जंगलों में दिन बिताते हुए महाराणा का बदन लोहा हो चुका था. और सांस धौंकनी. मुग़ल पीछा छोड़ने को तैयार न थे. महलों में पैदा हुए राजकुमार गुफाओं में कंकड़ों से खेल रहे थे. किसका दिल न पसीज उठता. लेकिन ये महाराणा का दिल था. हल्दीघाटी के बाद अब बारी दिवेर की थी. इस बार महाराणा अकेले नहीं थे. बेटा कुंवर अमर सिंह बड़ा हो गया था. कुंवर ने पहले तो रूपा को पकड़ा. रूपा वो भील था जो हल्दीघाटी के मैदान से भाग खड़ा हुआ था. उसे सजा दी और फिर निकल पड़े दिवेर के अभियान पर. (Maharana Amar Singh)
जब महाराणा प्रताप और अकबर के बेटों का आमना-सामना हुआ!
महाराणा प्रताप जीते जी मुगलों से लोहा लेते रहे लेकिन झुकने को राज़ी नहीं हुए. उनकी मौत के बाद मेवाड़ का क्या हुआ. क्यों चित्तौड़गढ़ के किले से क्यों घबराते से मुग़ल?
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साल 1582 . दशहरे का दिन. मेवाड़ में कुम्भलगढ़ किले से करीब 50 किलोमीटर दूर दिवेर में मुग़ल कमांडर सुल्तान खान ने कमान संभाल रखी थी. राजपूत टुकड़ी के साथ अमर सिंह ने उसकी फ़ौज पर धावा बोला. मुग़ल सेना के पांव उखड़ गए. अमर सिंह ने मुगलों पर ये जीत अपने पिता के नाम की. (Maharana Pratap)
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महाराणा प्रताप के सबसे बड़े बेटे कुंवर अमर सिंह का जन्म साल 1559 में 16 मार्च के दिन हुआ था. अब वो 23 बरस का कड़ियल जवान हो चुका था. पिता के बाद गद्दी कुंवर ने ही संभाली. मुगलों से 17 बार जंग लड़ी. हारे कम जीते ज्यादा. लेकिन इतिहास में जिस चीज के लिए और जरा स्याह रौशनी में उनका नाम दर्ज़ है. वो है मुगलों के साथ उनकी संधि. साल 1615 में.
महाराणा प्रताप के बाद मेवाड़ का क्या हुआ?
कौन थे चक्रवीर महाराणा अमर सिंह?
मेवाड़ ने मुग़लों के साथ संधि क्यों की?

दिवेर की जंग मेवाड़ की जिंदगी में महज जीत ही नहीं खुशकिस्मती भी लेकर आई. अकबर ने लाहौर को अपना ठिकाना बना लिया. और सल्तनत के दूसरे सूबों पर ध्यान लगाने लगे. महाराणा प्रताप को 12 साल का बहुमूल्य समय मिल गया. चित्तौड़गढ़ और मंडलगढ़ को छोड़कर उन्होंने मेवाड़ का काफी हिस्सा दुबारा हासिल कर लिया. ऊंची पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरे चावंड को अपनी राजधानी बनाया. सिर्फ़ 56 साल की उम्र थी उनकी, जब 1597 में महाराणा ने अंतिम सांस ली. मुगलों के आगे न झुकने का उनका प्रण पूरा हुआ लेकिन एक सपना था जो अधूरा रह गया था. चित्तौड़ का किला वापिस पाने का सपना. इस सपने का बोझ अब उनके वारिस के कंधो पर था. महाराणा प्रताप के बाद अमर सिंह अगले महाराणा बने. इसके अगले ही साल अकबर ने लाहौर से वापसी की. मेवाड़ फ़तेह का ख़्वाब एक बार फिर उनके दिल में था. मुगलों और मेवाड़ की जंग पीढ़ियों पर उतरने वाली थी. सामना होना था महाराणा अमर सिंह और शहजादे सलीम का. (Jahangir)
महाराणा और अकबर के बेटों में जंग
राम वल्लभ सोमानी की किताब, हिस्ट्री ऑफ मेवाड़ के अनुसार, साल 1599 में शहजादे सलीम ने मेवाड़ पर चढ़ाई शुरू की. मुगलों की ताकत मेवाड़ से काफी ज्यादा थी. इसका उन्हें फायदा हुआ. और उन्होंने कई राजपूत थानों पर कब्ज़ा कर लिया. हालांकि जंगल और पहाड़ियों में युद्ध करने से मुग़ल सेना बचती रही. वहां राजपूत उन पर सवा बैठते थे. महाराणा से धीरज धरते हुए लड़ाई को लम्बा खींचा. और एक बार फिर हारे क्षेत्रों को वापिस हासिल कर लिया. शहजादा सलीम में धीरज नहीं था. वही शहज़ादा सलीम जिन्हें बाद में मुग़ल बादशाह जहांगीर के रूप में जाना गया. उन्होंने मेवाड़ में सर खपाने के बजाय बंगाल जाने का फैसला किया. हालांकि जल्द ही वहाँ से उनकी वापसी हुई.
1603 में सलीम पहले से भी ज़्यादा बड़ी मुग़ल फौज लेकर मेवाड़ की ओर रवाना हुए. अकबर का मेवाड़ विजय का ख़्वाब पूरा करने का ये आख़िरी मौका था. इस बार सलीम के साथ कई कच्छवाहा सरदार भी थे. महाराणा सलीम के आने का इंतज़ार कर रहे थे. ऐन मौके पर पता चला कि मुग़ल फौज फतेहपुर में ही रुक गयी है. ये वो दौर था, जहां से मुगलिया सल्तनत में ‘तख़्त या ताबूत’ की कहावत शुरू होती है. (Mughal Mewar Campaign)
मेवाड़ कैम्पेन के दौरान सलीम के दिल में बगावत घर कर चुकी थी. वजह थी उनका अपना बेटा, खुसरौ मिर्ज़ा. अकबर चाहते थे कि सलीम के बजाय खुसरौ बादशाह बने. इतिहास गवाह है कि उनके संबंध अपने बेटे सलीम से तनातनी भरे थे. सलीम को ये बात हरगिज़ गवारा नहीं थी. मेवाड़ जाते हुए भी उनकी एक नजर आगरे पर लगी थी.
फतेहपुर पहुंचने के बाद उन्होंने मेवाड़ पर आक्रमण करने के बजाय अकबर को सन्देश भिजवाया कि जंग के लिए कुछ और फौजी दस्ते और रक़म भेजी जाए. अकबर ने सलीम की मांग नहीं मानी तो वो इलाहबाद की ओर निकल लिए. और अकबर का आखिरी मेवाड़ कैम्पेन धरा का धरा रह गया. दो साल बाद, अकबर की मृत्यु हो गई. सलीम गद्दी पर बैठे. अब उनका नाम जहांगीर था.
जो पिता नहीं कर पाया, वो बेटे ने किया
तख्तनशीं होते ही जहांगीर ने सबसे पहले मेवाड़ के घुटने टिकाने की सोची. तुज़ुक-ए-जहांगीरी में वो लिखते हैं,
“मेरे पिता के समय में भी कई बार राणा पर सेनाएं भेजी गई थीं किंतु उसने हार नहीं खाई थी. बादशाह बनते ही मैंने अपने बेटे शहजादे परवेज़ को एक बड़ी फौज, भारी खज़ाने और कई तोपों के साथ भेजा”.
जहांगीर ने कई नामचीन सरदारों को परवेज़ के साथ भेजा. बादशाह ने परवेज़ से कहा था, अगर राणा मिलने और मातहत में रहना स्वीकार कर ले तो मुल्क को मत बिगाड़ना. जहांगीर को लगा था, इतनी बड़ी सेना देखकर महाराणा अमर सिंह संधि के लिए तैयार हो जाएंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महाराणा ने अपने पिता की तरह छापामार हमले किए. एक लम्बी लड़ाई के दौरान मुग़ल सेना ने मेवाड़ की जमीन को रौंद डाला लेकिन महाराणा को पकड़ने में नाकाम रहे.

इस नाकामी से जहांगीर इतने नाराज हुए कि उन्होंने परवेज़ को युवराज पद से ही हटा दिया. इसके बाद जहांगीर ने एक और चाल चली. उन्होंने महाराणा अमर सिंह के चाचा सगर सिंह को मेवाड़ के मुग़ल कब्ज़े वाले हिस्सों का सरदार बना दिया. चाल ये थी कि ऐसा करते ही मेवाड़ के सरदार अमर सिंह को छोड़कर सगर सिंह के साथ आकर मिल जाते. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मेवाड़ के सरदार वफादारी निभाते रहे.
नाकाम कोशिशें
1605 से 1615 के बीच जहांगीर ने लगातार मेवाड़ की तरफ लश्कर भेजे. साल 1608 में 2000 बन्दूकचियों के साथ महाबत खां ने हमला किया. महाराणा के आदेश पर इस बार मोर्चा संभाला एक बहादुर राजपूत सरदार मेघसिंह ने. महाबत खां की हार हुई. महाबत के बाद अब्दुल्ला खां आया. उसे कुछ सफलता मिली. जिससे खुश होकर बादशाह ने उसे पांच हजारी मनसबदार बना दिया. साल 1611 आते-आते उसके भी पांव उखड़ गए और उसे गुजरात भेज दिया गया.
अगला नंबर आया पहाड़ी राजा बासु का. लोककथाओं के अनुसार राजा बासु के मेवाड़ से अच्छे रिश्ते थे. और एक बार महाराणा अमर सिंह ने एक पुरोहित के हाथों मीराबाई की पूजी हुई एक मूर्ति भी दान में दी थी. इसके बावजूद जहांगीर के कौल पर बासु ने मेवाड़ फ़तेह की कोशिश की. यहां भी नतीजा सिफर रहा. आख़िरी मौका मिला मिर्जा अजीज कोका को. इस बार भी इतिहास ज्यों का त्यों रहा.
लगातार मिल रही नाकामी से जहांगीर खिसिया गए थे. अंत में उन्होंने कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया. तुज़ुक-ए-जहांगीरी में वो लिखते हैं,
“हर काम का एक वक्त होता है, जब होना होता है, तभी काम होता है. मुझे ख़याल आया कि आगरा में मुझे कोई काम नहीं है और मेरे गए बिना मेवाड़ का काम ठीक से नहीं होगा. मैंने राणा को अपने रुतबे का एहसास कराने के लिए आगरा से अजमेर जाने का फैसला किया”.
आख़िरी जंग
पिछली बार जब जहांगीर ने मेवाड़ पर हमला किया था, वो शहजादे थे. इस बार वो अपने शहजादे खुर्रम को साथ लेकर आए थे. आगे जाकर उनका नाम शाहजहां पड़ा. जहांगीर ने पिछली बार हार का मुंह देखा था. लेकिन इस बार वो हार बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. इसलिए सावधानी बरतते हुए उन्होंने खुर्रम को आगे भेजा और खुद अजमेर में रुक गए. इस बार मुग़ल सेना पिछले सभी हमलों से ज्यादा ताकतवर थी. मुग़ल सल्तनत के मातहत आने वाले सभी राजा, सरदार साथ में भेजे गए थे. मुगलों की तैयारी पूरी थी. छापामार हमलों से बचने के लिए मोर्चे बनाए गए. और महाराणा की राजधानी को चारों ओर से घेर लिया गया. मेवाड़ के लिए ये अपने अस्तित्व को बचाए रखने की आखिरी जंग थी.

खुर्रम ने अपनी सेना को चार हिस्सों में बांटा और मेवाड़ पर हमले का आदेश दिया. मुग़ल सेना चावण्ड की तरफ बढ़ी और राजधानी को अपने कब्ज़े में ले लिया. खुर्रम में एक-एक कर उत्तरी मेवाड़ के सारे थाने कब्ज़ा लिए और महाराणा को दक्षिण में सीमित कर दिया. महाराणा ने रात में होने वाली छापामार युद्ध का सहारा लिया. लेकिन इस तरह जीतने की संभावना न के बराबर थी. ज्यादा से ज्यादा वो मुग़ल सेना को नुकसान पहुंचा सकते थे. मेवाड़ के जमींदार मुगलों की कैद में जाते जा रहे थे. वहां उन्हें शर्मिंदा किया जाता. दो साल तक लड़ाई यूं ही चलती रही. अंत में जब राजपूत सेना की जान के लाले पड़ने लगे, कुछ सरदारों ने अपने तई खुर्रम के पास संधि प्रस्ताव भेजा. जहांगीर को मुंह-मांगी मुराद मिल गई थी.
वो लिखते हैं-
“मैंने राणा को माफ़ कर दिया. और मलमल में लपेट कर एक शाही फरमान भिजवाया.”
संधि की शर्तें
कर्ण सिंह ने ये फरमान महाराणा को दिखाया. इसे देखकर अंत में मरे मन से महाराणा अमर सिंह संधि को तैयार हो गए. फरवरी 1615 में कर्ण सिंह ने खुर्रम से मिलकर संधि की शर्तें तय की. मेवाड़ ने मुगलों के मातहत आना स्वीकार कर लिया. लेकिन अपने लिए कई छूट भी ले लीं. जो शर्तें मानी गई, वो कुछ यूं थीं.
1-बाकी रियासतों की तरह महाराणा कभी मुग़ल दरबार में पेश नहीं होंगे. उनकी तरफ से उनका प्रतिनिधि जाएगा. मेवाड़ के 10 घुड़सवार शाही सेना में शामिल होंगे.
2- मेवाड़ और मुगलों के बीच शादी ब्याह के रिश्ते नहीं होंगे.
3- महाराणा को चित्तौड़ मिल जाएगा लेकिन चित्तौड़ के दुर्ग की मरम्मत नहीं करवाई जाएगी.
तीसरी शर्त की वजह ये थी कि कई दशक पहले अकबर ने चित्तौड़ का किला जीता था. लेकिन इस जीत में मुग़ल सेना के पसीने छूट गए थे. इसलिए उन्हें डर था कि मरम्मत होने पर आगे उनके खिलाफ इसका इस्तेमाल किया जा सकता है.
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इस संधि के बाद कुंवर कर्ण सिंह ने जहांगीर से भी मुलाक़ात की. जहांगीर के काल में भारत आए एक ब्रिटिश राजदूत सर थॉमस रो के अनुसार - ‘बादशाह ने कर्णसिंह को भीतर बुलाकर अपनी छाती से लगाया.’

इस मौके पर जहांगीर ने मेवाड़ के लिए कई तोहफे भी भिजवाए. इनमें एक रत्न जड़ी हुई कटार और उम्दा नस्ल का इराकी घोड़ा भी था. साथ में मोतियों की माला, अंगूठियां, बर्तन आदि तोहफे भी मेवाड़ भिज़वाए गए. कर्णसिंह को पांच हजारी मनसबदार नियुक्त किया गया. संधि के तहत मेवाड़ को काफी रियायत मिली थी. उन पर बाकी रियासतों जैसी पाबंदी भी नहीं थी. इसके बावजूद महाराणा अमर सिंह के लिए ये गहरा सदमा था. उन्होंने राजकाज कर्ण सिंह को सौंप दिया. और खुद एकांतवास में चले गए.
इस संधि के 5 साल बाद 26 जनवरी 1620 के रोज़ उनकी मृत्यु हो गई. मुगलों के साथ संधि के चलते महाराणा अमर सिंह को इतिहास में कई आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है. लेकिन ये भी सच है कि उनकी वीरता अद्वितीय थी. मुगलों के सामने अनोखा साहस दिखाने के चलते उन्हें चक्रवीर की उपाधि मिली थी. चित्तौड़गढ़ युद्ध के बाद जैसे अकबर ने जयमल और पत्ता की मूर्तियां अपने महल के आगे लगवाई थीं. उसी प्रकार जहांगीर ने महाराणा अमरसिंह तथा कुंवर कर्णसिंह की मूर्तियां बनवाकर आगरा के किले में लगवाईं.
सर टॉमस रो के अनुसार, जहांगीर ने मेवाड़ को अपने अधीन किया लेकिन जीतकर नहीं. इससे मुगलों की आय में कोई बढ़त नहीं हुई बल्कि उल्टा उन्हें बहुत कुछ देना पड़ा था.
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