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गोलियां रुकी, जब मरी हुई मां से दूध पीता बच्चा देखा

आदिवासियों का जलियांवाला जिसमें अंग्रेज़ों ने 1500 भीलों को मार डाला था.

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17 नवम्बर 1913 को मानगढ़ मे एक नरसंहार हुआ जिसे आदिवासी जलियांवाला कहा जाता है (सांकेतिक तस्वीर: SCMP)

एक मैदान. उसमें खड़े हजारों लोग. जिनमें औरतें और बच्चे भी हैं. उस मैदान में आता है एक हैवान और देता है आदेश गोली चलाने का. चीख-पुकार मच जाती है. खून की नदियों के बीच एक बच्चा दिखाई देता है. जो अपनी मरी हुई मां के सीने से दूध पीने की कोशिश कर रहा है. ये नजारा पढ़कर आपकी आखों के आगे एक मंजर घूम गया होगा. कानों में सुनाई दे रहा होगा बस एक ही नाम- जालियांवाला बाग़. बर्तानिया हुकूमत के हाथों पर जलियांवाला के खून के धब्बे सौ साल बाद भी उस जुल्म की गवाही देते हैं. जलियांवाला की मिट्टी से पैदा हुआ उधमसिंह -जिसने ब्रिटेन जाकर डायर का इन्साफ किया. पैदा हुआ एक भगत सिंह, जिसने जलियांवाला (Jallianwala Bagh) की मिट्टी हाथों में भरकर अहद उठाया कि अंग्रेज़ों को इस सरजमीं से उखाड़कर फेंक देगा. 

ये कहानियां हैं पंजाब के अमृतसर के जलियावालां बाग़ की. लेकिन जलियांवाला एक ही नहीं था है. अमृतसर से कई मील दूर. गुजरात राजस्थान के बॉर्डर पर एक और जलियांवाला को अंजाम दिया गया था. जिसमें मारे गए थे हजारों भील. चूंकि वो कबीलाई लोग थे, उनका लिखित इतिहास नहीं था. इसलिए इस नरसंहार की बात किसी ने लिखी, ना किसी ने पढ़ी. लेकिन फिर भी वो इतिहास जिन्दा रहा. इन कबीलों के बुजर्गों की आंखों में. उनकी कहानियों में. 

एक और जलियांवाला 

भील राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजातियों में से एक हैं. भील शब्द ‘बिलू’ से बना है. जिसका मतलब होता है कमान. तीर कमान चलाने में इन लोगों का कोई सानी नहीं है. भीलों का समुदाय उदयपुर के आसपास, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़ और प्रतापगढ़ में रहता आया है. राजस्थान के इतिहास में इन भीलों का एक प्रमुख योगदान रहा है. मेवाड़ के राज्य-चिह्न को देखेंगे तो पाएंगे कि इसमें राजपूत योद्धा के बगल में भील योद्धा का चित्र बना हुआ है. जब हल्दीघाटी की जमीन पर महराणा प्रताप (Maharana Pratap) मुग़ल सेना से लोहा ले रहे थे, तब उनका नारा हुआ करता था, भील जायो, रानी जायो, भाई-भाई. यानी भील का बेटा और रानी का बेटा भाई-भाई हैं.

मेवाड़ की सेना का निशान (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इसी भील समुदाय में 1890 के आसपास एक नेता का उदय हुआ. नाम था गोविंद गिरी (Goving Giri). गोविन्द  गिरी का जन्म डुंगरपुर राजस्थान में हुआ था. उनके कबीले वाले बंजारे थे. और उन्हें अक्सर बंधुआ मजदूरी का काम करना पड़ता था. 1899 में पश्चिम भारत में भयंकर आकाल पड़ा. और गोविन्द गिरी ने देखा कि उनके कबीले वाले चोरी चकारी करने लगे हैं. उन्होंने अपने कबीले में सामाजिक सुधार का बीड़ा उठाया और और शराब और मांस का सेवन वर्जित कर दिया. धीरे धीरे गोविन्द गुरु भीलों के आध्यात्मिक नेता बन गए. उस दौर में राजा रजवाड़े भीलों से बंधुआ मजदूरी कराते थे. वहीं उन पर भारी टैक्स भी लगाया जाता था. गोविन्द गुरु ने इसके खिलाफ आवाज उठाई. 

उन्होंने भगत आंदोलन की शुरुआत की. आंदोलन को मजबूती देने के लिए गुरु ने संफ सभा नाम का एक सामाजिक-धार्मिक संगठन बनाया था. गांव-गांव में इसकी इकाइयां स्थापित की गई. आंदोलन से जुड़े लोग अग्नि को शक्ति मानते थे . और अग्नि के आगे खड़े होकर पूजा हवन करते थे. इसे धूनी लगाना कहा जाता था. इसी धूनी से खड़ी हुई एक चिंगारी, जिसने अंग्रेज़ों में खलबली पैदा कर दी. हुआ ये कि साल 1910 में गोविंद गुरु ने अंग्रेज़ों के सामने अपनी तीस मांगे रखी. जिनमें बंधुआ मजदूरी, लगान और भीलों के उत्पीड़न पर रोक लगाने की मांग रखी गई थी. 

ओ भुरेतिया नइ मानु रे

अंग्रेज़ों ने इन मांगों को मानने से इंकार कर दिया और वो भगत आंदोलन को दबाने में लग गए. यहां से शुरुआत हुई एक आख़िरी निर्णायक संघर्ष की. जो घूम फिरकर इकठ्ठा हुआ मानगढ़ टेकरी में. अक्टूबर 1913 में गोविन्द गिरी और उनके अनुयायी मानगढ़ पहुंचे. घने जंगलों से घिरा ये इलाका बांसवाड़ा और संतरामपुर के बीचों बीच पड़ता था. गुरु गोविंद ने अपने अनुयाइयों तक सन्देश पहुंचाया कि मानगढ़ में कार्तिक की अमावस्या को धूनी रमाई जाएगी. एक अनुमान के अनुसार डेढ़ लाख भील मानगढ़ में इकठ्ठा हुए. जल्द ही अफवाह फ़ैल गई कि भील बांसवाड़ा और संतरामपुर राज्य के खिलाफ विद्रोह कर भील साम्राज्य की स्थापना करने वाले हैं. दोनों राज्यों ने अंग्रेज़ों से मदद मांगी. 

गोविन्द गिरी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

अंग्रेजों ने गोविन्द गुरु के सामने एक पेशकश रखी. वो भीलों को सालाना जुताई के लिए सवा रुपया देने को तैयार थे. लेकिन भीलों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया. अपने आंदोलन के दौरान भील तब एक गाना गाया करते थे. जिसके बोल थे, "ओ भुरेतिया नइ मानु रे, नइ मानु' (ओ अंग्रेजों, हम नहीं मानेंगे, नहीं मानेंगे).

मानगढ़ टेकरी से भीलों का संग्राम शुरू हुआ. जिसका पहला कदम था संतरामपुर थाने को अपने कब्ज़े में लेना. गुरु गोविन्द के दाहिने हाथ पुंजा धिरजी पारघी और उनके समर्थकों ने एक रोज़ थाने पर हमला बोल दिया, जिसमें इंस्पेक्टर गुल मोहम्मद की मौत हो गई. इस घटना ने बांसवाड़ा, संतरामपुर, डूंगरपुर और कुशलगढ़ रियासतों में भीलों में जोश भर दिया. आंदोलन ने और भी तेज़ी पकड़ ली.

मानगढ़ नरसंहार  

अंग्रेज़ों को लगा यदि समय रहते आंदोलन कुचाना न गया तो भारी मुसीबत हो सकती है. अंग्रेज़ अफसर आर.ई. हैमिल्टन ने भीलों को चेतावनी दी कि जल्द से जल्द मानगढ़ को खाली कर दें. इसके लिए एक आख़िरी तारीख भी नियत की गई थी- 15 नवंबर 1913. तारीख आकर चली गई लेकिन भीलों ने भीलों ने मानगढ़ टेकरी खाली करने से इंकार कर दिया. 17 नवम्बर तक मानगढ़ टेकरी के आसपास ब्रिटिश फौज का जमावड़ा लगना शुरू हो चुका था. दो अंग्रेज़ अफसरों की अगुवाई में अंग्रेज़ फौज ने मानगढ़ को चारों ओर से घेर लिया. सबसे पहले उन्होंने हवा में गोली चलाई. इसके बाद शुरुआत हुई भीषण नरसंहार की. इस हमले के लिए मशीनगनों और तोपों का इस्तेमाल हुआ था. जिन्हें गधों-खच्चरों पर लादकर मानगढ़ और पास की दूसरी पहाडिय़ों पर लाया गया था. इनकी कमान अंग्रेज अफसरों मेजर एस. बेली और कैप्टन ई. स्टॉइली के हाथ में थी. 

मानगढ़ टेकरी में इस नरसंहार में मारे गए लोगों की याद में बना स्मारक (तस्वीर: जागरण)

इंडिया टुडे से जुड़े पत्रकार उदय माहूरकर ने मानगढ़ नरसंहार पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में उदय गुजरात यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाने अरुण वाघेला बताते हैं कि “भीलों ने मानगढ़ हिल को किले में तब्दील कर दिया था जिसके भीतर देसी तमंचे और तलवारें जमा थीं. उन्होंने अंग्रेज फौजों का सामना किया क्योंकि उन्हें गोविंद गुरु की अध्यात्मिक ताकत पर पूरा भरोसा था. उन्हें लगता था कि गुरु की शक्ति गोलियों को ततैयों में बदल देगी.”

भरोसा काफी न था. मशीन गन के आगे देशी तमंचे कितनी देर ठहरते. इधर से गोलियां चलनी शुरू हुई. और देखते देखते पूरी टेकरी खून में नहा गई. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार कि अंग्रेजों ने खच्चरों के ऊपर 'तोप जैसी बंदूकें' लाद दी थीं और उन्हें वे गोले में दौड़ाते थे, जिनसे लगातार गोलियां चलती जाती थीं, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को मारा जा सके.
कई घंटे की गोलीबारी के बाद आखिर में जब एक अंग्रेज़ अफसर ने देखा कि एक मरी हुई भील महिला का बच्चा उससे चिपट कर उसके स्तनों से दूध पीने की कोशिश कर रहा है, तब जाकर उसने गोलीबारी रोकने के आदेश दिए. गोलीबारी में मरने वालों की संख्या सैकड़ों हजारों में थी. कई लोगों ने भागने की कोशिश की और वो पहाड़ी से गिरकर मर गए. जो बचे वो आसपास की गुफाओं में छुप गए. 

गोविन्द गुरु 

इस हमले में जो लोग बचे उन्हें अंग्रेज़ों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. इनमें गोविन्द गुरु का नाम भी शामिल था. उन पर मुकदमा चलाकर फांसी की सजा सुनाई गई. लेकिन अंग्रेज़ों ने दोबारा विद्रोह से डरकर फांसी को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया. गुरु गोविन्द ने अगले 6 साल हैदराबाद की जेल में गुजारे. बाद में उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया कि वो भीलों के प्रदेश में दुबारा कभी न जा सकेंगे. वे गुजरात में लिंबडी के पास कंबोई में बस गए और 1931 में उनका निधन हो गया. 21 वीं सदी में भी कंबोई में गोविंद गुरु समाधि मंदिर में उनके अनुयायी उन्हें श्रद्धांजलि देने आते हैं. मानगढ़ टेकरी नरसंहार की कहानी किसी ऐतिहासिक दस्तावेज़ का हिस्सा नहीं बनी. लेकिन बांसवाड़ा में रहने वाले लोगों ने इन कहानियों को अपनी स्मृति में सहेजकर रखा.

नवम्बर 2022 की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांसवाड़ा में ‘मानगढ़ धाम की गौरव गाथा’ नामक एक पब्लिक प्रोग्राम में सम्मिलित हुए. उन्होंने राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सरकारों से मिलकर मानगढ़ धाम के विकास पर काम करने को कहा. ताकि आजादी के आंदोलन की ये कहानी दुनिया तक पहुंच पाए.

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