आज से हजारों साल बाद अगर कोई इंटरनेट की ख़ाक छानने बैठा, और कहीं उसे रतन नवल टाटा (Ratan Naval Tata) का नाम दिखा, तो बड़ी बात नहीं कि वो इसे किसी महामानव की कहानी समझे. भारतीय बिजनेस की दुनिया के पितामह माने जाने वाले इस व्यक्ति के नाम पर इंटरनेट में कितने ही किस्से और कहानियां बिखरी हुई हैं. इनमें से सबसे मशहूर है वो किस्सा जब टाटा ने एक विदेशी कार ब्रैंड से अपनी बेज्जती का बदला लिया था.
रतन टाटा ने जब बदला लेने के लिए लुटा दिए 12 हजार करोड़! कहानी जैगुआर टेकओवर की
Ratan Tata Passes Death: साल 2008 में Ford Motors के साथ हुई एक डील में Tata Motors ने Jaguar और Land Roverको खरीद का लक्जरी कार मार्केट में एंट्री की. कहा गया कि ये रतन टाटा का 9 साल पुरानी बेज्जती का बदला था.
तो कहानी कुछ यूं है कि साल 1999 में जब रतन टाटा फोर्ड (Ford Motors) के मालिक से मिलने अमेरिका गए तो वहां उन्हें बड़ी बेज्जती का सामना करना पड़ा. इंटरनेट मिथकों के अनुसार इस बेज्जती को टाटा सालों तक सालते रहे. और 9 साल बाद जब फोर्ड के दिवालिया होने की नौबत आई तो टाटा ने उनसे जैगुआरऔर लैंड रोवर खरीद कर सालों पहले हुई बेज्जती का बदला लिया. मिथकों के साथ दिक्कत ये नहीं कि उनमें बात बढ़ा-चढ़ा कर बताई जाती है. दिक्कत ये है कि बदले की कहानी के चक्कर में असली कहानी पीछे रह गई. असली कहानी है एक मिथक को झूठा साबित कर देने की.
आज 2 जून है और आज की तारीख का संबंध है एक बिजनेस डील से.
कहानी शुरू होती है 1945 से. जब टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी की शुरुआत हुई. पहले-पहल लोकोमोटिव की मैन्युफैक्चरिंग से शुरुआत कर वो बस और ट्रक बनाने के बिजनेस में आए. फिर 90’s का दौर आया. भारत में लिबरलाइजेशन की शुरुआत हुई.
कमर्शियल व्हीकल के सेगमेंट में टाटा मोटर्स पहले ही मार्किट लीडर थे. वहां चंद कंपनियां ही उन्हें टक्कर दे सकती थीं. लेकिन असली खेल पर्सनल व्हीकल के सेगमेंट में था. यहां मार्जिन तगड़े थे, मुनाफा तगड़ा था, इसलिए कॉम्पिटीशन भी काफी तगड़ा था. टाटा ने सूमो और सफारी की लॉन्च से शुरुआत की. दोनों गाड़ियां सफल रही. 1991 में टाटा ने सिएरा लॉन्च की. और फिर 1998 में टाटा ने पहली पूर्ण स्वदेशी भारतीय यात्री कार, इंडिका भारत में लॉन्च की. इस तरह वो छोटी पर्सनल कार के मार्केट में कूद गए.
अगले एक साल में ही कम्पीटीशन का असर दिखना शुरू हो गया. पर्सनल व्हीकल सेगमेंट में टाटा को तगड़ा घाटा हो रहा था. साल 2015 में एक कार्यक्रम में टाटा मोटर्स के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर रह चुके प्रवीण काडले ने इस बाबत एक किस्सा बताया था. उन्होंने बताया कि तब कुछ लोगों ने चेयरमैन रतन टाटा को सलाह दी कि पैसेंजर कार सेगमेंट को बेच दें. तब फोर्ड मोटर कंपनी ने इसमें दिलचस्पी दिखाई और बॉम्बे हाउस स्थित टाटा के हेडक्वार्टर में वो लोग मिलने पहुंचे.
बंबई के बाद अगले राउंड की बातचीत डेट्रॉइट, मिशिगन में होनी थी. रतन टाटा और प्रवीण इस मीटिंग में हिस्सा लेने पहुंचे. तीन घंटे की बातचीत के दौरान दोनों के साथ बड़ा अजीब सा बर्ताव हुआ. फोर्ड के चेयरमैन ने टिप्पणी करी कि टाटा को कार मैन्युफैक्चरिंग के बारे में कुछ पता नहीं है और उन्हें इसकी शुरुआत ही नहीं करनी चाहिए थी. फोर्ड ने यहां तक कह दिया कि टाटा के पर्सनल कार सेगमेंट को खरीद कर वो उन पर अहसान करेंगे. अंत में बात संभवतः पैसों को लेकर अटक गयी थी. इसलिए टाटा लौट आए और डील पूरी नहीं हो पाई.
फोर्ड डूबने की कगार पर आई2001 में प्रवीण काडले को टाटा मोटर्स का एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर बनाया गया. इंडस्ट्री के विषेशज्ञों के अनुसार टाटा मोटर्स की किस्मत पटलने का श्रेय उन्हीं हो जाता है. टाटा ने मार्केट में धीरे-धीरे पकड़ बनाई और 2004 में कम्पनी न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में भी लिस्ट हो गई.
अगले कुछ सालों में कंपनी प्रॉफिट पर प्रॉफिट बनाती गई लेकिन लक्जरी कार सेगमेंट में कम्पनी का प्रवेश अभी भी बाकी था. ऐसे में साल 2007 में एक खबर ने ऑटोमोटिव मार्केट को हिलाकर रख दिया. फोर्ड मोटर्स को उस साल अपने 100 साल के इतिहास का सबसे बड़ा घाटा हुआ था. ये घाटा 12.8 आठ बिलियन यानी लगभग 98 हजार करोड़ रुपयों के बराबर था. कंपनी दिवालिया होने की कगार पर थी. ऐसे में घाटा भरने के लिए मार्च 2007 में फोर्ड ने अपने एश्टन मार्टिन ब्रांड को बेच दिया. जब इससे भी बात ना बनी तो जून 2007 में जैगुआर और लैंड रोवर ब्रांड्स को भी बिकवाली के लिए खड़ा कर दिया गया.
जैगुआर और लैंड रोवर, इन दो ब्रांड्स की शुरुआत भी बड़ी रोचक है. जैगुआर कार्स कंपनी की शुरुआत साल 1922 में हुई थी. शुरुआत में कंपनी का नाम था स्वैलो साइडकार कंपनी. लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कंपनी को अपना नाम बदलना पड़ा. कारण ये था कि कंपनी का शॉर्टफ़ॉर्म SS था. और नाजी सुरक्षा दस्ते, शुट्ज़स्टाफ़ेल को भी SS कहा करते थे. इसलिए कंपनी के मालिक ने नाम बदलकर जैगुआर रख दिया. बाद में ब्रिटिश लीलेंड ने इसका अधिग्रहण कर लिया. और साल 1990 में फोर्ड कंपनी ने इसे खरीद लिया. फोर्ड ने इसकी कीमत दी, 2.5 बिलियन डॉलर यानी लगभग 19 हजार 250 करोड़ रूपये.
दूसरी कंपनी यानी लैंड रोवर की शुरुआत 1948 में हुई थी. 1967 में लीलेंड मोटर कॉर्पोरेशन ने रोवर को खरीद कर ब्रिटिश लीलेण्ड नाम से एक नई कंपनी बनाई. 1980 में ये कम्पनी टूटी और 1988 में ब्रिटिश ऐरोस्पेस ने रोवर को खरीद लिया. फिर इसे BMW ने खरीदा और आखिर में साल 2000 में फोर्ड ने इसे अपना हिस्सा बना लिया. फोर्ड ने तब लैंड रोवर के लिए कीमत दी थी, 2.7 बिलियन डॉलर यानी लगभग 2 हजार आठ सौ करोड़ रूपये. इन सब डील्स की कीमत आपको साथ-साथ बताते चल रहे हैं, ताकि बाद में आपको समझ आ सके कि लैंड रोवर और जैगुआरको खरीदने के पीछे टाटा की सोच क्या थी.
जैगुआर और लैंड रोवर में दिलचस्पी का कारणबहरहाल किस्से पर वापस चलते हैं. 2007 में फोर्ड ने जैगुआर और लैंड रोवर को बेचने की सोची. तब उन्हें लगा था कि दोनों नामी ब्रिटिश ब्रांड हैं. इन दोनों को बेचकर जो पैसा मिलेगा उससे कम्पनी दिवालिया होने से बच जाएगी. लेकिन फिर सिर मुड़ाते ही ओले पड़ गए. 2008 में अमेरिका में मंदी ने दस्तक दे दी. सभी सेक्टर्स की तरह ऑटोमोटिव सेक्टर की भी कमर टूट गई. सबसे ज्यादा असर पड़ा लक्जरी कार ब्रांड्स पर. जैगुआर और लैंड रोवर पहले ही परेशानी में थे, मंदी ने हालत और ख़राब कर दी.
फ़ोर्ड को कैश की ज़रूरत थी. और मंदी में कैश किसी के बाद था नहीं. मतलब लिक्विडिटी की भारी किल्लत थी. ऐसे में टाटा मोटर्स ने फोर्ड के ऑफर में दिलचस्पी दिखाई. टाटा कबसे लक्जरी कार सेगमेंट में घुसने की कोशिश कर रहे थे. ऐसे में उन्हें लैंड रोवर और जैगुआर के बिकने की खबर मिली तो कम्पनी ने एक इंटर्नल सर्वे शुरू किया. साल 2007 में कम्पनी का सर्वे शुरू हुआ जो अगले 9 महीने तक चला.
जैगुआर में टाटा की दिलचस्पी का एक कारण ये भी था कि भारत में ऑटोमोटिव सेक्टर मंदी के असर से बचा हुआ था. उस साल जहां दुनिया भर में कारों की बिकवाली में 5% की कमी आई थी वहीं भारत में मार्केट स्टेबल था. इसलिए टाटा ने फोर्ड की डील में रूचि दिखाई. और अपने रेप्रेज़ेंटेटिव्स को मार्केट सर्वे करने के लिए अमेरिका भेजा. टाटा ने ग्राहकों और डीलरों से बात की. इस सर्वे से उन्हें पता चला कि डीलर और ग्राहक, दोनों के बीच अभी भी लैंड रोवर और जैगुआर की पहचान कायम है.
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टाटा ने जैगुआर और लैंड रोवर को खरीदाइसके बाद फिर टाटा ने डील पक्की की. और आज ही के दिन यानी 2 जून 2008 को टाटा मोटर्स ने फोर्ड से लैंड रोवर और जैगवार, दोनों ब्रांड्स को खरीद लिया. फोर्ड ने तब टाटा से कहा था कि आप इन्हें खरीद कर हम पर अहसान कर रहे हैं. 9 साल पहले जिस कम्पनी ने आपको नीचा दिखाया था, अब आपके भरोसे वो दिवालिया होने से बची, कहानी यहां तक तो भावनात्मक है, इसलिए अच्छी ही लगती है.
लेकिन जैसा कि हमने पहले आपको बताया था, इंटरनेट मिथकों से अलग, ये चोखा कारोबार था. जैगुआर को खरीदने की डील 2.3 बिलियन डॉलर में तय हुई थी. यानी तब के हिसाब से लगभग 12 हजार करोड़ रूपये में. जबकि याद कीजिए पहले हमले आपको बताया था कि जैगुआर को खरीदने में फोर्ड को 2.5 बिलियन डॉलर और लैंड रोवर को खरीदने में 2.7 बिलियन डॉलर लगे थे. मुद्रास्फीति को हिसाब में लें तो टाटा मोटर्स के लिए ये बहुत फायदे का सौदा था. साथ ही इस डील में ये भी निहित था कि जैगुआर और लैंड रोवर पर जो पुराने बकाए हैं, वो भी टाटा को नहीं चुकाने होंगे.
इस डील के तहत टाटा को जैगुआर और लैंड रोवर की UK और ब्राज़ील वाली फ़ैक्टरी, साथ ही दोनों ब्रांड्स के डिज़ाइन स्टूडियो भी मिल गए. इतना ही नहीं, इंजन और गाड़ी के बाकी सारे डिज़ाइन पेटेंट भी इस डील में शामिल थे. जैगुआर और लैंड रोवर को खरीदने के पीछे का एक कारण ये भी था कि तब टाटा का अधिकतर रेवेन्यू भारतीय बाजार से आता था. और दो लक्जरी ब्रांड्स के साथ कम्पनी विदेशी बाजारों में अपना रेवेन्यू बढ़ा सकती थी. जैगुआर और लैंड रोवर की मांग अमेरिका से लेकर यूरोप में हुआ करती थी, इसलिए वहां बिजनेस बढ़ाने के लिए भी ये एक अच्छा सौदा था.
लखटकिया नैनो और करोड़ों की जैगुआर भीये बात आगे जाकर सही भी साबित हुई. यूं कि साल 2021 में कम्पनी ने अपना अधिकतर रेवेन्यू बाहर की मार्केट से जनरेट किया. कारण और भी थे. मसलन तब तक टाटा स्टील, यूरोप की सबसे बड़ी स्टील कम्पनी कोरस को ख़रीद चुकी थी. जैगुआर जैसे लग्ज़री ब्रांड्ज़ कोरस से ही स्टील की सप्लाई लेते थे. इस डील के बाद, चूंकि कोरस भी टाटा की थी इसलिए वहां से स्टील लेना उन्हें काफ़ी सस्ता पड़ता.
उसी समय टाटा नैनो को निकालने के तैयारी में थे. नेनो सफल नहीं हो पाई वरना उस दौर में टाटा मोटर्स एक लाख की नैनो भी पेश कर रही थी और 1 करोड़ की जैगुआर भी.
अब अंत में बात उस मिथक की जिसे इस डील ने तोड़ा. जब ये डील हो रही थी तो मॉर्गन स्टैनली से लेकर सभी फाइनेंसियल इंस्टीट्यूशन इसे घाटे का सौदा बता रहे थे. एक भारतीय कंपनी लक्जरी कार के सेगमेंट में सफलता पाएगी, इस बात पर सभी को शक था. ऐसी कंपनियां जो घाटे में चल रही हो, उसे खरीदकर मुनाफे की कंपनी बनाना, इसके उदाहरण भी उंगलियों पर गिने जा सकते थे.
शुरुआत में लगा भी कि ये आशंका सही साबित होने जा रही हैं. 2008 -09 में टाटा मोटर्स ने 7 साल बाद पहली बार घाटे का प्रदर्शन किया. जैगुआर डील के चलते कम्पनी को काफी कैश खर्च करना पड़ा था. इसके बावजूद टाटा मोटर्स ने जैगुआर और लैंड रोवर में निवेश जारी रखा. और जैसे ही दुनिया 2008 की मंदी से बाहर निकली, उन्हें इसका फायदा भी मिला. आने वाले सालों में विदेशों से होने वाले मुनाफे का 80 प्रतिशत इन दो ब्रांड की बिक्री से हुआ और ये मिथक भी टूटा कि एक भारतीय कंपनी न सिर्फ लक्जरी कार ब्रांड में नाम बना सकती है बल्कि एक डूबी हुई कम्पनी को खरीद कर फायदे की कम्पनी बना सकती है.
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