1944 का साल. अक्टूबर का महीना. लाहौर से बैंगलोर पहुंचा एक युवक रेलवे स्टेशन पर लोगों से हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड , HAL का रास्ता पूछ रहा था. HAL की शुरुआत 1940 में सेठ वालचंद हीराचंद ने की थी. शुरुआत में इसका नाम हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड था. और यहां प्लेन बनाने का काम होना था. लेकिन फिर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान को काउंटर करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने इसका टेक ओवर कर लिया. युद्ध के दौरान रॉयल एयरफोर्स के कारनामों के चलते HAL एक एलीट संस्थान के रूप में उभरा. इंजीनियरिंग के छात्रों के लिए तब एरोनॉटिक्स का वही रुतबा था, जो 21 वीं सदी में कम्प्यूटर का है. बैंगलोर स्टेशन पर खड़ा वो युवक भी इन्हीं इंजीनियरिंग के छात्रों में से एक था. बैंगलोर कैंट के पास PG लेने के बाद वो एक रोज़ HAL की बिल्डिंग में गया. यहां उसे इंटर्नशिप का काम मिला. यहीं काम करते हुए साल 1945 में उसे एक सरकारी योजना का पता चला.
जब डॉक्टर कलाम को बचाने आगे आए सतीश धवन!
ISRO और IISc जैसे संस्थानों को हेड करने वाले डॉक्टर सतीश धवन का निधन 3 जनवरी, 2002 को हुआ था.
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भारत आजाद होने वाला था. कुछ दूरदर्शी नीति निर्माताओं को अहसास हुआ कि एक नए आजाद हुए देश को लेटेस्ट टेक्नोलॉजी में दीक्षित लोगों की जरुरत पड़ेगी. एक स्कालरशिप प्रोग्राम के तहत कुछ लोगों को अमेरिका ब्रिटेन जाकर सीखने का मौका मिला. उनमें से एक वो युवक भी था. लाहौर से शुरू हुई यात्रा अब अमेरिकी की ओर अग्रसर थी. जिसका अगला पड़ाव अमेरिका का कैलिफोर्निया शहर था. युवक कैलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में एडमिशन लेना चाहता था. लेकिन कैलटेक ने एडमिशन देने से इंकार कर दिया. इसके बाद उस युवक ने मिनेसोटा विश्वविद्यालय में मास्टर्स ऑफ एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में दाखिला लिया. 1947 में उसे कैलटेक जाने का मौका मिला.
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कैलटेक में उस दौर में एक टीचर हुआ करते थे. हान्स लीपमैन. लीपमैन का इंजीनियरिंग की दुनिया में बड़ा नाम था. लीपमैन को जैसे ही पता चला कि एक भारतीय युवक उनसे मिलना चाहता है, उन्होंने मुलाक़ात से इंकार कर दिया. कारण ये कि लीपमैन अपने पिछले भारतीय छात्र से बहुत निराश थे. वो छात्र टूल्स इस्तेमाल करना और अपने हाथों से काम करना अपनी तौहीन समझता था. जिसके चलते लीपमैन भारतीयों से खासे खफा थे. हालांकि उस नए युवक ने कई बार कोशिशें की. और अंत में लीपमैन उसे छात्र की तरह लेने के लिए तैयार हो गए. छात्र और गुरु का ये रिश्ता जल्द ही दोस्ती में बदला और ताउम्र कायम रहा.
लीपमैन ने हाथों से काम करना सिखाया था. और इन्हीं हाथों की बदौलत इस शख़्स ने भारत को आसमान तक पहुंचा दिया. इस शख़्स का नाम था प्रोफ़ेसर सतीश धवन (Satish Dhawan). भारत जब भी कोई सैटेलाइट लॉन्च करता है, धवन का नाम आपको सुनाई दिया होगा. धवन ISRO के निदेशक रहे थे. ISRO के जिन नन्हें क़दमों की शुरुआत विक्रम साराभाई ने की थी, धवन ने उन्हें एक तेज़ रफ़्तार दौड़ में बदला. इस एक संस्थान में उनका योगदान ही उन्हें भारत के महान वैज्ञानिकों की श्रेणी में शामिल कर देता है. लेकिन धवन ऑक्टोपस की भांति थे. एक ही समय पर वो ISRO और IISC दोनों संस्थानों को हेड किया करते थे. वहीं हवाई उड़ान की बारीकियों को समझाते समझाते शेक्सपियर को कोट कर देते थे. कभी वक्त मिला तो पुलिकट बर्ड सैंक्चुअरी में पक्षियों की उड़ान निहारा करते थे. और उन्हें देखते हुए भी ऐरोडायनामिक्स का पूरा तिया पांचा लिख दिया करते थे. इतना ही नहीं देश को डॉक्टर कलाम देने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. क्या थी वैज्ञानिक सतीश धवन की कहानी?
IISC का जिम्मा
साल 1951 में जब डॉक्टर धवन भारत लौटे, उनके आगे के प्लान्स में भारत में नए इंजीनियर तैयार करना था. उसी साल उन्हें इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, IISc में छात्रों को पढ़ाने का जिम्मा दिया गया. उस दौर में IISC में काम करने वाले इसे ‘द इंस्टिट्यूट’ के नाम से बुलाते थे. धवन की IISC में नियुक्ति का एक किस्सा है. धवन की PHD ट्रेनिंग गणित और फिजिक्स में थी. इसलिए जब उन्होंने IISC में अप्लाई किया, वहां के निदेशक ने उन्हें अलाहबाद विश्वविद्यालय भेज दिया, ये कहते हुए कि उनके ज्ञान का वहां बेहतर उपयोग होगा. अलाहबाद में उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. धवन एक डेस्क पर बैठे थे. एक के बाद एक लोग आकर उनसे सवाल पूछ रहे थे. उनमें से एक ने धवन के सामने एक ग्राफ रखा, और उनसे ग्राफ पर बनी रेखाओं को नाम देने को कहा. धवन कुछ देर बैठे सोचते रहे. इंटरव्यू लेने वाले को लगा, धवन को इसका जवाब नहीं पता. उसने धवन को तल्ख़ आवाज में कुछ बातें सुनाई. धवन चुपचाप सुनते रहे. जब सामने वाले की बातें ख़त्म हो गई. धवन ने सामने ग्राफ उल्टा कर दिया और महोदय को समझाया कि किताब से ग्राफ कॉपी करते हुए उन्होंने उसे उलटा छाप दिया है.

धवन जब IISC में पढ़ाते थे, उनके घर में एक युवक काम करता था. बी रमैया, जिसे प्यार से वो रामू कहकर बुलाते थे. अपने एक्सपेरिमेंट्स के लिए धवन को लकड़ी के कुछ सेट अप बनाने होते थे. इस काम को वो अपने हाथ से करते थे, और रामू इसमें उनकी मदद किया करता था. रामू की प्रतिभा देखते हुए धवन ने उन्हें अपने एक्सपेरिमेंट्स का हिस्सा बनाया. और आगे चलकर इन्हीं रामू के बेटे ने इलॉन मस्क की कंपनी स्पेस-एक्स में बतौर इंजीनियर नौकरी की. 1962 में धवन IISC के निदेशक नियुक्त हुए. अपने कार्यकाल में उन्होंने IISC में साइंस, मॉलीक्यूलर बायोफिजिक्स, सॉलिड स्टेट केमिस्ट्री, इकॉलॉजी और एटमॉसफेरिक साइंस जैसे विषयों में नए शोध कार्यक्रम शुरू किए.
ISRO की कमान संभाली
1971 में सतीश धवन ने आईआईएससी से थोड़ा सा विराम लिया. वे वापस कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी गए और शोध कार्य में रम गए. उसी साल दिसंबर में भारत के लिए एक बुरी खबर आई. अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई की मृत्यु हो गई. ISRO के निदेशक होने के साथ-साथ साराभाई प्रधानमंत्री के साइंटिफिक एडवाइजर भी थे. प्रधान सचिव पीएन हक्सर ने इंदिरा को ISRO के नए हेड के लिए डॉक्टर धवन का नाम सुझाया. वरिष्ठ वैज्ञानिक VP बालगंगाधरन अपनी किताब में बताते हैं कि शुरुआत में इंदिरा धवन को ये ऑफर नहीं देना चाहती थीं. इंदिरा ने कुछ वक्त पहले धवन को काउंसिल ऑफ साइंटिफिक रिसर्च, CSIR के डायरेक्टर जनरल, और रक्षा मंत्री के सलाहकार का पद ऑफर किया था, जिसे धवन ने ठुकरा दिया था. जिसके चलते इंदिरा धवन से नाराज चल रही थी. अंत में इंदिरा के सलाहकार प्रोफ़ेसर MGK मेनन ने इंदिरा को धवन के नाम पर राजी किया. इंदिरा ने धवन से फोन पर बात की. धवन पद संभालने के लिए राजी तो हो गए, लेकिन साथ में उनकी कुछ शर्ते भी थी. धवन ने तीन शर्तें रखी थीं.
पहली - वे IISC के निदेशक बने रहेंगे.
दूसरी- अंतरिक्ष अभियान का मुख्यालय अहमदाबाद से बेंगलुरु लाया जाए.
और तीसरी- लौटने से पहले उन्हें अमेरिका में वह शोध कार्य पूरा करने दिया जाए
इंदिरा तीनों शर्तों पर राजी हो गई. इस तरह 1972 में डॉक्टर धवन भारत लौटे और ISRO के तीसरे निदेशक बने. इस बीच ये पद कुछ समय के लिए प्रोफ़ेसर MGK मेनन ने संभाला था.
ISRO के निदेशक रहते हुए उन्होंने भारत के स्पेस प्रोग्राम को रफ़्तार दी. साथ ही ये सुनिश्चित किया कि ISRO एटॉमिक कमीशन से अलग रहे. ISRO को ब्यूरोक्रेसी से दूर रखने के लिए वो सैटेलाइट प्रोग्राम बैंगलोर लेकर आए. ISRO को रक्षा मंत्रालय से दूर रखने का ये फायदा हुआ कि भारत को फ्रांस आदि देशों से तकनीकी सहायता मिल पाई.
इसी दौर में उन्होंने भारत के लिए अगली पांत के वैज्ञानिकों को तैयार किया. इनमें से एक भारत के पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइल मैन, डॉक्टर अब्दुल कलाम भी थे. डॉक्टर कलाम, धवन के साथ काम करने के दौरान का एक किस्सा बताते हैं.

सतीश धवन ने लीडरशिप का सबक सिखाया
10 अगस्त, 1979 की बात है. SLV-3 के जरिए 40 किलो की सैटेलाइट लांच की जाने वाली थी. डॉक्टर कलाम इस प्रोजेक्ट के डॉयरेक्टर थे. डॉक्टर कलाम बताते हैं कि लांच होने में सिर्फ़ चंद सेकेंड का वक्त था, जब अचानक सामने कम्प्यूटर की स्क्रीन पर लांच कैंसिल करने का संदेश दिखाई दिया. आखिरी फ़ैसला डॉक्टर कलाम के हाथ में था. उन्होंने लांच जारी रखने का निर्देश दिया और सैटेलाइट सीधा बंगाल की खाड़ी में जा गिरा. कलाम बताते हैं कि ईधन सिस्टम में कुछ रिसाव हो रहा था, लेकिन उन्हें लगा इसका कोई असर नहीं होगा. उनका अनुमान ग़लत साबित हुआ. कलाम का ये पहला सैटेलाइट लांच था. जो फेल रहा था. अब प्रेस का सामना करने की बारी थी. कलाम बताते हैं कि वहां प्रेस में देश-विदेश के पत्रकार मौजूद थे, और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वो उनके सवालों का क्या जवाब देंगे. इतने में सतीश धवन वहां आए. प्रेस का सामना करने के लिए वो खुद आगे आए और कहा,
“हम असफल रहे! लेकिन मुझे अपनी टीम पर बहुत भरोसा है और मुझे विश्वास है कि अगली बार हम निश्चित रूप से सफल होंगे.”
कलाम बताते हैं कि इस बात से वो बहुत हैरान हुए. धवन ने असफलता का दोष अपने सर लेते हुए अपनी टीम को बचा लिया. इसके बाद 18 जुलाई, 1980 को एक बार फिर से लांच की कोशिश की गई. ये कोशिश सफल रही. इस बार धवन ने डॉक्टर कलाम को आगे करते हुए उन्हें प्रेस के सामने भेजा. कलाम बताते हैं कि लीडरशिप के मामले में धवन हमेशा नज़ीर पेश किया करते थे. हर सफलता का श्रेय टीम को मिलता था, जबकि असफलता वो अपने कंधों पर ले लिया करते थे.
डॉक्टर कलाम एक और किस्से का ज़िक्र करते हैं. श्री हरिकोटा में सैटेलाइट लांच सेंटर का निर्माण होना था. इस काम के लिए साइट और बिल्डिंग्स का प्लान डॉक्टर धवन को दिखाया गया. उन्होंने पाया कि इस काम के लिए उस इलाक़े के 10 हज़ार पेड़ों को काटा जाना था. धवन इसके लिए क़तई तैयार नहीं थे. कलाम लिखते हैं कि धवन को पेड़ों और पक्षियों से बहुत प्यार था. हर सुबह वो जंगल जाते थे, और वहां पक्षियों को देखा करते थे. हर किसी को पता था कि इस दौरान उनसे काम के लिए सम्पर्क ना किया जाए. पक्षियों की उड़ान उन्हें ख़ासी प्रभावित करती थी. इस विषय पर उन्होंने ‘हाउ बर्ड्स फ्लाई’ नाम की एक किताब भी लिखी थी. जिसमें पक्षियों की उड़ान के ऐरोडायनामिक्स को समझाया गया था.

बहरहाल श्रीहरिकोटा में पेड़ों को बचाने के लिए धवन ने टीम की दो घंटे तक मीटिंग की. और ज़्यादा से ज़्यादा पेड़ों को बचाने में कामयाब रहे. जो पेड़ काटे गए उनके बदले एक दूसरी जगह पर पेड़ लगाए गए. कलाम बताते हैं कि पहली बार ISRO के डायरेक्टर के ऑफिस से एक ऑफिसियल आर्डर जारी किया गया, जिसमें लिखा था,
“सीधे चेयरमैन के आदेश के बिना काम्प्लेक्स से एक पेड़ भी नहीं काटा जाएगा”
1984 तक धवन इसरो के निदेशक रहे. इस दौरान भारत ने सैटेलाइट लांच में अभूतपूर्व प्रगति करते हुए रिमोट सेंसिंग, संचार, मौसम आदि क्षेत्रों में अपनी शक्ति में इज़ाफ़ा किया. INSAT, PSLV, IRS जैसे सिस्टम तैयार हुए. जिन्होंने भारत को स्पेस रिसर्च की रेस में अग्रणी देशों में ला खड़ा किया. कमाल की बात कि इस दौरान उन्होंने ISRO से कोई तनख्वाह भी स्वीकार नहीं की. मात्र 1 रुपया प्रतीक के रूप में लेते रहे. हालांकि चिंता की कोई बात नहीं थी क्योंकि इस दौरान IISc से उन्हें नियमित तनख्वाह मिलती रही.
साल 2002 में आज ही के दिन यानी 3 जनवरी को डॉक्टर धवन का निधन हो गया था. जीते जी उन्हें पद्म भूषण, पद्म विभूषण जैसे नागरिक सम्मानों से नवाज़ गया. वहीं उनकी मृत्यु के बाद उनके सम्मान में श्रीहरिकोटा आंध्र प्रदेश में स्थित सैटेलाइट लांच सेंटर का नाम बदलकर प्रो. सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र कर दिया गया. डॉक्टर धवन की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए आज का एपिसोड यहीं पर समाप्त करते हैं.
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