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गोडसे ने गांधी को क्यों मारा?

90 पन्नों के बयान में नाथूराम गोडसे ने कोर्ट में क्या कहा?

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30 जनवरी 1948 की शाम दिल्ली स्थित बिड़ला हाउस में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को तीन गोली मारकर उनकी हत्या कर दी (तस्वीर: Wikimedia Commons)
“कोई भी गांधी के महात्मा होने के दावे को भी खारिज कर सकता है (हालांकि महात्मा होने का दावा उन्होंने खुद कभी नहीं किया). कोई यह भी कह सकता है कि साधुता कोई आदर्श है ही नहीं. ये भी माना जा सकता है कि गांधी का मूल भाव मानवता विरोधी था. लेकिन अगर हम एक राजनेता के तौर पर उन्हें देखें और मौजूदा समय के दूसरे तमाम राजनेताओं से उनकी तुलना करने पर हम पाते हैं कि वे अपने पीछे कितना सुगंधित एहसास छोड़कर गए हैं”
ये कथन जॉर्ज ऑरवैल ने गांधी की हत्या के बाद लिखा था. एक व्यक्ति जिसने हमेशा अहिंसा की बात की, उसकी हत्या करने वाला कोई दुश्मन नहीं, उसका अपना देशवासी था. ये एक सामान्य बात नहीं थी. एक 78 साल का बूढ़ा व्यक्ति जिसका वजन सिर्फ़ 48 किलो था. जिसने अपने आदर्शों के लिए बहुसंख्यक जनता का ग़ुस्सा मोल लेने का साहस दिखाया. और इसके बावजूद सुरक्षा तक लेने से मना कर दिया. उसे गोलियों से भून दिया गया. इस हत्या को अंजाम देने वाले व्यक्ति का नाम था, नाथूराम गोडसे.
माई एक्स् रिमेंट्स विद ट्रूथ में गांधी लिखते हैं,
‘मुझे आत्मकथा नहीं, बल्कि इस बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किए हैं, उनकी कथा लिखनी है. इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की सम्पूर्णता (finality) का दावा नहीं करता. जिस तरह एक वैज्ञानिक बहुत बारीकी से प्रयोग करता है, फिर भी उसके नतीजों को फ़ाइनल नहीं कहता. अपने प्रयोगों के बारे में मेरा भी ऐसा ही दावा है. मैंने बहुत आत्म-निरीक्षण किया है. एक-एक बात को जाना-परखा है. किंतु इसके परिणाम सबके लिए सच हैं या केवल वे ही सच हैं, ऐसा दावा मैं कभी नहीं करना चाहता’.
गांधी अपने बारे में कुछ दावा करे ना करें, लोगों ने अलग-अलग दावे ज़रूर किए हैं. किसी ने उन्हें संत, किसी ने बापू तो किसी ने महात्मा कहा. उनकी हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे ने तो उनके तौर तरीक़ों को तानाशाही बता दिया.

हत्या के दिन नाथूराम की तानाशाह वाली बात से इतना तो गांधी ने तय कर दिया कि अहिंसा का उनका एक्स्पेरिमेंट सफल रहा. सिर्फ़ अहिंसा और सत्याग्रह के रास्ते पर चलने के बावजूद उनकी ताक़त इतनी थी कि उन्हें रोकने का सिर्फ़ एक रास्ता बचा. उनकी हत्या. और उसके लिए भी दो-दो प्रयास किए गए.
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सरदार पटेल और महात्मा गांधी (तस्वीर: Wikimedia Commons
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30 जनवरी 1948 की शाम दिल्ली के बिड़ला भवन में रोज़ की तरह प्रार्थना का समय तय था. शाम के पांच बजे. उस दिन गांधी से मिलने सरदार पटेल पहुंचे थे. दोनों में बातचीत कुछ लम्बी चली. और महात्मा को घड़ी का होश नहीं रहा. प्रार्थना सभा पहुंचने में कुछ देर हो गई. अपनी भतीजियों का हाथ थाम गांधी 5 बजकर 15 मिनट पर प्रार्थना सभा में पहुंचे.
लोगों में हलचल थी, ’बापू आ गए’. तभी ख़ाकी बुश जैकेट और नीली पैंट पहने एक व्यक्ति आया और बापू के पांव छूने लगा. मनुबेन ने उस आदमी से कहा, ‘बापू पहले ही 10 मिनट लेट हैं. उन्हें क्यों शर्मिंदा करते हो’.
ये व्यक्ति था, नाथूराम गोडसे. अपनी किताब, 'लास्ट ग्लिम्प्सेस ऑफ़ गांधी' में मनु बेन लिखती हैं. गोडसे ने उन्हें एक ज़ोर का धक्का दिया. जिससे उनके हाथ में रखा सारा सामान ज़मीन पर गिर गया. सामान उठाने के लिए जैसे ही मनुबेन झुकीं, पीछे से गोलियां चलने की आवाज़ आई. मुड़कर देखा तो गांधी नीचे गिरे पड़े थे. उन्हें अंदर ले ज़ाया गया. लेकिन उस दिन वहां कोई डॉक्टर मौजूद नहीं था. उनका बहुत सा खून बह चुका था. और कुछ ही मिनटों में उन्होंने प्राण त्याग दिए.
बाहर नाथूराम हाथ उठाकर पुलिस-पुलिस चिल्ला रहा था. अलग-अलग सोर्स इस मामले में अलग-अलग कहानी बताते हैं. जनवरी 31, 1948 को न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, हर्बर्ट रेनर नाम के एक अमेरिकी व्यक्ति ने नाथूराम को पकड़ा और उससे पिस्तौल छीन ली थी. मौक़े पर मौजूद लोगों में से कुछ ने बाद में बताया कि गोडसे ने भागने की कोशिश नहीं की और आत्मसमर्पण कर दिया.

आपने गांधी जी की हत्या क्यों की गिरफ़्तारी के बाद, गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास, नाथूराम से मिलने पहुंचे. इस घटना का ब्योरा नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे ने अपनी किताब 'गांधी मर्डर एंड आफ़्टर' में किया है. देवदास को नाथूराम के बारे में कुछ भी पता नहीं था. उन्हें लगा कोई सिरफिरा ही होगा, जो गांधी पर गोली चलाएगा. लेकिन जब वो हवालात में गोडसे से मिले तो गोडसे ने उन्हें पहचानते हुए कहा,
“मैं समझता हूं आप देवदास गांधी हैं."
देवदास को हैरानी हुई. बोले, आप मुझे कैसे जानते हैं? नाथूराम ने जवाब दिया कि एक पत्रकार सम्मेलन में उनकी मुलाक़ात हुई थी. जहां देवदास ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक के नाते और नाथूराम ‘हिंदू राष्ट्र’ के संपादक के तौर पर पहुंचे थे.
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देवदास गांधी और अख़बार में महात्मा गांधी की हत्या की ख़बर (तस्वीर: commons और द डेली टेलीग्राफ़)


फिर आया वो सवाल जो किसी भी बेटे के मन में अपनी पिता की हत्या को लेकर आता. देवदास ने नाथूराम से पूछा, आपने उनकी हत्या क्यों की. इस पर नाथूराम ने जवाब दिया,
"मेरी वजह से आपने अपने पिता को खोया है. आपको और आपके परिवार को जो दुःख हुआ, मुझे उसका खेद है. लेकिन गांधीजी की हत्या के पीछे मेरा कोई व्यक्तिगत कारण नहीं था. ये कारण राजनीतिक था. मुझे पौन घंटे का वक्त मिले तो मैं आपको बताऊंगा कि मैंने गांधीजी की हत्या क्यों की.” 
उस दिन तो नाथूराम को इसका वक्त नहीं दिया गया. लेकिन जब उसे फांसी की सजा सुनाई गई तब उसने अपने 6 घंटे के वक्तव्य में विस्तार से बताया कि गांधी की हत्या के पीछे क्या कारण था? ये एक 93 पेज का बयान था जो आज ही के दिन यानी आठ नवंबर 1949 के दिन कोर्ट में पढ़ा गया था. पूरे बयान को सम्मिलित करना सम्भव नहीं. लेकिन कुछ मुख्य तर्कों पर नज़र डालते हैं. ट्रॉली प्रॉब्लम पहले एक हाइपोथेटिकल सिनारियो पर चलेंगे. एथिक्स के सबजेक्ट में छात्रों का सामना एक समस्या से होता है, ट्रॉली प्रॉब्लम. एक पटरी पर 5 लोगों को बांध दिया गया है. ट्रेन बढ़ी चली आ रही है. कुछ ना किया तो ट्रेन 5 लोगों को कुचल देगी. लिवर आपके हाथ में है. आप चाहें तो ट्रेन का रूख दूसरी पटरी की ओर कर सकते हैं. लेकिन अगर आपने ऐसा किया तो एक व्यक्ति जो उस पटरी पर खड़ा है, उसकी मौत हो जाएगी.

आसान सा जवाब लगता है कि भई 5 लोगों को बचाया जाएगा. लेकिन मान लीजिए 5 लोग चोर हैं. और दूसरी पटरी पर खड़ा एक व्यक्ति अनाथ बच्चों का स्कूल चलाता है.  अब शायद आप कहें कि तब तो एक व्यक्ति. लेकिन तब क्या अगर आप पांच की बजाय एक व्यक्ति को बचा लें और आगे जाकर वो किसी का खून कर दे. उत्तर कठिन और कॉम्प्लिकेटेड है. लेकिन एक बात इस सिनारियो से साफ़ होती है. भविष्य में क्या होगा, ठीक-ठीक नहीं जाना जा सकता. इसलिए भविष्य को आधार बनाकर आप वर्तमान कुकर्म को जायज़ नहीं ठहरा सकते.


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गांधी की हत्या के लिए इस्तेमाल की गई पिस्तौल (तस्वीर: Getty)


गांधी की हत्या के लिए नाथूराम का कुल जमा यही तर्क था. गांधी अनशन पर थे. उनकी मांग थी कि भारत में दंगे रुकें और भारत पाकिस्तान को उसके हिस्से के 50 करोड़ दे दिए जाएं. नाथूराम ने अपने बयान में इस बात का ज़िक्र किया और तर्क दिया कि जब तक गांधी ज़िंदा रहेंगे, तब तक भारत और हिंदुओं के ख़िलाफ़ काम करते रहेंगे. उसने कहा,
“गांधी ने जब मुस्लिमों के पक्ष में अपना अंतिम उपवास रखा तो मैं इस नतीजे पर पहुंच गया कि गांधी के अस्तित्व को तुरंत खत्म करना होगा. गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों को हक दिलाने के लिए बहुत अच्छा काम किया था, लेकिन जब वे भारत आए तो उनकी मानसिकता बदल गई. सही और ग़लत का फ़ैसला लेने के लिए वो खुद को अंतिम जज मानने लगे. अगर देश को उनका नेतृत्व चाहिए तो यह उनकी अपराजेयता को स्वीकार्य करने जैसा था. अगर देश उनके नेतृत्व को स्वीकार नहीं करता तो वे कांग्रेस से अलग राह पर चलने लगते.”
बंदूक़ सही-गलत तय नहीं करती गोडसे की शिकायत थी कि गांधी स्वयं को सही और अपने विरोधियों को ग़लत मानते थे. लेकिन ये बात तो सभी लोगों पर लागू होती है. बाय डेफेनिशन आप खुद को सही और विरोधी को ग़लत मानेगें. इसीलिए तो वो आपका विरोधी है. सभी यही मानते हैं कि उसने जिस बात को समझा है जाना है, वो सही है. यह भी स्वाभाविक है कि दूसरों को वो बात ग़लत लग सकती हैं. लेकिन जब तक हिंसा का प्रयोग ना हो. एक सभ्य सामाज़ में विरोध दर्ज कराने का तरीक़ा बंदूक़ नहीं है. बंदूक़ से आप अपनी बात को सही नहीं साबित कर सकते. हां, दूसरे को चुप ज़रूर करा सकते हो.
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कोर्ट में नाथूराम गोडसे और बाकी अभियुक्त (फ़ाइल फोटो)


गांधी की ख़ासियत इसी में थी कि उन्होंने अपनी बात रखने का अहिंसक माध्यम दुनिया के सामने रखा. कमजोर के हाथ में ये एक अचूक शस्त्र था. ताकतवर अगर बात सुनने को तैयार ना हो तो अपनी बात कैसे रखी जाए ये गांधी की खोज़ थी. गांधी के सत्याग्रह का उपयोग आज दुनिया भर में होता है. चाहे वो 1960 में अमेरिका का सिविल राइट्स मूवमेंट हो 2020 में 'ब्लैक लाइव्स मैटर' जब जब हिंसा का उपयोग हुआ, ये मूव्मेंट कमजोर हुए, बजाय कि शक्तिशाली होने के. ‘स्टेट’ जैसे परम शक्तिशाली इन्स्टिट्यूशन के विरोध का तरीका भी सत्याग्रह और अहिंसा से ही निकला है. फिर चाहे वो रास्ता प्रदर्शन का हो या धरने और अनशन का. गांधी की हत्या के लिए धर्म का सहारा लेते हुए गोडसे ने तर्क दिया,
“मैं नहीं मान सकता कि किसी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिरोध कभी गलत या अन्यायपूर्ण भी हो सकता है. प्रतिरोध करने और यदि सम्भव हो तो ऐसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करने को मैं एक धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानता हूं. (रामायण में) राम ने विराट युद्ध में रावण को मारा और सीता को मुक्त कराया, (महाभारत में) कृष्ण ने कंस को मारकर उसकी निर्दयता का अन्त किया और अर्जुन को अपने अनेक मित्रों एवं सम्बंधियों, जिनमें पूज्य भीष्म भी शामिल थे, के साथ भी लड़ना और उनको मारना पड़ा, क्योंकि वे आक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे.”
राम और कृष्ण का उदाहरण देने से पहले गोडसे भूल गया कि राम ने युद्ध से पहले रावण के पास अपना दूत भेजा था. श्रीकृष्ण आख़िरी समय तक युद्ध को टालने की कोशिश करते रहे. यहां तक कि पांडवों की तरफ़ से वो 5 गांव भूमि लेने को तैयार हो गए थे. गांधी किसके सिर पर पिस्तौल ताने खड़े थे? उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिए किसी बल का प्रयोग नहीं किया. वो अपने आदर्शों के लिए सत्याग्रह का रास्ता चुन रहे थे. गांधी की हत्या इस बात का सबूत है कि गांधी प्रभावी थे. उनकी हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी कि जनता में उनके प्रभाव का आप मुक़ाबला नहीं कर सकते थे.
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महात्मा गांधी की अंतिम यात्रा में उमड़ी भीड़ (तस्वीर: Getty)


आइंस्टीन ने कभी गोडसे के तर्कों को नहीं सुना. लेकिन गांधी को श्रद्धांजलि देते हुए वो भी यही बात कह रहे थे. उन्होंने कहा,
“अंत में वो अपने आदर्शों का शिकार बन गए, अहिंसा के आदर्श. उनकी मृत्यु इसलिए हुई क्योंकि अव्यवस्था और अशांति के दौर में उन्होंने खुद के लिए सुरक्षा लेने से मना कर दिया. यह उनका अटल विश्वास था कि बल प्रयोग अपने आप में एक बुराई है, इसलिए जो लोग सबसे ऊंचे न्याय के लिए प्रयास कर रहे हैं, उन्हें बल प्रयोग से बचना चाहिए. अपने दिल और दिमाग में विश्वास के साथ, उन्होंने एक महान राष्ट्र को उसकी मुक्ति की ओर अग्रसर किया है. उन्होंने दिखाया कि लोगों को साथ जोड़ने के लिए राजनीतिक चालबाज़ी एकमात्र तरीक़ा नहीं है. नैतिक रूप से श्रेष्ठ आचरण का ठोस उदाहरण पेश कर लोगों को अपने साथ जोड़ा जा सकता है. विश्व के सभी देशों में महात्मा गांधी की प्रशंसा इसी मान्यता पर टिकी है”
गांधी की बात ग़लत या सही हो सकती है. गांधी का तरीक़ा सही ग़लत हो सकता है. लेकिन गांधी की हत्या? इसे किसी भी मेंटल जिम्नैस्टिक से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता.