1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ(India-china war 1962). और ये कहने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि इस युद्ध में चीन की सेना भारत पर भारी पड़ी. न हम तैयार थे, और न ही हमारी ताकत उनसे मैच करती थी. लेकिन इसी युद्ध की कुछ ऐसी भी कहानियां हैं जो भारतीय सेना के पराक्रम को दर्शाती हैं. मसलन मेजर शैतान सिंह(Major Shaitan Singh) और 13 कुमाऊं के उन 123 जवानों की कहानी, जिन्होंने अपने से 5 गुना बड़ी फौज से लड़ाई लड़ी और रेजांग ला(Rezang La) में चीन को रोके रखा.
1962 युद्ध में चीन से कैसे बचा लद्दाख?
1962 भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय एयरफोर्स और फौज ने मिलकर, अपनी सूझ-बूझ और चतुराई से रातों-रात टैंक एयरलिफ्ट कर लद्दाख पहुंचाए और इन्हीं टैंकों की बदौलत लद्दाख को चीन के हमले से बचा लिया.
इस युद्ध से जुड़ी एक और कहानी है, जब भारतीय एयरफोर्स (Indian Airforce) और फौज ने मिलकर वो काम कर दिखाया जो इतिहास में पहले कभी न हुआ था. भारतीय सेना ने रातों रात टैंक एयरलिफ्ट कर लद्दाख(Ladakh) तक पहुंचाए. और इन्हीं टैंकों की बदौलत भारत चीन को चुशुल तक रोकने में सफल हो पाया. अगर ये टैंक्स न होते तो संभव था कि चीन लेह पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लेता. लद्दाख तक टैंक पहुंचाना आसान था. और इसके लिए लगाया गया एक बेहतरीन जुगाड़. क्या था ये?
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शुरुआत 20 अक्टूबर 1962 से. चंडीगढ़ एयर फ़ोर्स स्टेशन चीनी आक्रमण का पहला गवाह बना. एंटोनोव AN-12 नाम का ट्रांसपोर्ट कैरियर विमान लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी बेस में सप्लाई पहुंचाने जा रहा था. इस दौरान चीनी मशीन गनों ने उस पर 19 बार फायर किया. युद्ध शुरू हो चुका था. 20 अक्टूबर को हमले की शुरुआत में ही चीन ने दौलत बेग ओल्डी और पैंगोंग झील(Pangong Lake) के उत्तर की पोस्ट पर कब्ज़ा कर लिया. लेकिन असली मसला लद्दाख के दक्षिणी छोर पर स्थित चुशुल सेक्टर का था. सामरिक रूप से इस पोस्ट का भारत के लिए बहुत महत्व है. क्योंकि यहां से सिर्फ 5 किलोमीटर की दूरी पर भारत और चीन की अनाधिकारिक सीमा रेखा, लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल है. चुशुल से दक्षिण में 15 किलोमीटर की दूरी पर एक दर्रा है, जिसे स्पैंगगुर गैप कहा जाता है.
पहाड़ो के बीच दो किलोमीटर चौड़े इस दर्रे से चीन आराम से अपने टैंक्स और वॉर मशीनरी को ला सकता था. चुशुल पर खतरा मंडरा रहा था. और अगर वहां चीन का कब्ज़ा हो जाता तो वो आसानी से लेह में इंटर कर सकता था. क्योंकि लेह से चुशुल को जोड़ने वाली एकमात्र रोड इसी रास्ते से जाती थी. सेना को जैसे ही इसकी खबर लगी कि चीन स्पैंगगुर गैप से टैंक ला सकता है, उन्होंने एयरफोर्स से मदद मांगी. ताकि 6 AMX-13 टैंक्स चुशुल तक पहुंचाए जा सकें. टैंक को एयरलिफ्ट करना बड़ी चुनौती थी. लेकिन एयरफोर्स ने ये चुनौती स्वीकार की. सबसे बड़ी दिक्कत थी कि AN-12 विमान के लोडिंग रैम्प एकदम तिरछी चढाई वाले थे. टैंक चढ़ाओ तो उसके ट्रैक स्टील के रैम्प से फिसलने लगते थे. दूसरी दिक्कत थी प्लेन का फ्लोर जो अलुमिनम से बना था. और टैंक के ट्रैक्स से उसके डैमेज होने का खतरा था. 22 अक्टूबर को बड़ी मुश्किल से जब एक टैंक ऊपर चढ़ाया गया तो उसने प्लेन के फ्लोर में छेद कर दिया. काम यहीं रोकना पड़ा. लेफ्टिनेंट गुरबचन सिंह(Gurbachan Singh) जो इस ऑपरेशन के ऑफिसर इन चार्ज थे, उन्होंने एक जुगाड़ निकाला. उन्होंने एक लोकल कार्पेंटर से लकड़ी के तख़्त बनवाकर प्लेन के फ्लोर पर लगवाए ताकि वो डैमेज न हों. इसके अलावा उन्होंने एक कम चढ़ाई वाला रैम्प बनवाया, जिससे टैंक आसानी से चढ़ सकें.
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जैसे ही लगा कि समस्या सुलझ गयी है, वैसे ही एक नई मुसीबत ने दस्तक दे दी. एयरक्राफ्ट सिर्फ 10 टन का लोड ले जा सकता था. और टैंक इससे कहीं भारी थे. IAF ने शर्त रखी कि आर्मी को टैंक की गन हटाकर अलग से ले जानी होगी. लेकिन गुरबचन सिंह तैयार नहीं हुए. एक्टिव बैटल फील्ड में गन को दुबारा इनस्टॉल करना खतरे से खाली न होगा. उन्होंने एक दूसरा रास्ता निकाला. उन्होंने टैंक से सारे गैर जरूरी पार्ट्स निकाल दिए और उसका फ्यूल भी कम कर दिया. इस पर भी बात न बनी तो IAF ने एक समझौता किया और प्लेन में सिर्फ इतना फ्यूल डाला जितना चंडीगढ़ से चुशुल जाने और वहां से वापस आने के लिए जरूरी हो. इन सब जुगाड़ों से प्लेन टैंक को ले जाने लायक हो गए.
अब आख़िरी काम था टैंक्स को प्लेन में लोड करना. लेकिन यहीं पर एक खबर आई, जो यूं तो अच्छी थी, लेकिन ऑपरेशन के लिए बुरी साबित होने वाली थी. हुआ यूं कि प्लेन में टैंक चढाने के लिए तीन लोगों की टीम तैयार की गई थी. एक ड्राइवर, एक आदमी बाहर से नेविगेट करने वाला, और एक सुपरवाइजर. कई घंटो की ट्रेनिंग के बाद इन लोगों को तैयार किया गया था. लेकिन जैसे ही लोडिंग का दिन आया, उससे ठीक पहले ड्राइवर के घर से एक चिट्ठी आ गई. उसकी बीवी प्रसव पीड़ा से गुजर रही थी. ये उसका पहला बच्चा था. और घर पर कोई देखभाल को नहीं था. चिठ्ठी में लिखा था, जल्द से जल्द घर आओ. ताकि तुम्हारी बीवी को अस्पताल ले जाया जा सके. ड्राइवर ने छुट्टी मांगी. लेफ्टिनेंट गुरबचन सिंह इस बात को लेकर बहुत कश्मकश में थे. छुट्टी न दें तो कैसे और दें तो कैसे. इसका भी जुगाड़ निकाला गया.
उन्होंने आर्मी मेडिकल यूनिट से एक डॉक्टर को ड्राइवर के घर भेजा.डॉक्टर ने बच्चे की डिलीवरी कराई और उसकी एक फोटो खींचकर वापस लौटा. लेफ्टिनेंट गुरबचन ने फोटो ड्राइवर को दिखाई और उससे काम पर लगने को कहा. इस तरह ये मुसीबत भी निपटी और आखिरकार 24 और 25 अक्टूबर की दरमियानी रात टैंक्स को प्लेन में लोड किया गया. 25 अक्टूबर की सुबह टैंक्स चुशुल में उतरे. यहां टैंक उतारने का काम भी कम मुसीबत भरा नहीं था. प्लेन में सिर्फ इतना फ्यूल था की वो चंडीगढ़ से चुशुल और वापिस चंडीगढ़ तक जा सके. और लद्दाख की ठण्ड में प्लेन को लैंडिंग के बाद भी इंजन गर्म रखने के लिए चालू रखना होता था, इसलिए सेना के पास टैंक्स उतारने के लिए सिर्फ 15 मिनट का वक्त था. वो भी बखूबी पूरा किया गया. इतिहास में पहली बार भारतीय वायुसेना ने दुश्मन की नाक के ठीक नीचे युद्धस्थल तक टैंक पहुंचाए थे.
युद्ध में ये टैंक कैसे काम आए?20 अक्टूबर को हमला शुरू होने के बाद चीन ने पैंगोंग झील के उत्तर में कई पोस्ट को कब्ज़े में ले लिया था. चीन के सैनिक भारत से 1:3 के अनुपात में थे. उनकी आर्टिलरी स्ट्रेंथ ज्यादा थी. 24 अक्टूबर तक चली लड़ाई में चीन 15 किलोमीटर भीतर तक घुस आया. इसके बाद अचानक सब कुछ शांत हो गया. इसका कारण था एक खत तो चीन के प्रीमियर झू इनलाई ने प्रधानमंत्री नेहरू(Jawaharlal Nehru) को लिखा था. इनलाई ने पेशकश रखी कि दोनों सेनाएं LAC से 20 किमोमीटर पीछे हटें और इसके बदले भारत अक्साई चिन पर अपना अधिकार त्याग दे. नेहरू इसके लिए तैयार नहीं थे. इस नेगोशिएशन के चक्कर में भारतीय सेना को 1 हफ्ते का महत्वपूर्ण समय मिल गया. भारत ने न सिर्फ चुशुल तक टैंक्स पहुंचाए बल्कि लेह से 114 इन्फेंट्री ब्रिगेड भी चुशुल में तैनात कर दी गई. इसके अलावा 9 डोगरा, 1 जाट, 3/4 गोरखा राइफल्स और 13 फील्ड रेजिमेंट के जवान भी लद्दाख में पहुंच चुके थे. ये सभी फोर्सेस इस तरह डिप्लॉय की गई थी कि लेह तक जाने वाले रास्ते को किसी भी कीमत पर बचाया जा सके. चंडीगढ़ से लिफ्ट कराए गए कुछ टैंक स्पैंगगुर गैप के ठीक बगल वाली पहाड़ी के बेस में तैनात किए गए थे.
उधर नेहरू और झू इनलाई के बीच 14 नवंबर तक पत्रों का आदान प्रदान होता रहा. जब तय हो गया कि भारत समझौते को तैयार नहीं होगा, चीन से लद्दाख में अपना ऑपरेशन आगे बढ़ा दिया. ⅛ गोरखा राइफल्स के जवानों ने इस हमले का जोरदार जवाब दिया. इसके बावजूद वो खुद से कहीं ज्यादा संख्या में मौजूद फ़ोर्स के सामने टिक नहीं पाए. और उन्हें पीछे हटना पड़ा. स्पैंगगुर गैप के बगल में गुरुंग हिल पर चीन का कब्ज़ा हो चुका था. गुरुंग हिल के साथ-साथ चीन ने रेजांग ला पर भी हमला किया जहां 13 कुमाऊं के 123 जवानों ने मोर्चा संभाल रखा था. इन्हें लीड कर रहे थे मेजर शैतान सिंह. चीन की सेना पूरी तैयारी से आई थी. उन्हें ठंड में लड़ने की आदत थी और उनके पास पर्याप्त हथियार भी थे. जबकि भारतीय टुकड़ी के पास 300-400 राउंड गोलियां और 1000 हथगोले ही थे. बंदूकें भी ऐसी जो एक बार में सिर्फ़ एक फायर करती थीं. इन्हें दूसरे वर्ल्ड-वार के बाद बेकार घोषित किया गया था.
मेजर शैतान सिंह को उनके सीनियर्स ने पोस्ट छोड़ देने को कहा था. लेकिन उन्होंने लड़ना चुना. गोलियां कम थीं. ठंड की वजह से उनके शरीर जवाब दे रहे थे. चीन से लड़ पाना नामुमकिन था. लेकिन बटालियन ने अपने मेजर के फैसले पर भरोसा दिखाया. दूसरी तरफ से तोपों और मोर्टारों का हमला शुरू हो गया. चीनी सैनिकों से ये 120 जवान लड़ते रहे. दस-दस चीनी सैनिकों से एक-एक जवान ने लोहा लिया. रेजांग ला की लड़ाई में 114 जवान मारे गए. लेकिन बदले में उन्होंने चीन के एक हजार से ज्यादा सैनिक मार गिराए. इस दौरान चुशुल से सेना ने लगातार टैंक्स से हमला कर चीन को आगे बढ़ने से रोके रखा और ये निश्चित किया कि वो लेह तक जानी वाली रोड पर कब्ज़ा न कर पाए. टैंक्स की बदौलत ही भारतीय सैनिक पीछे हट पाई, वरना चीन का प्लान था कि उन्हें पीछे से ओवरटेक कर उनकी सप्लाई लाइंस काट दी जाएं. ब्रिगेडियर अमर चीमा अपनी किताब, द क्रिमसन चिनार : अ पॉलिटिको मिलिट्री प्रोस्पेक्टिव में लिखते हैं
“चुशुल की जंग पर भारत को गर्व होना चाहिए. भारत चाहे हार गया लेकिन उसने चीन के आक्रमण को कुंद कर दिया था. इस जंग में टैंकों ने सैनिकों के लिए एक टॉनिक के रूप में काम किया. इससे उन्हें उम्मीद मिली और वो डटकर चीन का मुकाबला कर पाए.”
चीन ने तैयार की युद्ध की रिपोर्टअब इसी जंग के जुड़ा एक और किस्सा सुनिए. साल 2020 से पहले भारत और चीन के रिश्ते मधुर रहे थे. ऐसा कई सालों की कोशिश के चलते हुए था. इसलिए चीन ने कभी 1962 युद्ध को ज्यादा तूल नहीं दिया. साल 2020 के बाद चीन के रुख में बदलाव आया. हाल ही में चीन में इस युद्ध को लेकर एक रिपोर्ट तैयार हुई. जिसमें कुछ हैरतअंगेज़ बातें सामने आई. मसलन 3 दिसंबर 1962, युद्धविराम की घोषणा के सिर्फ दो हफ्ते बाद, पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने अपनी सभी ट्रुप्स को एक टेलीग्राम भेजा. इस टेलीग्राम में लिखा था कि भारत के खिलाफ ऑपरेशन को ‘China-India Border Self-Defence Counterattack” के नाम से रिफर किया जाएगा.
रिपोर्ट में और भी बातें पता चली हैं. माओ (Mao Zedong) युद्ध से पहले अपनी जीत को लेकर पूरी तरह निश्चिंत नहीं थे. उन्होंने अपने जर्नल्स से कहा था,
“अगर हम नहीं जीते तो जिम्मा धरती-आसमान के सर फोड़ देंगे लेकिन कभी भी इसे खुद की हार नहीं मानेंगे”
इतना ही नहीं, अपने एक जनरल से उन्होंने कहा था,
"अगर हम तिब्बत हार भी गए तो एक न एक दिन हम उसे वापिस पा लेंगे’
चीन युद्ध जीत गया और हमारे लिए छोड़ गया एक सबक. जिसे हम आज फिर दोहरा रहे हैं. इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों और उनके परिवारों को हमारी श्रद्धांजलि. आप में से कई लोगों ने कई बार ये सवाल उठाया है कि युद्ध में मारे गए सैनिकों के लिए हम शहीद शब्द इस्तेमाल क्यों नहीं करते. इसका कारण ये है कि खुद सेना शहीद शब्द का इस्तेमाल नहीं करती है. अंगेज़ी में जो मार्टर शब्द है, उसका रुट वर्ड है मार्तुर. ग्रीक भाषा के इस शब्द का अर्थ होता है, वो लोग जो अपने धर्म की खातिर प्राण देने के लिए तैयार हुए. चूंकि भारतीय सेना किसी एक धर्म से ताल्लुक नहीं रखती. इसलिए सेना में मार्टर या शहीद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता. हम भी इसी परंपरा का सम्मान करते हुए शहीद शब्द के इस्तेमाल से बचते हैं.
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