इससे ये तो मुमकिन नहीं कि उस आदमी के मन में ज़ेब्रा की तस्वीर बन जाए. लेकिन इतना सम्भव है कि वो जब ज़ेब्रा देखे तो गेस कर ले कि इसी की बात हो रही थी. ये तो रंग आकार की बात थी. स्वाद का बयान तो और भी मुश्किल है. मसलन किसी ने अचार ना खाया हो तो उसे कैसे बताएं, अचार क्या होता है. 21 वीं सदी में तो फिर भी सम्भव है कि कम से कम तस्वीर, वीडियो आदि दिखा दें. लेकिन पहले तो सब कलम दवात से बयान करना पड़ता था. जो किया करते थे इतिहासकार.

मुहम्मद बिन तुग़लक़ की यात्रा (तस्वीर: EncyclopaediaBritannica)
अब इतिहासकार तो बहुत हुए. जिन्होंने बताया कि किसका शासन रहा, क्या शासन पद्दति रही. लेकिन घुमक्कड़ कम हुए. इसलिए ह्वेन सांग, मार्को पोलो जैसे कुछ लोगों को उंगली पर गिना जा सकता है. इन सबमें सबसे तीस मार ख़ां साबित हुए हुए इब्न बतूता. जिन्होंने 21 साल की उम्र में घर से बाहर कदम रखा. और फिर 32 साल तक दुनिया घूमते रहे. इस दौरान भारत भी आए. भारत में उनका पाला पड़ा खास लोगों से. फिर आम लोगों से, फिर आम से. और फिर आम के अचार से. जिसके लिए इब्न बतूता कहते हैं,
“यहां एक फल मिलता है. दमिश्क में जैसे बड़े-बड़े बेर मिलते हैं, बिलकुल वैसा. पकने से पहले ही पेड़ से झड़ जाता है. और यहां के लोग फिर उसमें नमक लगाते हैं. इसके बाद उसे सहेज कर रख दिया जाता है. वैसे ही जैसे हम लोग नींबू के साथ करते हैं. इसी तरह से अदरक के साथ भी किया जाता है. और मिर्च के साथ भी, जिसे ये लोग खाना खाते वक्त साथ खाते हैं.”इब्न बतूता हज को चले इब्न बतूता का जन्म आज ही के दिन यानी 24 फ़रवरी, 1304 को हुआ था. इब्न-ए-बतूता की पैदाइश हुई तंजियार में. जो उत्तर अफ्रीकी देश मोरक्को का एक शहर है. इब्न बतूता पैदा हुए क़ाज़ियों के परिवार में. लेकिन ख़ानदानी पेशा अपनाने के लिए ज़्यादा दिन राज़ी ना रहे. उनके दिल में खानाबदोशी का शौक़ हिलोरे ले रहा था. जिसकी शुरुआत हुई एक सपने से. कहते हैं कि 21 की उमर में इब्न बतूता को एक सपना दिखा. जिसमें उन्होंने देखा कि एक पक्षी उन्हें अपने पंख में बिठा पूरब की ओर ले जा रहा है.

इब्न बतूता और मुहम्मद बिन तुग़लक़ (तस्वीर: sdsu.edu)
इब्न बतूता ने ठाना कि 21 की उमर में हज के लिए जाएंगे. मोरक्को से मक्का की ओर. साल था 1325. मक्का तक यात्रा के लिए 16 महीनों का वक्त लगता था. इसलिए बतूता ने अपना सामान इकट्ठा किया और निकल पड़े सफ़र पर. जानिब-ए मंज़िल को बतूता अकेले ही चले थे. फिर रास्ते में कारवां मिलते गए. और बतूता उनसे जुड़ते गए. फिर रास्ते में डकैतों का भी डर था. सो बतूता ने कारवां के साथ चलने में ही ख़ैर समझी. मक्का पहुंचने के बाद इब्न बतूता का दिल वहीं रम गया. आसपास के इलाक़ों में अगले तीन साल कभी यहां तो कभी वहां विचरते रहे. फिर बतूता को लगा,
सैर कर दुनिया की गाफ़िल, ज़िंदगानी फिर कहां, ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहांयही सोचकर बतूता ने मक्का के आगे की यात्रा शुरू की. दिलफेंक आदमी थे. सफ़र अकेले करते थे, लेकिन जहां ठहरते थे वहां अकेले नहीं रहते थे. इस यात्रा के दौरान इब्न बतूता ने जो पहली शादी की, उस औरत के पहले से 10 बच्चे थे. और आगे जहां-जहां इब्न बतूता ठहरे, एक ना एक शादी अपने नाम करते रहे. मक्का से आगे बढ़ते हुए बतूता कैस्पियन समंदर पार करते हुए मध्य एशिया पहुंचे. वहां से साउथ-ईस्ट एशिया के गेट पर एंट्री की. अफ़ग़ानिस्तान में हिंदु कुश पर्वत को पार कर इब्न बतूता ने भारत में कदम रखा. 14 वीं सदी की डाक बतूता भारत पहुंचते, इससे पहले ही सिंध के सरदारों को उनके आने की भनक लग चुकी थी. इब्न बतूता इससे ख़ासा प्रभावित हुए. तब उन्हें संदेश भेजने के अनूठे तरीक़े का पता चला. जिसका इस्तेमाल सिर्फ़ इस इलाक़े में किया जाता था.
संदेश भेजने के लिए हर मील ओर तीन चौकियां बनी होती थीं. जिन्हें दावह कहा जाता था. संदेश भेजने वाले हरकारे होते थे जो हर 1/3 मील पर बनी चौकी पर तैयार बैठे रहते थे. जैसे ही एक संदेश आता. एक हरकारा संदेश लेकर दौड़ता. और अपने साथ एक डंडा लिए होता, जिसके एंड में घुंघरू बंधे होते. जैसे ही हरकारा दूसरी चौकी पर पहुंचने वाला होता, वहां मौजूद हरकारे को घुंघरू की आवाज़ सुनाई देती. वो समझ जाता कि कोई संदेश आ रहा है. इसके बाद दूसरा हरकारा तुरंत चिट्ठी लेकर आगे रवाना होता. आगे यही क्रम जारी रहता और संदेश एक जगह से दूसरी जगह तेज़ी से पहुंच जाता.

यात्रा रूट (तस्वीर: हिस्ट्री डॉट कॉम)
इब्न बतूता ने लिखा है कि संदेश भेजने का ये तरीक़ा घोड़ों से भी तेज था. यही सब दर्ज़ करते हुए इब्न बतूता दिल्ली पहुंचे. वो साल था, 1334. तब दिल्ली पर मुहम्मद बिन तुग़लक़ का शासन था. और इस्लामिक दुनिया में तुग़लक़ सबसे अमीर शासक हुआ करता था. उसने इब्न बतूता को 12 हज़ार दिनार की तनख़्वाह पर शाही क़ाज़ी का पद सौंपा. इब्न बतूता दिल्ली में मुहम्मद बिन तुग़लक़ के बारे में इब्न बतूता लिखते हैं,
"सम्राट की ज़िंदगी में दो चीज़ बिना नागा हर रोज़ होती हैं. वो हर रोज़ किसी ना किसी भिखारी को अमीर बना देता है, बिना ये सोचे कि अमुक आदमी पात्र है भी या नहीं. वहीं दूसरी ओर सम्राट हर रोज़ एक न एक आदमी को मृत्युदंड भी ज़रूर देता है. सम्राट की इच्छा ही यहां न्याय है. अगर कोई अपने निर्दोष होने की दलील देता है तो तो उसे और भी भयानक मौत मिलती है. इसलिए लोग अपराध क़बूल कर लेते हैं. ताकी सीधी मौत मिले. लेकिन इतना ज़रूर है कि सम्राट सबके लिए एक जैसा है. एक बार तो उसने अपने ही किए पर खुद को 21 छड़ी से मार खाने की सजा दे डाली थी.”खाने-पीने के बारे में बताते हुए इब्न बतूता कहते हैं कि तब शाही दरबार में समोसे सबसे चाव से खाए जाते थे. इसके अलावा आम लोगों में उड़द की दाल और आम के अचार का चलन था. इब्न बतूता के वर्णन में तब भारत की औरतों की हालत का भी ज़िक्र मिलता है. बतूता बताते हैं कि युद्ध की हारी महिलाओं को दरबार में ग़ुलाम के रूप में रखा जाता था. कोई स्त्री पसंद आ गई तो संभ्रांत वर्ग के लोग उनसे शादी कर लेते थे. बाकी स्त्रियों से मज़दूरी और वैश्यावृत्ति कराई जाती थी. इसके अलावा सती प्रथा का चलन भी आम था.
दिल्ली में प्रवास के दौरान इब्न बतूता ने देखा कि दरबार में खूनी खेल चलता था. जिसके कारण वो दरबार से निकल जाने की फ़िराक में रहते. इस दौरान एक बार इब्न बतूता की जान पर भी बन आई. हुआ यूं कि दिल्ली में इब्न बतूता की दोस्ती एक सूफ़ी संत से हो गई. ये संत बादशाह को कोई खास तवज्जो नहीं देता था. एक बार मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने उस सूफ़ी संत को बुलावा भेजा तो संत ने आने से इनकार कर दिया. अपनी शान में गुस्ताखी देख तुग़लक ने संत का सिर धड़ से अलग करवा दिया. और इतने से भी उसका जी नहीं भरा. तो उसने संत के सारे नाते रिश्तेदार और दोस्तों की लिस्ट बनवाई. इस लिस्ट में इब्न बतूता का नाम भी शामिल था. इसके बाद तुग़लक़ ने इब्न बतूता को 3 हफ़्ते के लिए नज़र बंद करवा दिया. दिल्ली से जान बचाकर भागे इब्न बतूता को इस दौरान लगा कि सुल्तान पक्का उसे मौत की सजा देगा और वो किसी भी तरह दिल्ली से निकलने की सोचने लगे. साल 1341 में इब्न बतूता को ये मौक़ा मिला. चीन के राजा ने अपना एक दूत दिल्ली भेजा तो इब्न बतूता ने तुग़लक़ को सलाह दी कि उसे भी ऐसा करना चाहिए. ये सुनकर इब्न तुग़लक़ तैयार हो गया. उसने बहुत से तोहफ़े देकर इब्न बतूता को चीन के लिए रवाना किया.

मुहम्मद बिन तुग़लक़, दिल्ली, 1330 (तस्वीर: Commons)
दिल्ली से निकलकर इब्न बतूता ने राहत की सांस ली. लगा जान बची तो लाखों पाए लेकिन जो लाखों पाए थे, चीन के रास्ते में वो सब कुछ लुटा बैठे. चोर लुटेरों के एक झुंड ने इब्न बतूता पर हमला किया और उनका सारा सामान लूट लिया. जैसे-तैसे जान बचाकर इब्न बतूता ने आगे की यात्रा शुरू की. मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने उनसे कहा था कि वो यात्रा पूरी कर शीघ्र लौटे. लेकिन तुग़लक़ की दौलत, तोहफ़े सब लुट चुके थे. इसलिए इब्न बतूता ने इरादा किया कि वो पीछे ना लौटकर आगे बढ़ता जाएंगे.
लगभग तीस वर्षों में 1 लाख किलोमीटर किमी की लम्बी यात्रा करने के बाद इब्न बतूता ने घर लौट जाने का मन बनाया. साल 1353 में वह मोरक्को लौट आये. घर लौटने तक इब्न-बतूता का पूरी दुनिया में नाम हो चुका था. लगभग सभी इस्लामिक राष्ट्रों की यात्रा कर चुके इब्न-बतूता को मोरक्को पहुंचते की वहां के सुल्तान ने बुलाया. सफ़र पूरा हुआ इब्न बतूता ने यात्रा के किस्से सुनाने शुरू किए तो बादशाह ने अपने दरबारी लेखक को बुलाया. इब्न जुजैय नाम के इस लेखक ने इब्न बतूता के यात्रा वृतांत को लिखकर एक किताब की शक्ल दी. अपने आख़िरी दिन तंजियार में बिताने के बाद साल 1368 में इब्न बतूता की मृत्यु हो गई.
फ़ानी दुनिया में इब्न बतूता का सफ़र ख़त्म हुआ लेकिन ख़ानाबदोशों के दुनिया में इब्न बतूता की ज़िंदगी जावेदा रही. खानाबदोशी का जब भी भी ज़िक्र आया तो हुए इब्न बतूता का नाम लिए बिना पूरा ना हुआ. इसलिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं,
इब्न बतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में थोड़ी हवा नाक में घुस गई घुस गई थोड़ी कान में