संस्कृत का एक श्लोक है, एकम सत विप्रा, बहुदा वदन्ति. यानी सच एक है और ज्ञानी लोग उसे अलग अलग प्रकार से कहते हैं. सच को कहने के इन तरीकों में से एक तरीका ऐसा है, जो सिर्फ अनुभव द्वारा ही कहा जा सकता है. जाहि बीती सो जाने- यानी ऐसा सच जो जिस पर बीता है, वो ही जान सकता है. जातिवाद ऐसा ही एक सच है.
ज्योतिबा फुले मरते हुए भी जातिवाद का भांडा फोड़ गए!
महात्मा फुले ने अपना जीवन महिलाओं, वंचितों और शोषित वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित किया था.
जाति जो कभी नहीं जाती- स्वदेश पिक्चर का ये डायलॉग याद होगा आपको. फिर ये भी सुना होगा कि जातिवाद पुराने ज़माने की बात है. खैर ये पुराने जमाने की बात थी, या इस जमाने की भी है, ये तो बहस का विषय है. लेकिन पुराने जमाने में भी जातिवाद का मतलब क्या था, इसका लेखा जोखा किया जाना भी अब तक बाकी है.
जाति का इंच टेप‘भारत के सामाजिक क्रांतिकारी’ नाम की एक किताब है. इसे देवेंद्र कुमार बेसंतरी ने लिखा है. बेसंतरी केरल में जाति का गणित समझाते हैं. केरल में पिछड़ा होने का मतलब होता था कि नंबूदरी, ब्राह्मण, नायर जैसे सवर्णों से आपको 32 फ़ीट की दूरी रखनी होती थी. इससे नजदीक आए तो वो अपवित्र हो जाते थे. आगे और भी लेवल थे. इससे ऊपर नायर इढ़वा थे, जिनसे 64 फ़ीट की दूरी बनाकर रखनी होती थी. और इससे भी आगे थे इढ़वा जाति के लोग, जिनसे 100 फ़ीट की दूरी बनाकर रखनी होती थी. एकदम फिक्स दूरी बनाकर रखने के लिए क्या ऊंची जाति के लोग इंच टेप लेकर चलते थे या नहीं, इसका जिक्र बसन्तरी ने नहीं किया है. इसी तरह अब 19 वीं सदी के पुणे का हाल देखिए.
रास्ते एक थे लेकिन लोग नहीं. पिछड़ों को रास्ते में चलते हुए ये ध्यान रखना होता था कि किसी ऊंची जाति वाले पर परछाई न पड़ जाए. दिन का वो समय जब परछाई लम्बी होती थी, तब सड़क पर चलने का मतलब था मौत को बुलावा देना. ऐसे में पिछड़ों को इस समय सड़क से दूर होकर बैठना पड़ता था. अछूतों को आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से ना छू लें, कमर में झाड़ू बांधकर चलें, ताकि इनके पैरों के निशान झाड़ू से मिट जाएं. और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं. वहीं अगर मुंह थूक से भर जाए तो थूकने के लिए मिट्टी के किसी एक बर्तन को रखना पड़ता था.
इन्हीं परिस्थितियों में 11 अप्रैल, 1827 को पुणे में जन्म हुआ महामना ज्योतिबा फुले (Jyotirao Phule) का. बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर (Bhimrao Ambedkar) ने तीन लोगों को अपना गुरु माना था, महात्मा बुद्ध, कबीरदास और तीसरे ज्योतिबा फुले. आज यानी 28 नवम्बर के रोज़ ही 1890 में ज्योतिबा फुले ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था. कौन थे ज्योतिबा फुले, और पिछड़ी जातियों के उत्थान में उनका क्या योगदान था.
जाति से पहला परिचयज्योतिबा फुले का जन्म एक साधारण माली परिवार में हुआ था. उनके पिता गोविंदराव फूल बेचकर घर चलाते थे. इसी दुकान में काम करते हुए एक दिन ज्योतिबा को जाति की सच्चाई का अहसास हुआ. हुआ यूं कि उनके पिता की दुकान में मुंशी का काम करने वाला लड़का जाति से ब्राह्मण था. उसने अपनी शादी पर ज्योतिबा को आने का निमंत्रण दिया. और ज्योतिबा चले भी गए. लेकिन न तो ज्योतिबा को, न ही उस लड़के को पता था कि ब्राह्मण के विवाह में पिछड़ी जाति के किसी व्यक्ति के आने पर मनाही थी. ज्योतिबा शादी में गए तो किसी ने चिल्लाकर कहा, “अरे इस शूद्र को यहां किसने आने दिया”. देखते-देखते हंगामा खड़ा हो गया, और ज्योतिबा को शादी से बाहर कर दिया गया.
बच्चे का मन था. इस घटना से गहरा चोटिल हुआ. लेकिन उन्हें ये भी समझ आ गया कि जातिवाद की असलियत क्या है. जातिवाद के इस ज़हर से लड़ने का उन्हें एक ही माध्यम नजर आया - शिक्षा. इसलिए उन्होंने अपने ही घर से शुरुआत की.
दिन भर काम के बाद रात को वो अपनी पत्नी सावित्रीबाई को अपने साथ बिठाते और पढ़ाते. आगे चलकर फुले दम्पति ने 1 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ के भिड़ेवाड़ा में लड़कियों के पहले स्कूल की शुरुआत की. और महज़ 17 साल की उम्र में सावित्रीबाई ने इस स्कूल में बतौर शिक्षिका पढ़ाना शुरू किया. शुरुआत में स्कूल में सिर्फ़ 9 लड़कियां पढ़ने के लिए राज़ी हुई. फिर धीरे-धीरे इनकी संख्या 25 हो गई.
1851 तक दोनों ने मिलकर पूने में 3 ऐसे स्कूल खोले जिनमें लड़कियों को शिक्षा दी जाती थी. स्कूल के करिकुलम में गणित, विज्ञान और समाजशास्त्र भी शामिल था. इन तीनों स्कूलों को मिलाकर छात्रों की संख्या 150 थी. पढ़ाने का तरीक़ा भी सरकारी स्कूलों से अलग था. लेखिका दिव्या कंदुकुरी लिखती हैं, “फुले दम्पति के स्कूल में पढ़ाई का स्तर इतना बेहतर था कि सरकारी स्कूल के मुक़ाबले पास होने का प्रतिशत ज़्यादा हुआ करता था”. लेकिन ये सब शांति से नहीं हुआ. एक पिछड़ी जाति की महिला खुद पढ़े, और दूसरों को भी पढ़ाए, ये धर्म के ठेकेदारों को मंज़ूर नहीं था.
पुरोहितों का धंधा बंदसाम-दाम-दंड-भेद सब आज़माए गए. सबसे पहले घर से ही शुरुआत हुई. लोगों ने ज्योतिराव के पिता गोविंदराव को धमकाया, आपका लड़का धर्म के ख़िलाफ़ जा रहा है. दबाव में गोविंदराव ने ज्योतिबा को स्कूल बंद करने को कहा. ज्योतिराव नहीं माने और तब उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया. घर से निकलकर भी ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने पढ़ाने का काम जारी रखा.
उस दौर में राजा राम मोहन रॉय और केशवचन्द्र सेन जैसे लोग शिक्षा के लिए काम कर रहे थे. लेकिन चूंकि संसाधन उच्च वर्ग के पास थे, इसलिए शिक्षा भी पहले उनके हिस्से आती थी. समाज सुधारकों का मानना था कि उच्च वर्ग से रिसकर ये ज्ञान नीचे भी पहुंच जाएगा. हालांकि ये तरीका बिलकुल कारगर नहीं था. क्योंकि ये तो जन्म से ही निर्धारित हो जाता था कि कौन शिक्षा हासिल करेगा और कौन सेवा करेगा. इसी के चलते ज्योतिबा फुले ने सत्य शोधक समाज नामक संगठन की स्थापना की. जिसका उद्देश्य था शूद्रों-अतिशूद्रों को पंडे- पुजारी, पुरोहित और सूदखोरों की गुलामी से आजादी दिलाना.
सत्य शोधक समाज की शाखाएं मुम्बई और पुणे के गांवों और कस्बों में खोली गई. एक दशक के अंदर इस संगठन ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच एक क्रांति का संचार कर दिया. जिसके चलते कई लोगों ने शादी और नामकरण के लिए पंडे पुरोहितों को बुलाना छोड़ दिया. ऐसे में इन लोगों को धमकाया गया कि बिना संस्कृत के उनकी प्रार्थना ईश्वर तक नहीं पहुंचेगी. तब फुले ने सन्देश दिया कि जब तेलगु, तमिल, कन्नड़, बांग्ला में प्रार्थना ईश्वर तक पहुंच सकती है, तो अपनी भाषा में की गई प्रार्थना क्यों नहीं पहुंचेगी. कई मौकों पर फुले ने खुद पुरोहित बन संस्कार संपन्न करवाए और ऐसी प्रथा चलाई, जिसमें पिछड़ी जाति का व्यक्ति ही पुरोहित चुना जाने लगा.
जातिवाद की पोल खोलने के लिए उन्होंने एक किताब भी लिखी. ‘ग़ुलामगिरी’ नाम की इस किताब में ज्योतिबा फुले लिखते हैं,
ज्योतिबा की हत्या की कोशिश“ब्राह्मण-पंडा-पुरोहित लोग अपना पेट पालने के लिए, अपने पाखंडी ग्रंथों के माध्यम से, जगह-जगह बार-बार अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देते रहे, जिसकी वजह से उनके दिलो-दिमाग़ में ब्राह्मणों के प्रति पूज्यबुद्धि उत्पन्न होती रही. ब्राह्मणों ने इन लोगों को, उनके मन में ईश्वर के प्रति भावना को अपने प्रति समर्पित करने के लिए मजबूर किया. यह कोई मामूली अन्याय नहीं है. इसके लिए उन्हें ईश्वर को जवाब देना होगा.”
रोजलिंड ओ हेनलान ने अपनी किताब में एक किस्से का जिक्र किया है, जिससे पता चलता है कि ज्योतिबा लोगों को कैसे उनकी भाषा में संवाद का महत्व समझाते थे. एक रोज़ यूं हुआ कि ज्योतिबा अपने एक दोस्त के साथ एक बगीचे में घूम रहे थे. बगीचे के बीच एक कुआं था जिससे पानी निकालकर बगीचे को सींचना पड़ता था. कुछ मजदूर बगीचे में काम कर रहे थे. खाने का वक्त हुआ तो मजदूर घेरा बनाकर कुएं के पास बैठ गए. ज्योतिबा गए और कुएं की मेड़ पर बैठकर कुछ गुनगुनाने लगे. उनका हाथ साथ साथ थाप भी देता जा रहा था. मजदूरों ने ये देखा तो हंसने लगे. तब फुले ने उनसे कहा,
“इसमें हंसने की कोई बात नहीं है. केवल मेहनत से जी चुराने वाले लोग ही फुर्सत के समय वाद्ययंत्रों का शौक फरमाते हैं. असली मेहनतकश जैसा काम करता है, वैसा ही अपना संगीत गढ़ लेता है.”
ऐसा ही एक किस्सा और है जब फुले ने अपनी बातों से दो हत्यारों का मन बदल दिया. ज्योतिबा फुले की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर अपनी किताब में इस किस्से का जिक्र करते हैं. एक बार आधी रात के वक़्त जब ज्योतिबा सो रहे थे, दो लोग उनके घर में घुसे. ज्योतिबा की नींद टूटी. उन्होंने आवाज लगाकर पूछा , कौन है. इस पर एक आदमी बोला,
'हम तुम्हें यमलोक भेजने के लिए आए हैं'
ज्योतिबा ने पूछा, मैंने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा है? इस पर उनमें से एक ने जवाब दिया, बिगाड़ा कुछ नहीं, लेकिन तुम्हे मारने से हमें हजार रूपये मिलेंगे. ये सुनकर ज्योतिबा ने कहा, इससे अच्छा क्या हो सकता है कि मेरी जिंदगी दलितों के काम आए और मेरी मौत से कुछ गरीबों का भला हो जाए. ये सुनकर दोनों हमलावर ज्योतिबा के पैरों में गिर गए और उनसे माफी मांगी. इनमें से एक का नाम रोडे और दूसरे का नाम था पं. धोंडीराम नामदेव. दोनों आगे जाकर ज्योतिबा के सहयोगी बने और उनके साथ मिलकर सत्य शोधक समाज का काम संभाला.
शिवाजी महाराज की समाधि खोजीज्योतिबा पर शिवाजी महाराज का बहुत असर था. उन्होंने ही रायगढ़ जाकर पत्थर और पत्तियों के ढेर तले दबी शिवाजी महाराज की समाधि को खोजा था और उसकी मरम्मत करवाई थी.
बाद में उन्होंने शिवाजी महाराज पर एक छंदबद्ध जीवनी भी लिखी, जिसे पोवाड़ा भी कहा जाता है.
जातिवाद के साथ साथ ज्योतिबा फुले ने विधवा पुनर्विवाह के लिए भी काफी काम किया. उन्होंने गर्भवती स्त्रियों के लिए एक केयर सेंटर शुरू किया. जिसका नाम था “बालहत्या प्रतिबंधक गृह”. अगला नम्बर था विधवाओं को गंजा करने की कुप्रथा का. जिसका विरोध करते हुए फुले दम्पति ने नाइयों की हड़ताल कराई और इस प्रथा के ख़िलाफ़ ज़ोर-शोर से आवाज़ उठाई.
पिछड़ों और महिलाओं के हक़ में आवाज उठाने के अलावा उन्होंने प्रशासनिक सुधारों के सम्बन्ध में भी काम किया. साल 1878 की बात है. वायसरॉय लॉर्ड लिटन ने वर्नाक्युलर ऐक्ट नाम का एक क़ानून पास किया, जिसके तहत प्रेस की आजादी को भंग कर दिया गया था. ज्योतिबा का संगठन सत्य शोधक समाज दीनबंधु नाम का एक समाचार पत्र निकालता था. ये अखबार भी इस क़ानून की चपेट में आया. इसके कुछ साल बाद जब लार्ड लिटन पुणे आनेवाला था, उसके स्वागत का भव्य आयोजन किया गया. ज्योतिबा फुले तब नगरपालिका के सदस्य थे. उन्होंने लिटन के स्वागत में होने वाले खर्च का भरपूर विरोध कियाा. और जब नगरपालिका में ये प्रस्ताव रखा गया तो इसके खिलाफ वोट करने वालों में फुले एकमात्र सदस्य थे.
63 साल तक पिछड़ों और दबे कुचले वर्ग के लिए लगातार आवाज उठाने के बाद 28 नवंबर 1890 को महामना ज्योतिबा फुले की मृत्यु हो गई. आख़िरी समय में उन्हें लकवा मार गया था. जाते जाते भी उन्होंने इस बात का ध्यान दिया कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से बढ़ा होता है. अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा कि अगर उनका बेटा यशवंत आगे जाकर नालायक हो जाए, या बिगड़ जाए तो उनकी संपत्ति किसी पिछड़े तबके के लायक बच्चे को दे दी जाए.
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