यूं तो भारत और पाकिस्तान के बीच 33 सौ किलोमीटर से ज्यादा लम्बी बॉर्डर रेखा है. लेकिन इसका एक छोटा से हिस्सा है , जिससे आप सभी परिचित होंगे. अमृतसर से 32 किलोमीटर दूर पड़ने वाला वाघा-अटारी बॉर्डर. जहां हर शाम सूरज डूबने से पहले लोहे का एक दरवाज़ा खुलता है. भारत की तरफ से एक BSF का जवान और पाकिस्तान की तरफ से एक रेंजर परेड करते हुए आते हैं. दोनों का आमना-सामना होता है. हाथ मिलाए जाते हैं. दोनों सिर के बराबर तक पैर उठाते हैं. और तेज आवाज में चिल्लाते हैं. जितनी तेज आवाज और जितना ऊंचा उठा पैर, उतना भौकाल. इधर और उधर, दोनों तरफ भीड़ नारे लगाती है. ऐसा मजमा लगता है कि सालों से वाघा अटारी बॉर्डर सैलानियों के लिए ‘जरूर जाना चाहिए’ वाली जगह बन गयी है. बहरहाल हमारा काम इतिहास बतियाना है. सो हमने सोचा कि क्यों न पता किया जाए कि ये वाघा अटारी बॉर्डर (Wagah Attari Border) बना कैसे. ढूंढा तो सामने आई एक कहानी कहानी दो पक्के दोस्तों की. एक भारतीय एक पाकिस्तानी. दोनों फौजी. दोनों ने मिलकर तय किया कि दोनों देशों के बीच दीवार एक दरवाज़ा खड़ी हुई तो क्या, कम से कम एक दरवाज़ा तो बनाया ही जा सकता है. क्या है वाघा अटारी बॉर्डर की कहानी, चलिए जानते हैं.
बंटवारे के बाद बॉर्डर के आरपार खड़े दो दोस्तों ने बनाया दीवार में दरवाज़ा!
बंटवारे के बाद भारत पाकिस्तान के बीच ठीक-ठीक बॉर्डर कहां बनेगा, ये बड़ा सवाल थे. ऐसे में साथ में आए दो पुराने दोस्त जो अब बॉर्डर के आर-पार खड़े थे.
भारत और पाकिस्तान के बीच बॉर्डर लाइन बनाने वाले शख्स का नाम था, सर सिरिल रेडक्लिफ. हुआ यूं कि रेडक्लिफ साहब को कुछ ग्लानि थी कि उनके हाथों कई घर बार उजड़ने वाले हैं. इसलिए उन्होंने जल्द से जल्द सीमारेखा बनाने का काम पूरा किया और लंदन चले गए. कभी लौटकर वापिस न आने के लिए. रेडक्लिफ तो चले गए लेकिन उनका बनाया बॉर्डर अभी सिर्फ नक़्शे पर उभरा था. जिस रोज़ देश आजाद हुआ, किसी को पता नहीं था कि कौन सी धूल भारत की है और कौन सा नाला पाकिस्तान का. 17 को नक्शा खुला, और मिनटों में लाखों लोग अपनी ही जमीन में पराए हो गए.
पूर्वी पंजाब से 65 लाख मुसलमान पाकिस्तान गए, वहीं पश्चिमी पंजाब से 47 लाख हिन्दू और सिख भारत आए. ये सब कुछ आराम से नहीं हुआ.दंगे हुए, लूटपाट हुई. हजारों मारे गए, कइयों का सब कुछ लुट गया. दंगों को रोकने के लिए सरदार पटेल और गांधी जैसे नेताओं ने लोगों से शांत की अपील की. पटेल इस दौरान अमृतसर भी आए, और यहां भी लोगों से दंगे रोकने की अपील की. इस बीच बॉर्डर का मुद्दा ज्यों का त्यों था.
इस बीच 8 अक्टूबर को भारत की 123 इन्फेंट्री ब्रिगेड को अमृतसर के पास बॉर्डर की देखरेख का जिम्मा मिला. जिसे लीड कर रहे थे ब्रिगेडियर मोहिंदर सिंह चोपड़ा. चोपड़ा के पास सिर्फ बॉर्डर की देखभाल के जिम्मेदारी नहीं थी. बल्कि उन्हें कई हजार लोगों का ध्यान भी रखना था, जो दंगो के चलते बॉर्डर पार नहीं कर पाए थे. चोपड़ा की नियुक्ति महज एक इत्तेफाक नहीं थी. इसी अमृतसर में 1907 में चोपड़ा की पैदाइश हुई थी. 1928 में वो सेना में कमीशन हुए.
रॉयल मिलिटरी कॉलेज से कमीशन होने वाले पहले भारतीय ऑफिसरों के बैच का हिस्सा थे. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने ईराक और बर्मा थिएटर में अपनी सेवाएं दी थीं. साथ ही जुलाई 1947 में जब असम के सिलहट में रेफरेंडम कराया गया, तब चोपड़ा को वहां शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी दी गई थी. इन्हीं सब कारणों के चलते सैन्य लीडरशिप को लगा कि चोपड़ा इस माहौल में इस इलाके के लोगों से बेहतर डील कर पाएंगे. और उन्हें वहां नियुक्ति दे दी गई.
बॉर्डर पर मिले दो पुराने दोस्तइस दौरान क्या कुछ हुआ, ब्रिगेडियर चोपड़ा ने ये सब अपनी डायरी में दर्ज़ किया. उनके रिटायरमेंट के बाद उनके बेटे पुष्पिंदर सिंह चोपड़ा ने इन ससंमरणों को एक किताब का रूप दिया.n इस किताब में ब्रिगेडियर चोपड़ा बताते हैं कि वाघा अटारी बॉर्डर पोस्ट की नींव कैसी रखी गई थी. चोपड़ा बताते हैं कि उन्हीं की तरह बॉर्डर के दूसरी तरह पाकिस्तानी सेना के अफसर नज़ीर अहमद बॉर्डर की देखरेख के लिए तैनात थे. दोनों की पुरानी पहचान थी. क्योंकि दोनों ने आजादी से पहले साथ में 13 रॉयल फ्रंटियर फ़ोर्स रायफल फार्मेशन में साथ काम किया था. चोपड़ा इस बटालियन को ज्वाइन करने वाले पहले भारतीय अफसर थे. वहीं नज़ीर ने कुछ वक्त बाद इसे ज्वाइन किया इस दौरान दोनों में काफी गहरी दोस्ती हो गई थी. बंटवारे के बाद भी इन दोनों ने पंजाब में बॉर्डर बनाने में आपसी सहयोग से काम लिया.
चोपड़ा बताते हैं कि शुरुआत में बॉर्डर बनाने में काफी दिक्कतें आई. क्योंकि कोई खम्बा या मार्कर तो था नहीं जिससे बॉर्डर की पहचान करें. एक कहता कि ये बॉर्डर है तो दूसरा कहता, नहीं पीछे जाओ. इन समस्याओं को निपटाने के लिए ब्रिगेडियर चोपड़ा ने नजीर अहमद को एक प्रस्ताव दिया. प्रस्ताव ये था कि दोनों खेमे ग्रैंड ट्रंक रोड पर मुलाक़ात करेंगे. उस समय भारत और पाकिस्तान को जोड़ने वाली एक यही रोड हुआ करती थी. नजीर तैयार हो गए. और दोनों खेमों ने वाघा नाम के गांव में मीटिंग की. और तय हुआ कि पहली चेक पोस्ट यहीं बनाई जाएगी. और उसके हिसाब से आगे बॉर्डर का काम किया जाएगा. इसके बाद 11 अक्टूबर, 1947 को दोनों खेमों ने एक टेम्पररी चेक पोस्ट तैयार की, जिसे वाघा चेक पोस्ट का नाम दिया गया.
चोपड़ा लिखते हैं,
“बॉर्डर के दोनों तरफ कुछ टेंट लगाए गए. साथ ही दोनों तरफ संतरियों के लिए बॉक्स बनाए गए जिन्हें भारत और पाकिस्तान के रंगों में रंग दिया गया. कुछ दिनों में एक स्विंग गेट भी लगा दिया गया, ताकि इस गेट से लोग इधर उधर आ जा सकें.”
जब चेक पोस्ट पूरी तरह तैयार हो गयी. ब्रिगेडियर चोपड़ा और ब्रिगेडियर नजीर दोबारा मिले. तारीख थी 21 अक्टूबर. इस बार मुलाक़ात अटारी में की गई. यहां दोनों ने रिफ्यूजियों के आने जाने और शांति बनाए रखने के लिए कुछ नियमों पर चर्चा की. हालांकि इससे अगले ही दिन भारत-पाकिस्तान में युद्ध छिड़ गया. इसके बावजूद वाघा पर शांति बरक़रार रही. पंजाब बॉर्डर पर शांति बनाए रखने में दोनों ब्रिगेडियर्स का बड़ा हाथ था. इसलिए जल्द ही दोनों को अपने-अपने देशों में मेजर जनरल के पद पर पदोन्नत कर दिया गया. इस मौके पर नजीर अहमद ने ब्रिगेडियर चोपड़ा को एक नोट भेजा, जिसमें लिखा था, “दुआ करता हूं कि उस दिन हमने जो उम्मीदें पैदा की थीं, उन्हें हम बरक़रार रख पाएं”.
वाघा या अटारी!आने वाले सालों में वाघा बॉर्डर से कई लोग आर-पार गए. इनमें वो लोग भी शामिल थे, बंटवारे के वक्त जिनकी किसी को सुध नहीं थी. मसलन जेल में बंद कैदी और अस्पतालों में भर्ती मरीज़. इन सबको वाघा बॉर्डर के जरिए एक्सचेंज किया गया. मंटो की कहानी टोबाटेक सिंह अगर आपने पढ़ी हो तो वो भी इसी वाकये से प्रेरित है. कहानी में होता यूं है कि भारत और पाकिस्तान की सेनाएं कुछ लोगों को आरपार करा रही होती हैं, जब बिशन सिंह नाम का एक मानसिक मरीज़ बॉर्डर पार करने से इंकार कर देता है. और वाघा चेक पोस्ट पर नो मैन्स लैंड में ही दम तोड़ देता है.
बहरहाल वक्त के साथ वाघा अटारी बॉर्डर दोनों देशो के लिए और भी महत्त्व का हो गया, क्योंकि ट्रेड किया जाने वाले ज्यातदातर सामान इसी रास्ते से गुजरता था. धीरे-धीरे वाघा चेक पोस्ट पर और निर्माण कार्य किए गए. और आगे चलकर इसकी सुरक्षा और मेंटेंनेस की जिम्मेदारी BSF को सौंप दी गई. वहीं पाकिस्तान की तरफ से इसके सुरक्षा पाकिस्तानी रेंजर्स करते हैं. अब इतनी बात तो हो गई. वाघा बॉर्डर कैसे बना ये भी आपको पता लगा गया. अब एक और दिलचस्प बात आपको बताते हैं. लगभग 6 दशकों तक, भारत-पाकिस्तान दोनों तरफ़ इस चेक पोस्ट को वाघा बॉर्डर के नाम से बुलाया जाता रहा. लेकिन फिर सरकार को अहसाह हुआ कि वाघा तो भारत में है ही नहीं. तो हम इसे वाघा बॉर्डर क्यों बुलाते हैं.
जो जॉइंट चेक पोस्ट बनी है. वाघा गांव उससे डेढ़ किलोमीटर दूर पाकिस्तान के हिस्से में पड़ता है. जबकि भारत की तरफ जो इलाका पड़ता है, उसका नाम अटारी है. इसलिए सितम्बर 2007 में भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर इसका नाम बदलकर अटारी बॉर्डर रख दिया. हालांकि आम बोलचाल में अभी भी इसे वाघा बॉर्डर ही बुलाते हैं. अमृसतर से अटारी बॉर्डर तक जाने वाले बस और टैक्सी वाले भी पूछते हैं, वाघा बॉर्डर जाना है क्या?
जैसा कि पहले बताया था कि इस बॉर्डर पर रोज़ शाम अब मजमा लगता है. सेना की परंपरा अपनी तरफ है. लेकिन अगर हम इस बॉर्डर को बनाने वाले उन दो फौजियों की दोस्ती की कहानी देखें तो शायद समझें कि ये बॉर्डर दुश्मनी नहीं दोस्ती का प्रतीक है.
वीडियो: तारीख: भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी बैंक डकैती!