द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कई जासूस प्रसिद्द हुए. गार्बो के नाम से मशहूर स्पेन के जुआन गार्सिआ ने अपने 27 अलग-अलग नाम रखे थे. ये गार्बो ही था जिसने डी डे के दौरान जर्मनों
को मित्र राष्टों के आने की गलत तारीख बता कर सेना का काम आसान किया. सोवियत रूस के जासूस रिचर्ड सोरगे की कहानी भी है. जिसने वक्त से पहले ही स्टालिन को बता दिया था कि हिटलर रूस पर आक्रमण करने वाला है. ये अलग बात कि स्टालिन उन दिनों इतना पैरानॉइड था कि उसने सोरगा की बातों पर विश्वास नहीं किया.
इस इंडियन जासूस ने हिटलर तक को बेवक़ूफ़ बना डाला था
भगत राम तलवार उर्फ रहमत खान ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत से बर्लिन पहुंचने में मदद की थी. साथ ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भगत ने जर्मनी, सोवियत रूस और ब्रिटेन के लिए जासूसी भी की.
एलीजा बैजना नाम का एक जासूस हिटलर के लिए काम करता था. और टर्की में ब्रिटिश एम्बेसडर के नौकर के रूप में काम करते हुए उसने हिटलर तक ब्रिटिश और मित्र राष्ट्रों के कई ख़ुफ़िया प्लान पहुंचाए थे. कहते हैं जेम्स बांड की अभिकल्पना द्वितीय विश्व युद्ध के इन्हीं जासूसों से ली गयी थी. उपन्यास की दुनिया का ये सबसे मशहूर जासूस, अपने गैजेट्स, तेज़ रफ़्तार गाड़ियों, खूबसूरत लड़कियों से अफेयर और वोडका मार्टिनी के लिए जाना जाता है.
आज ऐसे ही एक जासूस की कहानी आपको सुनाएंगे. इस कहानी में तेज़ रफ़्तार गाड़ियां नहीं हैं. ना ही कोई अफलातूनी गैजेट्स. अपना जासूस तो ठीक से अंग्रेज़ी भी नहीं बोल सकता था. पक्का देशी आदमी था.
विश्व युद्ध के दौरान कई जासूस ऐसे भी हुए जो डबल एजेंट थे. यानी दोनों दुश्मन देशों को चूना लगाने वाले. कई ऐसे भी हुए, जिन्होंने तीन-तीन देशों के लिए काम किया. लेकिन जिसकी कहानी आज बताने जा रहे हैं, उसने एक साथ पांच पांच देशों को बेवकूफ बना रखा था. यहां तक की नाजियों को भी. और इत्तेफाक की बात ये है कि इस जासूस के हैंडलर, जेम्स बांड किरदार की रचना करने वाले इयान फ्लेमिंग के बड़े भाई, पीटर फ्लैमिंग थे. उन्होंने ही इस जासूस को उसका कोड नेम दिया था- सिल्वर.
सुभाष चंद्र बोस काबुल मेंआज की के दिन साल 1940 में इटली ने ब्रिटेन और फ़्रांस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी थी. इसी दौरान कोलकाता में बैठा का एक शख्स एक लम्बे सफर की तैयारी कर रहा था. एक सफर जिसका अंत बर्लिन में होना था. नेताजी सुभाष चंद्र बोस घर में नजर बंद थे. बर्लिन पहुंचने के लिए उन्हें पहले पेशावर और वहां से काबुल तक पहुंचना था.
तब कम्युनिस्ट पार्टी के एक मेंबर से मदद ली गई. नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस का ये बाशिंदा इस इलाके को अच्छे से पहचानता था. और खैबर दर्रे को पार कर नेताजी को काबुल तक पहुंचा सकता था. जनवरी 1941 में इस आदमी की मदद से नेताजी अंग्रेज़ों की कैद से फरार होने में सफल हो जाते हैं.
इसके बाद पर्दा खुलता है ठीक एक महीने बाद काबुल में. 22 फरवरी 1941 का दिन. काबुल की गलियों से गुजरता हुआ एक आदमी एक पुरानी से बिल्डिंग के पास पहुंचकर दरवाजे पर खटखटाता है. ये इटैलियन एम्बेसी है. दरवाज़ा खुलता है. आदमी एक कराकुली अफ़ग़ान टोपी पहने था. शर्ट उसके घुटने से नीचे तक आ रही थी. देखने में बिलकुल किसी काबुलीवाले की तरह दिख रहा था. गार्ड्स ने उसे देख आने का कारण पूछा तो उसने बताया कि वो एक रसोइया है जिसे इतावली एम्बेसडर के पास काम करने के लिए भेजा गया है. थोड़ी देर में ये आदमी इतालवी एम्बेस्डर के कमरे में पहुंचता है. एम्बेसडर एक बड़े से डेस्क के पीछे बैठा था. डेस्क पर इतालवी फ्लैग और पीछे दीवार पर इतालवी डिक्टेटर बेनिटो मुसेलिनी की तस्वीर टंगी थी.
एम्बेसडर पेट्रो क्वारोनी ने नाम पूछा तो उस शख्स ने बताया कि उसका नाम रहमत खान है और उसे जर्मन एम्बेसी ने भेजा है.
किसलिए? एम्बेसडर चिल्लाया, रहमत खान ने भी तपाक से जवाब दिया दिया, ‘मुझे क्या पता, मुझे बस आपसे मिलने के लिए कहा गया है.’ इसके बाद क्वारोनी जर्मन एम्बसी में फोन कर इस आदमी के बारे में पूछते हैं. वहां से जब पक्का हो जाता है ये आदमी जासूस नहीं, तब जाकर क्वारोनी को तसल्ली होती है.
सुभाष चंद्र बोस-काबुल से बर्लिनरहमत खान क्वारोनी को बताता है कि वो अफ़ग़ान नहीं बल्कि एक भारतीय है. और 200 मील की यात्रा कर पेशावर से काबुल पैदल पहुंचा है. रहमत ने बताया कि वो अकेले नहीं आया था. बल्कि उसके साथ एक भारतीय और भी था, सुभाष चंद्र बोस. बोस काबुल बॉर्डर पार करना चाहते थे. और इस काम में रहमत उनकी मदद कर रहा था.
रहमत और नेताजी बोस ने कुछ हफ्ते पहले ही जर्मन एम्बेसी में कांटेक्ट किया था. वहां कई हफ्ते बातचीत चली लेकिन बोस को काबुल से निकालने का कोई पुख्ता इंतज़ाम नहीं हो पाया. काबुल में रहना खतरे से खाली नहीं था. न उनके पास पासपोर्ट था न कोई और दस्तावेज़. अगर कोई पकड़ लेता तो उन्हें सीधे ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर देता.
क्वारोनी नेताजी की आख़िरी उम्मीद था. उसने मदद भी की. क्वारोनी ने बोस के लिए एक इतालियन डिप्लोमेट का पासपोर्ट बनवा दिया. जिसके बाद सुभाष अफ़ग़ान बॉर्डर पार करते हैं. और मास्को के लिए ट्रेन पकड़ लेते हैं. मास्को से रात की ट्रेन लेकर फिर बर्लिन पहुंच जाते हैं. इसके आगे नेताजी के साथ क्या-क्या हुआ, कैसे वो हिटलर से मिलते हैं, फिर जापान पहुंचते हैं, ये कहानी तो अपन सबको पता है. लेकिन इस कहानी में एक शख्स पीछे छूट गया था. रहमत खान. उसका क्या हुआ? ये जानने से पहले रहमत की असली पहचान जान लीजिए.
रहमत खान उर्फ भगत राम तलवारकल यानी 9 तारीख के एपिसोड में हमने आपको हरी किशन तलवार की कहानी बताई थी. जिन्होंने पंजाब के गवर्नर की हत्या का प्रयास किया था. और इसके चलते उन्हें फांसी दे दी गई.
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पंजाब के गवर्नर की हत्या के प्रयास से पहले भी हरी किशन को एक बार जेल हुई थी. उस केस में हरी किशन को रिहा कर दिया गया. लेकिन उनके भाई को 11 साल की जेल हो गई. हरी किशन के छोटे भाई का नाम था, भगत राम तलवार. भगत राम ने 11 साल जेल में गुजारे. 1940 में रिहाई के बाद वो कम्युनिस्ट दल, कीर्ति किसान पार्टी से जुड़ गए. उनका पहला असाइनमेंट था सुभाष चंद्र बोस को काबुल तक पहुंचाना.
इस काम को अंजाम देने के दौरान भगत राम की पहचान इतालवी एम्बेसडर से हो गई थी. भारत तब ब्रिटिश एम्पायर का क्राउन हुआ करता था. और क्वारोनी किसी ऐसे शख्स की तलाश में थे जो भारत में उनके लिए जासूसी कर सके. ऐसे में रहमत खान क्वारोनी को अपने काम का लगा. और यहां से रहमत खान उर्फ़ भगत राम के जासूसी करियर की शुरुआत हो गई.
कुछ महीने इटैलियंस के साथ काम करने के बाद रहमत खान को जर्मनी जाने का मौका मिलता है. नाजी उसे जासूसी की ट्रेनिंग देकर वापस काबुल भेजते हैं. साथ में एक ट्रांसमीटर भी देते हैं जिससे सीधे हिटलर की सीक्रेट सर्विस को सन्देश भेजा जा सकता था. जर्मन रहमत के काम से इतने खुश थे कि उसे जर्मन मिलिट्री से सबसे ऊंचे सम्मान, आयरन क्रॉस से सम्मानित किया जाता है. इस दौरान रहमत को नाजियों ने आज के हिसाब से लगभग 25 करोड़ रूपये भी दिए थे.
जर्मनी को लग रहा था कि उन्हें ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रों के खूफिया सन्देश मिल रहे हैं. जबकि असलियत ये थी कि हिटलर सीक्रेट सर्विस तक पहुंच रहे सारे सन्देश झूठे थे. इन्हें दिल्ली वाईसरीगल पैलेस (राष्ट्रपति भवन) में बनाकर भेजा जा रहा था, ताकि नाजियों को गुमराह किया जा सके.
दरअसल रहमत उर्फ़ भगत एक डबल एजेंट था. वो नाजियों के खिलाफ काम कर रहा था. जब हिटलर ने सोवियत रूस पर आक्रमण किया, तभी से रहमत कम्युनिस्टों के लिए काम करने लग गया था. इसी दौरान उसकी मुलाक़ात ब्रिटिश इंटेलिजेंस से भी हुई. भगत ने उनके लिए भी काम किया. पीटर फ्लेमिंग उनके हैंडलर हुआ करते थे. अब समझते हैं कि भगत राम का मिशन क्या था. और कैसे उसने नाजियों को उल्लू बनाया.
दिसम्बर 1941 की बात है. इटैलियन अम्बेसडर द्वारा भगत राम को रिक्रूट किए 10 महीने हो चुके थे. उस महीने पेशावर के डेप्युटी डायरेक्टर ऑफ़ इंटेलिजेंस, CE जॉयस ने एक रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट के अनुसार वजीरिस्तान के कबीलाई सरदार विद्रोह करने वाले थे. अब तक ब्रिटिशर्स ने इस इलाके के कबीलाई सरदारों को घूस देकर काम चलाया था. लेकिन इस दौर में फ़क़ीर इप्पी नाम के एक पश्तून सरदार ने अंग्रेज़ों से विद्रोह कर दिया था.
इस मामले में जर्मन उनकी मदद कर रहे थे. भारत के मोर्चे पर ब्रिटिश को कमजोर करने के लिए जर्मनी किसी भी हद तक जाने को तैयार था. इस मोर्चे पर हंगामा होता तो ब्रिटिश फौज को युद्ध के दूसरे मोर्चों से सेना यहां भेजनी पड़ती और यही जर्मन चाहते थे. रहमत खान इस दौरान जर्मनी को इस मोर्चे से खूफिया सन्देश भेज रहा था. उसने नाजियों को गलत जानकारी देकर गुमराह किया. और इसी के चलते वजीरिस्तान में एक बड़ा संघर्ष होने से बच गया.
भगत राम ने नेताजी को धोखा दिया था?युद्ध खत्म होते-होते रहमत खान जापानियों के साथ भी जुड़ा. यानी पूरे युद्ध के दौरान कुल 5 देशों के एजेंट के तौर पर काम किया. जर्मनी को धोखा देने के चलते कुछ लोग मानते हैं कि भगत ने नेताजी सुभाष को भी धोखा दिया था. जो जर्मनी में बैठे भगत की फ़र्ज़ी जानकारी को सच मान रहे थे. इसके लिए भगत ने सफाई दी कि वो किसी भी हालत में नाजियों को जीतने नहीं दे सकते थे.
साल 1945 में युद्ध की समाप्ति के साथ ही एजेंट सिल्वर का काम भी ख़त्म हो गया. ब्रिटिश और जर्मनों से खूब से पैसा लेकर भगत राम लेकर वो वजीरिस्तान के बीहड़ों में गायब हो गए. पार्टीशन के बाद वो भारत आए और उत्तर प्रदेश में रहने लगे.
इसके 28 साल बाद भगत राम तलवार दोबारा एक बार और दिखे. साल 1973 में कोलकाता में पहला इंटरनेशनल नेताजी सेमिनार रखा गया था. इस मौके पर भगत राम तलवार भी पहुंचे. और इस मौके पर उन्होंने एक पेपर भी पेश किया. ‘माय फिफ्टी डेज विथ नेताजी’. बाद में एक किताब भी लिखी, “द तलवार ऑफ पठान लैंड एण्ड सुभाष चंद्र ग्रेट एस्केप"
साल 1983 में उनका निधन हो गया. उनकी कहानी को बाहर लाने का श्रेय जाता है, बीबीसी के लिए पत्रकारिता कर चुके, लेखक मिहिर बोस को जिन्होंने साल 2017 में, "सिल्वर: द स्पाइ हू फूल्ड द नाजी" नाम से एक किताब लिखी थी.
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