साल 1975 की बात है. मिथिला से आने वाले बिहार के एक बहुत बड़े नेता हुआ करते थे. नाम था ललित नारायण मिश्र (Lalit Narayan Mishra). बिहार के लोगों के लिए इस नाम को इन्डट्रोडक्शन की जरुरत नहीं है. उस दौर का कोई आदमी साल 2022 में भी ये नाम सुन ले तो कहे, ललित बाबू होते तो बिहार कुछ और होता. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के कार्यकाल में उन्हें संसदीय सचिव का पदभार मिला. और इंदिरा गांधी के दौर में वो रेल मंत्री के पद पर पहुंच गए. बताते हैं कि जब तक ललित बाबू रहे, उन्होंने इंदिरा और जय प्रकाश नारायण के बीच मतभेदों को पाटने की कोशिश की.
रेल मंत्री की हत्या में किसे बचाने की कोशिश हुई?
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार में रेल मंत्री रहे ललित नारायण मिश्र की 2 जनवरी 1975 के दिन बिहार के समस्तीपुर स्टेशन पर बम से उड़ा कर हत्या कर दी गई थी. इस हत्या कि गुत्थी आज तक उनसुलझी है.
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“यूं हो तो क्या होता..’ कि तर्ज़ पर ये भी कयास लगाए जाते हैं कि अगर ललित बाबू जिन्दा रहे होते तो शायद जेपी का आंदोलन शुरू नहीं होता. इमरजेंसी न लगती और और शायद ललित बाबू आगे चलकर प्रधानमंत्री भी बन जाते. बहरहाल ‘अगर ऐसा होता… ‘ को यहीं तजते हुए जानते हैं कि हुआ क्या? ललित बाबू मारे गए. एक बम धमाके में. भारत में किसी कैबिनेट मंत्री की ये पहली हत्या थी. किसने की? यही बड़ा सवाल है. शुरुआती जांच में CID इस हत्या में किसी बड़े नाम की ओर इशारा कर रही थी. लेकिन फिर रातों रात CBI ने हत्या की तहकीकात अपने हाथ में ले ली. और तहकीकात किसी दूसरी ही दिशा में मुड़ गयी. 24 जजों ने इस केस की सुनवाई की. लगभग 40 साल तक केस चला. कुछ लोगों को दोषी भी पाया गया. इसके बावजूद इस केस के कई पहलू ऐसे हैं, जिनके आगे लगभग आधी सदी के बाद भी फुल स्टॉप नहीं लग पाया है. क्या थी ललित नारायण मिश्र हत्याकांड (Lalit Narayan Mishra Murder Case) की कहानी?
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क्या हुआ था उस रोज़?
2 जनवरी 1975 को बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन से एक नई रेलवे लाइन का उद्घाटन होना था. कार्यक्रम में शरीक होने वालों में रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र का नाम शामिल था. ललित बाबू शाम को पहुंचने वाले थे. और उसी हिसाब से सारी तैयारियां की गई थीं. तय वक्त पर कार्यक्रम शुरू हुआ. उद्घाटन के बाद ललित बाबू ने भाषण दिया. भाषण के बाद जब वो मंच से नीचे उतरने लगे, अचानक सामने भीड़ की तरफ से एक हथगोला मंच की ओर उछला. जोर का धमाका हुआ. अफरातफरी मच गई. जब तक सब कुछ शांत हुआ, पता चला कि धमाके से रेल मंत्री बुरी तरह घायल हो गए हैं. उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र भी घायल थे. कुल 18 लोगों को गंभीर चोट आई थी. रात को रेडियो से जब खबर फ़ैली तो पूरे बिहार में सनसनी मच गई.
इधर ललित बाबू को हॉस्पिटल ले जाया जाना था. समस्तीपुर रेलवे स्टेशन से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर दरभंगा मेडिकल कॉलेज था, जहां कुछ ही देर में पंहुचा जा सकता था. लेकिन पता चला कि वहां डॉक्टरों की हड़ताल है. दरभंगा में एक मशहूर सर्जन रहा करते थे. डॉक्टर सैयद नवाब. उनका अपना प्राइवेट क्लिनिक था. कई घायलों को वहां भेजा गया. लेकिन ललित बाबू के लिए तय हुआ कि उन्हें पटना भेजा जाएगा. लगभग 132 किलोमीटर दूर. क्यों? इस सवाल का कभी कोई जवाब नहीं मिल पाया. ललित नारायण मिश्र और जगन्ननाथ मिश्र को कुछ लोगों के साथ एक ट्रेन में पटना के लिए रवाना किया गया. ट्रेन को दानापुर रेलवे स्टेशन पहुंचना था. रेल से वहां तक पहुंचने में कुछ 6-7 घंटे का समय लगना चाहिए था. लगा कितना- पूरे 14 घंटे. क्यों? इसका भी कोई जवाब नहीं है. नवीन बाबू के समर्थक मानते थे कि जानबूझकर देर की गई.
बहरहाल कैसे भी करते-कराते ट्रेन दानापुर पहुंची. यहां रेलवे अस्पताल में नवीन बाबू का इलाज करने की कोशिश हुई. बम के छर्रे दोनों पैर में घुसे हुए थे. बहुत खून निकल गया था. इसलिए डॉक्टरों की लाख कोशिश के बाद भी ललित बाबू को बचाया नहीं जा सका. उनकी मृत्यु की तारीख थी, 3 जनवरी, 1975. उनके अलावा दो और लोग इस हादसे में मारे गए. अब बारी तहकीकात की थी. 2 जनवरी की शाम समस्तीपुर रेलवे पुलिस के पास एक FIR दर्ज़ हुई थी. राज्य सरकार ने मामला CID को सौंपा. केस राज्य पुलिस से रातों रात CBI को सौंप दिया गया. CBI की तहकीकात में क्या निकला, ये जानने से पहले एक और शख्स के बारे में जान लीजिए. प्रभात रंजन सरकार उर्फ़ आंनद मूर्ति बाबा.
आनंदमार्गियों का नाम आया
आंनद मूर्ति बिहार में एक संप्रदाय चलाते थे, जिसके अनुनायियों को आनंदमार्गियों के नाम से जाना जाता था. आनंद मार्ग का एक ही मकसद था, 'सदविप्र राज' कायम करना. यानी ऐसी सरकार बनाना जिसमें सब सदाचारी हों. और इस उद्देश्य के लिए आनंदमार्गी हथियार उठाने से भी गुरेज नहीं करते थे. इनको हथियारों की ट्रेनिंग दी जाती थी. एक सेना टाइप भी बनाई थी, नाम था अवधूत सेना. 70 के दशक में आनंदमार्गियों का नाम एयर इंडिया के विमान एंपरर अशोका के क्रैश से जुड़ा था. वहीं 1995 में जब पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में आसमान से हथियार गिराए गए, उस केस में भी आनंदमार्गियों का नाम आया था. इस केस के बारे में हम तारीख के पिछले एक एपिसोड में बता चुके हैं. चाहें तो डिस्क्रिप्शन में दिए लिंक में जाकर देख सकते है. बहरहाल सवाल ये कि आनंदमार्गियों का इस केस से क्या लेना देना था?
हुआ यूं कि साल 1971 में आनंदमार्गियों के गुरु आंनद मूर्ति बाबा को पटना पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. इल्जाम था कि बाबा ने 'आनंद प्रचारक संघ’ छोड़कर गए कुछ लोगों को मारने की साजिश रची थी. इस केस में आंनद मूर्ति को जेल में डाल दिया गया. कई कोशिशों के बावजूद बाबा को जमानत नहीं मिल पाई. नतीजा हुआ कि बाबा के समर्थकों ने हंगामा काटना शुरू कर दिया. कइयों ने आत्मदाह का प्रयास भी किया. बाबा ने जेल से अपने समर्थकों को भड़काया,
“जब तक मुझे रिहाई न मिले चैन मत लेना”.
बाबा की इसी बात को CBI ने ललित बाबू की हत्या से जोड़ा. CBI ने जो चार्जशीट दायर की. उसके अनुसार, ललित बाबू की हत्या के लिए तीन लोगों ने प्लान बनाया था. इनके नाम थे, विनयानंद, संतोषानंद, विश्वेश्वरानंद. इन तीनों ने अपनी पहचान छिपाने के लिए बाल और दाढ़ी कटवा लिए. और विजय और जगदीश जैसे फ़र्ज़ी नाम भी रख लिए. आगे चलकर चार और लोग भी इनके साथ जुड़े. इनके नाम थे, संतोषानंद, सुदेवानंद, अर्तेशानंद और आचार्य राम कुमार सिंह. भागलपुर के एक गांव में इन लोगों की मीटिंग हुई. इस मीटिंग में आनंद मूर्ति के दुश्मनों की एक लिस्ट तैयार की गयी. जिनमें तीन नाम थे, माधवानंद, ललित नारायण मिश्र और अब्दुल गफूर. गफूर उस समय बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.
कैसे बना प्लान?
मीटिंग में ये फैसला भी हुआ कि कौन किसकी हत्या करेगा. ललित बाबू की हत्या का जिम्मा रंजन द्विवेदी, संतोषानंद और सुदेवानंद को दिया गया. राम आश्रय प्रसाद नाम के एक आदमी ने बमों का जुगाड़ किया. घटना के दिन रंजन द्विवेदी ने उद्घाटन समारोह के लिए चार पास जुटाए. और जैसे ही उस रोज़ ललित बाबू का भाषण ख़त्म हुआ, संतोषानंद ने अपने कपड़ों में छिपाया हथगोला उनकी और उछाल दिया. जिसके फटने से ललित बाबू घायल हुए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई.
CBI के अनुसार घटना के अगले दिन पटना न्यूज एजेंसी के पास एक खत आया. जिसमें लिखा था कि समस्तीपुर रेलवे स्टेशन में हुआ बम धमाका, क्रांति के दौर की शुरुआत है. उस वक्त UNI, पटना ब्यूरो में पत्रकार रहे फरजंद अहमद ने ये पर्चा ब्यूरो चीफ धैर्यनंद झा को दिया. उन्होंने उसे CBI के सुपुर्द किया. फरजंद और धैर्यनंद झा CBI की ओर से बाद में इस केस के गवाह भी बने.
CBI ने अपनी जांच में चार लोगों को नामजद किया. आगे चलकर उन्हें सजा भी सुनाइ गई. इसके बावजूद अपने उतार चढ़ावों के कारण ये केस हमेशा सन्देह के घेरे में रहा. साल 1977 में कर्पूरी ठाकुर सरकार में इस केस की जांच बिठाई गई. इस जांच कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा, CBI ने जिन लोगों को आरोपी बनाया है, वो बेगुनाह हैं. मामले में सरकारी गवाह बने कुछ लोगों ने भी कहा कि CBI ने उन्हें उसके मन-मुताबिक बयान देने के लिए मजबूर किया. शुरुआत में जब बिहार CID केस की जांच कर रही थी, तब लग रहा था कि हत्या के पीछे किसी बड़े और ताकतवर इंसान का हाथ है. CBI के पास केस जाते ही जांच की पूरी दिशा बदल गई.
इस केस का एक पहलू अन्तराष्ट्रीय राजनीति से भी जुड़ा. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ललित बाबू की हत्या में किसी विदेशी का हाथ होने की आशंका जताई. कहा गया कि हत्या में अमरीकी खुफिया एजेंसी CIA का हाथ है. ये वो समय था जब लगभग दक्षिणी एशिया के अधिकतर देश अमरीका और रूस के बीच की खींचतान से परेशान थे. CIA के सामने थी रूसी एजेंसी KGB. कहा जा रहा था कि दो महाशक्तियों के बीच "तीसरी दुनिया" के देशों को अपने पाले में करने की होड़ मची थी. 90 के दशक में एक KGB अधिकारी के द्वारा लीक की गई जानकारी के आधार पर एक किताब बाहर आई. नाम था मित्रोखिन आर्काइव. इस किताब में दावा किया गया था कि ललित नारायण मिश्रा और इंदिरा गांधी ने KGB से घूस ली थी. और इस वजह से CIA ने ललित नारायण मिश्रा को मरवा दिया.
साल 2022 में इस केस को लगभग 47 साल हो चुके हैं. इतने लम्बे वक्त में आशकाएं अफवाहों का रूप ले लेती है. कई लोग कहते हैं कि इमरजेंसी से पहले हालात इंदिरा के हाथ से निकलते जा रहे थे. ललित बाबू की लोकप्रियता और उनके बढ़ते कद से इंदिरा घबरा गई थीं. उन्हें लगा कि ये शख्स शायद उनके सिंहासन के लिए चुनौती बन सकता है. ऐसी ही कई और बातें भी चलती हैं, चूंकि क़ानून में इनका निपटारा नहीं हो सकता, इसलिए लोगों के जहन में ये बातें जिन्दा हैं.
अदालत में ये केस लगभग 40 साल तक घिसटता रहा. 24 जजों ने सुनावाई की. जिसके बाद फैसला आया साल 2014 में. नवंबर, 2014 में सेशन कोर्ट ने रंजन द्विवेदी, संतोषानंद, सुदेवानंद और गोपाल जी को उम्रकैद सुनाई. इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई. 2015 में आरोपी जमानत पर छूट गए. फैसके के बाद भी ललित बाबू के परिवार ने बार-बार कहा कि जिन्हें सजा हुई है, वो निर्दोष हैं. इतिहास के नजरिए से देखें तो ललित नारायण मिश्र की हत्या ने बिहार की राजनीति पर एक बड़ा असर डाला. आगे चलकर उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री बने. बिहार में कांग्रेस के लिए वो आख़िरी बड़े नेता साबित हुए. जिसके बाद बिहार की राजनीति मंडल कमंडल के अधीन चली गई.
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