आजादी के पहले हिंदुस्तान में लगभग 560 से ऊपर छोटी बड़ी रियासतें थीं. इनमें पड़ने वाला कुल इलाका अविभाजित भारत के क्षेत्रफल का एक तिहाई था. देश की 25 फीसदी से ज्यादा आबादी यहां रहती थी. ये रियासतें ब्रिटिश हिंदुस्तान की सरकार के अधीन थीं. इनके रक्षा और विदेश मामले ब्रिटिश सरकार देखती थी. यहां के शासक नाममात्र के राजा थे, हालांकि, इन्हें क्षेत्रीय-स्वायत्तता प्राप्त थी. जिसकी जितनी हैसियत, उसको उतना भत्ता ब्रिटिश सरकार देती थी. जब भारत की आजादी तय हुई तो लार्ड माउंटबेटन ने इन रियासतों के राजाओं को हिंदुस्तान या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ जुड़ने की छूट दी.
जब इंदिरा गांधी की नकल कर पाकिस्तान बुरा फंस गया!
जब इंदिरा की देखादेखी पाकिस्तान ने भी राजाओं के प्रिवी पर्स बंद करने की कोशिश की

जून 1947 में ये तय हो गया था कि भारत को इसी साल 15 अगस्त को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिल जाएगी. जुलाई का महीना आ चुका था, लेकिन राजाओं ने भारत में विलय को लेकर कोई फैसला नहीं लिया था. दरअसल, कई राजा अपने इलाकों को लेकर स्वतंत्र राज्य का ख्वाब लिए बैठे थे, उन्हें अभी भी उम्मीद थी कि अंग्रेज इस काम में उनकी मदद करेंगे.
देश के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल और उनके तेज तर्रार सचिव वीपी मेनन ने माउंटबेटन के साथ मिलकर रियासतों के विलय का एक पत्र तैयार किया. इसमें तीन शर्तें थीं देसी रियासतों को अपनी रक्षा की जिम्मेदारी, विदेशी मामले और संचार की व्यवस्था को कांग्रेस सरकार को सौंपना होगा. ये काम 15 अगस्त 1947 से पहले करना होगा. पटेल ने इस संबंध में 5 जुलाई को एक बयान भी जारी किया. उन्होंने कहा देशभक्ति की भावना दिखाते हुई इन तीन शर्तों के साथ राजा भारतीय संघ में विलय को स्वीकार कर लें. अगर वे लोग ऐसा नहीं करते हैं तो देश में अराजकता और अफरा-तफरी का माहौल बन सकता है.

इसके बाद क्या हुआ, रियासतों का भारत में विलय कैसे हुआ? विलय होने पर इन राजाओं को प्रिवी पर्स के नाम पर क्या फायदा दिया गया. और फिर 24 साल बाद इंदिरा गांधी ने कैसे प्रिवी पर्स को खत्म करने का कदम उठाया? साथ ही आज जानेंगे कि पाकिस्तान में प्रिवी पर्स को लेकर वहां की सरकार ने क्या फैसला लिया था?
जब लार्ड माउंटबेटन ने किया भारत के लिए सबसे बड़ा काम!सरदार पटेल की अपील के 4 दिन बाद तक रियासतों की ओर से विलय को लेकर कोई कदम नहीं उठाया गया. जैसे-जैसे 15 अगस्त की तारीख करीब आ रही थी, सरकार की चिंता बढ़ती जा रही थी. आखिरकार 9 जुलाई को जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल लार्ड माउंटबेटन से मिलने पहुंचे. दोनों ने कहा कि ये इस समय की सबसे कठिन समस्या है, किसी भी तरह राजाओं को भारत में विलय के लिए राजी करना जरूरी है. बताते हैं कि उसी दिन महात्मा गांधी भी माउंटबेटन से मिले.
इंडिया ऑफ्टर गांधी में इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं,
'गांधी ने उनसे कहा कि वे अपनी पूरी ताकत से इस मसले को हल करें. ऐसा उपाय करें जिससे 15 अगस्त को अंग्रेजों को देसी रियासतों को आजाद घोषित करने का फैसला न लेना पड़ जाए. अगर ऐसा हुआ तो अंग्रेज अपने पीछे एक खंड-खंड भारत और अराजकता छोड़ जाएंगे.'

25 जुलाई को माउंटबेटन ने चैंबर ऑफ प्रिंसेस में राजाओं के सामने एक भाषण दिया. उन्होंने अपनी पूरी काबिलियत इस भाषण में उड़ेल दी. उन्होंने कहा,
'भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ने देसी रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अपनी तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है. अंग्रेजों और रियासतों के बीच के पुराने संबंध पूरी तरह खत्म हो चुके हैं. अगर कोई नई व्यवस्था इसकी जगह लेती है तो सिर्फ अराजकता का ही जन्म होगा. जन विरोध होगा और लोग भारत की आजादी के बाद पूर्ण लोकतंत्र की मांग के साथ रियासतों के खिलाफ आंदोलन करेंगे. दूसरी ओर भारत सरकार का प्रस्ताव रजवाड़ों को आंतरिक रूप से पूरी स्वायत्ता देता है.'
इतिहासकारों के मुताबिक माउंटबेटन ने ये भाषण देकर भारत के लिए तब तक का सबसे महत्वपूर्ण काम किया था. अब राजाओं को ये बात अच्छे से समझ में आ गई थी कि अंग्रेज अब उनकी रक्षा नहीं करेंगे और स्वतंत्र राज्य की उनकी कल्पना महज एक सपना ही है. लिहाजा 15 अगस्त से पहले लगभग सभी रियासतों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए.
प्रिवी पर्स में राजाओं को कितना पैसा मिला?राजाओं को अपनी रियासतों की जमीन देने के बदले सरकार ने उन्हें काफी कुछ दिया भी. उनका ख़ज़ाना, महल और किले उनके ही अधिकार में रखे गए. यही नहीं, उन्हें किसी भी तरह का टैक्स नहीं देना पड़ता था. और सबसे बड़ी बात उन्हें प्रिवी पर्स दिया गया. इसके तहत राजाओं को हर साल एक निश्चित रकम दी जाती थी. इस रकम का भुगतान उस टैक्स से होता था जो उनके इलाकों से सरकार को मिलता था. राजाओं को प्रिवी पर्स की गारंटी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 291 के तहत दी गई थी.

राजाओं को प्रिवी पर्स में 5,000 रुपए से लेकर 26 लाख रुपए तक मिलते थे. भारत में 6 सबसे महत्वपूर्ण रियासतें हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर, बड़ौदा, जयपुर और पटियाला थीं. 26 लाख रुपए की सबसे मोटी रकम मैसूर को मिलती थी. हैदराबाद को 20 लाख, त्रावणकोर और जयपुर को 18-18 लाख और पटियाला को 17 लाख रुपए मिलते थे. 102 रियासतें ऐसी थीं, जिन्हें 1 से 2 लाख रुपए के बीच की रकम दी जाती थी. देश में 83 ऐसे राजा भी थे, जिन्हें 25 हजार रुपए या उससे भी कम रुपए मिलते थे. सबसे कम 192 रुपए सौराष्ट्र के कटौदिया के राजा को मिलते थे.
प्रिवी पर्स के अलावा भी राजाओं को बहुत कुछ मिलाप्रिवी पर्स के अलावा राजाओं का सम्मान बना रहे, इसके लिए सरकार ने संविधान में अनुच्छेद 362 जोड़ा. इसके जरिए रियासतों को विशेषाधिकार और उनकी मान्यता को बनाए रखा गया.
अनुच्छेद 362 के तहत भारतीय राष्ट्रपति ने खुद राजाओं को शासक के रूप में मान्यता दी. भले ही उनके पास कोई अधिकार या शक्ति नहीं थी, लेकिन उन्हें उनकी पदवियां रखने की इजाजत दी गई. वे पहले की तरह ही अपने दरबार लगा सकते थे, आधिकारिक वाहन रख सकते थे और गणमान्य व्यक्तियों की मेजबानी भी कर सकते थे.

कुल मिलाकर राजाओं को करीब 34 विशेषाधिकार दिए गए थे. इनमें भाइयों और बहनों के विवाह खर्च का राज्यों द्वारा भुगतान और कुछ कानूनों और अदालती कार्रवाईयों से भी छूट दी गई थी.
जब इंदिरा गांधी प्रिवी पर्स के पीछे पड़ गईं1967 तक प्रिवी पर्स के खिलाफ देश में आवाजें उठने लगी थीं. उधर, इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया कहा जा रहा था. ये वो समय था, जब इंदिरा गांधी को अपना लोहा देश को मनवाना था. 'इंडिया आफ्टर नेहरू' में रामचंद्र गुहा लिखते हैं,
‘इंदिरा ने बड़े फैसले लेने शुरू कर दिए थे. उनके मुख्य सचिव पीएन हक्सर के विचार थे जिस देश में बड़ी तादाद में गरीब हों, वहां राजाओं को इतना पैसा देने का न तो कोई मतलब है और न ही ये वक्त की मांग है.’
पीएन हक्सर के इस बयान को सरकार से बाहर बैठे लोगों का भी बड़ा समर्थन मिला. जनता को भी उनके विचार सही लगे. लगने भी थे क्योंकि जनता को कभी राजशाही मंजूर नहीं थी.
1967 में ‘प्रिवी पर्स’ को बंद करने की शुरुआत हो गई थी. तब इंदिरा गांधी ने गृह मंत्री वाईबी चव्हाण को राजाओं से बातचीत कर आम राय बनाने का ज़िम्मा सौंपा था. ध्रांगधरा के पूर्व महाराजा सर मयूरध्वज सिंह जी मेघराज जी बाकी राजाओं की तरफ से बातचीत कर रहे थे.

दोनों के बीच कई बैठकें हुईं पर कोई नतीजा नहीं निकला. रजवाड़े इतनी आसानी से मानने वाले नहीं थे? 1967 के आखिरी महीनों में इंदिरा गांधी की पार्टी के भीतर वर्चस्व की लडाई शुरू हो गई थी. इसलिए उन्होंने इस मुद्दे पर तुरंत कोई कार्रवाई नहीं की, कुछ समय के लिए टाल दिया. ज़ाहिर है एक साथ सारे मोर्चों पर लड़ना समझदारी नहीं होती.
इसके बाद के करीब 2 साल इंदिरा के लिए सनसनीखेज़ साबित हुए. इसी दौरान वे देश की सबसे ताक़तवर नेता बनकर उभरीं. 1969 में तीन अहम घटनाएं हुईं - बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राष्ट्रपति का चुनाव और कांग्रेस पार्टी का विभाजन. इन तीनों में इंदिरा गांधी ने अपनी जो ताकत दिखाई, इससे 'गूंगी गुड़िया' वाली छवि चकनाचूर हो गई.
पीएन हक्सर ने विचारधारा की लड़ाई बना दी!मोरारजी देसाई के कांग्रेस से जाने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने इंदिरा को ‘गरीबों की हितैषी वाली छवि दे दी थी.’ बताया जाता है कि ऐसा करने की सलाह पीएन हक्सर ने दी थी. दरअसल, हक्सर चाहते थे कि कांग्रेस के अंदर की निजी लड़ाई को विचारधारा की लड़ाई बना दिया जाए. इससे इंदिरा को जनता के बीच फायदा मिलेगा.

इसी पर चलते हुए इंदिरा समाजवाद की ओर मुड़ गई थीं. इंदिरा गांधी ने पहला बड़ा फैसला बैंकों के राष्ट्रीयकरण का लिया जिससे लोगों में संदेश गया कि वे गरीबों के हक की लडाई लड़ने वाली योद्धा हैं. इस फैसले में कांग्रेस के अंदर जो खेमा इंदिरा के खिलाफ था, उसमें तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई सबसे बड़े नेता था. यानी जनता के बीच ये मैसेज गया कि इंदिरा गरीबों के लिए काम करना चाहती हैं, जबकि दूसरा खेमा इसके खिलाफ है. यानी जनता की पूरी सहानुभूति मिली. 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद अब इंदिरा गांधी का अगला टारगेट राजाओं को मिलने वाला प्रिवी पर्स था.
जब अदालत ने इंदिरा गांधी को दे दिया तगड़ा झटकाकांग्रेस के दो-फाड़ के बाद इंदिरा सर्वे-सर्वा हो गई थीं. उनके पास पार्टी का आंख मूंद समर्थन था. वीवी गिरी उनकी कृपा से राष्ट्रपति बन चुके थे. उन्होंने प्रिवी पर्स के खिलाफ लड़ाई का मोर्चा खोल दिया. सरकार और राजाओं के बीच भयंकर तनातनी हो गयी. राजाओं की तरफ से कई प्रस्ताव दिए गए लेकिन इंदिरा सभी ठुकरा दिए, वे प्रिवी पर्स को पूरी तरह खत्म करना चाहती थीं. उनका राजाओं को साफ़ कहना था कि वे वंशवाद और सामंतवाद से बाहर निकलें.

18 मई 1970 को इंदिरा सरकार ने संसद में ‘प्रिवी पर्स’ ख़त्म करने के लिए बिल पेश कर दिया. इसके अगले सत्र में लोकसभा में ये बिल बहुमत से पारित हो गया, लेकिन आज के ही दिन यानी 5 सितंबर को राज्यसभा में बिल एक वोट से गिर गया. इसके बाद राष्ट्रपति वीवी गिरी सरकार की सहायता को आगे आये और उन्होंने अध्यादेश के जरिए सभी राजाओं की मान्यता रद्द कर दी. सब के सब राजा कोर्ट पहुंच गए. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के आदेश पर रोक लगा दी.
इंदिरा को मिलीं 352 सीटेंसमाजवाद का मुद्दा था तो जनता की भावना इस पर कांग्रेस के साथ थी. यानी हवा इंदिरा गांधी के अनुकूल थी. उन्होंने सरकार भंग करके चुनावों की घोषणा कर दी. 1971 में इंदिरा भारी बहुमत से चुनाव जीतकर सत्ता में लौटीं, उनकी पार्टी को 518 में से 352 सीटों पर जीत मिली, दूसरे नंबर पर CPM रही जिसे महज 25 सीटें मिली थीं.

चुनाव जीतने के बाद इंदिरा गांधी ने संविधान में 26 वां संशोधन किया. जिसके तहत अनुच्छेद 291 और 362 को संविधान से हटा दिया गया. संविधान में अनुच्छेद 363A को जोड़ा गया जिसमें ये कहा गया कि राजाओं की मान्यता, विशेषाधिकार और प्रिवी पर्स हमेशा के लिए बंद किए जाते हैं. इस बार राज्यसभा में उनके बिल को 7 के मुकाबले 167 वोट मिले थे.
फिर पाकिस्तान में क्या हुआ?उधर, पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो इंदिरा गांधी के इस कदम से बेहद प्रभावित हुए. 1972 में भारत की देखा-देखी में उन्होंने भी एक बड़ा फैसला ले लिया. उन्होंने आजादी के बाद पाकिस्तान में शामिल हुईं महज 9 रियासतों को भी नहीं बख्शा.
जुल्फिकार अली भुट्टो ने पाकिस्तान में राजाओं यानी नवाबों को मिलने वाले प्रिवी पर्स और सभी विशेषाधिकारों को खत्म करने के लिए अध्यादेश जारी कर दिया. पाकिस्तानी इतिहासकारों की मानें तो ये एकतरफा और चौंकाने वाला फैसला था, जो पूरी तरह से इंदिरा गांधी से प्रभावित होकर ही लिया गया था. शायद इसलिए कि जनता के बीच भुट्टो की लोकप्रियता बढ़ सके.

भुट्टो के इस फैसले का नवाबों ने काफी विरोध किया. कई डिप्रेशन में चले गए. नवाबों के इंटरव्यू अख़बारों की सुर्खियां बनने लगे, जिनमें कई ने कहा कि पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने मुल्क के लिए खजाने से खूब पैसा दिया था और आज उनके साथ सरकार ये बर्ताव कर रही है.
जन भावनाएं नवाबों के साथ जुड़ती देख, 1972 की सर्दियों में भुट्टो ने सभी रियासतों के नवाबों को चर्चा करने के लिए इस्लामाबाद बुलाया. बताते हैं कि इस दौरान भुट्टो को कई नवाबों ने जमकर खरी-खोटी सुनाई. इस बैठक में राष्ट्रपति भुट्टो ने नवाबों से कहा कि उन्होंने ये फैसला एक रणनीति के तहत लिया था. जिसका मकसद जनता को खुश करना और पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश युद्ध में मिली हार से जनता ध्यान हटाना था.

इस बैठक का नतीजा ये निकला कि जुल्फिकार अली भुट्टो को नवाबों के सामने एक कदम पीछे हटना पड़ा. वे नवाबों को हमेशा के लिए पेंशन देने पर सहमत हुए. भुट्टो ने जो अध्यादेश जारी किया, उसमें बाद में नवाबों को पेंशन देने वाली बात जोड़ी गई.
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