पूर्व ISI प्रमुख, असद दुर्रानी अपनी किताब 'द स्पाई क्रॉनिकल्स’ (The Spy Chronicles) में एक किस्से का जिक्र करते हैं. साल 2001 की बात है. आगरा सम्मलेन में भाग लेने के लिए जनरल परवेज़ मुशर्रफ (General Pervez Musharraf) भारत आए थे. जब लौटने की बारी आई तो तत्कालिन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee), जो अपने नरम स्वभाव के लिए जाने जाते थे, मुशर्रफ को उनकी कार तक छोड़ने भी नहीं आए. जबकि ये सामान्य शिष्टाचार की बात थी. दुर्रानी लिखते हैं,
भारतीय सैनिकों की आंखें फोड़ीं, जिस्म सिगरेट से दागा, जब कारगिल में पाकिस्तान ने पार की हैवानियत की सारी हदें
14 मई की तारीख. Captain Saurabh Kalia और उनके साथी द्रास के पास कास्कर में पेट्रोलिंग के लिए निकले. उन्हें बजरंग पोस्ट तक जाना था. जिसे सर्दियों में खाली कर दिया जाता था. कैप्टन कालिया जैसे ही वहां पहुंचे. वहां कब्ज़ा किए पाकिस्तानी सैनिकों ने गोलीबारी शुरू कर दी. कैप्टन कालिया और उनके पांच साथियों को बंदी बना लिया गया.
मैं उस दिन मुशर्रफ को अकेले उनकी कार की तरफ बढ़ते देख रहा था. कुछ कदमों का वो रास्ता इतना लंबा लग रहा था, मानो खत्म ही नहीं होगा. वो चाह रहे होंगे कि उस वक्त उन्हें कोई न देखे. कोई उनकी तस्वीर तक न खींचे.
वाजपेयी ने ऐसा क्यों किया, समझना मुश्किल नहीं है.
इस घटना से दो साल पहले, फरवरी 1999 में चलते हैं. लाहौर के गवर्नर हाउस में बने हैलीपैड में एक हेलीकाप्टर लैंड होता है. वाजपेयी उतरते हैं. वाजपेयी की जीवनी में Sagarika Ghose लिखती हैं,
उस रोज़ वाजपेयी अपने साथ कुछ शॉल लेकर आए थे. साथ ही पाकीज़ा और मुग़ले आज़म की कुछ CD's भी वाजपेयी ने तोहफे में दी. माहौल में मिठास ऐसी कि वाजपेयी खुद बोले, अरे साहब, झगड़े की बात ही कहां है, हम आपकी चीनी खा रहे हैं. बहुत मीठी है.
भारत तब पाकिस्तान से चीनी आयात करता था. ऐसे खुशनुमा माहौल के बीच जनरल मुशर्रफ वहां अनमन से खड़े थे. वाजपेयी को रिसीव करने के लिए सेनाध्यक्ष को वाघा बॉर्डर जाना चाहिए था. लेकिन मुशर्रफ नहीं गए. इतना ही नहीं प्रोटोकॉल के हिसाब से मुशर्रफ को आर्मी की ceremonial यूनिफार्म पहननी चाहिए थी.
लेकिन उस रोज़ वो रोजाना वाली वर्दी में ही वाजपेयी को रिसीव करने पहुंचे. कूटनीति के हिसाब से ये बड़ा सिग्नल था. जिसे समझने में वाजपेयी चूक गए. और पीठ पीछे मुजाहिद्दीनों के भेष में सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिक कारगिल के पहाड़ियों पर कब्ज़ा जमा के बैठ गए.
पहले कुछ सवाल-
युद्ध की शुरुआत में क्यों जवाबी ऑपरेशन लगभग असंभव लग रहा था?
भारतीय सेना के अफसर पाकिस्तान के चंगुल में कैसे फंसे? उनके साथ कैसा सुलूक हुआ?
और कैसे एक अफसर पाकिस्तान से जिन्दा लौटने में कामयाब रहा?
शुरुआत करते हैं ये जानने से कि घुसपैठ का पता कैसे चला?
चरवाहों ने खोली पोल
3 मई, 1999. लेह का बटालिक सेक्टर: गारकोन के रहने वाले ताशी नामग्याल उस रोज़ अपना याक ढूंढ रहे थे. जो चरते चरते पहाड़ों में जरा दूर निकल गया था. ताशी और उनके साथियों के पास binoculars थे. याक ढूंढते ढूंढते उन्हें एक अजीब चीज दिखाई दी. साल 2019 में इंडिया टुडे से बात करते हुए ताशी बताते हैं.
ऊंची पहाड़ियों में बर्फ के बीच मैंने पठानी सूट पहने कुछ लोगों को देखा. वे वहां खुदाई कर बंकर बना रहे थे. उनके पास हथियार थे. वे कितने थे - ये तो मुझे नहीं पता था लेकिन एक बात पक्की थी. ये सभी लाइन ऑफ कंट्रोल की दूसरी तरफ से आए थे.
पाकिस्तान के कर्नल अशफ़ाक़ हुसैन, अपनी किताब 'विटनेस टू ब्लंडर- कारगिल स्टोरी अनफ़ोल्ड्स' (Witness to Blunder- Kargil Story Unfolds) में बताते हैं कि पाकिस्तानी फौज ने भी चरवाहों को देख लिया था. उनके बीच चर्चा भी हुई. क्या इन्हें बंदी बना लिया जाए. लेकिन फिर ये विचार त्याग दिया गया क्योंकि उन्हें लगा अगर चरवाहों को बंदी बनाया, उन्हें अपने हिस्सा का राशन देना पड़ेगा.
दूसरी तरफ नामग्याल और उनके साथियों ने नीचे उतरकर ये बात नजदीकी इंडियन आर्मी पोस्ट तक पहुंचाई. आर्मी की एक टीम हालात का जायजा लेने पहुंची, लेकिन वहां उन्हें भारी फायरिंग का सामना करना पड़ा. यहां से आर्मी को समझ आया कि जरूर कोई बड़ी गड़बड़ हुई है. हालांकि कितनी बड़ी ये किसी को मालूम नहीं था. शुरुआत में सबको लगता रहा कि ये महज चंद घुसपैठिए हैं.
हरिंदर बवेजा अपनी किताब 'कारगिल की अनकही कहानी में' बताती हैं,
मई के शुरुआती हफ़्तों में, 8 सिख और 12 जम्मू-कश्मीर लाइट इन्फेंट्री की यूनिट्स को कारगिल बुलाया गया. ये सब कश्मीर घाटी में काउंटर इंसर्जेन्सी ऑपरेशन्स के लिए तैनात थे. लेकिन अचानक उन्हें कारगिल बुला लिया गया. उन्हें बस इतना बताया गया था कि कुछ चूहे घुस आए हैं. आर्मी के अलावा पॉलिटिकल लीडरशिप तक को मामले की संजीदगी का अंदाजा नहीं था.
साल 2019 में BBC से बातचीत करते हुए पूर्व विदेश मंत्री, जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह ने बताया कि उनके एक दोस्त सेना मुख्यालय में काम करते थे. उन्होंने मानवेन्द्र से मुलाक़ात कर बताया कि पूरी पल्टन को हेलीकाप्टर में भेजा गया है.
जिसका मतलब सीमा पर बड़ी गड़बड़ी हुई थी. मानवेंद्र बताते हैं कि उन्होंने अगली सुबह अपने पिता जसवंत सिंह को बताया.जसवंत सिंह ने रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को ये बात बताई. फर्नांडिस अगले रोज़ रूस जाने वाले थे. उन्होंने यात्रा कैंसिल कर दी. इतना ही नहीं जब कारगिल में घुसपैठ का पता लगा, तब आर्मी चीफ जनरल वेदप्रकाश मलिक भी पोलेंड की यात्रा पर थे. खबर मिलते ही वो वापस लौटे और जवाबी कार्रवाई की तैयारी शुरू हुई.
'नीदर अ हॉक नॉर अ डव' (Neither a Hawk nor a Dove) नाम की किताब में पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद एक किस्से का जिक्र करते हैं. खुर्शीद के अनुसार घुसपैठ का खुलासा होने पर वाजपेयी ने सीधा नवाज़ शरीफ को फोन लगाया.
लाहौर में गले लगाने के बाद नवाज ने अटल की पीठ में सीधा खंज़र मारा था. इसलिए उन्होंने नवाज को खूब खरी-खोटी सुनाई. दूसरी तरफ नवाज कहते रहे कि मुझे इस बारे में कोई खबर नहीं है. इस बीच वाजपेयी ने नवाज से कहा कि वो उनकी बात एक और शख्स से कराना चाहते हैं.
नवाज ने इसके बाद फोन पर किसी और की आवाज सुनी- "हमें आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी. जब भी भारत पाक के बीच तनाव बढ़ता है. भारत में मुसलमानों का घर से बाहर निकलना दूभर हो जाता है". ये आवाज और किसी की नहीं, मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार की थी. नवाज से कुछ जवाब देते हुए न बना. बात उनके हाथ से कब की निकल चुकी थी. पाकिस्तान ने युद्ध शुरू कर दिया था. और अब कारगिल में जवाब देने की बारी भारत की थी.
बलिदान
कारगिल युद्ध को हम मुख्यतः दो सेक्टर में बांट सकते हैं.
कारगिल सेक्टर और बटालिक सेक्टर.
कारगिल सेक्टर में द्रास और मश्कोह घाटी आती है. ये कारगिल के साउथवेस्ट में पड़ते हैं. वहीं बटालिक कारगिल के नार्थ ईस्ट में है.
द्रास में टोलोलिंग की पहाड़ियां इंडियन आर्मी के लिए सबसे बड़ी चुनौती पेश कर रही थीं. श्रीनगर कारगिल और लेह को जोड़ने वाला NH 1 टोलोलिंग से महज 3 किलोमीटर दूर पड़ता है. और पाक फौज की मेन आर्टिलरी टोलोलिंग के पीछे ही तैनात थी. यहां से ये लोग NH1 पर शेलिंग कर रहे थे.
हरिंदर बवेजा अपनी किताब 'कारगिल की अनकही कहानी में' बताती हैं कि भारतीय फौज का एक काफिला जब कारगिल की तरफ जा रहा था. एक कर्नल ने उसे हाथ देकर रोका. हरिंदर बवेजा लिखती हैं,
उसने अपना सर कमांडिंग अफसर की गाड़ी में घुसाया. और जोर से चिल्लाया, आगे मत जाइये आप सब मारे जाएंगे.
NH1 पर लगातार बमबारी हो रही थी. NH1 हाथ से गया, मतलब श्रीनगर और लेह का कनेक्शन खत्म. कुल जमा मतलब कि सियाचिन हाथ से गया. कारगिल वॉर में ये सब स्टेक पर था.
कुछ कुछ यही हाल बटालिक सेक्टर के भी थे. आर्मी की भाषा में कहा जाता है, माउंटेन ईट्स ट्रुप्स. यानी पहाड़ फौज को खा जाते हैं. आमने सामने वाली लड़ाई में भी अगर हमला करना हो, तो एक सैनिक के मुकाबले आपने पास तीन सैनिक होने चाहिए. पहाड़ की ऊंचाई पर खड़ा एक सैनिक 9 के बराबर हो जाता है. वहीं कारगिल में ये रेशियो लगभग 1: 27 था. लगभग असम्भव लड़ाई थी. इसी कारण मई के महीने में भारतीय फौज ने जितनी बार जवाबी कार्रवाई की कोशिश की. उन्हें बहुत नुकसान उठाना पड़ा. रचना रावत बिष्ट अपनी किताब ‘कारगिल: अनटोल्ड स्टोरीज फ्रॉम द वॉर’ (Kargil: Untold Stories from the War) में कैप्टन सौरभ कालिया की कहानी बताती हैं.
नौकरी लगने के बाद अपनी मां को ब्लैंक चेक देने वाले कैप्टन कालिया अपनी पहली सैलरी मिलने से पहले ही वीरगति को प्राप्त हुए.
14 मई की तारीख. कैप्टन कालिया और उनके साथी द्रास के पास कास्कर में पेट्रोलिंग के लिए निकले. उन्हें बजरंग पोस्ट तक जाना था. जिसे सर्दियों में खाली कर दिया जाता था. कैप्टन कालिया जैसे ही वहां पहुंचे. वहां कब्ज़ा किए पाकिस्तानी सैनिकों ने गोलीबारी शुरू कर दी. कैप्टन कालिया और उनके पांच साथियों को बंदी बना लिया गया.
रचना रावत अपनी किताब में लिखती हैं कि 15 मई से लेकर 7 जून तक कैप्टन कालिया और उनके साथियों को कैद में रखा गया. बाद में उनकी डेड बॉडी वापस आई. पोस्टमार्टम से पता चला कि उनके साथ बेहद क्रूर बर्ताव हुआ था. कैप्टन कालिया के जिस्म पर सिगरेट के दाग थे. तमाम तरीकों से उन्हें टॉर्चर किया गया. आंखें फोड़ दी गई और अंत में सिर में गोली मार दी गई. 9 जून को उनका पार्थिव शरीर भारत को सौंपा गया.
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कैप्टन कालिया के साथ पाकिस्तान ने जो सुलूक किया, वो जेनेवा कन्वेशन की शर्तों का सरासर उल्लंघन था. इसके बरअक्स 1971 युद्ध याद कीजिए.
1971 में फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ पाक युद्धबंदियों को देखने अस्पताल में गए थे. भारत ने पाक युद्धबंदियों के साथ ऐसा सुलूक किया था कि जब मानेकशॉ पाकिस्तान गए. वहां पाक सैनिक का एक रिश्तेदार उनके कदमों में गिर पड़ा था. बाद में सारे युद्धबंदी सही सलामत पाकिस्तान को लौटा दिए गए थे. कैप्टन कालिया के केस में उनका परिवार आज भी इस केस को यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन राइट्स काउंसिल और इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस तक ले जाने की कोशिश में लगा है. ताकि कैप्टन कालिया को न्याय मिल सके.
फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता
कैप्टन कालिया को बचाया नहीं जा सका. लेकिन इसके बाद एक मौका ऐसा भी आया. जब पाक फौज भारतीय पायलट को सही सलामत वापस भेजने पर मजबूर हो गई. ये कहानी है ऑपरेशन सफ़ेद सागर की. जो कारगिल में इंडियन एयर फ़ोर्स का ऑपरेशन था. इसके तहत भारतीय वायुसेना को ऊंची चोटियों पर जाकर पाकिस्तानी एम्युनिशन डम्प्स और बंकरों को निशाना बनाना था. स्क्वॉड्रन नंबर- 9 को जिम्मेदारी सौंपी गई कि वो बाल्टिक सेक्टर में 17,000 फीट की ऊंचाई पर ऑपरेशन को अंजाम दे. इस मिशन की जिम्मेदारी दी गई, स्क्वॉड्रन लीडर अजय आहूजा को.
27 मई 1999. स्क्वॉड्रन लीडर अजय आहूजा ने मिग-21 विमान संख्या C-1539 से उड़ान भरी. उनके बगल में थे 26 साल के फ्लाइट लेफ्टिनेंट कमबमपति नचिकेता. जोकि मिग-27 विमान के साथ इस मिशन में शामिल थे. तीन विमान के इस स्क्वॉड्रन ने हायना फॉर्मेशन उड़ान भरना शुरू किया. सुबह के करीब 11 बजे थे. स्क्वॉड्रन दुश्मन पर मौत बरसा रहा था. लेकिन तभी एक गड़बड़ी हो गई.
फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता के विमान के इंजन में गड़बड़ी आनी शुरू हो गई. स्पीड तेजी से गिर रही थी. कुछ ही सेकंड के भीतर नचिकेता के विमान की गति 450 किलोमीटर प्रति घंटे पर आ गई. यह खतरे की घंटी थी. उन्होंने अपने स्क्वॉड्रन लीडर को जानकारी दी और विमान से इजेक्ट हो गए.
स्क्वॉड्रन लीडर अजय आहूजा के पास दो रास्ते थे. पहला सुरक्षित एयरबेस की तरफ लौटने का और दूसरा नचिकेता के पीछे जाने का. आहूजा ने दूसरा रास्ता चुना. वो नचिकेता के पीछे गए ताकि उनकी ठीक-ठीक लोकेशन हासिल कर सकें. लेकिन इस चक्कर में वो LOC के काफी नजदीक पहुंच गए. पाकिस्तानी फौज ने जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइल अंज़ा मार्क-1 से उनके विमान पर हमला किया. मिसाइल विमान के पिछले हिस्से से टकराई. और प्लेन में विस्फोट हो गया.
भारतीय एयरबेस में उनके मुंह से सुने गए आखिरी शब्द थे-
हर्कुलस, मेरे प्लेन से कुछ चीज टकराई है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह एक मिसाइल हो. मैं प्लेन से इजेक्ट हो रहा हूं.
स्क्वॉड्रन लीडर अजय आहूजा भारतीय क्षेत्र में उतरे थे. जिन्दा. लेकिन पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया. और कैप्टन कालिया की ही तरह यातना देकर उनकी हत्या कर दी गई. श्रीनगर बेस हॉस्पिटल में हुए पोस्टमार्टम में साफ़ हुआ कि उन्हें पॉइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी गई.
दूसरी तरफ नचिकेता ठीक दुश्मन के इलाके में उतरे थे. उन्होंने दूर से एक बिंदु को आग के गोले में बदलते हुए देखा. यह स्क्वॉड्रन लीडर अजय आहूजा का विमान था. इसके बाद उन्होंने फायरिंग की आवाज सुनी. अब वो पाकिस्तानी सैनिकों से घिरे हुए थे. उनके पास हथियार के नाम पर महज एक पिस्टल थी. जो 25 गज के दायरे से आगे बेअसर साबित होती थी.
उन्होंने अपनी तरफ आ रहे 5-6 सैनिकों पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं. पाकिस्तानी सैनिकों के पास एके-56 असॉल्ट रायफल्स थीं. वो भी नचिकेता की तरफ गोली चला रहे थे, लेकिन उनका इरादा नचिकेता को जिंदा पकड़ने का था. अपनी पिस्टल की एक मैग्जीन खाली करने के बाद, वो उसे फिर से लोड कर रहे थे कि उन्हें पकड़ लिया गया. पाकिस्तानी सैनिक उन्हें अपने ठिकाने पर ले आए और मारना शुरू किया. पाक सैनिक नचिकेता से पूछताछ के नाम पर उन्हें टॉर्चर कर रहे थे. इस बीच पाकिस्तानी एयर फोर्स के डायरेक्टर ऑफ ऑपरेशंस कैसर तुफैल वहां पहुंच गए. तुफैल नचिकेता को अपने साथ ले गए.
बाद में मीडिया को दिए इंटरव्यू में तुफैल ने बताया-
हम दोनों में बहुत कुछ कॉमन था. ये जानकर मुझे बहुत गजब लगा. मैंने नचिकेता से पूछा कि वो मिशन से पहले क्या करते हैं. नचिकेता ने मुझे बताया कि वो अपनी बहन की शादी के चलते छुट्टी पर थे. और इधर पाकिस्तान में मेरी बहन की भी शादी थी. हम दोनों की मुलाकात बहुत यादगार रही.
इधर भारत के प्लेन क्रैश की खबरें इंटरनेशनल मीडिया में आ चुकी थीं. पाकिस्तान पर नचिकेता को लौटाने का दबाव बढ़ रहा था. आखिरकार सात दिन दुश्मन की कैद में रहने के बाद नचिकेता आजाद हुए. तारीख थी 4 जून 1999. पाकिस्तान ने उन्हें इंटरनैेशनल कमेटी ऑफ द रेड क्रॉस को सौंपा. और बाजरिए रेड क्रॉस वो वाघा बोर्डर से भारत आए. फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता को युद्ध में बहादुरी दिखाने के लिए वायुसेना मेडल से नवाज़ा गया.
वीडियो: तारीख़ : जब कारगिल घुसपैठ की तैयारी को लेकर परवेज़ मुशर्रफ ने कहा था- 'हारे तो मेरी गर्दन काट लेना'