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लाहौर में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से किसने कहा, पाकिस्तान से चुनाव लड़ लो!

फरवरी 1999 में नवाज़ शरीफ़ के न्योते पर प्रधानमंत्री वाजपेयी लाहौर पहुंचे

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नवाज़ शरीफ़ के न्योते पर लाहौर पहुंचे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरी गर्मजोशी दिखाते हुए दोस्ती का हाथ बढ़ाया लेकिन कुछ ही महीनों में कारगिल में पाकिस्तान की असलियत सामने आ गई (तस्वीर: Getty)
भारत पाकिस्तान की सरहद पर जंग होती है. खेल नहीं. लेकिन शायरों की रूह रूमानी होती है. सो गुलज़ार लिखते हैं.
उठो कबड्डी-कबड्डी खेलेंगे सरहदों पे जो आए अबके तो लौटकर फिर ना जाए कोई
साल 1999. फरवरी का महीना था. भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी लाहौर पहुंचते हैं. सदा-ए-सरहद की शुरुआत करने. सदा-ए-सरहद बस सेवा को नाम दिया गया था. जो दिल्ली और लाहौर के बीच शुरू होनी थी. अटल पहले अमृतसर से बस को हरी झंडी दिखाने वाले थे. लेकिन फिर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ अड़ गए. बोले, “साहब हमारे दर तक आएं और बिना मिले लौट जाएं, ये नहीं हो सकता.”
यात्रा का आग़ाज़ जिस मेहमान नवाज़ी से शुरू हुआ, वो आख़िर तक बनी रही. इतना ही नहीं, जाते- जाते प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने अपनी बातों से वो समां बांधा कि नवाज़ शरीफ़ उनको पाकिस्तान से चुनाव लड़ने का न्योता देने लगे. सुनकर लगता है क्या गर्मजोशी रही होगी दोनों देशों के बीच में. लेकिन ठंडी ब्रेड के बीच गर्म पैटी के माफ़िक़ ये गर्मजोशी भी सिर्फ़ चंद घंटों की थी. इससे पहले और बाद सब सूखा ही सूखा था. इस यात्रा से सिर्फ़ एक साल पहले ही दोनों देशों ने परमाणु परीक्षण किया था. और इस यात्रा के चंद महीनों बाद ही पाक सेना के जवान कारगिल में कब्जा कर बैठ गए थे. न्यूक्लियर टेस्ट से बातचीत की टेबल पर शुरुआत मई 1998 से. भारत और पाकिस्तान, दोनों देश न्यूक्लियर टेस्ट करते हैं. और धमाके की आवाज़ पूरी दुनिया में गूंजती है. अमेरिका दोनों देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाता है. और पूरी दुनिया से शांति बनाए रखने की गुहार उठती है.  सितम्बर 1998 में न्यू यॉर्क में संयुक्त राष्ट्र जनरल असेम्ब्ली की बैठक थी. दोनों देशों के प्रधानमंत्री बैठक में शिरकत करने पहुंचते हैं. बातचीत के दौरान एक बस सेवा शुरू करने का प्रस्ताव रखा जाता है.
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अमृतसर से लाहौर तक बस में सफ़र करते हुए प्रधानमंत्री अटल और शत्रुघ्न सिन्हा (तस्वीर: PTI)


राकेश सूद तब विदेश मंत्रालय में जॉइंट सेक्रेटेरी के पद पर थे. और न्यू यॉर्क में भारतीय दल के साथ पहुंचे थे. राकेश अपने कलीग और दोस्त विवेक काटजू से कहते हैं, ‘दोनों देश जो कुछ महीने पहले तक परमाणु हथियारों की बात कर रहे थे. वो बात अब अचानक एक बस सर्विस तक पहुंच गई है. मामला क्या है?'. विवेक राकेश को जवाब देते हैं, 'ये भारत और पाकिस्तान के रिश्ते हैं. यहां कब क्या हो जाए, कुछ कह नहीं सकते.'
न्यू यॉर्क में हुई इस बातचीत को क़रीब दो महीने गुजर जाते हैं. लेकिन बात कुछ आगे नहीं बढ़ती. दोनों तरफ़ की सुरक्षा ऐज़ंसियां अपनी अपनी तरफ़ से चिंताएं व्यक्त कर रही थी. फिर जनवरी 1999 में नवाज़ शरीफ़ PM वाजपेयी को एक कॉल मिलाते हैं. और लाहौर-दिल्ली बस सेवा को लेकर हो रही देरी के लिए चिंता व्यक्त करते हैं. वाजपेयी शरीफ़ को भरोसा दिलाते हैं कि वो खुद इस तरफ़ ध्यान देंगे. मुख्य सचिव ब्रजेश मिश्रा को चार्ज सौंपा जाता हैं. मिश्रा अलग -अलग ऐजंसियों से कुछ मीटिंग करते हैं. सिलवटों पर इस्त्री की जाती है. और जब सब कुछ तय हो जाता है तो भारत की तरफ़ से पाकिस्तान को इत्तिला कर दी जाती है. भारत फरवरी से बस सेवा शुरू करने को तैयार हो गया था. घर नहीं आओगे इस स्टेज पर सिर्फ़ बस सेवा को लेकर बात हुई थी. कोई बाइलेटरल समिट की बात नहीं हुई थी. वाजपेयी दिल्ली से बस सेवा को हरी झंडी दिखाने वाले थे. और दूसरी तरफ़ लाहौर से ऐसा ही नवाज़ शरीफ़ भी करते. फिर प्लान में कुछ तब्दीली हुई. हुआ यूं कि फरवरी मध्य में PM वाजपेयी का अमृतसर दौरा तय था. इसलिए तय हुआ कि वाजपेयी वहीं से बस सेवा को हरी झंडी दिखाएंगे. अमृतसर और लाहौर के बीच सिर्फ़ 40 किलोमीटर की दूरी है. और भारत को लगा अमृतसर से बस को हरी झंडी दिखाए जाने के मायने कुछ और मज़बूत दिखाई देंगे. फिर घटनाक्रम ने कुछ और करवट ली.
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वाजपेयी बस में बैठकर, वाघा बॉर्डर पार करके लाहौर पहुंचे और वहां नवाज़ शरीफ़ ने उन्हें रिसीव किया (तस्वीर: PTI)


गणतंत्र दिवस के आसपास शरीफ़ ने एक और बार बाजपेयी को फ़ोन लगाया. पहले तो उन्होंने बस सेवा का काम जल्द आगे बढ़ाने को लेकर वाजपेयी का धन्यवाद किया. फिर बोले, 'मैंने सुना है कि आप अमृतसर आ रहे हैं. सच है क्या?'. वाजपेयी ने हां में जवाब दिया तो नवाज़ शरीफ़ तपाक के बोले, “दर तक आ रहे हो, घर नहीं आओगे?’
इसके बाद नवाज़ बोले कि वाजपेयी को लाहौर आना होगा. और वो खुद उन्हें रीसीव करने आएंगे. वाजपेयी ने न्योते को लेकर शुक्रिया अदा किया और जवाब देने के लिए कुछ मोहलत मांगी. मामूली सा न्योता सियासत की चाल थी. जिसे वाजपेयी भाँप गए थे. उन्हें लगा कि जल्द से जल्द इसका जवाब देना होगा. वो इसलिए कि तब फ़्रांस और अमेरिका जैसे देश भारत पर टेड़ी नज़र रखे हुए थे. भारत कोशिश कर रहा था समझाने की कि वो एक ज़िम्मेदार न्यूक्लियर शक्ति है. भारत को डर था कि अगर इस कॉल को लीक कर दिया गया. तो पाकिस्तान ये संदेश देने में कामयाब हो जाएगा कि वो शांति का हाथ बढ़ा रहा है और भारत कतरा रहा है.
तुरंत कैबिनेट की एक मीटिंग बुलाई गई. वहां मत बंटे हुए थे. कुछ लोगों का मानना था कि वाजपेयी का पाकिस्तान जाना, मतलब एक बाइलेटरल मीटिंग होना तय था. और भारत अपना ऐजंडा मज़बूत करे, इसके लिए वक्त वक्त चाहिए था. अंत में वाजपेयी जाने के लिए राज़ी जो गए. 20-21 फ़रवरी की तारीख़ तय हुई. वाजपेयी एक बस में बैठकर अमृतसर से लाहौर पहुंचने वाले थे. चूंकि इस यात्रा में सांकेतिक रूप से भी बहुत कुछ होना था. इसलिए इलीट लोगों की एक बारात भी जानी थी. इनमें शामिल थे, देव आनंद, कपिल देव. कुलदीप नैय्यर. ज़ावेद अख़्तर, सतीश गुजराल, शत्रुघ्न सिन्हा और मल्लिका साराभाई. मीनार-ए-पाकिस्तान में प्रधानमंत्री अटल 19 फ़रवरी को अमृतसर से रवाना होकर 40 मिनट में बस लाहौर पहुंच गई. वादे के अनुसार नवाज़ शरीफ़ खुद वाजपेयी को रिसीव करने पहुंचे. इस यात्रा के दौरान प्रधानमन्त्री वाजपेयी मीनार-ए-पाकिस्तान, अल्लामा इकबाल की मजार, गुरूद्वारा डेरा साहिब और महाराज रणजीत सिंह की समाधि पर गये. वाजपेयी के मीनार-ए-पाकिस्तान पर जाने का भारत में बहुत विरोध भी हुआ. चूंकि यहीं पर 1940 में इसी जगह ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अधिवेशन के दौरान फजहुल हक ने मुहम्मद अली जिन्ना की उपस्थिति में ‘पाकिस्तान’ का प्रस्ताव पेश किया था.
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वाजपेयी जानते थे कि मीनार-ए-पाकिस्तान जाने से भारत में कुछ लोग नाराज़ होंगे (तस्वीर: AFP)


मीनार-ए-पाकिस्तान की विज़िटर बुक में वाजपेयी ने लिखा,
“एक स्थिर, सुरक्षित और समृद्ध पाकिस्तान भारत के हित में है. इस बात कर किसी को कोई शक ना रहे कि भारत तहे दिल से पाकिस्तान के भले की कामना करता है”
इस सब के इतर इस मीटिंग का एक महतवपूर्ण एजेंडा था CBM यानी कॉन्फ़िडेन्स बिल्डिंग मीजर्स. इस तरह के मसौदे 1990 से ही तय होते आ रहे थे. लेकिन अब बात दो न्यूक्लियर पावर्ड देशों के बीच होनी थी. यात्रा से पहले ही भारत की तरफ़ से पेपर तैयार कर पाकिस्तान के साथ साझा किया गया. फरवारी के पहले हफ़्ते में राकेश सूद और विवेक काटजू लाहौर गए और वहां अपने पकिस्तानी काउंटर पार्ट्स से मिले. दोनों देशों के बीच यही दस्तावेज वो MOU बना जो आज ही के दिन यानी 21 फरवरी 1990 को दोनों देशों के फ़ॉरेन सेक्रेटरी ने साइन किया. के. रघुनाथ तब भारत के फ़ॉरेन सेक्रेटरी थे और शमशाद अहमद पाकिस्तान के. हम जंग ना होने देंगे इसी MOU पर बातचीत के दौरान ही लाहौर डिक्लेयरेशन का ide
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लाहौर डिक्लेयरेशन के तहत कहा गया था कि दोनों देश आपसी संघर्ष से बचने की कोशिश करेंगे (फ़ाइल फोटो)


भी निकला. तय हुआ कि यात्रा की समाप्ति तक दोनों देशों के प्रधानमंत्री एक राजनैतिक पत्र पर साइन करें. जिससे आगे शांति और बातचीत का रास्ता तय हो. लाहौर डिक्लेयरेशन से दुनिया के सामने ये भी संदेश जाता कि दो न्यूक्लियर पावर्ड देश शांति वार्ता को लेकर सहमत हैं. और इससे दोनों देशों को आर्थिक प्रतिबंधों से निकलने में भी मदद मिलती. 21 तारीख़ 1999 को प्रधानमंत्री वाजपेयी और नवाज़ शरीफ़ ने लाहौर डिक्लेयरेशन पर साइन किया. जिसके बाद उसी शाम को PM वाजपेयी के लिए लाहौर के गवर्नर हाउस में एक पार्टी रखी गई.
नवाज़ शरीफ़ ने जश्न की तैयारी का ज़िम्मा सलीमा हाशमी को दिया. जो पाकिस्तान के बड़े शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बेटी थी. हाल-ए-बयान सुनिए,
दो देश जो अमूमन जंग या खेल के मैदान में आमने-सामने होते हैं, इस शाम स्टेज साझा कर रहे हैं. अटल जी से कुछ बोलने की गुज़ारिश की जाती है तो वे खड़े होकर माइक के पास पहुंचते हैं. कुछ ही दूर पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ बैठे हैं. ऐसे मौक़े पर जो आधिकारिक बयान पढ़ा जाता, वो कहीं नहीं था. अटल एक बार नवाज़ की ओर देख फ़रमाते हैं,
हम जंग ना होने देंगे तीन बार लड़ चुके लड़ाई कितना महंगा सौदा हम जंग ना होने देंगे
वाजपेयी की ये कविता वहां मौजूद लोगों की आंखों को नम कर जाती है. अब बारी नवाज़ शरीफ की थी. मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए उन्होंने कोई जवाब देना उचित ना समझा. और सिर्फ़ इतना बोले, “वाजपेयी अगर आज पाकिस्तान में चुनाव लड़ते हैं. तो यहाँ भी जीत जाएंगे.” यात्रा सम्पन्न होती है. खास बात ये थी कि इस पूरे दौरे से पाकिस्तान आर्मी के जनरल खुद को दूर रखते हैं. इनमें परवेज़ मुशर्रफ भी शामिल थे. क्यों? कोई उनकी तस्वीर तक न खींचे इसका जवाब सिर्फ़ तीन महीने में मिल जाता है. पर्दे के पीछे नवाज़ शरीफ़ ऑपरेशन कोह-ए-पैमा की प्लानिंग कर रहे थे. जिसके बारे में हमने आपको 26 जुलाई के तारीख़ के एपिसोड में बताया था. जब पाकिस्तान कारगिल में घुसा और वहां से बाहर भी खदेड़ दिया गया.
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आगरा समिट के दौरान जनरल परवेज़ मुशर्रफ और अटल बिहारी वाजपेयी (तस्वीर: AP)


शुरुआत में हमने आपको बताया कि लाहौर यात्रा के दौरान जो गर्मजोशी दिखी वो सिर्फ़ चंद घंटों की थी. जो गर्मजोशी लाहौर यात्रा के दौरान वाजपेयी दिखा रहे थे. वो पाकिस्तान से अगली वार्ता में ग़ायब थी. 2001 में आगरा सम्मेलन के लिए जनरल परवेज़ मुशर्रफ भारत आए. इस वाकये का जिक्र करते हुए ISI के पूर्व प्रमुख असद दुर्रानी ने ‘द स्पाई क्रॉनिकल्स’ में लिखा है-
“वाजपेयी अनुभवी इंसान थे. उनकी बड़ी इज्जत थी. लेकिन वो मुशर्रफ को विदा करने नहीं आए. वो उन्हें बाहर कार तक छोड़ने भी नहीं आए. हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं होता. ये बड़ा अजीब था. ज़िया उल हक (पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह) भले लाख किसी से छुटकारा पाना चाहते रहे हों, लेकिन वो उसको विदा करने बाहर तक जरूर आते थे. खुद उसकी कार का दरवाजा खोलते थे. ये उनका स्टाइल था. यहां भारत का प्रधानमंत्री (वाजपेयी) अपने वतन आए पाकिस्तानी राष्ट्रपति के साथ इतनी बुनियादी औपचारिकता भी न निभाएं, ये बड़ी अजीब सी बात थी. मैं उस दिन मुशर्रफ को अकेले उनकी कार की तरफ बढ़ते देख रहा था. कुछ कदमों का वो रास्ता इतना लंबा लग रहा था मानो खत्म ही नहीं होगा. वो चाह रहे होंगे कि उस वक्त उन्हें कोई न देखे. कोई उनकी तस्वीर तक न खींचे.”
शांति की जो पहल PM वाजपेयी ने की थी, मुशर्रफ पहले ही उस पर बट्टा लगा चुके थे. इसलिए वाजपेयी से किसी भी तरह की गर्मजोशी की उम्मीद करना बेमानी थी. जहां तक लाहौर दिल्ली बस यात्रा का सवाल है. तो वो आने वाले कई सालों तक चलती रही. यहां तक कि कारगिल युद्ध के दौरान भी. लेकिन साल 2019 में धारा 370 हटने के बाद पाकिस्तान ने लाहौर बस यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया.