मई 1988 की एक शाम, दुबई में दाऊद इब्राहिम (Dawood Ibrahim)के बंगले पर एक मीटिंग बुलाई गई. मीटिंग का मुद्दा था, मुम्बई के जोगेश्वरी में जमीन का एक टुकड़ा, जिसे लेकर गैंग के अंदर फूट पड़ने लगी थी. दाऊद के दो खास लोग रमा नाइक और शरद शेट्टी, दोनों जमीन को अपना बता रहे थे. दाऊद ने दोनों के बीच सुलह कराने की कोशिश की. लेकिन दोनों टस से मस होने को तैयार नहीं थे.
दाऊद की टिप पर हुआ सबसे बड़ा एनकाउंटर?
1991 लोखंडवाला की स्वाति बिल्डिंग में 6 लोगों का दिनदहाड़े एनकाउंटर कर दिया गया था.
अंत में फैसला किया दाऊद के दाहिने हाथ, छोटा राजन (Chota Rajan) ने. उसने शेट्टी का साथ दिया. इस पर नाइक ने कहा, अगर जमीन शेट्टी को मिली तो मुझे उगाही से मिली रकम का बड़ा हिस्सा चाहिए. दाऊद इसके लिए राजी नहीं था. मीटिंग असफल रही और नाइक गुस्सा होकर वहां से चला आया. धीरे-धीरे नाइक और दाऊद के बीच दूरी बढ़ने लगी. नाइक ने दाऊद के दुश्मन अरुण गवली और अशोक जोशी से हाथ मिला लिया.
नाइक पूर्वी मुम्बई में दाऊद का धंधा संभालता था. उसी साल 21 जुलाई की बात है. नागपाड़ा पुलिस स्टेशन में मौजूद सब इंस्पेक्टर राजन काटदरे के पास एक कॉल आया. उन्हें टिप मिली की नाइक चेम्बूर में है. काटदरे कुछ हवलदारों को लेकर चेम्बूर पहुंचे. नाइक वहां एक सैलून में बाल कटाने आया था. पुलिस और नाइक के बीच हुई मुठभेड़ में नाइक मारा गया. पुलिस ने इसे एनकाउंटर का नाम दिया. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. उस दौर में ये आम बात थी कि जो कोई दाऊद की नजरों से गिर जाता, वो या तो पुलिस एनकाउंटर में मारा जाता, या किसी गैंगवार में.
नाइक का एक और खासमखास साथी था, अशोक जोशी, उसका भी यही हश्र हुआ. उसी साल 4 दिसंबर के रोज़ जोशी अपनी मारुति कार में पुणे जा रहा था, जब 15 हमलावरों ने पनवेल के पास उस पर हमला किया और उसकी हत्या कर दी. जोशी की गाड़ी पर 180 गोलियां दागी गई थी. ये वो दौर था जब मुंबई अंडरवर्ल्ड का छोटा सा छोटा गुर्गा भी AK 47 रखने लगा था.
जोशी और नाइक की हत्या के बाद अंडरवर्ल्ड में दो नए नाम उभरे, माया भाई (Maya Dolas)और दिलीप बुवा (Dilip Buwa).
बुवा के बारे में कहा जाता था कि एक बार अगर उसकी उंगली ट्रिगर तक पहुंच गई, तो फिर सामने वाले को कोई बचा नहीं सकता था. छोटा राजन को अंडरवर्ल्ड की बारीकियां भी उसी ने सिखाई थीं. 1988 से 1991 के बीच माया और दुआ की जोड़ी, जय-वीरू की जोड़ी के समान हो गई थी. दोनों इतने ताकतवर होते गए कि उन्होंने दाऊद को ही ललकारना शुरू कर दिया. फिर क्या था, उनका भी वही अंजाम हुआ, जो दाऊद के बाकी दुश्मनों का हुआ था. दोनों पुलिस एनकाउंटर में मारे गए. लेकिन ये कोई ऐसा-वैसा एनकाउंटर नहीं था.
भारत के इतिहास में दिनदहाड़े किया जाने वाला ये पहला एनकाउंटर (Lokhandwala Shootout) था. वो भी मुम्बई के सबसे पॉश इलाके में. साथ ही ये पूरा एनकाउंटर कैमरे में रिकॉर्ड भी किया गया था. जिसके चलते इस एनकाउंटर को अंजाम देने वाला पुलिसवाला रातों रात हीरो बन गया था.
16 नवम्बर 1991 की सुबह. मुम्बई में हल्की-हल्की सर्दी पड़ना शुरू हो गई थी. बांद्रा वेस्ट के पुलिस दफ्तर में सन्नाटा पसरा हुआ था कि तभी फोन की एक घंटी बजी. एडिशनल कमिश्नर आफताब अहमद खान (A.A. Khan) ने फोन उठाया. कुछ देर हां, हूं करने के बाद उन्होंने फोन रख दिया. उनकी अलसाई आंखों में अब तक एक चमक आ चुकी थी. खान को टिप मिली कि दिलीप बुवा, जिसने मुम्बई में तहलका मचा रखा था, लोखंडवाला की एक इमारत में देखा गया है.
अहमद खान अपने कुछ लोगों को इस बात की तक़सीद के लिए भेजा. उन्होंने बताया कि लोखंडवाला काम्प्लेक्स (Lokhandwala Complex) की स्वाति बिल्डिंग के फ्लैट नंबर 2 और 3 में दिलीप बुवा, माया भाई और उनके साथी छुपे हुए हैं. कुछ और तहकीकात करने पर पता लगा कि दोनों फ्लैट गोपाल राजवानी के हैं. राजवानी खुद एक गैंगस्टर था और उसके दाऊद के साथ भी ताल्लुकात थे. सारी इनफार्मेशन मुंबई के पुलिस कमिश्नर एस राममूर्ति के पास पहुंचाई गई. उन्होंने अहमद खान की लीडरशिप में पुलिस की एक टीम तुरंत लोखंडवाला की ओर रवाना कर दी. पुलिस के वहां पहुंचने के बाद और एनकाउंटर के दौरान क्या हुआ, इसके पहले जरा माया भाई और दिलीप दुआ की कहानी जान लेते हैं.
महेंद्र डोलस उर्फ़ माया भाई का जन्म मुम्बई की ही एक चाल में हुआ था. उसके 5 भाई बहन थे. उसके मां बाप चाहते थे कि वो पढ़ाई कर ले, इसलिए उसने जैसे-तैसे ITI कर ली. लेकिन इसके बाद उसका मन नौकरी में न लगा. 22 साल की उम्र में वो अशोक जोशी गैंग में शामिल हो गया. और जल्द ही गैंग का टॉप शार्पशूटर बन गया. बिल्डरों से उगाही का जिम्मा उसी के पास था. और वो लोगों से मनमानी फिरौती वसूला करता था.
माया और बुवा की दोस्ती1988 में दाऊद से तनातनी के बाद जब जोशी की हत्या हो गई, तो माया भाई गैंग से अलग हो गया. उसने गैंग के एक और शार्पशूटर दिलीप बुवा को अपने साथ मिलाया और जोशी गैंग के बाकी मेम्बर्स को रास्ते से हटाकर जोशी गैंग का पूरा इलाका हड़प लिया. जोशी गैंग की हत्या के बाद वो दाऊद की नजरों में भी आया और दाऊद ने उसे और बड़े इलाके का जिम्मा सौंप दिया.
गैंग का लीडर माया भाई था लेकिन ऑफिसर खान बताते हैं कि असली धाक दिलीप बुवा की थी. बुवा की पैदाइश 1966 में मुम्बई के कांजूरमार्ग में हुई थी. कांजूरमार्ग और घाटकोपर में उठाईगिरी से शुरुआत कर बुवा ने अंडरवर्ल्ड की दुनिया में एंट्री की. और जल्द ही घाटकोपर का सबसे खतरनाक शार्पशूटर कहलाने लगा. उसका निशाना देखकर ही रमा नाइक ने उसे अपना बॉडीगार्ड बनाया था. लेकिन नाइक की हत्या के बाद वो जोशी गैंग में शामिल हो गया. जल्द ही जोशी की भी हत्या हो गयी. बताते हैं कि जोशी को रास्ते से हटाने के लिए पुलिस को बुवा ने ही टिप दी थी. इसके बाद उसके माया डोलस के साथ हाथ मिलाया. और दोनों मिलकर गैंग चलाने लगे.
कुछ साल सब सही रहने के बाद दोनों दाऊद के ऑर्डर्स से कन्नी काटने लगे. और जिससे चाहे मनचाहे फिरौती की मांग करने लगे. दाऊद को दोनों की ये बगावत कुछ रास नहीं आई. माया डोलस तब तक मुम्बई के सबसे बड़े क्रिमिनल्स में अपना नाम शुमार करा चुका था. उसने कई लोगों की हत्या की थी और वो पुलिस की मोस्ट वांटेड लिस्ट में शामिल था. अगस्त 1991 में पुलिस उसे गिरफ्तार करने में सफल हुई लेकिन पुलिस पर हमला कर वो हिरासत से फरार हो गया. इसके कुछ महीनों बाद ही पुलिस को उसकी और बुवा की टिप मिली. जिसके बाद आया दोनों के एनकाउंटर का दिन.
एनकाउंटर के रोज़ क्या हुआ?ऑफिसर खान अपने साथ तीन इंस्पेक्टर, 6 सब इंस्पेकटर और सात कॉन्स्टेबल की टीम लेकर पहुंचे थे. लोखंडवाला काम्प्लेक्स की ‘अपना घर’ सोसायटी के उत्तर-पश्चिमी कोने में एक बिल्डिंग थी. नाम था स्वाति बिल्डिंग. यहीं पर माया और उसके साथी छुपे हुए थे. जिस फ्लैट में दोनों छुपे थे उसका एक दरवाज़ा बाहर की ओर और एक सीढ़ी की ओर खुलता था. सामने दो मारुति एस्टीम खड़ी थी. जिन्हें देखकर ये पुख्ता हो गया कि माया और बुवा वहीं छुपे हुए हैं. इंस्पेक्टर एमए क़ावी बताते हैं कि फ्लैट का मालिक गोपाल राजवानी बिल्डिंग के बाहर उन्हें मिला. वो उसे वहीं गिरफ्तार कर लेना चाहते थे. लेकिन उन्हें डर था कि अंदर बैठे बुवा और माया चौकन्ने हो जाएंगे. इसलिए उन्होंने उसे जाने दिया. पुलिस वाले सादी वर्दी पहने हुए थे, इसलिए राजवानी भी उन्हें नहीं पहचान पाया.
इसके बाद टीम ने बुवा और माया को पकड़ने के लिए एक ऑपरेशन का प्लान बनाया. फ़्लैट के दोनों दरवाज़ों पर एक-एक टीम तैनात थीं, ताकि कोई भी फ्लैट से बाहर न निकल सके. इसके अलावा एक टीम कवर देने के लिए तैनात थी. दोपहर 1 बजे ऑपरेशन शुरू हुआ. इन्स्पेक्टर कावी अपने साथ एक सब इंस्पेकटर को लेकर फ्लैट के दरवाज़े पर गए. अंदर टीवी पर फिल्म चल रही थी. उन्होंने दरवाज़े को धक्का देने की कोशिश की. तभी अंदर से फायरिंग शुरू हो गई. एक गोली सीधे सब इंस्पेकटर झुंझर राव के सीने में लगी. एक और गोली कावी के दाहिने हाथ को छूकर निकली. कावी पीछे हट गए. ये देखकर ऑफिसर अहमद खान ने हेडक्वार्टर से अतिरिक्त पुलिस बल बुला लिया.
अब तक ये खबर पूरे मुम्बई में फ़ैल चुकी थी कि लोखंडवाला में दिनदहाड़े एनकाउंटर चल रहा है. मीडिया के लोग वहां पहुंच चुके थे. पूरी घटना कैमरे पर रिकॉर्ड की जा रही थी. तब तक पूरा इलाका मानों छावनी में तब्दील हो गया था. पुलिस को मिली सूचना के अनुसार फ्लैट में बुवा और माया के अलावा चार लोग और थे. गोपाल पुजारी, अनिल खूबचंदानी, राजू नादकर्णी और अनिल पवार. ऑफिसर खान बताते हैं कि उन्होंने लाउडस्पीकर पर उन लोगों से सरेंडर करने को कहा, लेकिन अंदर से सिर्फ गोलियों चलती रहीं. माया उन्हें बार-बार गालियां दे रहा था.
बुवा और माया का खात्माइस बीच दिलीप बुवा ने दरवाज़े से निकलकर कार तक पहुंचने की कोशिश की. लेकिन वो पुलिस फायरिंग में मारा गया. इसके बाद गोपाल और राजू ने सीढ़ियों के रास्ते भागने की कोशिश की. पहली मंजिल पर उन्हें भी ढेर कर दिया गया. आखिर में माया डोलस और अनिल पवार कमरे से निकले. उन्होंने भी सीढ़ी के रास्ते भागने की कोशिश की लेकिन वो भी मारे गए. ऑपरेशन ख़त्म हुआ. इनकाउंटर दिनदहाड़े कैमरा पर रिकॉर्ड हुआ था. इसके बावजूद कुछ चीजें ऐसी थी, जिनको लेकर पुलिस पर सवाल भी उठे.
मुठभेड़ के दौरान पुलिस ने देखा कि उनका अपना एक साथी पहले से बुवा के फ्लैट पर मौजूद था. उसकी शिनाख़्त 28 साल के विजय चाकोर के रूप में की गई। वह यरवड़ा जेल में सिपाही था. पुलिस ये जवाब देने में नाकाम रही कि एक पुलिसवाला गैंगस्टर्स के साथ क्या कर रहा था. साथ ही ये सवाल भी उठा कि दाऊद से दुश्मनी मोल लेते ही बुवा और माया इतनी जल्दी कैसे मारे गए. पुलिस को टिप क्या दाऊद ने ही दी थी. इन सब सवालों के चलते इस एनकाउंटर को लेकर एक मजिस्ट्रियल जांच बैठी. जिसमें सवाल उठा कि दिनदहाड़े एनकाउंटर की जल्दबाज़ी क्यों दिखाई गई. पुलिस द्वारा एनकाउंटर पर 450 राउंड खर्च किए जाने पर भी सवाल थे. एक इल्जाम ये भी था कि पुलिस ने बुवा और माया के पास मिले 70 लाख रूपये हड़प लिए थे. एडिशनल कमिश्नर आफताब खान पर भी कई आरोप लगे. लेकिन जांच में पुलिस को क्लीन चिट दे दी गई.
अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन ने भी इसे एक फेक एनकाउंटर करार दिया. इस समय तक छोटा राजन और दाऊद के रिश्तों में भी दरार आ चुकी थी. उसने इल्जाम लगाया कि दाऊद ने राजन के पर कतरने के लिए माया और दुआ को रास्ते से हटाया.इस एनकाउंटर ने एडिशनल कमिश्नर आफताब खान को रातों रात हीरो बना दिया. एनकाउंटर से मिली शोहरत को खान ने राजनीति में भुनाया और जनता दल की तरफ से चुनाव में खड़े हुए. हालांकि यहां उन्हें ऐसी सफलता नहीं मिली. गोपाल राजवानी जो इस एनकाउंटर में बच निकला था. उसने आगे जाकर शिवसेना ज्वाइन कर ली. और कुछ साल बाद उसे एक दूसरी गैंग के लोगों ने मार डाला. इस एंकाउंटर पर साल 2007 में एक फिल्म भी बनी जिसका नाम था ‘शूटआउट एट लोखंडवाला’. इस फ़िल्म में ऑफिसर आफताब खान का रोल संजय दत्त और माया डोलस का किरदार विवेक ओबेरॉय ने निभाया था.
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