पत्रकार कुलदीप नय्यर अपनी किताब ‘ऑन लीडर्स एंड आइकॉन्स’ में मुहम्मद अली जिन्ना (Muhammad Ali Jinnah) से जुड़ा एक किस्सा बताते हैं.
बात बंटवारे से कुछ साल पहले की है. नय्यर उन दिनों लाहौर कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे. एक रोज़ कॉलेज में जिन्ना का भाषण रखा गया. लेकिन इस फंक्शन में सिर्फ मुसलमान स्टूडेंट्स को बुलाया गया था. आख़िरी समय में जब आयोजनकर्ताओं को लगा कि मुसलामानों से सीटें नहीं भरेंगी तो उन्होंने हिन्दू छात्रों को भी बुला लिया. नय्यर भी इनमें से एक थे. जिन्ना ने अपना भाषण पूरा किया. अब बारी सवाल-जवाब की थी. नय्यर ने सवाल पूछा,
हाथ में प्लास्टर लगे होने के बावजूद लड़ते रहे भारत के पहले परमवीरचक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा
मेजर सोमनाथ शर्मा 1947 में बडगाम की लड़ाई में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे
“अगर हिन्दू-मुसलमान के बीच इतनी दुश्मनी है कि वो एक देश में नहीं रह सकते तो पाकिस्तान बनने के बाद क्या गारंटी है कि वो मिलकर रह पाएंगे”
इस पर जिन्ना ने एक आश्चर्यजनक जवाब दिया. जिन्ना ने जर्मनी और फ़्रांस का उदाहरण देते हुए कहा कि दोनों देशों के बीच सैकड़ों सालों की दुश्मनी रही है. लेकिन अब उनके बीच रिश्ते सुधर रहे हैं. ऐसे ही भारत और पाकिस्तान (India Pakistan) के सम्बन्ध भी अच्छे होंगे.
नय्यर ने एक और सवाल पूछते हुए कहा,
“अगर कोई तीसरा देश भारत पर आक्रमण करेगा तो पाकिस्तान का इस पर क्या रिएक्शन रहेगा?”
जिन्ना का जवाब इस पर भी हैरान करने वाला था. बोले,
"दोनों देशों के जवान कंधे से कन्धा मिलाकर तीसरी ताकत के खिलाफ लड़ेंगे, याद रखो जवान लड़के, खून पानी से गाढ़ा होता है.”
खून पानी से गाढ़ा था लेकिन मिट्टी से नहीं. बंटवारे को हुए तीन महीने हुए थे कि जिन्ना ने कश्मीर (1947 Kashmir war) की जमीन हथियाने की पूरी प्लानिंग कर ली थी. कबीलाई भेष में पाकिस्तान के जवान कश्मीर में दाखिल हुए और खूब तबाही मचाई. इसी जंग में लड़ते हुए मेजर सोमनाथ शर्मा (Major Somnath Sharma) ने वीरगति हासिल की थी. और परम वीर चक्र (Paramveer Chakra) पाने वाले वो पहले जवान थे. क्या थी मेजर सोमनाथ शर्मा की कहानी? चलिए जानते हैं.
जवाहरलाल, क्या तुम्हें कश्मीर चाहिए या नहीं?कहानी की शुरुआत होती है अक्टूबर 1947 से. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास एक टेलीग्राम आया. जिसे नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के पूर्व डिप्टी कमिश्नर इस्माइल खान ने भेजा था. टेलीग्राम में इस्माइल ने नेहरू को आगाह करते हुए लिखा कि हथियारबंद कबीलाइयों का एक जत्था पाकिस्तान बॉर्डर पार कर आने वाला है और इसके लिए पाकिस्तान सरकार उन्हें ट्रांसपोर्ट मुहैया करा रही है.
सरकार खामोश रही. महाराजा हरी सिंह ने विलय पत्र पर अभी तक हस्ताक्षर नहीं किए थे. इसलिए नेहरू को लगा कि उनके हाथ बंधे हैं. इसके ठीक दो हफ्ते बाद अफरीदी, महसूद, वज़ीर, स्वाथी कबीलों के लोग और उनके साथ भेष बदलकर पाकिस्तानी सैनिक कश्मीर में दाखिल हो गए. 22 अक्टूबर की रात इन लोगों ने मुज़फ्फरादाबाद में खूब तबाही मचाई. उरी पर कब्ज़ा करने के बाद ये लोग महुरा पहुंचे. श्रीनगर से मात्र 50 मील दूर, यहां से पूरे श्रीनगर को बिजली पहुंचती थी. कबीलाइयों ने मुहरा का पावर स्टेशन उड़ा दिया. नतीजा हुआ कि पूरा श्रीनगर अंधेरे की आगोश में डूब गया. अब तक जम्मू कश्मीर के महाराजा हरी सिंह को अक्ल ठिकाने आ चुकी थी.
महाराणा प्रताप: हल्दीघाटी से लेकर दिवेर की जंग तक पूरी कहानी
25 अक्टूबर के दिन VP मेनन कश्मीर पहुंचे और महाराजा हरी सिंह से विलय पत्र में दस्तखत लिवा लाए. दिल्ली में एक हाई लेवल मीटिंग बुलाई गई. सैम मानेकशॉ जो तब आर्मी कर्नल हुआ करते थे, वो भी इस मीटिंग में मौजूद थे. मानेकशॉ बताते हैं,
“नेहरू संयुक्त राष्ट्र, रूस अफ्रीका, न जाने किन किन की बात कर रहे थे कि तभी तभी पटेल को गुस्सा आ गया और वो बोले, जवाहरलाल, क्या तुम्हें कश्मीर चाहिए या नहीं?”
नेहरू ने जवाब दिया, हां चाहिए. पटेल ने कहा, तो सेना को आर्डर दो. प्रधानमंत्री नेहरू ने आर्डर दिया और अगली सुबह पालम से भारतीय जवानों का पहला जत्था श्रीनगर की ओर उड़ चला.
मेजर सोमनाथ शर्मा की कहानीSK सिन्हा, जो आगे जाकर 2003 में जम्मू कश्मीर के गवर्नर बने. तब सेना में मेजर हुआ करते थे. लॉगिस्टिक्स की जिम्मेदारी उन्हीं के पास थी. श्रीनगर एयरपोर्ट पर उनकी मुलाक़ात अपने एक पुराने दोस्त से हुई. मेजर सोमनाथ शर्मा, जो 4 कुमाऊं की डेल्टा कंपनी को लीड कर रहे थे. उनके बाजू पर प्लास्टर चढ़ा था. सिन्हा बताते हैं कि शर्मा उस रोज़ बहुत मायूस थे. हाथ में प्लास्टर के चलते उन्हें एक्टिव ड्यूटी पर नहीं भेजा जा रहा था.
उनकी कम्पनी को एयरपोर्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी. सिन्हा ने उन्हें समझाया कि भारत और कश्मीर के बीच ये एयरपोर्ट एकमात्र लिंक है. इसलिए इसकी सुरक्षा का जिम्मा बहुत बड़ा है. सिन्हा लिखते हैं कि उनकी बात सुनकर भी मेजर शर्मा की मायूसी दूर नहीं हुई. वो किसी भी तरह एक्टिव ड्यूटी पर जाना चाहते थे.
मेजर सोमनाथ शर्मा की पैदाइश 31 जनवरी 1923 को हुई थी. जिला कांगड़ा, हिमांचल प्रदेश में. उनके पिता जनरल AN शर्मा आर्मी मेडिकल सर्विसेज के डायरेक्टर जनरल पद से रिटायर हुए थे. आर्मी में रहते हुए उन्हें अधिकतर घर से बाहर रहना पड़ता था. जिसके चलते सोमनाथ का अधिकतर बचपन अपने नाना पंडित दौलत राम के साथ बीता था. नाना उन्हें गीता के श्लोक सुनाकर उसका मतलब समझाया करते थे.
10 साल की उम्र में सोमनाथ को रॉयल मिलिट्री कॉलेज देहरादून में भर्ती कर दिया गया था. इसके बाद उन्होंने रॉयल मिलिट्री अकादमी जॉइन की. जहां से वो लेफ्टिनेंट बनकर बाहर निकले और 8/19 हैदराबाद इन्फेंट्री रेजिमेंट में कमीशन हुए. सोमनाथ के मामा कृष्ण दत्त वासुदेव भी इसी रेजिमेंट का हिस्सा हुआ करते थे. और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे. उनकी बहादुरी की बदौलत रेजिमेंट के हजार जवानों की जान बची थी. इसलिए पूरी रेजिमेंट में उनका बड़ा नाम था. सोमनाथ ने भी अपने मामा के नक़्शे कदम पर चलते हुए बर्मा थिएटर में हिस्सा लिया. इस दौरान उन्हें लीड कर रहे थे KS थिमैया, जो आगे चलकर भारत के चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बने. इसी जंग का एक किस्सा है.
द्वितीय विश्व युद्ध में हिस्सा लियाएक रोज़ सोमनाथ शर्मा के अर्दली बहादुर को युद्ध में बुरी तरह चोट लग गई. शर्मा की कम्पनी को पीछे कैम्प की तरफ लौटना था और उनका अर्दली चलने की हालत में नहीं था. शर्मा ने उसे अपने कंधे पर उठाया और कैम्प की तरफ चल पड़े. कर्नल थिमैया को जब पता चला कि उनका एक अफसर पीछे छूट रहा है. तो उन्होंने कहा, ‘शर्मा, उसे वहीं छोड़ो और आगे जल्दी बढ़ो. इस पर सोमनाथ ने जवाब दिया, “ सर ये मेरा अर्दली है. मैं इसे पीछे नहीं छोड़ सकता”. शर्मा कई किलोमीटर अपने कंधे पर उसे उठाए चलते रहे और उसे कैम्प तक पहुंचाया, जिसके चलते उसकी जान बच सकी. शर्मा को अपनी इस बहादुरी के लिए इस युद्ध में ‘मेंशन इन डिस्पैच’ सम्मान मिला.
अक्टूबर 1947 में जब 4 कुमाऊं को श्रीनगर जाने का आदेश मिला, मेजर सोमनाथ शर्मा के हाथ में प्लास्टर लगा हुआ था. फिर भी वो जिद करके श्रीनगर पहुंचे और अपनी टीम को लीड किया. श्रीनगर जाने से पहले आख़िरी रात उन्होंने दिल्ली में मेजर के के तिवारी के साथ बिताई. तिवारी और वो अब तक सभी जंगों में साथ लड़े थे. लेकिन इस बार मेजर सोमनाथ को अकेले जाना था. इसलिए सोमनाथ से उनसे कहा कि वो उनकी एक यादगार अपने साथ ले जाना चाहते हैं.
मेजर तिवारी ने कहा, कमरे में जो भी है, ले जा सकते हो. मेजर सोमनाथ खड़े हुए. कमरे में बनी अलमारी को देखा और उसमें रखी एक पिस्तौल उठा ली. ये एक जर्मन मेड पिस्तौल थी जो मेजर तिवारी को बहुत प्रिय थी. फिर भी उन्होंने मेजर सोमनाथ को उसे अपने साथ ले जाने दिया. मेजर सोमनाथ जब श्रीनगर में लैंड हुए, चीजें तेज़ी से बदल रही थीं.
हाथ में प्लास्टर लिए लड़ते रहे3 नवम्बर तक कबीलाई बडगाम पहुंच गए थे. जो श्रीनगर एयरपोर्ट से कुछ ही दूरी पर था. ब्रिगेडियर प्रोतीप सेन ने मेजर शर्मा की अगुवाई में 100 जवानों को बडगाम के लिए रवाना किया.
दोपहर ढाई बजे बडगाम के गांव में 700 कबीलाइयों ने हमला किया. मेजर शर्मा को पता था कि ये आख़िरी मोर्चा है. अगर यहां उन्होंने कबीलाइयों को नहीं रोका तो वो जल्द ही श्रीनगर एयरपोर्ट पहुंच जाएंगे, जिस पर कब्ज़े का मतलब था कश्मीर और भारत का आख़िरी लिंक भी तोड़ देना.
मेजर शर्मा की कंपनी और कबविलाइयों के बीच 1:7 का अंतर था. उन्होंने ब्रिगेडियर सेन को और मदद भेजने का सन्देश भेजा. लेकिन मदद आने में अभी देर थी और तब तक कबीलाइयों को रोके रखना था. उनका आख़िरी वायरलेस मेसेज था,
"दुश्मन हमसे सिर्फ 50 गज की दूरी पर हैं. हमारी संख्या काफी कम है. हम भयानक हमले की जद में हैं. लेकिन हमने एक इंच जमीन नहीं छोड़ी है. हम अपने आखिरी सैनिक और आखिरी सांस तक लड़ेंगे."
मेजर शर्मा के हाथ में प्लास्टर लगा था. इसके बाद भी वो खुद मैगज़ीन रीलोड करते रहे ताकि उनकी फ़ायरपॉवर में कमी न आए. 4 कुमाऊं के जवानों ने कबीलाइयों को 6 घंटे तक रोके रखा. जो अंत में निर्णायक साबित हुए. 6 घंटे बाद जब मदद पहुंची तक तब 4 कुमाऊं के जवानों ने 200 से ज्यादा कबीलाइयों को ढेर कर दिया था. हालांकि इस लड़ाई उनके बहुत से साथी भी वीरगति को प्राप्त हुए थे. लेकिन उन्होंने कबीलाइयों को आगे बढ़ने नहीं दिया.
पहला परमवीरचक्रइसी जंग में मेजर शर्मा भी वीरगति को प्राप्त हो गए थे. एक मोर्टार शेल लगने से उनके शरीर के चीथड़े उड़ गए थे. पूरे तीन 3 दिन के बाद जब उनके शरीर के अवशेष मिले तो उसकी निशानदेही उसी पिस्तौल के चमड़े के होल्स्टर के हुई थी जो उन्हें मेजर तिवारी ने दिया था. बताते हैं की उनकी यूनिफार्म की जेब में गीता के कुछ पन्ने भी थे, जिन्हें वो हमेशा अपने साथ रखते थे.
इस जंग में वीरता दिखाने के लिए मेजर शर्मा को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था. हालांकि जब वो जिन्दा थे तब वीर चक्र नहीं हुआ करते थे. बल्कि विक्टोरिया क्रॉस दिया जाता था. श्रीनगर रवाना होने से पहले आख़िरी रात दिल्ली में उन्होंने अपने दोस्त से कहा था, “या तो मैं मरकर विक्टोरिया क्रॉस हासिल करूंगा या फिर आर्मी का चीफ बनूंगा”
इत्तेफाक देखिए कि उनके छोटे भाई VN शर्मा 1988 में चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बने.
वीडियो देखें- जब महामारी वाले बैक्टीरिया से हुई हत्या!