अगस्त 1990. मध्यपूर्व का एक देश कुवैत. इसके हर शहर के ऊपर कलपुर्जों से बनी हवाई चिंदियां उड़ रही थीं. आसमान में लड़ाकू विमान और जहां बच्चे खेलते थे वहां आर्मी टैंक. हर 100 गज पर दो चार लाशें मिल रही थीं. जो भागता, जरा सा भी नजर चुराता, उसे सीधे गोली मार दी जाती. ऐसा लगता था कि शहर में कोई मकान साबुत न बचा. देश के राजा और मंत्री भाग चुके थे, उनके महलों पर दुश्मन देश के सैनिकों के झुंड इकट्ठे थे. इस नजारे से दो रोज पहले ही 2 अगस्त 1990 को इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया था.
जब सऊदी अरब के लिए अमेरिका ने अपने 150 सैनिक मरवा दिए!
सऊदी अरब ने एक बार कहा और अमेरिका सद्दाम हुसैन के खिलाफ खड़ा हो गया, और इस एक फैसले ने सद्दाम की बर्बादी की पटकथा लिख दी

अचानक रात के 2 बजे करीब डेढ़ लाख इराकी सैनिक कुवैत के बॉर्डर पर पहुंचे, इनके आगे थे 300 टैंक. 17 हजार सैनिकों वाली कुवैत की सेना की इन्हें रोकने की हिम्मत न पड़ी. चंद मिनटों में इराक की आर्मी राजधानी कुवैत सिटी पहुंच गई. कुवैती युद्धक विमान हवा में उड़े, लेकिन इराकी सेना पर बमबारी करने के लिए नहीं, बल्कि सऊदी अरब में शरण लेने के लिए. कुवैती नौसेना भी बस खड़ी-खड़ी तमाशा देखती रही. इराक की सेना को आदेश दिया गया था कि वो कुवैत सिटी में घुसते ही सबसे पहले दसमान राजमहल जाकर शाही परिवार को बंदी बनाए. इसी मकसद से देर रात कुवैत पर हमला किया गया, लेकिन कुवैत के अमीर (किंग) शेख जावेर को सद्दाम के मंसूबों की भनक पहले ही लग गई थी. वो अपने मंत्रियों को लेकर सऊदी अरब भाग चुके थे.

सद्दाम हुसैन के जीवन पर एक किताब लिखी गई है नाम है- सद्दाम द सीक्रेट लाइफ - लेखक हैं कॉन कफलिन. कफलिन लिखते हैं,
"कुवैत के अमीर शेख जावेर परिवार और मंत्रियों सहित देश से निकल गए. लेकिन, शाही परिवार के एकमात्र सदस्य और अमीर के सौतेले भाई शेख फहद ने सऊदी अरब न भागने का फ़ैसला किया. वो कुवैती आर्मी में कैप्टन थे, उन्होंने महल में रुककर इराकी फ़ौज का सामना करने की हिम्मत दिखाई. जब इराक़ी सेना राजमहल पहुंची तो वो कुछ कुवैती सैनिकों के साथ राजमहल की छत पर एक पिस्टल लिए खड़े थे. इराकी सेना ने उन्हें देखते ही उन्हें गोलियों से भून दिया."
छह घंटे के अंदर इराकी सेना का पूरे कुवैत पर कब्जा हो चुका था. देश के करीब तीन लाख नागरिक देश छोड़कर भाग चुके थे. हमले के कुछ घंटों के अंदर ही यूएन ने इराक पर प्रतिबंध लगा दिए. अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (सीनियर) ने भी इराक पर आर्थिक प्रतिबंधों का ऐलान कर दिया. अमेरिकी नौसेना के पोत 'इंडिपेंडेंस' को हिंद महासागर से फारस की खाड़ी में पहुंचने का आदेश दिया गया.
लेकिन, इन सबके बीच अमेरिका की एक महिला राजदूत और सद्दाम हुसैन के बीच हुई बातचीत का ब्यौरा सामने आया. दुनियाभर में ये महिला चर्चा का केंद्र बन गई. कहा जाने लगा कि सद्दाम हुसैन के कुवैत पर हमला करने के पीछे इस महिला का ही हाथ है. अमेरिकी सरकार से पूछा जाने लगा कि क्या अमेरिका का इशारा मिलने पर ही सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया? और अगर सद्दाम ने अमेरिका के कहने पर कुवैत पर अटैक किया तो बाद में अमेरिका ने इराक पर हमला क्यों कर दिया? क्या अमेरिका ने इराक को युद्ध में उतरने के बाद धोखा दे दिया? आखिर क्या था उस बातचीत में? यही सब जानेंगे आज के एपिसोड में.
अब शुरू से शुरू करते हैं. बात 1980 की है, ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद शिया धर्म गुरु अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी ने शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को गद्दी से हटा दिया था. ईरान से सटे इराक में भी शिया बहुसंख्यक थे, जबकि यहां के शासक सद्दाम हुसैन सुन्नी. सद्दाम को लगा कि कहीं उसके यहां भी शिया ईरान जैसी क्रांति का बिगुल न बजा दें. इस वजह से उसने सितंबर 1980 में ईरान पर अटैक कर दिया. सद्दाम ने सोचा कि ईरान अभी क्रांति से निकला है, कमजोर है, ऐसे में कुछ ही हफ्तों में ईरान पर उनका कब्जा हो जाएगा और युद्ध खत्म हो जाएगा. उधर अमेरिका भी अपने लाडले शाह मोहम्मद रजा को गद्दी से हटाए जाने के चलते खुमैनी से नाराज था. उसने भी इराक को हथियार देने का वादा कर दिया. ऐसे में सद्दाम के हौसले सातवें आसमान पर थे.
लेकिन, क्रांति से पैदा हुए नए ईरान की जनता ने सद्दाम के मंसूबों पर पानी फेर दिया. अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी की एक आवाज पर पूरा ईरान इराक के खिलाफ खड़ा हो गया. जिस युद्ध के चंद हफ्तों में खत्म होने की बात हो रही थी, वो आठ साल में खत्म हुआ. इन आठ साल में सद्दाम हुसैन को इंच भर भी ईरान की जमीन पर कब्जा ना मिला. उलटे उनका मुल्क अरबों डॉलर के कर्ज में दब गया. ये वो कर्ज था जो कुवैत, सऊदी अरब और यूएई ने उसे ईरान से युद्ध लड़ने के लिए दिया था.

1989 आते-आते सद्दाम हुसैन की हालत पस्त हो चुकी थी. इराक पर भारी आर्थिक संकट आ चुका था. ईरान युद्ध में मारे गए 51 हजार इराकी सैनिकों की विधवाओं को पेंशन देने भर का पैसा तक खजाने में ना बचा था. सद्दाम हुसैन ने इस मुद्दे पर कुवैत और सऊदी अरब के साथ कई बैठकें कीं. कहा कि उसका कर्ज माफ़ कर दिया जाए, क्योंकि ईरान से सऊदी अरब और कुवैत को भी खतरा था. और ईरान के खिलाफ युद्ध छेड़कर इराक ने उन सबकी मदद ही की.
इराक ने कुछ और मसले भी अरब देशों के सामने उठाए. उसका कहना था कि कुवैत सीमा पर उसके क्षेत्र से भी तेल निकाल रहा है, ऐसा करना तुरंत बंद करे. इराक ने बाकी अरब देशों से ये भी कहा कि वो तेल का उत्पादन थोड़ा कम करें, जिससे अंतरराष्ट्रीय मार्केट में तेल के दाम बढ़ जाएं. इससे इराक को अपनी माली हालत सुधारने में मदद मिलेगी. लेकिन, कई बैठकों के बाद भी इराक की किसी ने एक न सुनी.
जब सद्दाम ने युद्ध छेड़ दियाअंततः 1990 की गर्मियों में एक रोज राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने इराक़ी टीवी पर धमकी भरे अंदाज में ऐलान किया. कहा- "अगर कुवैतियों ने हमारी बात नहीं मानी तो हमारे पास चीज़ों को सुधारने और अपने अधिकारों की बहाली के लिए ज़रूरी क़दम उठाने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा."
इसके कुछ रोज बाद ही इराकी सेना अपने उत्तरी बॉर्डर की तरफ बढ़ने लगी. 21 जुलाई तक इराक के क़रीब 50 हज़ार सैनिक कुवैत के बॉर्डर पर इकट्ठा हो गए.
2 अगस्त को सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर अचानक अटैक कर दिया. पूरे कुवैत पर कब्जे के बाद सद्दाम हुसैन ने अपने चचेरे भाई अल हसन अल माजिद को कुवैत का गवर्नर नियुक्त कर दिया. इसके महज दो राज बाद ही इराकी सेना सऊदी अरब की सीमा पर भी इकट्ठा होने लगी. सऊदी के किंग ने अमेरिका से सुरक्षा के लिए मदद मांगी.

साल 1940 से अमेरिका का यूएई, सऊदी अरब और कतर सहित कुछ खाड़ी देशों के साथ एक डील हुई थी, जिसके तहत अमेरिका ने इन देशों को सुरक्षा देने का आश्वासन दे रखा था. इसके बदले ये देश उसे निर्वाध रूप से तेल की सप्लाई किया करते थे.
अमेरिका को लगा कि अगर इराक ने कुवैत के बाद सऊदी अरब पर भी कब्जा कर लिया तो तेल के सबसे बड़े क्षेत्र पर उसका कब्जा हो जायेगा. और अमेरिका का इंट्रेस्ट खतरे में पड़ जाएगा.
ऐसे में इराक़ से सऊदी अरब को बचाने के लिए अमेरिका ने 7 अगस्त 1990 को एक बड़ा ऐलान कर दिया. राष्ट्रपति बुश ने देश के नाम संबोधन में कहा कि वो 82वीं एयरबॉर्न डिवीजन को सऊदी अरब भेज रहे हैं. इसे 'ऑपरेशन डिजार्ट शील्ड' का नाम दिया गया. अगले छह महीनों में करीब 1 लाख 30 हजार अमेरिकी सैनिकों को सऊदी अरब की धरती पर उतार दिया गया.
जब अमेरिकी राजदूत वाली बात दुनिया के सामने आ गईइसी बीच सितंबर 1990 में इराक ने अमेरिकी राजदूत से हुई एक बातचीत का ब्यौरा सार्वजनिक किया. ये बातचीत युद्ध शुरू होने से महज एक हफ्ते पहले इराक में मौजूद अमेरिकी राजदूत एप्रिल गिलेस्पी और सद्दाम हुसैन के बीच हुई थी. दरअसल, 25 जुलाई को दोपहर एक बजे सद्दाम ने बगदाद में एप्रिल गिलेस्पी को एक पत्र भेजा था. उन्हें मिलने के लिए अपने महल में बुलाया था. सद्दाम पर लिखी अपनी किताब में कॉन कफलिन लिखते हैं कि गिलेस्पी से सद्दाम हुसैन कुवैत की सीमा पर अपने सैनिकों के जुटने को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया जानना चाहते थे.
इस बैठक में सद्दाम हुसैन ने अपनी मजबूरियां गिनाईं, देश पर आए आर्थिक संकट की बात कही. कुवैत और सऊदी अरब की शिकायत भी की. बातचीत में यहां तक तो सब सही था. लेकिन गड़बड़ इसके बाद हुई.
अमेरिकी अखबार वॉशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक बातचीत के दौरान एक जगह पर अमेरिकी राजदूत इराकी तानाशाह से कहती हैं,
'मुझे इराक के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति से सीधा निर्देश मिला है... मैं जानती हूं कि आपको पैसे की जरूरत है. हम इसे अच्छे से समझते हैं और हमारी राय है कि आपको अपने देश को संवारने का अवसर मिलना चाहिए. लेकिन अरब देशों के आपसी झगड़े पर अमेरिका ने कोई स्टैंड नहीं लिया है. जैसे कुवैत के साथ आपका सीमा विवाद, उसे लेकर अमेरिका ने कोई स्टैंड नहीं लिया है.... मुझे आपसे दोस्ती करने की मंशा के तहत आपके इरादों के बारे में पूछने का आदेश मिला है...'
बातचीत में अमेरिकी राजदूत ये भी कहती हैं कि इराक के अरब देशों से जो भी मतभेद हैं, उन्हें शांतिपूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए. इस बैठक के आखिर में सद्दाम हुसैन बोलते हैं कि अगर कुवैत से उनका समझौता नहीं हो पाया तो ये लाज़मी है कि इराक मौत तो स्वीकार नहीं करेगा.

अमेरिका के सऊदी अरब में सेना भेजने के आदेश के कुछ दिन बाद बाद जब ये बातचीत समाने आई तो अमेरिकी सरकार पर सवाल खड़े होने लगे. कहा जाने लगा राजदूत एप्रिल गिलेस्पी ने सद्दाम से जब ये कहा कि ‘अमेरिका का अरब देशों के आपसी झगड़े से कोई मतलब नहीं है’, तब ही सद्दाम को अमेरिका की तरफ से कुवैत पर हमला करने का इशारा मिल गया था. कुछ लोगों का ये भी कहना था कि सद्दाम को गिलेस्पी की बातें सुनकर सीधा मैसेज मिला कि अगर वो कुवैत पर अटैक करेंगे तो अमेरिका बीच में नहीं आएगा. लेकिन जब इराक ने हमला कर दिया तो अमेरिकी सेना उससे लोहा लेने कुवैत पहुंच गई.
अमेरिकी राजदूत गिलेस्पी पर सद्दाम से बैठक के दौरान गलती करने और नादानी में बातें करने का आरोप लगाया गया. मामला इतना बढ़ गया कि उन्हें अमेरिकी संसद के सामने तक सफाई देनी पड़ी.
गिलेस्पी ने इन आरोपों का ज़ोरदार खंडन किया. उन्होंने कहा कि उन्हें या अमेरिकी सरकार को इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि सद्दाम कुवैत पर हमला कर देंगे. उनके मुताबिक ऐसा इसलिए भी था क्योंकि सद्दाम के करीबी मित्र और मिस्र के राष्ट्रपति होस्ने मुबारक ने निजी तौर पर वॉशिंगटन और लंदन को आश्वस्त किया था कि सद्दाम का कुवैत पर हमला करने का कोई इरादा नहीं है. और अरब संकट का हल कूटनीति से ही निकलेगा.

बहरहाल, 29 नवंबर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया कि अगर इराक की सेना 15 जनवरी, 1991 तक कुवैत से बाहर नहीं आती, तो उसे सैन्य ताकत का इस्तेमाल करके वहां से खदेड़ा जाएगा. सद्दाम हुसैन ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया. इसके बाद अमेरिका ने 39 देशों का एक गठबंधन बनाया और इन देशों के 7 लाख सैनिक सऊदी अरब और कुवैत पहुंच गए. ये था 'ऑपरेशन डिजार्ट शील्ड' का दूसरा पड़ाव जिसका नाम रखा गया 'डिजार्ट स्टॉर्म'.
29 जनवरी 1991 को सद्दाम हुसैन ने सऊदी अरब के भी कुछ इलाकों में अपनी सेना भेज दी. अब युद्ध अपने चरम पर पहुंच गया था. साफ़ था कि कोई पीछे नहीं हटने वाला. राष्ट्रपति बुश ने इराक पर हवाई हमले करने का आदेश दे दिया. पूरे इराक में इससे भारी तबाही तो हुई ही, चार हफ़्तों के अंदर इराक के चार परमाणु शोध संयंत्रों का नामोनिशान मिटा दिया गया. इराक के सभी सामरिक और आर्थिक महत्व के ठिकाने जैसे सड़कें, पुल, बिजलीघर और तेल भंडार पूरी तरह खत्म कर दिए गए. इराक के एक लाख से ज्यादा सैनिक इस युद्ध में मारे गए. वहीं, गठबंधन सेना के करीब 300, जिनमें करीब 150 अमेरिकी सैनिक थे.

फिर वो दिन आया जब इराक को झुकना पड़ा. 18 फरवरी 1991 को इराक के विदेश मंत्री तारिक अजीज मॉस्को गए. उन्होंने सोवियत संघ का कुवैत से बिना शर्त इराक के हटने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. लेकिन तब तक विश्व नेताओं के बीच सद्दाम की विश्वसनीयता इतनी घट चुकी थी कि महज़ आश्वासन से काम चलने वाला नहीं था. इसलिए अप्रैल 1991 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 687 पारित किया. इसके तहत इराक को सामूहिक विनाश के अपने सभी हथियारों को नष्ट करने का आदेश दिया गया. शुरुआत में सब सही रहा लेकिन, साल 1998 में इराक ने इस आदेश को मानने से साफ़ इनकार कर दिया. जिसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने इराक पर हवाई हमले करके सद्दाम के शासन को जड़ से खत्म कर दिया.
इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि सद्दाम हुसैन ने जिस दिन कुवैत पर हमला करने की गलती की थी, उस दिन ही उनकी बरबादी की पटकथा लिख दी गई थी. सद्दाम के करीबी इसी बात को दूसरी तरह से कहते हैं- कि अमेरिका से मिले एक धोखे ने सद्दाम हुसैन को बरबाद कर दिया.
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