साल 1665 में सिखों के नवें गुरु, गुरु तेग बहादुर ने आनंदपुर साहिब की स्थापना की थी. आनंदपुर पंजाब के रूपनगर जिले में पड़ता है. गुरु तेग बहादुर का बढ़ता प्रभाव देखते हुए मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने साल 1675 में उन्हें मृत्युदंड दे दिया. जिसके बाद गोबिंद राय सिखों के दसवें गुरु बने और गुरु गोबिंद सिंह के नाम से जाने गए. गुरु के कौल पर आनंदपुर में सिखों का जमावड़ा लगने लगा. 1699 में उन्होंने यहां खालसा पंथ की शुरुआत की. उन्होंने खालसा को पांच सिद्धांत दिए, जिन्हें 5 ककार कहा जाता है.
गुरु गोबिंद सिंह के बेटों की हत्या का बदला कैसे लिया?
जनवरी २०२२ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा करते हुए कहा कि 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' के रूप में मनाया जाएगा.
पांच ककार का मतलब ‘क’ शब्द से शुरू होने वाली उन 5 चीजों से है, जिन्हें गुरु गोबिंद सिंह के सिद्धांतों के अनुसार सभी खालसा सिखों को धारण करना होता है. गुरु गोविंद सिंह ने सिखों के लिए पांच चीजें अनिवार्य की थीं- ‘केश’, ‘कड़ा’, ‘कृपाण’, ‘कंघा’ और ‘कच्छा’. इनके बिना खालसा वेश पूरा नहीं माना जाता. आनंदपुर में खालसा आर्मी की ट्रेनिंग शुरू हुई. जिसका एक खास स्वरूप ‘होला मोहल्ला’ के रूप में दिखता है. होला मोहल्ला होली के समय तीन दिन का एक उत्सव होता है.
मुग़ल सेना ने आनंदपुर पर हमला कियाबहरहाल 1699 में खालसा पंथ की शुरुआत के साथ ही एक और बार औरंगज़ेब की नज़र आनंदपुर साहिब पे पड़ी. आसपास के पहाड़ी राजाओं को भी सिख आर्मी से खतरा लग रहा था, इसलिए उन्होंने आनंदपुर को चारों ओर से घेर लिया. औरंगज़ेब ने पैंदा खान और दीना बेग के अंडर 10 हजार की सेना को आनंदपुर पर धावा बोलने के लिए भेज दिया. इस जंग में मुग़ल सेना को हार मिली और वो वापस लौट गई.
इसके चार साल बाद यानी 1704 में मुग़लों ने एक और बार आनंदपुर पर धावा बोला. मई 1704 में वजीर खान और जाबेरदस्त खान आनंदपुर पर डेरा डालने पहुंचे. अगले 6 महीनों तक उन्होंने आनंदपुर की घेराबंदी कर राशन की सप्लाई काट दी. अंत में औरंगज़ेब ने गुरु गोबिंद सिंह और उनके परिवार को आनंदपुर से बाहर निकलने का मार्ग पेश किया. और वादा किया कि मुग़ल फौज उनका पीछा नहीं करेगी. लेकिन जैसे ही गुरु और उनका परिवार आनंदपुर से बाहर निकले. मुग़ल फौज उनके पीछे लग गई.
भागते हुए कुछ ऐसा हुआ कि सिरसा नदी पर गुरु गोविन्द सिंह का परिवार बिछड़ गया. उनके दो बेटे और ज़ोरावर सिंह और फ़तेह सिंह और उनकी माता गुजरी जी पीछे छूट गए. वहीं गुरु गोविन्द सिंह अपने दो बड़े बेटों, अजीत सिंह और जुझार सिंह के साथ चमकौर गढ़ी तक पहुंच गए. गुजरी जी अपने दोनों पोतों को लेकर एक गांव पहुंची और वहां के एक घर में पनाह ली. अगली सुबह गंगू नाम का एक पुराना सेवक उनके पास पहुंचा. और ये कहकर उन्हें अपने घर ले गया कि वो वहां ज्यादा सेफ रहेंगी.
जिंदा दीवार में चुनवा दियाउस रात जब गुजरी जी सो रहीं थी, गंगू ने उनके झोले से सोने के सिक्के चुरा लिए. और अगली सुबह बोला कि चोर आए थे. इतना ही नहीं उसने पैसों के लालच में कोतवाली जाकर गुजरी जी और गुरु गोविन्द सिंह के दो बेटों की जानकारी भी कोतवाल तक पंहुचा दी. वहां से इन लोगों को गिरफ्तार कर सरहिंद पहुंचा दिया गया. सरहिंद में वजीर खान ने गुजरी जी, ज़ोरावर सिंह और फ़तेह सिंह को एक कैदखाने में डलवा दिया, जिसे ठंडा बुर्ज कहा जाता था. ठंडा बुर्ज इसलिए क्योंकि इस कैदखाने में सिर्फ सलाखें थी, जिनमें से रात भर ठंडी हवा चलती रहती थी. कहते हैं कि तब गुरु गोविन्द सिंह के एक शिष्य, बाबा मोती राम ने बच्चों और माता जी के लिए दूध लेकर गया था. जिसके चलते सिखों में आज भी एक कहावत चलती हैं,
“धन मोती जिस पुन्न कमाया, गुरु-लालन ताइं दूध पिआया ”
इस जुर्रत की सजा में बाबा मोती राम और उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी गई. एक रात जेल में गुजारने के बाद अगली सुबह तीनों को नवाब वजीर खान के सामने पेश किया गया. एक किस्सा ये भी है कि जब तीनों लोग दरबार में पहुंचे तो वहां बड़ा गेट बंद कर एक छोटा गेट खुला हुआ था, जिससे सर झुकाकर अंदर जाना पड़ता था. लेकिन जोरावर और फ़तेह ने सर झुकाने से इंकार कर दिया.
सिख इतिहासकारों के अनुसार वजीर खान ने दोनों को इस्लाम कबूलने को कहा, और जब दोनों ने इंकार किया तो उन्हें जिन्दा ही दीवार में चुनवा दिया गया. तब जोरावर सिंह की उम्र 9 साल और फ़तेह सिंह की उम्र 7 साल थी. इस घटना के कुछ समय बाद ही गुज़री जी की मौत भी हो गयी. तब सरहिंद में एक सेठ टोडर मल हुआ करते थे. उन्होंने वजीर खान से दरख्वास्त की कि वो दोनों बच्चों और माता जी के अंतिम संस्कार के लिए कुछ जमीन दे. तब वजीर खान ने उनसे कहा कि जितनी वो जमीन चाहे ले सकते हैं, बशर्ते उसकी कीमत देने के लिए तैयार हों. जब टोडरमल ने जमीन का दाम पूछा, तो वजीर खान ने कहा, उसे जितनी जमीन चाहिए, उसे सोने के सिक्कों से ढकना होगा, और वही जमीन का दाम होगा. टोडर मल तैयार हो गए, और जब जमीन को ढका गया, तो वजीर खान ने सिक्कों को सीधा खड़ा रखने को कहा, ताकि ज्यादा से ज्यादा सिक्कें जमा हो सकें. जिस जगह पर अंतिम संस्कार हुआ, उसे गुरुद्वारा श्री जोति सरूप साहिब के नाम से जाना जाता है.
बंदा बहादुर ने बदला लियादोनों बच्चों और माता जी की मृत्यु की खबर जब गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची, वो मच्छीवाड़ा के जंगलों में थे. कहते हैं कि ये खबर सुनकर उन्होंने तीर की नोक से एक पौधा जमीन से उखाड़ा और कहा, ये घटना मुग़ल साम्राज्य के अंत का कारण बनेगी. ये बात कुछ हद तक सही भी साबित हुई. 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल शासन निरतंर कमजोर हो गया. वहीं सरहिंद में गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों की हत्या ने वहां की जनता में रोष भर दिया. साल 1709 में गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों की हत्या का बदला लिया गया. ऐसा करने वाले शख्स का नाम था बंदा सिंह बहादुर.
1709 में बंदा बहादुर ने सरहिंद के एक कस्बे समाना पर हमला किया. और इस दौरान सरहिंद के किसानों ने उन्हें घोड़े और धन उपलब्ध कराया. मशहूर इतिहासकार हरिराम गुप्ता ने अपनी किताब 'लेटर मुग़ल हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब' में बताते हैं, "समाना पर हमला करने की वजह ये थी कि 34 साल पहले गुरु तेगबहादुर का सिर कलम करवाने वाला और गुरु गोबिंद सिंह के लड़कों को मारने वाला व्यक्ति वज़ीर खान उसी शहर में रह रहा था."
22 मई 1710 को हुई लड़ाई में बंदा बहादुर के भाई फ़तह सिंह ने वजीर खान को मार गिराया. इस जीत के बाद बहादुर ने सरहिंद किले पर हमला करते हुए उसे मिट्टी में मिला दिया गया. बंदा बहादुर ने इसके बाद सरहिंद से सिख साम्राज्य की नींव रखी और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के जारी किए. इत्तेफाक ये कि खुद बंदा बहादुर को भी इस्लाम कबूल न करने के कारण ही मार डाला गया था. साल 1716 में दिल्ली में उन्हें मृत्यु दी गई थी.
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