके राज्य को अलग थलग कर सकती है. 1948 में उनका ये डर सही भी साबित हुआ. भारत ने हैदराबाद के आयात निर्यात पर शिकंजा कस दिया. ओस्मान अली ने जिन्ना से मदद मांगने की कोशिश की. लेकिन पोर्ट न होने के चलते उनकी सारी कोशिश असफल रही. और 5 दिन की सैन्य कार्रवाई के बाद हैदराबाद भारत का हिस्सा बन गया

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