1924 में व्लादिमीर लेलिन की मृत्यु के बाद कम्युनिस्ट पार्टी में गद्दी को लेकट खींचतान शुरू हुई. कम्युनिस्ट पार्टी के कई लीडरों ने लेनिन की कुर्सी पर हक़ जताया, लेकिन बाजी मारी जोसेफ स्टालिन ने. स्टालिन शुरुआत में बहुत लोकप्रिय रहे. लेकिन 1930 तक आते-आते पार्टी पर उनकी पकड़ कमजोर होने लगी थी. फर्स्ट फाइव ईयर प्लान की आंशिक सफलता ने लीओन ट्रॉट्स्की जैसे लोगों को स्टालिन का आलोचक बना दिया था.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाने वाले को गोलियों से भूना गया?
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना दो बार हुई, एक बार ताशकंद में और फिर दोबारा कानपुर में.
पार्टी पर पकड़ ढीली होते देख स्टालिन ने डर का वो माहौल बनाया कि पार्टी में हर कोई हर किसी पर शक करने लगा. साल 1934 में अचानक खबर आई कि सरगे किरोव की हत्या हो गई है. किरोव पार्टी और लोगों में बहुत पॉपुलर थे. इन्वेस्टिगेशन हुआ तो पता चला हत्या पार्टी में स्टालिन के एक विरोधी धड़े ने की है, और गिरफ्तारी के बाद इन लोगों ने माना कि वो स्टालिन की हत्या भी करना चाहते थे.
यहां से रूस में उस दौर की शुरुआत हुई जिसे ‘द ग्रेट पर्ज’ कहा गया. एक-एक कर पार्टी में स्टालिन के विरोधियों को को चुन-चुन कर ठिकाने लगा दिया गया. आम लोग भी इस जद में आए. 1953 में स्टालिन की मौत के बाद फ़ाइल खुली. ग्रेट पर्ज के दौरान कितने और किन-किन लोगों को मारा गया था इस सबका हिसाब हुआ. तब पता चला कि इनमें 45 हिन्दुस्तानी भी थे. जिनमें से सिर्फ 12 लोगों की शिनाख्त हो पाई. इन लोगों में शामिल थे सरोजनी नायडू के भाई बीरेंद्र नाथ चटर्जी. और एक शख्स जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखी थी.
अबानी मुखर्जी इनका नाम था. और आज हम आपको इन्हीं की कहानी सुनाएंगे. साथ में बताएंगे किन हालातों में पहली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत हुई. और एक किस्सा जब मॉस्को पहुंचे कम्युनिस्टों के बीच इस बात को लेकर लड़ाई छिड़ गई कि असली कम्युनिस्ट पार्टी है कौन सी.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाने पहुंचेशुरुआत 1921 से. अप्रैल महीने की बात है. भारतीय क्रांतिकारियों का एक डेलीगेशन सोवियत रूस के बुलावे पर मॉस्को पहुंचा. इसे लीड कर रहे थे वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय. वीरेन्द्रनाथ सालों से सोशलिस्ट आन्दोलनों के साथ जुड़े हुए थे. वो जर्मन सोशलिस्ट कांग्रेस का हिस्सा थे और साथ ही स्वीडन , फ्रांस जैसे देशों में उन्होंने सोशलिस्ट आंदोलन में भाग लिया था. इस डेलीगेशन का मकसद था पहली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करना.
इस सब की शुरुआत 1916 में हो गई थी जब प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी ने भारत के क्रांतिकारियों को मदद भेजने की सोची. बंगाल में अनुशीलन समिति जैसे संगठन इस काम से जुड़े हुए थे. इन लोगों का प्लान था कि जर्मन्स के थ्रू हथियार भारत में हथियार लाकर अंग्रेज़ों के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह खड़ा करेंगे. लेकिन ऐसा हो पता इससे पहले ही ब्रिटिश इंटेलिजेंस को इस प्लान की भनक लग गयी. और क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया. जो बचे वो भागकर बर्लिन पहुंच गए.
1917 में बोल्शिविक क्रांति की शुरुआत हुई, और भारतीय क्रांतिकारियों ने जर्मनी के बजाय रूस को एक साझेदार की देखना शुरू कर दिया. सोवियत रूस में तब दुनियाभर में साम्यवाद फैलाने के लिए एक संगठन की शुरुआत हुई. नाम था कम्युनिस्ट इंटरनेशनल या जिसे शॉर्ट में कोमिन्टर्न कहा जाता था.
1919 में फर्स्ट वर्ल्ड कम्युनिस्ट कांग्रेस का आयोजन हुआ. इसके बाद कोमिन्टर्न ने घोषणा कर दी कि सोवियत रूस ब्रिटिश और फ्रेंच उपनिवेश के साए तले जीने वाले सभी लोगों की आजादी का समर्थन करेगा.
वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय को 1917 में ही सोवियत रूस आने क निमंत्रण मिला था. लेकिन किन्हीं कारणों से वो नहीं जा पाए. 1920 में उन्हें जाने का मौका मिला लेकिन सोवियत अधिकारियों ने उन्हें रोक दिया. ये कहते हुए कि उन्हें अपने बाकी साथियों को लेकर एक प्रॉपर डेलीगेशन के साथ आना होगा. अगले साल अप्रैल में वीरेन्द्रनाथ डेलीगेशन लेकर पहुंचे. यहां वो कोमिन्टर्न से एक मीटिंग कर भारत में कम्युनिस्ट चैप्टर की शुरुआत करना चाहते थे. लेकिन मॉस्को पहुंचते ही उन्हें एक ऐसी खबर मिली, जिसने उन्हें अचम्भे में डाल दिया.
एक अंग्रेज़ी अखबार को पढ़कर उन्हें पता चला कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) की स्थापना हो चुकी है, और इतना ही नहीं उस पार्टी सोवियत रूस से मान्यता भी मिल चुकी थी. इसका मतलब ये था कि भारत में जो भी कम्युनिस्ट गतिविधि होगी वो CPI के जरिए होगी. वीरेन्द्रनाथ को एक झटका और लगा जब पता चला कि CPI की शुरुआत 2020 में ही हो गयी थी. और इसकी शुरुआत करने में मानवेंद्र नाथ रॉय ने अहम भूमिका निभाई थी.
ये बात चौंकाने वाली इसलिए भी थी कि वीरेन्द्रनाथ और उनके डेलीगेशन का रूस पहुंचने का सारा इंतज़ाम मानवेंद्र नाथ की पत्नी एवेलिन ट्रेंट ने कराया था. और इस दौरान उन्होंने भी वीरेन्द्रनाथ को इसकी कोई जानकारी नहीं दी. लाजमी था कि इस खबर से वीरेन्द्रनाथ बहुत गुस्सा हुए. उनके साथ डेलीगेशन में बड़े-बड़े दिग्गज थे. मसलन भूपेन्द्रनाथ दत्त, अब्दुल हफ़ीज़ मुहम्मद बरकातुल्ला, पांडुरंग सदाशिव आदि. और स्वतंत्रता आंदोलन में इन सब का ओहदा MN रॉय से ऊंचा था. यहां तक कि बरकातुल्ला ने 1919 में लेनिन से खुद मुलाक़ात कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्थन मांगा था.
इन लोगों ने सवाल उठाया कि बिना उन्हें सूचना दिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मान्यता कैसे दे दी गयी. इन लोगों ने मानवेन्द्र नाथ रॉय की पार्टी के साथ काम करने से मना कर दिया. इस अनबन को सुलझाने के लिए कोमिटर्न ने एक कमीशन बनाया. जिसे लीड कर रहे थे सीनयर डच कम्युनिस्ट लीडर SJ रटगर्स. जर्मन डेलीगेशन और CPI के बीच समझौते को लेकर बातचीत शुरू हुई. और यहीं पर दोनों दल एक आदमी के नाम को लेकर अड़ गए. जर्मन डेलीगेशन कह रहा था कि इस आदमी के CPI में होते हुए बातचीत आगे बढ़ ही नहीं सकती. जब कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि इन्होने कम्युनिस्टों के साथ गद्दारी की है. जिस शख्स का नाम उठा था, वो थे अबानी मुखर्जी. कौन थे अबानी मुखर्जी और उनकी एंट्री इस कहानी में कैसे हुए, इसके लिए थोड़ा पीछे चलते हैं.
कौन थे अबानी मुखर्जी?आज ही के दिन यानी 3 जून 1891 को अबानी मुखर्जी की पैदाइश जबलपुर में हुई थी. उनके शुरुआती जीवन के बारे में सिर्फ इतना पता है कि स्कूल की पढ़ाई करने के बाद वो अहमदाबाद चले गए थे. यहां उन्होंने बुनकरी सीखी और बांग्ला लक्ष्मी कॉटन मिल्स में काम करने लगे. 1912 में उन्हें जापान और जर्मनी जाने का मौका मिला. जर्मनी में प्रवास के दौरान अबानी का तारुफ़ समाजवाद से हुआ. जर्मनी से लौटकर उन्होंने एक दूसरी कॉटन मिल, एंड्रू यूल मिल में काम करना शुरू कर दिया.
साल 1914 में उनकी मुलाक़ात रास बिहारी बोस से हुई. और उनसे प्रभावित होकर वो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए. ये वही दौर था जब अनुशीलन समिति जर्मनी की मदद से भारत में हथियार लाने की कोशिश कर रही थी. इस काम के लिए अबानी को चुना गया. हथियार लेने के लिए उन्हें जापान जाना था. लेकिन इसी बीच जर्मन प्लान की पोल खुल गयी और अबानी ब्रिटिश इंटेलिजेन्स के रडार में आए. 15 सितम्बर, 1915 के रोज़ वो जापान से लौटकर सिंगापुर पहुंचे. यहां ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें अरेस्ट कर जेल में डाल दिया. दो साल बाद वो जेल से फरार हो गए. अबानी जेल से फरार होने में कैसे सफल हो पाए, इसी को लेकर जर्मन डिलीशन ने मॉस्को में सवाल उठाया था.
वीरेन्द्रनाथ ग्रुप का कहना था कि इस दौरान अबानी ने अंग्रेज़ों को कई क्रांतिकारियों का पता बता दिया था. जिन्हें बाद में फांसी की सजा दी गई. हालांकि अबानी ने तब बताया था कि कुछ आइरिश सैनिकों ने उनकी जेल से फरार होने में मदद की थी. यहां से भागकर मुखर्जी जावा पहुंचे. 1919 तक यहां वो एक दूसरे नाम दार शहीर के नाम से रहे. इस दौरान उनकी मुलाकात SJ रटगर्स हुई. ये वही रटगर्स हैं जो आगे जाकर मॉस्को में समझौते की सुनवाई करने वाले थे. 1920 में अंबानी रूस पहुंचे और यहां उन्होंने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में हिस्सा लिया. यहां अबानी की मुलाक़ात मानवेन्द्र नाथ रॉय और उनकी पत्नी से हुई. मानवेन्द्र खुद एक लम्बा सफर तय कर रूस पहुंचे थे. और इससे पहले उन्होंने मेक्सिको में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर दी थी. अबानी ने रॉय ने मिलकर इंडियन कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लिखा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखी. अबानी मुखर्जी की तरह रॉय भी अनुशीलन समिति से जुड़े हुए थे.
इसी दौरान अबानी ने पहली बार रूसी क्रांति के जनक व्लादिमीर लेनिन से भी मुलाकात की. और दोनों की मुलाकत के कुछ समय बाद ही 17 अक्टूबर, 1920 को ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) MN रॉय और अबानी मुखर्जी ने मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के गठन की घोषणा कर दी.
दोबारा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनीये खिलाफत आंदोलन का दौर था. इसलिए भारत से तुर्की की यात्रा कर रहे कई मुहाजिरों ने भी कन्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में सहयोग दिया था.
भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी कौन सी थी इसको लेकर भारत के कम्युनिस्ट दलों में मतभेद हैं. दरअसल दिसंबर 1925 में कानपुर में कम्युनिस्टों की एक बैठक हुई थी. इसमें तय हुआ कि चूंकि पार्टी ताशकंद में बनी थी इसलिए इसे दुबारा भारत में बनाए जाने की जरूरत है. इसलिए 1925 में एक बार फिर से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन की घोषणा की गई.
आगे जाकर जब कम्युनिस्ट अलग-अलग दलों में टूटे, तो ये मतभेद भी उपजा कि असली कम्युनिस्ट पार्टी कौन सी है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी CPI (M) और बाकी मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल ताशकंद में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी मानते हैं. जबकि मौजूदा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी कहती है. ये मतभेद आज भी ज्यों के त्यों हैं. जहां तक बात अबानी मुखर्जी की है. एक सवाल का जवाब बाकी है, अबानी को स्टालिन ने क्यों मरवाया?
1921 में बर्लिन डेलीगेशन के साथ जब CPI की बात नहीं बनी तो अबानी दल से अलग हो गए. लेनिन के कहने पर उन्होंने मालाबार में हुए मोपला विद्रोह को लेकर एक विवेचना तैयार की. साल 1925 तक आते-आते अबानी और MN रॉय के बीच तनातनी इतनी बढ़ गई कि अबानी ने सोवियत रूस में शरण ले ली. वहां वो मॉस्को की एक यूनिवर्सिटी में बतौर हिस्टोरियन पढ़ाने लगे. 1937 में स्टालिन के ग्रेट पर्ज शुरुआत हुई. जिसके बारे में हमने आपको शुरू में बताया था. अबानी भी इसी का शिकार बने. 2 जून 1937 को उन्हें गिरफ्तार किया गया. और ब्रिटिश जासूस होने का इल्जाम लगाकर 28 अक्टूबर 1937 को फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़ा कर गोलियों से भून डाला गया. उन्होंने रोजा फीतिनगोव नाम की एक रूसी महिला से शादी भी की थी. जो आगे जाकर CPI से जुड़ी और कई सालों तक उन्होंने MN रॉय के लिए बतौर इंटरप्रेटर काम भी किया.
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