एक रोज़ किसी ने स्वामी विवेकानंद से सवाल किया. “भारत में तमाम रंग के लोग पाए जाते हैं, काले भूरे, लाल. इसके बाद भी सबमें एकता है”.
विवेकानंद ने जवाब देते हुए कहा, “देखो घोड़े अलग अलग रंग एक होते हैं. इसके बाद भी साथ रह लेते हैं. लेकिन गधों को देखो, एक ही रंग के होते हैं, लेकिन साथ नहीं रह सकते”
कैसे बीता स्वामी विवेकानंद की जिंदगी का आख़िरी दिन?
अपने आखिरी दिनों में स्वामी विवेकानंद लगभग 31 बीमारियों से पीड़ित थे.
विवेकानंद इशारों इशारों में पश्चिम को आइना दिखा रहे थे, जिनमें रंग का दम्भ था, और इसके बावजूद कोई एकता नहीं थी. स्वामी विवेकानंद के ऐसे किस्सों से इंटरनेट पटा पड़ा है. अक्सर उन्हें जानने की कोशिश करो तो एक ही छवि बनती दिखाई देती है. एक महामानव, जिसमें कोई कमजोरी नहीं, जिसमें कोई दोष नहीं. लेकिन ये बात असलियत से कोसो दूर है. विवेकानंद को आम इंसानों से परे दिखाने का उद्देश्य शायद उनके प्रति कृतज्ञता दिखाना है. लेकिन इसी फेर में एक गलती भी हो जाती है.
पश्चिमी देशों के दौरे के बाद जब विवेकानंद भारत लौटे, उन्होंने मद्रास में युवाओं को सम्बोधित किया. यहां उन्होंने कठोपनिषद से एक सूत्र युवाओं को दिया था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत.’ यानी उठो जागो और अभीष्ट को प्राप्त करो. यानी उठो, जागो और ऊंचे से ऊंचे को हासिल करो.
यहां ऊंचे का अर्थ अक्सर बेहतर से लगा लिया जाता है. लेकिन क्या एक चोर अपने काम में सबसे बेहतर नहीं हो सकता. इसीलिए इस सूत्र का पहला हिस्सा दूसरे से ज्यादा जरूरी है. और अक्सर यही हमारी नजरों से फिसल जाता है. पहला हिस्सा यानी उठो, जागो. जागने का अर्थ है सही को जानना है. ज़रूरी स्वामी विवेकानंद को सिर्फ किस्सों कहानियों के ही नहीं, ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में भी जाना जाए. मसलन स्वामी जी की मृत्यु का विवरण. जिसके बारे में कम ही बात होती है. 9 दिसंबर 1898 में स्वामी विवेकानंद ने बेलूर मठ की स्थापना कराई थी. यहीं उनके जीवन के अंतिम दिन बीते थे और यही उनके बनाए श्रीरामकृष्ण मिशन का केंद्र भी है.
पश्चिम बंगाल के लेखक मणि शंकर मुखर्जी ने स्वामी विवेकानंद पर एक किताब लिखी है. नाम है, द मैन एज़ अ मॉन्क. शंकर लिखते हैं कि 1897 में जब विवेकानंद विदेश यात्रा से भारत लौटे, तब तक उन्हें तमाम तरीके की बीमारियां पकड़ चुकी थीं. 34 साल की उम्र में उन्हें गले में दर्द, किडनी में समस्या, डायबिटीज़, माइग्रेन, टॉन्सिलटिस, अस्थमा, मलेरिया, बुखार, लिवर में समस्या, अपच, गैस्ट्रोएन्टेरिटिस, ब्लोटिंग, डायरिया, डिस्पेप्सिया, गॉल्सटोन जैसी कुल 31 बीमारियां हो चुकी थीं.
डायबिटीज कीबीमारी उन्हें विरासत में मिली थी. उनके पिता को भी डायबिटीज थी. इसके इलाज के लिए उन्होंने तमाम तरीके अपनाए, होम्योपैथी का सहारा लिया. लेकिन उन्हें आराम न मिला. शंकर लिखते है कि साल 1901 में उनके एक साथी ने उनसे कहा, ‘मुझे लगता है आयुर्वेद से सबसे ज्यादा फायदा होगा’. इस पर विवेकानं ने जवाब दिया,
“मुझे लगता है विज्ञान की जानकारी रखने वाले एक फिजिशियन के हाथों में मर जाना बेहतर है, बजाय कि ऐसे नीम हकीमों का सहारा लेने के जो अंधेरे में तीर मारते हैं, और हजारों साल पुरानी किताबों का वास्ता देते हैं, चाहे इससे कुछ लोग ठीक भी हो जाते हों”
ये वाकया बताता है कि उपनिषदों के दर्शन का कदम कदम पर संदर्भ देने वाले विवेकानंद सिर्फ परम्परावादी नहीं थे. विज्ञान से उनका गहरा लगाव था.
स्वामी जी ने अपने जीवन का आख़िरी दिन कैसे गुजारा?शुक्रवार 4 जुलाई 1902, स्वामी विवेकानंद की जिंदगी का आख़िरी दिन था. शंकर ने अपनी किताब में सिस्टर निवेदिता के हवाले से इस दिन का ब्यौरा दिया है.
उस रोज़ स्वामी विवेकानंद सुबह सुबह उठकर पूजा के कमरे में गए. उनकी तबीयत बिलकुल ठीक थी. नाश्ते के दौरान उन्होंने लोगों से हंसी मजाक की. चाय और कॉफ़ी भी पी. इसके बाद बाद नाश्ते में हिलसा मछली खाते हुए पूर्वी बंगाल के एक सन्यासी से बोले, 'हिलसा खा रहे हो, और तुमने विधिवत पूजा नहीं की’. पूर्वी बंगाल के लोग साल की पहली हिलसा मछली की पूजा किया करते थे. स्वामी जी का ये तंज इसी ओर था.
इसके बाद स्वामी जी सैर पर गए. यहां अपने साथ चल रहे स्वामी प्रेमानंद से उन्होंने कहा, “तुम मेरी नक़ल क्यों करते हो, वो गलतियां कभी मत करना जो मैंने की”.
दोपहर के भोजन के बाद उन्होंने तीन घंटे लाइब्रेरी में गुजारे. यहां उन्होंने शिष्यों को पाणिनी की लघुकौमिदी पढ़कर सुनाई. शाम चार बजे वो बेलू बाजार तक घूमने के लिए गए. पांच बजे मठ लौटे. यहां उन्होंने आम के पेड़ के नीचे बैठकर ऐलान किया “इतना बेहतर मैंने सालों से महसूस नहीं किया." शंकर लिखते हैं कि इसके बाद उन्होंने धूम्रपान किया और चाय पी.
शाम 7 बजे स्वामी विवेकानंद अपने कमरे में गए. पूर्वी बंगाल के ब्रह्मचारी ब्रजेन्द्र इस वक्त उनके साथ थे. स्वामी जी ने उनसे माला ली और ध्यान में बैठ गए. करीब 7.45 पर विवेकानंद ने ब्रजेन्द्र को पुकारा और कहा, मुझे गर्मी लग रही है, जरा खिड़की खोल देना. इसके बाद विवेकानंद जमीन पर बने अपने बिस्तर पर लेट गए. उनका एक शिष्य उन्हें पंखा झल रहा था. स्वामी जी ने उससे कहा, “तुम्हें पंखा झलने की जरुरत नहीं. हो सके तो मेरे पैर दबा दो.”
9 बजे के आसपास स्वामी जी ने करवट ली. उनके चेहरे पर पसीना था. और हाथ कांप रहे थे. तभी अचानक वो बच्चे की तरह दहाड़ मार-मार कर रोने लगा. कुछ ही देर में रोना शांत हो गया. और वो मुस्कुराने लगे.
रात साढ़े नौ बजे सब उनके कमरे में दौड़ते हुए आए. स्वामी बोधानन्द ने उनकी नाड़ी चेक की. और इसी के साथ रोना शुरू कर दिया. किसी ने कहा, जाओ डॉक्टर महेंद्र मजूमदार को बुला लाओ. मजूमदार आए और उन्होंने चेक कर बताया कि स्वामी जी के दिल ने काम करना बंद कर दिया है. उन्होंने कृत्रिम सांस देने की कोशिश की. लेकिन कोई असर नहीं हुआ. इसके अगले रोज़ स्वामी विवेकानंद का उसी गंगा घाट पर अंतिम संस्कार हुआ, जहां कुछ दिन पहले उन्होंने उंगली से इशारा कर कहा था कि उनका अंतिम संस्कार यहां करें.
महिलाओं के प्रश्न पर विवेकानंदशंकर लिखते हैं कि स्वामी विवेकानंद की शोक सभा में हाई कोर्ट के दो जजों को आमंत्रित किया गया था. लेकिन दोनों ने ये कहते हुए इंकार कर दिया कि अगर बंगाल में कोई हिन्दू राजा होता तो स्वामी विवेकानंद को कबके फांसी दे दी गई होती. शंकर का ये जिक्र हैरानी भरा है. क्योंकि आज 21 वीं सदी में स्वामी विवेकानंद को हिन्दू धर्म का आइकॉन माना जाता है. वो इंसान जिसने सनातन धर्म को दोबारा जिन्दा किया. फिर कोई हिन्दू राजा उन्हें फांसी क्यों देता?
यहां एक बार दोबारा हमें देखना होगा कि क्या विवेकानंद परंपरा ही बात कर रहे थे या किसी और चीज की. धार्मिक परम्परवादी सवालों के प्रति स्वामी विवेकानंद के नजरिए पर गौर करिए. विधवा महिलाओं के सवाल विवेकानंद एक जगह कहते हैं,
आजादी विकास की पहली शर्त है. अगर कोई यह कहने का साहस करता है, "मैं इस महिला या बच्चे के उद्धार का कार्य पूरा करूंगा", तो मैं कहता हूं एक ग़लत है, हज़ार दफ़ा ग़लत है. मुझसे बार-बार पूछा जाता है कि मैं विधवा समस्या के बारे में क्या सोचता, महिलाओं के बारे में क्या सोचता हूं. तो मुझे इसका बस एक बार जवाब देना है. क्या मैं एक विधवा हूं जो आप मुझसे ये अंटशंट पूछ रहे हैं. और महिलाओं की समस्या हल करने वाले आप कौन हैं. आप ख़ुदा हैं जो आप हर विधवा और हर महिला पर राज करेंगे. उनसे दूर रहो, वे अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करेंगे.
एक दूसरी जगह पर वे कहते हैं,
‘तुम लोग स्त्रियों की निंदा ही करते रहते हो, परंतु उनकी उन्नति के लिए तुमने क्या किया, बताओ तो? स्मृति आदि लिखकर, नियम-नीति में बांधकर इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला है. सबसे पहले महिलाओं को सुशिक्षत बनाओ, फिर वे स्वयं कहेंगी कि उन्हें किन सुधारों की आवश्यकता है.”
ये विचार पुराने नहीं है, आज भी अधिकतर समाज में मत दिखाई देता है कि चाहे स्त्री को नौकरी की आजादी मिल जाए, लेकिन इसके बावजूद घर और बच्चे उसकी पहली जिम्मेदारी हैं.
एक और उदाहरण देखिए, एक जगह जब उनसे गीता पर सवाल पूछा गया, तो विवेकानंद कहते हैं, “ताकतवर बनो, मेरे युवा दोस्तों! यही मेरी सलाह है. गीता कि बजाय तुम फ़ुटबॉल के मैदान पर स्वर्ग के ज़्यादा नज़दीक होगे. ये कहने के लिए साहस चाहिए, लेकिन मुझे तुमसे ये कहना ही होगा”
गीता और उपनिषदों के दर्शन पर बार बार बात करने वाले विवेकानंद क्या गीता नहीं पढ़ने को कह रहे थे. यकीनन नहीं. लेकिन इतना साफ़ है कि सिर्फ़ कोरे दर्शन से कोई लगाव नहीं था. एक जगह वो कहते हैं.
“व्यवहारिक तरीक़ों के बिना, जैसे कि इस्लाम में है, वेदांत का दर्शन चाहे वो कितना ही सुंदर क्यों ना हो, दुनिया के किसी काम नहीं आ पाएगा”
उनके इस वचन में हमें सर्वधर्म एकता का विचार नज़र आता है. अमेरिका जाकर भी जब उन्होंने ईसाई मिशनरियों की निंदा की, तब उन्होंने समस्त ईसाइयों का इसका क़सूरवार नहीं कहा. बल्कि वो बार बार ईसा और उनके संदेश की प्रशंसा करते हैं.
जाति के सवाल पर विवेकानंदअब इसी तरह इस पर भी नज़र डालिए कि कैसे विवेकानंद महान होने के बावजूद एक आम इंसान थे और कुछ हद तक अपने समय की परिस्थितियों में बंधे हुए थे. जाति पर स्वामी विवेकानंद के विचार उस आलोचन तक नहीं पहुंचते है, जैसे दूसरी दुष्प्रथाओं के लिए.
जातिवाद के लिए वो कहते हैं, जाति एक नेचुरल आर्डर है. दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो जाति से बंधा न हो. जाति के विषय में एक दूसरी जगह वो कहते हैं,
“मानव समाज का शासन क्रमशः एक दूसरे के बाद चार जातियों द्वारा हुआ करता है, ये जातियां है; पुरोहित, योद्धा, व्यापारी और श्रमिक.
हालांकि यहां पर वो भी जातिवाद का समर्थन नहीं करते. वो कहते हैं,
“प्रथम तीन जातियां अपने दिन भोग चुके हैं, अब चौथी अर्थात् शूद्र जाति का समय आया है. उनको वह सत्ता मिलनी ही चाहिए, उसे कोई रोक नहीं सकता.”
श्री प्रमदा दास को लिखे एक खत में वो कहते हैं,
“मेरे मन में दिनोंदिन ये विश्वास बढ़ता जा रहा है कि जाति -भाव सबसे अधिक भेद उत्पन्न करने वाला और माया का मूल है. सब प्रकार की जाति, चाहे वो जन्मगत हो या गुणगत , बंधन ही हैं. कुछ मित्र मुझे सुझाव देते हैं, ‘सच है, मन में यही मानो, लेकिन व्यावहारिक जगह में जाति जैसे भेदों को बनाए रखना उचित ही है””
आगे वो लिखते हैं, ‘जाति जैसे पागल विचार पुरोहितों की पुस्तकों में पाए जाते हैं. ईश्वर की पुस्तक में नहीं.’
ऐसे तमाम वाक़यों से दो बातें पता चलती हैं. एक कि स्वामी विवेकानंद एक आम इंसान जैसे ही थे. आम आदमी ही ही तरह जिए, बीमार हुए, और मृत्यु को प्राप्त हुए, और इसके बावजूद विवेकानंद बने. उन्हें बहुत ऊंची गद्दी पर बिठा देने से ये कहने का बहाना मिल जाता है कि वो विवेकानंद से इसलिए ऐसा कर पाए. दूसरा कि धर्म का दर्शन उन्होंने दिया लेकिन वो परम्परावादी नहीं बल्कि धर्म सुधारक थे.
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