1947 के जून महीने में ये तय हो चुका था कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी हुकूमत के अफसर भारत छोड़कर चले जाएंगे. लेकिन, इसके बावजूद गोवा और दादरा नगर हवेली में पुर्तगाली डटे हुए थे. फ्रांसीसी भी साउथ इंडिया के पांडिचेरी और पश्चिम बंगाल के चंदन नगर में कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं थे. दूर-दूर तक इनके जाने की सुगबुगाहट भी नहीं दिख रही थी.
पांडिचेरी का भारत में विलय कैसे कराया गया?
भारत की आजादी के बाद फ्रांस की सरकार पांडिचेरी को छोड़ने के लिए क्यों तैयार नहीं थी?

15 अगस्त 1947 का दिन आया. भारत को अंग्रेजों से आजादी मिली और देश जश्न में डूब गया. चंदन नगर में रह रहे लोगों ने भी तिरंगा फहराकर जश्न मनाया. चंदन नगर में इकट्ठी भीड़ में आजादी का ऐसा उत्साह जागा कि उन्होंने फ्रांसीसियों के कई कार्यालयों पर कब्जा कर लिया. हालांकि, बाद में फ्रांसीसियों को उन्होंने ये कार्यालय सौंप भी दिए. लेकिन, इस एक घटना से चंदन नगर में आजादी की चिंगारी लग चुकी थी. आए दिन वहां के लोग फ्रांसीसियों के आगे नई-नई मुसीबत खड़ी कर देते. थक हार कर आखिर डेढ़ साल बाद जून 1949 में फ्रांसीसी चंदन नगर में जनमत संग्रह करवाने को तैयार हो गए. नतीजा भारत में विलय के पक्ष में आया. मई 1950 को फ्रांसीसियों ने चंदन नगर को भारत सरकार के हवाले कर दिया. लेकिन सिर्फ चंदन नगर, पांडिचेरी पर उनका कब्जा बरकरार था. फ़्रांस की तत्कालीन सरकार का साफ़ संदेश था कि पांडिचेरी पर कोई बात नहीं होगी.
फिर कैसे इस घटना के 4 साल बाद ही फ़्रांसिसी पांडिचेरी छोड़ने को तैयार हो गए? पांडिचेरी की आजादी का वो नायक कौन था जिसने फ़्रांस की सरकार के नकेल कस दी थी और जिसके चलते वहां की सरकार को पांडिचेरी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा? और पांडिचेरी की आजादी के आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की क्या भूमिका थी?
जानेंगे आज के एपिसोड में.
बात 1665 के आसपास की है, डच और पुर्तगालियों के भारत में बढ़ते प्रभाव को देखते हुए फ्रांसीसियों ने भी भारत की और रुख किया. एक फ्रांसीसी अधिकारी फ्रैंक कैरो ने भारत के विभिन्न हिस्सों का मुआयना किया. तय हुआ कि कंपनी अपने व्यापार की शुरुआत सूरत से करेगी. 1668 में फ्रांसीसियों ने सूरत में पहले व्यापारिक केंद्र की स्थापना की. फिर उन्होंने पांडिचेरी का रुख किया. 1673 में बीजापुर के सुल्तान के सूबेदार शेर खान लोधी ने उन्हें व्यापारिक केन्द्र बनाने के लिए पांडिचेरी दे दिया.

पांडिचेरी की भौगोलिक स्थिति देखकर डचों और ब्रिटिश अधिकारियों की भी इस पर नजर थी. अगले करीब 150 साल के दौरान कई बार ये इलाका अंग्रेजों के हाथ भी आया. अंत में यानी 1816 में आखिरकार ये फ्रांसीसियों को ही मिला. फ्रांसीसियों ने समुद्री इलाके यनम, माहे और कराईकल पर भी अपना कब्जा जमा लिया था.
फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी में अपना महत्वपूर्ण नौसेना अड्डा बनाया, जहां से इंडो-चीन देशों में अपना वर्चस्व कायम किया. पांडिचेरी के वस्त्र उद्योग का फ्रांस की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान था. `फ्रांसीसी भारत’ यानी पांडिचेरी से फ्रांस को 1949 तक सालाना 1,95,000 डॉलर की कमाई होती थी.

लेकिन, यहां के कपड़ा मिलों में काम करने वाले मज़दूरों की हालत बहुत ख़राब थी. अधिकतर मज़दूर दलित समुदाय से आते थे और अनपढ़ थे. फ्रांसीसी व्यापारी उनसे सप्ताह में छह दिन 11-11 घंटे और सातवें दिन 6 घंटे काम करवाते थे. मासिक वेतन 10 आने से लेकर 1 रुपया था.
भारत के क्रांतिकारियों को पांडिचेरी से फायदा थाहालांकि, फ्रांसीसी इलाका होने के चलते पांडिचेरी से भारतीय क्रांतिकारियों को फायदा था. उनके लिए ये अंग्रेज सरकार से बचने की सुरक्षित जगह थी. 1908 की बात है, उन दिनों दक्षिण भारत में क्रांतिकारी और लेखक सुब्रमण्यम भारती ब्रिटिश अधिकारियों के निशाने पर थे. वे मद्रास से भागकर पांडिचेरी आ गए और वहां से उन्होंने 'इंडिया' नाम की एक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन शुरू किया, जिसका वितरण ब्रिटिश भारत के साथ ही साथ पांडिचेरी में भी होता था. भारत के क्रांतिकारियों का पांडिचेरी के मज़दूर आंदोलन से कोई सीधा लेना-देना नहीं था, लेकिन इनके द्वारा लिखे हुए लेखों के चर्चे पांडिचेरी में भी होने लगे थे. बुरी तरह शोषण का शिकार पांडिचेरी के मज़दूरों के कानों तक भी क्रान्ति की आवाजें पहुंचने लगी थीं.

आखिरकार, 1910 में पांडिचेरी में श्रमिक आंदोलन का बिगुल बजा. यहां की सवाना कपड़ा मिल के मज़दूरों ने वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर हड़ताल शुरू कर दी. लेकिन फ्रांसीसियों ने इसे पुलिसिया दमन से कुचल दिया. 1927-28 तक लगभग ऐसा ही चलता रहा. लेकिन मजदूरों को उनके अधिकार नहीं मिले.
वी सुब्बैया ने 17 साल की उम्र में आंदोलन खड़ा कर दिया1928 में जब पांडिचेरी के एक हिस्से में ये सब चल रहा था तो उसी पांडिचेरी में 17 साल का लड़का जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी और रूसी क्रांति से जुड़े लेखों को पढ़ने के लिए मद्रास तक चला आता. इस सबसे उसे कम उम्र में ही नई दृष्टि मिल चुकी थी. आलम ये था कि 10 वीं कक्षा में ही उसने पांडिचेरी के कालवे कॉलेज में पढ़ाई की सही व्यक्स्था न होने पर विद्यार्थी आंदोलन खड़ा कर दिया था. इस लड़के का नाम था वरदराजुलु सुब्बैया जिसे लोग वी सुब्बैया बुलाते थे. स्कूल का आंदोलन 3 महीने चला. और खत्म होने पर सुब्बैया को 6 महीने के लिए कॉलेज से निकाल दिया गया.
दसवीं की परीक्षा पास कर नौकरी की तलाश में सुब्बैया मद्रास चले. लेकिन क्रान्ति की किताबें पढ़ने वाले का मन नौकरी में कहां लगना. मद्रास में वे आजादी के आन्दोलनों में जाने लगे. इसी दौरान उनकी मुलाक़ात मद्रास के बड़े कम्युनिस्ट नेता आमिर हैदर खान से हुई जिन्हें ब्रिटिश सरकार काफी अरसे से खोज रही थी. आमिर हैदर खान देश के कई मजदूर आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभा रहे थे. 1933 में सुब्बैया मद्रास से वापस पांडिचेरी आ गए.

उन्होंने फ्रांसीसियों की मिलों में जाकर मजदूरों की हालत देखी और उन्हें न्याय दिलाने के लिए कमर कस ली. उन्होंने महात्मा गांधी के 'हरिजन सेवक संघ' की एक शाखा पांडिचेरी में खोली और इससे दलितों और मज़दूरों को जोड़ा. 'सुदंतीरम' नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका सिर्फ एक ही मकसद था मज़दूरों को जगाना.
14 फ़रवरी सन् 1935 को वी सुब्बैया ने पांडिचेरी की सवाना मिल में मज़दूरों की हड़ताल की घोषणा कर दी. मांग रखी कि काम के 10 घंटे तय किये जाएं. बाल मज़दूरी बैन हो, दैनिक वेतन 3 आने से बढाकर 6 आने किया जाए, गर्भवती महिलाओं को आधे महीने का वेतन व छुट्टी मिले. ये एक जबरदस्त आंदोलन था 84 दिनों तक हड़ताल चली, आखिरकार मज़दूरों की मांगे मान ली गईं. आंदोलन सफल हुआ और इसका पूरा क्रेडिट वी सुब्बैया को गया. उनका कद बढ़ चुका था. पांडिचेरी के दलितों और मजदूरों के लिए अब वे मसीहा बन चुके थे.
फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी के 12 मजदूर मार दिएइसके बाद उन्होंने एक मांग और उठाई कि पांडिचेरी में मज़दूरों को ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार मिले. लेकिन, ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार नहीं दिया गया. वी सुब्बैया ने हार नहीं मानी. 1936 के जुलाई महीने में पांडिचेरी में ऐतिहासिक मजदूर आंदोलन खड़ा कर दिया. पांडिचेरी की तीनों बड़ी मिल - रोडिए, सवाना और एली - के मिल मजदूर हड़ताल पर बैठे. 29 जुलाई को सुब्बैया ने इन मज़दूरों के सामने एक जोशीला भाषण दिया. फ्रांसीसियों ने पुलिस बुलाई और गोलियां चलवा दीं. 12 मजदूर मारे गए. गुस्से में मजदूरों ने सवाना मिल को आग लगा दी. सुब्बैया किसी तरह बच गए.

ये घटना भारत सहित दुनियाभर के अखबारों की सुर्खी बनी. फ्रांस के प्रधानमंत्री से तुरंत हस्तक्षेप की मांग की गई. मद्रास में बड़ी विरोध सभाएं की गईं. इस मुद्दे को फ्रेंच संसद में फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी ने उठाया. फ्रांस की पॉपुलर फ्रंट की सरकार ने तुरंत हस्तक्षेप किया. फ्रांसीसी सरकार ने सुब्बैया को मिलने बुलाया. बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू से सलाह लेकर सुब्बैया पेरिस गए. और फ्रांस सरकार से कई मांगे मनवायीं. पांडिचेरी में ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार मिला. साथ ही भारत ही नहीं बल्कि एशिया में भी पांडिचेरी ऐसी जगह बनी जहां के मजदूरों के लिए 8 घंटे काम का नियम बना.
आजादी का आंदोलन शुरू होने से पहले ही दम तोड़ने लगाअब वी सुब्बैया पांडिचेरी के सबसे बड़े नेता बन चुके थे. वहां की जनता उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार थी. वी सुब्बैया की नजर पांडिचेरी को आजादी दिलाने पर थी. इधर वे रणनीति बना ही रहे थे कि 14 अप्रैल 1938 को फ्रांस में सत्ता परिवर्तन हो गया. नई सरकार के फरमान पर पांडिचेरी में हर तरह की राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. पुलिस ने सुब्बैया सहित सभी बड़े मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. आजादी का आंदोलन शुरू होने से पहले ही दम तोड़ने लगा.
अगले चार साल यानी 1942 तक वी सुब्बैया जेल में रहे. सुब्बैया जब जेल से बाहर आये तो उन्होंने पांडिचेरी की कम्युनिस्ट पार्टी बनाई. द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था, फ्रांसीसी पांडिचेरी में कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने अप्रैल 1944 में सुब्बैया को पांडिचेरी से निष्कासित कर दिया और सितंबर 1945 में विश्व युद्ध के समाप्ति के बाद उन्हें पांडिचेरी में वापस लाया गया.

उधर, भारत में लगभग तय था कि कुछ महीनों में उसे ब्रिटिश हुकूमत से आजादी मिल जाएगी. सुब्बैया ने भी हुंकार भरी और 1946 में पांडिचेरी के हर दल और संगठन के नेताओं को बुलाया. उनमें आजादी के लिए जोश भरा और सभी के साथ मिलकर एक संयुक्त मोर्चे का गठन किया. साथ ही ये घोषणा कर दी कि पांडिचेरी के लोग अब फ्रांस की गुलामी किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे. 15 अगस्त 1947 को भारत के आजाद होते ही पांडिचेरी में भी आंदोलन ने रफ्तार पकड़ ली.

उधर, इसी समय बंगाल के चंदन नगर में फ़्रांसिसी की वापसी तय हो चुकी थी. फ्रांसीसी किसी भी कीमत पर पांडिचेरी नहीं खोना चाहते थे. जनवरी 1950 को उन्होंने पुलिस को पांडिचेरी की सड़कों पर उतार दिया. सुब्बैया के खिलाफ फ्रांसीसी सरकार ने गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया. कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को पकड़ा जाने लगा. सुब्बैया के घर को, जो कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यालय भी था, जला दिया गया. सुब्बैया अंडरग्राउंड हो गए.
वी सुब्बैया का डायरेक्ट एक्शन डे और फ्रांसीसियों की नींद उड़ गईजब चंदन नगर का विलय भारत में हो गया. उसके कई महीनों बाद 1952 में सुब्बैया के खिलाफ गिरफ्तारी का आदेश वापस ले लिया गया. सुब्बैया के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे ने आज़ादी के लिए कई बड़े प्रदर्शन शुरू किये. बताते हैं कि इस दौरान सुब्बैया कई बार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति से मिलने दिल्ली आए. उसकी सलाह पर उन्होंने पांडिचेरी गांव-गांव में आंदोलन फैलाया. पांडिचेरी की कम्युनिस्ट पार्टी ने सशस्त्र वालंटियर दस्ते भी बनाए. कई पूर्व सैनिकों की देखरेख में भारत में पांडिचेरी की सीमा पर इन्हें ट्रेनिंग दी जाने लगी. 7 अप्रैल 1954 को कम्युनिस्ट पार्टी ने 'डायरेक्ट एक्शन' की घोषणा कर दी. इसी दिन फ्रांसीसियों से कम्युनिस्ट पार्टी ने तिरूबुवानी नाम के इलाके को आज़ाद करा लिया. यहां पुलिस से हथियार छीन थाने पर राष्ट्रीय झंडा फहराया गया. देखते ही देखते कई इलाके आजाद करा लिए गए.

अब बात फ्रांसीसियों के हाथ से निकल रही थी, आखिरकार उन्होंने वियतनाम युद्ध से लौटे अपने सैनिकों को मैदान में उतार दिया. पांडिचेरी की सड़कें सैनिकों से पट गई थीं. 7 अप्रैल की इस घटना के बाद भारत, फ्रांस और पांडिचेरी के संगठनों की कई बैठकें हुईं जिसमें तय हुआ की आजादी का आंदोलन शांति पूर्ण तरीके से चलेगा.
178 प्रतिनिधियों में से 170 ने कहा भारत का साथ पसंद3 महीने बाद 9 अगस्त 1954 को वी सुब्बैया के नेतृत्व में सभी दलों ने पूरे पांडिचेरी में अनिश्चित कालीन हड़ताल की घोषणा कर दी और फ्रांस को तत्काल पांडिचेरी छोड़ने को कहा. उधर, भारत के प्र्धानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी फ्रांस पर दबाव बना रहे थे. आखिरकार 13 अक्टूबर 1954 को फ्रांस के तत्कालीन प्रधानमंत्री पियरे मेंडेस फ्रांसे झुक गए और शांतिपूर्वक पांडिचेरी सौंपने को तैयार हो गए. 18 अक्टूबर 1954 को पांडिचेरी में 178 म्युनिसिपल काउंसिलर्स और असेम्बली प्रतिनिधियों में से 170 ने भारत के साथ विलय के पक्ष में मतदान किया. 1 नवंबर 1954 को पांडिचेरी, यनम, माहे और कराईकल इलाकों का भारत में विलय हो गया.

मई 1956 में दोनों देशों द्वारा एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें फ्रांस ने भारत को अपने कब्जे वाले क्षेत्रों को सौंपने की बात कही. मई 1962 में फ्रांसीसी संसद ने इस पर अपनी मुहर लगाई. आज ही के दिन यानी 16 अगस्त 1962 को फ्रांस ने अपनी संसद की मुहर वाले दस्तावेज भारत को सौंप दिए.
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