लेकिन बॉल तो प्रत्यक्ष है. इसे प्रमाण की ज़रूरत नहीं. आप, मैं, हर कोई बॉल को देखकर उसके बारे में जान सकता है. लेकिन जानने का एक और तरीक़ा हो सकता है. जिसे अनुमान कहते हैं. जैसे मान लीजिए हम आपसे कहें, पहाड़ के पीछे आग लगी है. ना आप इसे देख पा रहे हैं. ना हम. तो आप पूछेंगे, तुम कैसे कह सकते हो कि पहाड़ के पीछे आग लगी है? तो हम जवाब देंगे, धुएं को देखकर. और आप मान जाएंगे. तीसरा व्यक्ति लेकिन एक तीसरा व्यक्ति आकर इस पर भी सवाल खड़ा कर सकता है. वो कहेगा, तुम्हें कैसे पता किसी ने पहाड़ के पीछे स्मोक बॉम्ब नहीं फोड़ा है? क्या पता वहां कोई रियल लाइफ़ पबजी खेल रहा हो. और क्या ये भी सही नहीं कि बिना धुएं के बिना भी आग हो सकती है? जैसे कि हमारे किचन की गैस. आप कितने भी तर्क दें. उस व्यक्ति को संतुष्ट करने के एक ही तरीक़ा है. वो ये कि आप पहाड़ के पीछे जाकर उसे आग के दर्शन करा दें.
स्पेस में आप ऐसा कर सकते हैं. लेकिन टाइम में नहीं. मान लो आग बुझ गई. तब आप पहुंचे. अब वहां धुआं तो है. लेकिन आग नहीं. आप कह सकते है कि भाई कुछ देर पहले यहां आग रही होगी. लेकिन वक्त में पीछे जाकर इस बात को दिखा नहीं सकते. यहीं पर एंट्री होती हैं कॉन्सपिरेसी थियरी की.
साल 2015 में क़ेंद्र और बंगाल राज्य सरकार ने नेताजी की मृत्यु से जुड़ी फ़ाइल्स पब्लिक के लिए रिलीज़ की (फ़ाइल फोटो)
भारत में दो कॉन्सपिरेसी थियरी सबसे मशहूर या कहें की आम हैं. एक ये कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु प्लेन दुर्घटना में नहीं हुई. और दूसरी ये कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु नहीं नेचुरल थी. बल्कि उनकी हत्या की गई थी. किसी भी थियरी को प्रैक्टिकल में बदलने के लिए ज़रूरत होती है सबूत की. और सबूत हैं वो दस्तावेज जो भारत सरकार के पास हैं.
2015 में भारत सरकार ने नेताजी से जुड़े कुछ दस्तावेज़ों को पब्लिक किया. जिससे नेताजी की मृत्यु को लेकर कुछ खास पता नहीं लग पाया. शास्त्री जी की मृत्यु को लेकर सबसे आसान हल था, उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट. लेकिन सरकार के अनुसार पोस्टमार्टम कराया ही नहीं गया. यानी ना अपने पास प्रत्यक्ष प्रमाण है. और ना ही अनुमान लगाने का ज़रिया. तब जानने का एक तीसरा साधन अपनाना पड़ता है. वो है टेस्टिमनी. यानी तब मौजूद लोगों के बयान. और आसपास के हालात. पहले जानते हैं कि तब के हालात क्या थे. 1965 युद्ध के बाद 1965 का भारत-पाक युद्ध. भारत लाहौर के मुहाने पे था. जनरल जे.एन. चौधरी ने PM लाल बहादुर शास्त्री को जानकारी दी कि भारत का गोला बारूद ख़त्म होने वाला है. युद्ध वहीं रोक दिया गया. 5 अगस्त के एपिसोड में हमने आपको इस बारे में विस्तार से बताया था. डिस्क्रिप्शन में जाकर लिंक चेक कर सकते हैं.
भारत के प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री, पाकिस्तान के राष्ट्रपति मुहम्मद अयूब खान और सोवियत प्रधान मंत्री अलेक्सी कोश्यिन की ताशकंद सम्मेलन के दौरान 10 जनवरी, 1966 को रिलीज़ की गई तस्वीर. (AFP)
युद्ध विराम घोषित हुआ. सवाल उठा कि आगे बात कैसे बढ़े. तो आगे आया सोवियत संघ. मध्यस्थता के लिए. तय हुआ कि जनवरी 1966 में ताशकंद में बैठक होगी. ताशकंद उज्बेकिस्तान में आता है. उस समय ये सोवियत संघ का हिस्सा था. इसके बाद अयूब जनवरी 1966 के पहले हफ्ते में ताशकंद पहुंचे. यहां उनकी मुलाकात हुई लाल बहादुर शास्त्री से. वही शास्त्री, जिन्हें ‘बौना’ कहकर अयूब उनका मजाक उड़ाया करते थे. वही शास्त्री, जिनके बारे में अयूब ने कहा था-
"मैं तो उसके ऊपर थूकना तक पसंद नहीं करूंगा."10 जनवरी को ताशकंद में समझौता हुआ. जिसके तहत पाकिस्तान को हाजी पीर और ठिथवाल वापस कर कर दिया गया था. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर भी ताशकंद में मौजूद थे. BBC को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने इस बाबत एक किस्सा बताया.
समझौते के बाद प्रधानमंत्री ने अपने घर फ़ोन मिलाया. फ़ोन उनकी बेटी ने उठाया. तो शास्त्री जी ने कहा, अम्मा को फोन दो. तब उनकी बड़ी बेटी ने जवाब दिया, अम्मा फोन पर नहीं आएंगी. शास्त्री जी ने पूछा क्यों? जवाब आया इसलिए क्योंकि आपने हाजी पीर और ठिथवाल पाकिस्तान को दे दिया. वो बहुत नाराज हैं. लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु इसके बाद शास्त्री कुछ देर अपने कमरे का चक्कर लगाते रहे. और फिर उन्होंने उन्होंने अपने सचिव वैंकटरमन को बुलाया. उनसे कहा, पता लगाओ, भारत से और क्या प्रतिक्रिया आ रही हैं? वैंकटरमन ने उन्हें दो बयानों के बारे में बताया. एक अटल बिहारी वाजपेयी का और दूसरा कृष्ण मेनन का. दोनों ने ही उनके इस फैसले की आलोचना की थी.
ताशकंद समझौते के समय की तस्वीर. लालबहादुर शास्त्री और अयूब खान, दोनों साथ खड़े हैं. इस तस्वीर के कुछ ही घंटों बाद शास्त्री की मौत हो गई. फाइल.
इसके बाद शास्त्री जी ने खाना खाया. और सब सोने चले गए. रात डेढ़ बजे पता चला कि शास्त्री जी चल बसे. डॉक्टर ने बताया कि उन्हें हार्ट अटैक आया था. क़रीब दो बजे पाकिस्तान के फॉरेन सेक्रेटरी अजीज अहमद ने ज़ुल्फ़िकार भुट्टो को फ़ोन लगाया. भुट्टो जो आधी नींद में थे, उन्होंने फोन उठाया और पूछा, कौन. दूसरी तरफ़ से जवाब आया, ‘दैट बास्टर्ड इज डेड’. भुट्टो ने सिर्फ़ इतना कहा, दोनों में से कौन? हमारा वाला या उनका वाला? और दुबारा सो गए.
शास्त्री जी का पार्थिव शरीर भारत लाया गया. जहां उनकी अंत्येष्टि की गई. लगा कि मामला ख़त्म. लेकिन भारत के प्रधानमंत्री की मृत्य हुई थी. वो भी KGB के गढ़ में. ये बात आसानी से शांत होने वाली नहीं थी. कोल्ड वॉर के दिन थे. ताशकंद समझौते पर अमेरिका भी नज़रें गढ़ाए बैठा था.
फिर शुरू हुआ बवाल. शास्त्री जी के परिवार ने आरोप लगाए कि शास्त्री जी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं हुई थी. मुद्दा उठा कि उनका शरीर नीला पड़ चुका था. और शरीर में कई जगह चकत्ते भी पड़े थे. एक और बात सामने आई. वो ये कि उनके शरीर पर कुछ जगह चोट के निशान थे. कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब ‘बियोंड द लाइन' में लिखते हैं,
उस रात मैं सो रहा था, अचानक एक रूसी महिला ने दरवाजा खटखटाया. उसने बताया कि आपके प्रधानमंत्री मर रहे हैं. मैं जल्दी से उनके कमरे में पहुंचा. मैंने देखा कि रूसी प्रधानमंत्री एलेक्सी कोस्गेन बरामदे में खड़े हैं, उन्होंने इशारे से बताया कि शास्त्री नहीं रहे. शास्त्री जी को ज़हर दिया गया था? शास्त्री को जहां ठहराया गया था, वो काफी बड़ा कमरा था. उसमें लगा था एक बड़ा सा बिस्तर. जिसके ऊपर शास्त्री लेटे पड़े थे. फर्श पर कालीन बिछा था. उसके ऊपर शास्त्री की चप्पल रखी हुई थी. देखकर लगता था, मानो इस्तेमाल ही न हुई हों. कमरे के एक ओर एक ड्रेसिंग टेबल था. उसके ऊपर एक थर्मस रखा था, औंधे मुंह पलटा हुआ. शायद शास्त्री जी ने उसे खोलने की कोशिश की थी. आमतौर पर ऐसे कमरों में घंटी लगी होती है. ताकि कमरे में ठहरे इंसान को कोई जरूरत हो, तो वो घंटी बजाकर किसी को बुला सके. मगर शास्त्री जी के कमरे में कोई घंटी भी नहीं थी.
ताशकंद में मृत अवस्था में शास्त्री जी का शरीर रखा हुआ (तस्वीर: Lal Bahadur Shastri Memorial )
एक थियरी ये है कि शास्त्री जी को ज़हर दिया गया था. इस दावे के समर्थन में कुछ लोग खाने की तरफ़ इशारा करते हैं. आम तौर पर शास्त्री जी के लिए भोजन उनके निजी सहायक रामनाथ बनाते थे. लेकिन उस दिन खाना सोवियत रूस में भारतीय राजदूत टीएन कौल के कुक जान मोहम्मद ने पकाया था. खाना खाकर शास्त्री सोने चले गए थे. उनकी मौत के बाद शरीर के नीला पड़ने पर लोगों ने आशंका जताई थी कि शायद उनके खाने में जहर मिला दिया गया था.
शास्त्री जी की मृत्यु आज ही के दिन यानी 11 जनवरी 1966 को डेढ़ बजे के आसपास हुई थी. शास्त्री के पार्थिव शरीर को भारत भेजा गया. शव देखने के बाद उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने दावा कि उनकी मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई है. अगर दिल का दौरा पड़ा तो उनका शरीर नीला क्यों पड़ गया था और सफेद चकत्ते कैसे पड़ गए. शास्त्री का परिवार उनके असायमिक निधन पर लगातार सवाल खड़ा करता रहा. 2 अक्टूबर, 1970 को शास्त्री के जन्मदिन के अवसर पर ललिता शास्त्री उनके निधन पर जांच की मांग की. राज नारायण कमिटी 1977 में जनता पार्टी सरकार में आई. उन्होंने जांच के लिए राज नारायण कमिटी का गठन किया. पूछताछ के लिए शास्त्री जी के निजी डॉक्टर आरएन चुघ को बुलाया जाना था. लेकिन उससे पहले ही एक सड़क हादसे में परिवार सहित उनकी मौत हो गई.
भारत में शास्त्री जी का पार्थिव शरीर (तस्वीर: लाइफ़ मैगज़ीन)
शास्त्री जी के निजी सहायक रामनाथ के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. उनकी भी एक सड़क हादसे में याददाश्त चली गई. ये दोनों लोग शास्त्री के साथ ताशकंद के दौरे पर गए थे. राज नारायण कमिटी की रिपोर्ट का क्या हुआ. किसी को नहीं पता. आज तक इसे पेश नहीं किया गया है.
साल 2009 में 'CIA’s आई ऑन साउथ एशिया' के लेखक अनुज धर ने इस मामले में एक RTI ऐप्लिकेशन डाली. PMO ने सिर्फ़ एक हिस्से का जवाब देते हुए बाकी सवालों को गृह मंत्रालय के पास भेज दिया. PMO से जो जवाब मिला उसके अनुसार शास्त्री जी की मृत्यु पर एक क्लासीफाइड दस्तावेज मौजूद था. लेकिन उसका खुलासा नही किया गया. ये कहते हुए कि इससे फ़ॉरेन रिलेशन पर असर पड़ सकता है.
गृह मंत्रालय ने RTI का बाकी हिस्सा दिल्ली पुलिस के पास भेजा. दिल्ली पुलिस के सेंट्रल पब्लिक इन्फ़ॉर्मेशन ऑफ़िसर, CPIO ने बताया, “पूर्व प्रधान मंत्री की मृत्यु से जुड़ी कोई भी जानकारी उनके पास नहीं है.” शास्त्री जी एक नोट छोड़कर गए थे! साल 2018 में एक बार दुबारा ये मुद्दा उठा. जब सेंट्रल इन्फ़ॉर्मेशन कमीशन, CIC ने PMO को निर्देश दिया कि शास्त्री जी की मृत्यु से जुड़े दस्तावेज पब्लिक को उपलब्ध कराए जाएं. CIC ने राज नारायण कमिटी की रिपोर्ट भी पब्लिक करने की बात कही. सरकार ने जवाब दिया कि आरटीआई अधिनियम की धारा 8 (1) (ए) के तहत ये दस्तावेज क्लासीफाइड हैं. इसलिए पब्लिक को नहीं दिए जा सकते.
लाल बहादुर शास्त्री और उनकी पत्नी ललिता शास्त्री (फ़ाइल फोटो)
तब CIC ने एक और निर्देश दिया कि रिपोर्ट को सीलबंद लिफाफे में पेश किया जाए. ताकि यह फैसला हो सके कि रिपोर्ट में से क्या रिलीज़ किया जा सकता है और क्या नहीं. मामला वहीं अटका रहा. और दस्तावेज अभी तक यानी साल 2022 तक पब्लिक में नहीं आ पाए हैं.
साल 2018 में ही शास्त्री जी के छोटे बेटे अशोक की पत्नी नीरा शास्त्री ने एक और दावा किया. उन्होंने बताया कि शास्त्री जी एक ग्लास केस में नोट छुपाकर छोड़ गए थे. जिसे उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने देखा था. नीरा के अनुसार इस नोट में लिखा था कि एक लोकल रसोईये ने उन्हें दूध दिया, जिसके बाद उनकी तबीयत बिगड़ी. नीरा शास्त्री के अनुसार ये बात ललिता शास्त्री से उन्हें खुद बताई थी. PM शास्त्री को बचाया जा सकता था? इस मामले में कुछ बातें विदेशी मीडिया में भी उछली. 1991 में सोवियत के विघटन के बाद की बात है. वहां की एक मैगजीन ने एक पूर्व केजीबी (सोवियत की खुफिया एजेंसी) अधिकारी के हवाले से बताया था. इसके मुताबिक-
केजीबी ताशकंद पहुंचे भारतीय और पाकिस्तान प्रतिनिधिमंडल, दोनों पर नजर रख रहा था. ये देखने के लिए समझौते के लिए कौन कितना गंभीर है. कौन कितना आगे बढ़ने को राजी है. जब शास्त्री को अपने कमरे में दिल का दौरा आया, तब केजीबी एजेंट्स ये देख रहे थे. वो चाहते, तो वक्त रहते शास्त्री को इलाज मिल सकता था. मगर उन्होंने किसी को अलर्ट नहीं किया. उन्हें लगा कि अगर वो ये बात बताएंगे, तो सबको पता चल जाएगा. कि वो शास्त्री की जासूसी कर रहे थे.
ताशकंद में शास्त्री जी के पार्थिव शरीर को कंधा देते अयूब ख़ान (तस्वीर: thefridaytimes)
शास्त्री जी की मृत्यु का केस हल करने के सबसे आसान तरीक़ा होता उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट. और यहीं पर सबसे बड़ा पेंच फंसा. MEA के अनुसार ना ताशकंद में उनका पोस्टमार्टम करवाया गया. ना भारत लौटकर. अगर सही तरीक़े से चीजें की गई होती. और उस समय पोस्टमार्टम कराया गया होता तो उनके निधन का असली कारण पता चल जाता. और इतना बड़ा मसला बनता ही नहीं.
बहरहाल केस अनसुलझा ही रहा. और आज तक अनसुलझा ही है. देश के प्रधानमंत्री की मृत्यु एक गम्भीर मसला ना रहकर गॉसिप का हिस्सा बनकर रह गई है. होना तो ये चाहिए था कि सरकार इससे जुड़े सभी दस्तावेज पेश कर मुद्दे को फ़ाइनल करती. लेकिन इसके बजाय ये बात उन लोगों के हाथ में चली गई है, जो कोविड को साधारण जुकाम और वैक्सीन को बिल गेटस की साज़िश मानती है. अपन तो यही कहेंगे कि मानो नहीं जानो. निष्कर्ष पहले से निकले हुए हैं तो चाहे जितना धुआं दिखा लो. कहने वाले यही कहेंगे कि पबजी का स्मोक बॉम्ब भी तो हो सकता है. यासर अराफ़ात की मृत्य या हत्या? जाते जाते आपको एक और ऐसा ही किस्सा बताते चलते हैं. जब साल 2004 में फ़िलिस्तीन के नेता यासर अराफ़ात की मृत्य हुई थी. अराफ़ात फ़िलिस्तीन के बड़े नेता थे. खबरें उड़ी कि साज़िश के तहत उनकी हत्या हुई है. मोसाद की तरफ़ उंगली उठी. अराफात के शव का कोई पोस्टमार्टम नहीं किया गया था. क्योंकि उनकी पत्नी की तरफ़ से ऐसी कोई मांग नहीं की गई थी.
यासर अराफ़ात और उनकी पत्नी (तस्वीर: Getty)
लेकिन फिर 2012 में अल-ज़जीरा टीवी ने स्विट्जरलैंड विशेषज्ञों के साथ मिलकर एक पड़ताल शुरू की. एक नई बात सामने आई. वो ये कि उनकी इस्तेमाल की गई चीजों पर पोलोनियम- 210 का असामान्य स्तर उपस्थित है. तब उनकी पत्नी सुहा अराफात ने अराफ़ात की कब्र से उनका शव निकाल कर उसकी गहन जांच की मांग की. शव के अवशेष लेकर फ्रांस, रूस और स्विस एजंसियों ने औपचारिक जांच पड़ताल शुरू की.
स्विस एज़ंसी ने 2013 में ये कहकर हड़कम्प मचा दिया कि मौत पोलोनियम- 210 से ही हुई है. हालांकि रूस और फ़्रांस की एंजसी ने इससे इनकार करते हुए मृत्यु का कारण नेचुरल बताया. बाद में डेटा का मिलान किया गया. और तब स्विट्जरलैंड विशेषज्ञों की टीम ने भी अपना बयान वापस ले लिया. और रूस और फ़्रांस की बात से सहमति जताई. केस क्लोज़ हो गया लेकिन कॉन्सपिरेसी थियरी नहीं. मानने वाले आज भी मानते हैं कि अराफ़ात की हत्या की गई थी. और इसमें मोसाद से लेकर CIA तमाम ख़ूफ़िया एजंसियों को हाथ था.