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जब नेहरू की मदद के लिए आगे आए टाटा!

पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन यानी 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. जानते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ रोचक किस्से.

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नेहरू की गुज़ारिश पर JRD टाटा ने भारत के पहले ब्यूटी ब्रांड लैकमे की शुरुआत की(तस्वीर-Twitter/Linkedin)

14 नवम्बर 1889. ये वो तारीख थी जब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू(Jawaharlal Nehru) का जन्म हुआ था. इस मौके पर हमने सोचा क्यों न उनसे जुड़े कुछ दिलचस्प किस्से आपके साथ शेयर किए जाएं. 

पहला किस्सा- लैक्मे की शुरुआत

1951 की बात है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सर तमाम दिक्कतें थीं. देश के पहले चुनाव होने थे, तमाम राज्यों में अलग अलग मुद्दे सर उठा रहे थे. लेकिन इन दिक्कतों से कहीं बड़ी एक और दिक्क्त थी. फॉरेन रिजर्व यानी डॉलर की खासी कमी थी और एक एक पैसा खर्च करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता था. ऐसे में उस साल सरकार के पास एक रिपोर्ट आई. जिसमें लिखा था कि भारत की महिलाएं कॉस्मेटिक आयात करने पर खासा खर्च कर रही हैं.

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ये सभी विदेश से आयात होते थे, अतः इसमें बेशकीमती डॉलर खर्च करना पड़ता था. सरकार ने तुरंत कॉस्मेटिक्स के आयात पर बैन लगा दिया. फिर वो ही हुआ जो होना था. नेहरू के निजी सचिव MO मथाई अपनी किताब, माई डेज विद नेहरू में लिखते हैं कि सरकार के इस कदम से शहरों की महिलाओं में सरकार के प्रति काफी गुस्सा था. प्रधानमंत्री नेहरू के ऑफिस में टेलीग्राम्स की झड़ी लगने लगी. जिनमें लिखा होता कि सरकार को कॉस्मेटिक्स पर बैन तुरंत हटाना चाहिए.

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नेहरू JRD टाटा के साथ(तस्वीर-navbharattimes)

नेहरू ऐसा नहीं कर सकते थे. लेकिन एक दूसरा विचार उनके दिमाग में आया. क्यों न भारत खुद अपना एक कॉस्मेटिक ब्रांड बनाए. नेहरू सोच ही रहे थे कि तभी उन्हें अपने दोस्त JRD टाटा(JRD Tata) की याद आई. उन्हें टाटा से गुजारिश की कि वो ऐसे स्वेदशी ब्यूटी प्रोडक्ट बनाए, जो इंटरनेशनल ब्रांड्स को टक्कर दे सकें. इस एक विचार से शुरुआत हुई लैक्मे(Lakme) की.

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लैक्मे का नाम लैक्मे कैसे पड़ा? दरअसल उस दौर में पेरिस में एक ओपेरा चला करता था, जिसमें भारत की एक कहानी दिखाई जाती थी. कहानी एक लड़की की थी, उसका नाम था लक्ष्मी. लक्ष्मी के पिता नीलकंठ एक ब्राह्मण थे. एक रोज़ यूं हुआ कि लक्ष्मी और उसकी दोस्त मल्लिका जंगल में फूल चुनने के लिए गए. इस दौरान दो ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें देखा, और उनमें से एक, जेराल्ड, लक्ष्मी के इश्क़ में गिरफ्तार हो गया. नीलकंठ को जब इस बात का पता चला तो वो गुस्से से आगबबूला हो गया. एक रोज़ दुर्गा पूजा के मौके पर नीलकंठ ने जेराल्ड के ऊपर सरेआम चाकू से हमला कर दिया. जेराल्ड बच निकला लेकिन उसे गंभीर चोट आई. लक्ष्मी उसे जंगल में लेकर गई, उसकी देखभाल की और जेराल्ड ठीक होने लगा. एक रोज़ लक्ष्मी जब पानी भरने गई थी, जेराल्ड का दोस्त फ्रेडरिक उसके पास आया और मिलिट्री के प्रति उसकी ड्यूटी याद दिलाई. जेराल्ड उसके साथ चला गया. लैक्मे वापस लौटी और उसने देखा कि जेराल्ड वहां नहीं है तो उसने धतूरे का फूल खाकर अपनी जान दे दी.

इस ओपेरा की नायिका, जिसका नाम लक्ष्मी था, उसे फ्रेंच लोग लैक्मे कहकर बुलाते थे. और यही इस नाटक का नाम भी था.  नीना कलरिच अपनी किताब स्किन कलर पॉलिटिक्स में लिखती हैं, पेरिस तब कॉस्मेटिक्स कैपिटल हुआ करता था. इसलिए टाटा ने कोस्मेटिस्क की जानकारी हासिल करने के लिए अपना एक डेलिगेशन पेरिस भेजा. डेलीगेशन लौटा, कॉस्मेटिक बनाने की तैयारी हुई. तब सवाल उठा कि नाम क्या रखा जाए. तब टाटा ने लैक्मे नाम चुना, क्योंकि ये नाम एक इम्पोर्टेड ब्रांड का अहसास दिलाता था, साथ ही लक्ष्मी नाम होने के चलते इसमें भारतीयता भी थी. 
लैक्मे की शुरुआत हुई, पेडर रोड मुम्बई से. और जल्द ही लैक्मे ने लिपस्टिक, नेल पॉलिश, आय लाइनर, क्रीम आदि प्रोडक्ट्स बाज़ार में लॉन्च किए. ये सभी न सिर्फ क्वालिटी में फॉरेन ब्रांड्स को मैच करते थे, बल्कि सस्ते भी थे. 1961 में लैक्मे की कमान सिमोन टाटा ने संभाली. सिमोन नवल टाटा की पत्नी और रतन टाटा की सौतेली मां थीं. उन्होंने लैक्मे को भारत के सबसे आइकोनिक और सबसे भरोसेमंद ब्रांड्स में से एक बनाया. 1996 में लैक्मे को हिंदुस्तान लीवर को बेच दिया गया और 21 वीं सदी में भी ये लगातार भारत के सबसे भरोसेमंद ब्रांड्स में एक बना हुआ है.

दूसरा किस्सा-नेहरू बोट रेस

केरल में होने वाली बोट रेसेस देखने लायक नजारा होती हैं. केरल में इन्हें वल्लम कली कहा जाता है. हर साल अगस्त-सितम्बर के महीने में होने वाली इन बोट रेसेस को देखने दुनिया भर के लोग आते हैं. सदियों से चली आ रही इस रेस का एक लम्बा इतिहास है. 16 वीं शताब्दी के आसपास दक्षिण केरल के प्रतिद्वंद्वी राज्यों के बीच इन रेसों की शुरुआत हुई. ये राज्य थे, चेम्पकास्सेरी, कायमकुलम, थेक्कुमकूर और वडाक्कुमकूर. एक बार यूं हुआ कि चेम्पकास्सेरी राज्य कई साल इन रेसों में लगातार पिछड़ रहा था. उन्हें लगा कि ये सब उनकी नावों की बनावट के चलते हो रहा. ये सोचकर वहां के राजा ने अपने राज्य के सबसे बेहतरीन नाव बनाने वाले कारीगरों को बुलाया.  एक नए डिज़ाइन की नाव बनाई गई. जिसमें न केवल पहले से ज्यादा खिलाड़ी बैठ सकते थे, बल्कि उसकी स्पीड भी काफी तेज़ थी. अगली प्रतियोगिता में ये नावें सबसे आगे रहीं. लोककथा कहती है कि बाकी राज्यों ने चेम्पकास्सेरी में अपने जासूस भेजे. ताकि वो नई नावों का डिज़ाइन चोरी कर सकें. जिस जासूस को भेजा गया था, उसने नाव बनाने वाले कारीगर की बेटी को रिझाया और उससे नाव की सारी तकनीक सीख ली. जासूस खुश होकर अपने राज्य वापिस चला गया.

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नेहरू बोट रेस  हर साल केरल में आयोजित की जाती है(तस्वीर-wikimedia commons)

लेकिन असलियत ये थी कि कारीगर ने जासूस को सब कुछ नहीं सिखाया था. जिसके चलते उनकी नावें फिर भी चेम्पकास्सेरी के मुकाबले कमजोर निकलीं. चेम्पकास्सेरी जीतता रहा और प्रतियोगिता सालों साल और भी चुनौतीपूर्ण होती गई. कारीगर ने जो नाव बनाई थी, उन्हें आगे जाकर नाम मिला, चुंदन वल्लम, यानी चोंच वाली नावें. अब यहां से सीधे चलते हैं 1952 में. उस साल अगस्त के महीने में प्रधानमंत्री नेहरू त्रावणकोर की यात्रा पर गए. कोट्टयाम से अलप्पुझा की यात्रा उन्होंने नाव से की. इस दौरान और बहुत से नाव उनके साथ चल रही थीं. जैसे ही यात्रा का आख़िरी पड़ाव आया. अचानक नावों के बीच रेस शुरू हो गई. नेहरू इस नज़ारे से ऐसे अभिभूत हुए कि रेस ख़त्म होने ने बाद अपने सुरक्षा घेरे को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए जीतने वाली नाव पर चढ़ गए. अंत में उन्होंने जीतने वाली नाव को एक ट्रॉफी भी दी. कहानी यहीं ख़त्म न हुई. वापिस दिल्ली लौटने के बाद नेहरू ने नाव के आकर की एक विशेष ट्रॉफी बनवाकर त्रावणकोर भेजी. आगे चलकर इन रेसों को नेहरू बोट रेस(Nehru Boat Race) का नाम दिया गया. और सालों से ये परंपरा चली आ रही है.

तीसरा किस्सा-

3 सितंबर, 1946 वो तारीख थी जब नेहरू भारत की अंतरिम सरकार का हिस्सा बने. इलाहबाद के आनंद भवन को छोड़कर अपनी सारी संपत्ति सरकार के नाम कर दी. उनके निजी सचिव रहे MO मथाई अपनी किताब में इस बाबत एक किस्सा सुनाते हैं. मथाई लिखते हैं कि जब नेहरू प्रधानमंत्री बने उनके पास हमेशा पैसों की कमी रहती थी. जितना जेब खर्च होता था, वो भी किसी जरूरतमंद को दे दिया करते थे. इस सब से तंग आकर मथाई ने उनकी जेब में पैसा रखना ही बंद कर दिया. इस पर भी नेहरू न रुके. जो सामने मिलता उससे पैसे मांगकर वो लोगों को दे देते. मथाई ने इस पर अधिकारियों को आगाह किया की नेहरू पैसे मांगे तो एक बार में 10 रूपये से ज्यादा न दें. अंत में मथाई ने ये तरीका निकाला कि वो नेहरू की तनख्वाह का कुछ हिस्सा पहले से ही अलग रखने लगे. ताकि कहीं ऐसा न हो कि उनकी पूरी तनख्वाह लोगों को देने में ही खर्च न हो जाए.

चौथा किस्सा- नेहरू लिव्स

27 मई की तारीख. साल 1964. सुबह के नौ बजे थे जब ख्वाजा अहमद अब्बास के फोन पर घंटी की आवाज सुनाई दी. अब्बास जाने-माने लेखक थे. फोन उठाया तो दूसरी तरफ ब्लिट्ज मैगज़ीन के संपादक रूसी करंजिया थे. करंजिया ने कहा, अब्बास कुछ बहुत बुरा हो चुका है या होने ही वाला है. अब्बास को इशारा समझ आ गया. उन्होंने पूछा, नेहरू तो ठीक है न? कंजरिया ने जवाब दिया, उन्हें स्ट्रोक आया है. कुछ कहा नहीं का सकता. उन्होंने अब्बास को जल्द से जल्द दफ्तर बुलाया.

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27 मई 1964 के दिन दिल का दौरा पड़ने से नेहरू का निधन हो गया(तस्वीर-Facebook/wikimedia commons)

अब्बास को नेहरू पर एक प्रोफ़ाइल लिखनी थी. कंजरिया के पास चार घंटे का वक्त था. अब्बास लिखने बैठे और काफी देर तक यही सोचते रहे कि शीर्षक क्या रखूं. कुछ देर बाद उन्होंने एक शब्द लिखा, ‘नेहरू’, फिर कुछ सोचा और लिखा ‘लिव्स’. 
अगली सुबह जब अखबार ने नेहरू की मृत्यु की खबर छपी तो उनकी हेडलाइन यही थी, “नेहरू लिव्स”.

29 मई 1964 को अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में नेहरू को श्रद्धांजलि देते हुए कहा,

“आज एक सपना खत्म हो गया है, एक गीत खामोश हो गया है, एक लौ हमेशा के लिए बुझ गई है. यह एक ऐसा सपना था, जिसमें भय नहीं था, यह ऐसा गीत था जिसमें गीता की गूंज थी तो गुलाब की महक थी.”

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