भारत के पूर्वोत्तर का राज्य है मिजोरम. सुन्दर पहाड़ी इलाका. भारत के मॉडल राज्यों में से एक. साक्षरता में केरल के बाद दूसरे नंबर पर. और पर कैपिटा जीडीपी के मामले में उत्तर प्रदेश से दोगुना. सीमाएं बांग्लादेश और म्यांमार से लगती हैं. 1972 तक ये असम का हिस्सा हुआ करता था. उसके बाद इसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. राज्य का दर्ज़ा मिला 1987 में.
इंदिरा ने क्यों दिया था भारत के अंदर बमबारी का आदेश?
ऐतिहासिक मिजोरम शांति समझौते और मिजोरम के राज्य बनने के पीछे की कहानी. मिजोरम के इतिहास में ऐसा भी दौर आया जब विद्रोहियों ने मिजोरम को भारत से आजाद घोषित कर दिया था.
लेकिन मिज़ोरम के राज्य बनने की कहानी इतनी सिंपल नहीं है. उत्तरपूर्व के बाकी राज्यों की तरह ही मिजोरम का भी एक जटिल इतिहास रहा है. साल 1957 तक स्थितियां साधारण थीं. तब इसे लुशाई हिल्स कहा जाता था. फिर 1958 में कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बदलकर रख दिया. उस साल जंगल में फूल उगे, और फूलों ने 30 साल तक कांटो का रास्ता तैयार कर दिया.
कैसे जंगल उगे कुछ फूलों ने लुशाई के पहाड़ों में विद्रोह खड़ा कर दिया?
क्यों इंदिरा गांधी को भारत की जमीन पर बमबारी का आदेश देना पड़ा?
कैसे मिजोरम शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए?
और कैसे बना मिजोरम एक अलग राज्य?
चलिए जानते हैं.
कहानी की शुरुआत होती है 1957 से. उस साल लुशाई के जंगलों में फूल खिले. लेकिन ये बसंत का आगमन का संकेत नहीं था. जल्द ही लुशाई की पहाड़ियों में तबाही आने वाली थी.
महाभारत का एक प्रसंग है. पांडवों के वनवास के दौरान जयद्रथ की नजर जंगल में अकेली पांचाली पर पड़ती है और वो उसे अगवा कर लेता है. जयद्रथ पांचाली को अपने रथ में ले जा रहा है. पांचाली बार-बार उसे छोड़ देने का आग्रह करती है लेकिन जयद्रथ नहीं मानता. तब पांचाली उसे श्राप देती है कि जयद्रथ का सर्वनाश वैसे ही होगा जैसे बांस पर फूल आने पर जंगल नष्ट हो जाता है.
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सालों से ये मान्यता चली आई है कि जब भी बांस पर फूल उगेगा, चूहे आकर सारी फसल को बर्बाद कर देंगे. इसका कोई वैज्ञानिक आधार तो नहीं लेकिन बात सच है. बांस 40 -45 सालों में एक बार फूलता है. लेकिन जैसे ही एक प्रजाति के बांस पर फूल आता है, सभी प्रजाति के बांस में फूल उगने लगता है. यानी एकदूसरे से सैकड़ों मील दूर बांस के जंगल एकाएक फूलों से भर जाते हैं. कैसे और क्यों, इसका पता वैज्ञानिकों को भी नहीं है.
मिजोरम में इस घटना को ‘मौतम’ कहते हैं. क्योंकि बांस पर फूल आने का मतलब है तबाही. हर 48 सालों में तबाही का ये दौर मिजोरम से गुजरता था. ब्रिटिश रिकार्ड्स के हिसाब से 1862 और 1911 में भी इस इलाके में भयंकर अकाल पड़ा था. 1958 में भी ऐसा ही हुआ.
अक्टूबर 29, साल 1958 की बात है. तब मिजोरम अलग राज्य न होकर आसाम के अंदर एक जिला हुआ करता था. उस रोज़ बांस में फूल खिलने लगे तो स्थानीय जिला परिषद ने आसाम राज्य सरकार से डेढ़ लाख रूपये की मदद मांगी. ये कहते हुए कि जल्द ही मिज़ोरम में भुखमरी आने वाली है. इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था, इसलिए राज्य सरकार ने इस मांग को कबीलों का अन्धविश्वास मानकर नजरअंदाज कर दिया. लेकिन मिज़ो लोगों का डर सही साबित हुए. बांस पर फूल आए और पीछे-पीछे चूहों का आक्रमण. चूहों ने सारी फसल बर्बाद कर दी. भुखमरी की हालत होने लगी.
कैसे हुई मिजोरम नेशनल फ्रंट की शुरुआतअसम सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं आई. आई तो एक नई स्कीम. जिसके तहत एक चूहे को पकड़ने के 40 पैसे मिलते थे. लुशाई की पहाड़ियों में विद्रोह के बीज पनप चुके थे. जिन्हें हवा और पानी मिला असम सरकार की एक दूसरी घोषणा से. साल 1960 में असम सरकार ने असमिया भाषा को राजकीय भाषा घोषित कर दिया. जिसके बिना सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती थी. अकाल में मदद के लिए मिज़ो लोगों ने एक स्थानीय फ्रंट बनाया था, जिसका नाम था मिज़ो नेशनल फेमिन फ्रंट. 1960 की घोषणा के बाद इस संगठन का नाम बदलकर कर दिया गया, मिज़ो नेशनल फ्रंट यानी MNF. MNF के लीडर थे लालडेंगा.
शुरुआत में MNF ने शान्तिपूर्वक धरनों से अपनी बात रखी. लेकिन फिर 1964 में एक और घटना हुई और MNF हिंसा ओर उतर आई. 1964 में असम रेजिमेंट ने अपनी सेकेण्ड बटालियन को बर्खास्त कर दिया. इस बटालियन में अधिकतर मिज़ो वासी थे. जिनकी नौकरी इस फैसले के कारण चली गई. ये फौज से निकलकर ये लोग वापस मिजोरम पहुंचे और MNF से जुड़ गए. इन्हीं लोगों ने मिजो नेशनल आर्मी का गठन किया.
बॉर्डर पर होने के चलते मिजो नेशनल आर्मी को बांग्लादेश, जो तब पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था, वहां से हथियारों की सप्लाई हुई. पीठ पीछे चीन भी MNF का समर्थन कर रहा था. छिटपुट हिंसा की घटनाओं की शुरुआत यही से हो गई. सुरक्षा बालों ने वापसी कार्रवाई की तो मिज़ो विद्रोही भागकर बर्मा और पूर्वी पाकिस्तान में जा छिपे. साल 1963 में लालडेंगा की गिरफ्तारी हुई. उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चला लेकिन कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध की शुरुआत हुई. मौका देखकर अक्टूबर 1965 में MNF ने प्रधानमंत्री लाला बहादुर शास्त्री के नाम एक मेमोरेंडम भेजा जिसमें लिखा था,
ऑपरेशन जेरिको“मिजो देश भारत के साथ लम्बे स्थायी और शांतिपूर्ण सम्बन्ध रखेगा, या दुश्मनी मोल लेगा, इसका निर्णय अब भारत के हाथ में है”
जनवरी 1966 में ताशकंद में शास्त्री जी की मौत होती है. और अगले ही महीने, 28 फरवरी 1966 को MNF एक ऑपरेशन की शुरुआत कर देती है. इस ऑपरेशन का नाम था, ऑपरेशन जेरिको. रात 10 बजकर 30 मिनट पर MNF के हजार से ज्यादा लोग BSF और असम राइफल्स के कैम्प पर हमला बोल देते हैं. इसके बाद ये लोग टेलीफोन एक्सचेंज को निशाना बनाते हैं. ताकि भारत के साथ सारे कनेक्शन टूट जाएं.
ऑपरेशन जेरिको के तहत ही मिज़ो विद्रोहियों ने सरकारी दफ्तरों को अपने कब्ज़े में ले लिया था. अगले दिन यानी 1 मार्च, 1966 को MNF एक 12 सूत्रीय घोषणापत्र जारी करती है. जिसमें लिखा गया था कि भारत मिज़ो लोगों पर शासन करने के लिए अयोग्य है. इसके बाद असम राइफल्स के हेडक्वार्टर से तिरंगा उतारकर MNF का झंडा फहराया जाता है. और आजाद मिजो देश की घोषणा हो जाती है.
इस समय तक इंदिरा गांधी प्रंधानमंत्री बन चुकी थीं. उनके पिता जवाहरलाल नेहरू को भी पूर्वोत्तर के मामलों में कश्मकश का सामना करना पड़ा था. 1947 से 1952 तक चले नागा संकट के दौरान नेहरू कभी आर्मी एक्शन से नहीं हिचकिचाए लेकिन साथ ही उन्होंने कहा,
“ये लोग हमारे ही देशवासी हैं, इसलिए इन्हें दबाकर जमीन हथिया लेना हमारा उद्देश्य नहीं है”
नेहरू दिल जीतने में भरोसा रखते थे लेकिन इंदिरा का ऐसी भावनात्मक बातों से कोई सरोकार नहीं था.
बमों को पकाते कैसे हैं?1 मार्च, 1966 में आजाद मिजो देश की घोषणा के अहले तीन दिनों तक शांति बनी रही. लेकिन इस बीच आर्मी को एक्शन का आर्डर मिल चुका था. 3 मार्च को सेना ने सिल्चर से मिज़ो पहाड़ियों की तरफ मूव किया. आसमान से पर्चे गिराकर चेतावनी दी गयी कि लोग विद्रोह में शामिल न हो. 5 मार्च 1966, सुबह 11 बजकर 30 मिनट पर मिजोरम की राजधानी आइजोल के आसमान में इंडियन एयरफोर्स के एयरक्राफ्ट मंडरा रहे थे. सेना को आइजोल में घुसने में दिक्कत हो रही थी. वहां हेलीकॉप्टर से जवानों को उतारने की कोशिश भी हुई, लेकिन दूसरी तरफ से भारी गोलाबारी के चलते सेना आइजोल में इंटर नहीं कर पा रही थी. इसी के चलते 5 मार्च को एयरफोर्स की मदद ली गई.
कुछ घंटे चली गोलाबारी में पूरा आइजोल तहसनहस हो गया. विद्रोहियों को तितर-बितर करने के बाद सेना ने मिजोरम का कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया. 13 मार्च तक चले ऑपरेशन में 13 लोगों की जान गई. लेकिन इस ऑपरेशन का असर उल्टा हुआ. सेना और एयरफोर्स के ऑपरेशन ने लोगों में गुस्सा भर दिया. इंदिरा सरकार ने सफाई दी कि प्लेन से बम नहीं बल्कि राशन और जरूरी सामान गिराया गया था. इस घटना के कुछ दिन बाद असम विधानसभा के दो सदस्यों ने घटनास्थल का दौरा किया.यानी स्थानीय लोगों ने उन्हें कुछ गोले दिखाई जो फूटे नहीं था. अगले दिन असम विधानसभा में भाषण देते हुए ये लोग बोले,
“प्रधानमंत्री कह रही हैं कि राशन गिराया है, इन बमों को वापस दिल्ली भेजा जाना चाहिए ताकि पता चल सके कि इसे पकाते कैसे हैं”
इस घटना ने असम में विद्रोह को और बढ़ाया. वर्तमान में मिजोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरामथंगा बताते हैं कि इन्ही हमलों के बाद उन्होंने MNF ज्वाइन करने के ठानी थी. RAW के पूर्व चीफ बी रमन ने भी बताया की बमबारी के चलते और ज्यादा लोगों ने इंसर्जेन्सी का रुख किया.
मानेकशॉ का प्लानएयर स्ट्राइक्स के बाद फौज ने तेज़ी से कार्रवाई करते हुए इलाके को अपने कंट्रोल में लिया और आसपास के बॉर्डर को सील कर दिया ताकि बर्मा या पूर्वी पाकिस्तान से कोई मदद न आ सके असम अशांत क्षेत्र अधिनियम 1955 के तहत इलाके को अशांत क्षेत्र घोषित कर पूरे इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया. साथ ही MNF पर भी बैन लगा दिया गया. जिसके बाद MNF विद्रोहियों को भागकर बर्मा और पूर्वी पाकिस्तान में शरण लेनी पड़ी. MNF के लीडर लालडेंगा भी पूर्वी पाकिस्तान में शरण लेने पहुंचे. 1971 युद्ध के बाद उन्हें यहां से भी भागना पड़ा और वो पहले पाकिस्तान और फिर वहां से लन्दन पहुंच गए. लालडेंगा की वापसी इसके 15 साल बाद हुई.
इस बीच विद्रोह को दबाने के लिए केंद्र सरकार ने एक और कदम उठाया. जनरल मानेकशॉ की अगुवाई एक एक नया प्लान बनाया गया. मानेकशॉ समझ रहे थे कि स्थानीय लोगों की मदद के बिना कोई विद्रोह नहीं चल सकता. इसलिए नए प्लान के तहत 764 में से 516 गांवों को खाली कराकर भारी सुरक्षा के बीच नई जगह पर बसाया गया. यहां इन लोगों को अलग अलग ग्रुप्स में बांटा गया ताकि आपस में कोई साजिश न पनप पाए. इन लोगों को नए ID नंबर दिए गए. पुराने गांवों को नष्ट कर दिया गया. नई बसावट में भारी सुरक्षा घेरे के तहत लोगों को रखा जाता था, और सुबह शाम उन्हें अपनी हाजिरी लगानी पड़ती थी.
1970 तक सेना ने विद्रोह पर पूरी तरह से काबू पा लिया.शांतिपूर्ण विरोध अब भी चलता रहा. लेकिन माहौल कमोबेश शांतिपूर्ण बना रहा. अगले डेढ़ दशक तक शांति बनी रही. लेकिन इस शान्ति में तूफ़ान की आहट थी. मिजो नेशनल आर्मी ने हथियार नहीं डाले थे, गुंजाइश बनी हुई थी कि कभी भी दोबारा विद्रोह खड़ा हो सकता है. 1980 के आसपास लालडेंगा जो लन्दन में बस गए थे उन्होंने भारत सरकार से वार्ता की कोशिशें शुरू की. उन्होंने यूरोप में मौजूद भारतीय इंटेलिजेंस से लोगों से बात कर वार्ता की पेशकश रखी. इंदिरा की दो शर्ते थीं, पहली कि MNF हथियार डाल देगा, और दूसरी शर्त ये कि जो भी समझौता होगा वो भारतीय संविधान के अनुरूप होगा. इस मामले में 31 अक्टूबर 1984 को लालडेंगा और इंदिरा की मुलाकात होनी थी. लेकिन दुर्भाग्य से उसी दिन इंदिरा के बॉडीगार्ड्स ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी.
मिजो शान्ति समझौते पर हस्ताक्षरइसके बाद राजीव गांधी सरकार ने मोर्चा संभाला होम सेक्रेटरी RD प्रधान ने. सितम्बर 1985 में बातचीत दोबारा पटरी पर आई. अगले महीने यानी अक्टूबर 1985 में खबर आई कि 750 MNF विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है. इसके बाद आज ही के दिन यानी 30 जून 1986 को केंद्र सरकार और MNF के बीच ऐतिहासिक मिजो शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए. जिसे राजीव सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक माना जाता है. 1987 में मिज़ोरम को अलग राज्य का दर्ज़ा मिला. उसी साल मिजोरम में पहली बार चुनाव हुए और लालडेंगा मिजोरम के पहले मुख्यमंत्री बने.
इस विषय पर और जानकारी चाहते हैं तो RD प्रधान की किताब, ‘वर्किंग विद राजीव गांधी' पढ़ सकते हैं. इस किताब में प्रधान में एक बड़े रोचक किस्से का जिक्र किया है. हुआ यूं कि 30 जून, जब मिजो शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए, उसी दिन प्रधान रिटायर होने वाले थे. 30 जून दोपहर ढाई बजे लालडेंगा और प्रधान की चाय पर मुलाक़ात हुई. तक समझौते पर हस्ताक्षर पर कोई फैसला नहीं हुआ था. प्रधान ने लालडेंगा से कहा, मिज़ो लोगों और उनकी जमीन से मुझे प्यार हो गया है, उम्मीद है किसी दिन में वहां आकर आपके परिवार से मिल पाऊंगा.
प्रधान की इस बात पर लालडेंगा इतने भावुक हो गए कि उसी दिन हस्ताक्षर करने को राजी हो गए. प्रधान ने बताया कि अगले कुछ घंटों में वो रियाटर हो जाएंगे, इसलिए आज ये संभव नहीं है. लेकिन लालडेंगा अपनी टीम के साथ प्रधानमंत्री आवास पहुंचे और राजीव गांधी के साथ समझौते की आख़िरी कुछ शर्तों पर बात फाइनल कर ली. कैबिनेट से सहमति लेने तक रात के साढ़े आठ बज चुके थे. समझौता तैयार था लेकिन उस पर हस्ताक्षर RD प्रधान को करने थे. लेकिन प्रधान ने ये कहते हुए इंकार कर दिया कि 5 बजे वो रिटायर हो चुके हैं. इसके बाद राजीव गांधी ने उन्हें रात 12 बजे तक का एक्सटेंशन दिया और तब जाकर लालडेंगा और प्रधान में समझौते पे हस्ताक्षर किए.