एक स्कूल है. अंदर बच्चे हैं. दीवारों पर हिन्दू देवी देवताओं की तस्वीरें हैं. कहीं रंगोली बनी है. कहीं भारतीय शास्त्रीय नृत्य की तस्वीरें. बाहर बोर्ड लगा है. लिखा है, जाम साहेब दिग्विजय सिंह जडेजा स्कूल (JamSaheb DigvijaySinhji). नाम से लगता है, गुजरात या महाराष्ट्र का कोई स्कूल होगा. लेकिन नहीं. ये स्कूल भारत से 6 हजार किलोमीटर की लम्बी दूरी पर बसे एक देश पोलेंड में स्थित है. और समय के माप में इससे भी लम्बी है इसकी कहानी. कहानी उस महाराजा की, जिसने यूरोप से आए उन भूखे-प्यासे बच्चों को आसरा दिया. जिन्हें जर्मनी से बचाने के नाम पर सोवियत रूस ने भूखे मरने की हालत पर ला दिया था. जिन्हें न अमेरिका ने आसरा दिया, न ही ब्रिटेन ने. (Polish Children India)
कौन थे ये बच्चे? कौन थे ये महाराजा? और क्या है इनकी पूरी कहानी. चलिए जानते हैं.
हिटलर और स्टालिन से भागे बच्चों को जब एक भारतीय महाराजा ने शरण दी!
महाराजा दिग्विजयसिंहजी जडेजा ने WW2 के दौरान रिफ्यूजी पोलिश बच्चों के लिए गुजरात के नवांनगर में एक कैम्प बनवाया था
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हिटलर-स्टालिन संधिशुरुआत 23 अगस्त 1939 से. क्या हुआ था इस दिन?
एक संधि पर हस्ताक्षर हुए थे. सोवियत संघ और जर्मनी के बीच. इस संधि का नाम था, मोलोटोव -रिबनट्रॉप संधि (Molotov-Ribbentrop pact) या हिटलर-स्टालिन (Hitler-Stalin Pact) संधि. संधि के तहत दोनों देश ने समझौता किया कि वो एकदूसरे पर हमला नहीं करेंगे. लेकिन संधि का एक और छुपा हुआ पहलू था. जिसके अनुसार दोनों देश पोलेंड को आधा-आधा बांट लेने के लिए तैयार हो गए थे. 1 सितम्बर को हिटलर ने पश्चिम से पोलेंड पर आक्रमण किया. इसके 16 दिन बाद स्टालिन ने भी पोलेंड पर आक्रमण का आदेश दे दिया. नतीजा हुआ कि पोलेंड दो हिस्सों में बंट गया. जर्मन हिस्से वाले पोलेंड में यहूदियों को मारा गया. वहां कंसन्ट्रेशन कैंप्स बनाए गए. ये सर्वविदित इतिहास है. लेकिन रूस के हिस्से वाले पोलिश लोगों के साथ क्या हुआ, इसका जिक्र कम होता है.
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रेड आर्मी ने जब पोलेंड पर आक्रमण किया तो ये तर्क दिया कि वो नाजियों से बचाने के लिए ऐसा कर रहे हैं. पोलिश जनता को भी पहले-पहल ऐसा ही लगा. लेकिन जल्द ही सारी हकीकत सामने आ गई. सोवियत सीक्रेट पुलिस ने 5 लाख लोगों को जेल में डालकर उनका टॉर्चर किया. इसके बाद नवम्बर 1939 में फ़र्ज़ी चुनाव कराकर सोवियत संघ ने आधे पोलेंड को खुद में मिला लिया. पोलिश मिलिट्री और सरकार के जुड़े लोगों को फ़र्ज़ी केसों के नाम पर मौत की सजा सुना दी गई. सोवियत हिस्से वाले पोलेंड में तब जनसंख्या लगभग 1.3 करोड़ के आसपास थी. कई इतिहासकारों का मानना है कि हिटलर ने जो यहूदियों के साथ किया, स्टालिन की क्रूरता भी उससे कम न थी. स्टालिन को जब सीक्रेट पोलिस की करतूतों के बारे में बताया गया तो उसने कहा,
‘अगर उनकी मंशा बुरी नहीं है तो उन्हें माफ़ किया जा सकता है.’
1941 में जब जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला किया तो उन्हें जंगलों में हजारों लोगों की सामूहिक कब्रें मिली. सोवियत संघ के कारनामों को दुनिया के सामने लाने के लिए जर्मनी ने अंतर्राष्ट्रीय देशों का एक डेलिगेशन बुलवाया. लेकिन इस डेलीगेशन की रिपोर्ट को ब्रिटेन और अमेरिका ने नाजी प्रोपोगेंडा कहकर झुठला दिया. जर्मनी के खिलाफ स्टालिन की मदद चाहिए थी. इसलिए किसी ने कुछ न कहा. साल 1939 और 1941 के बीच स्टालिन ने पोलिश लोगों को पोलेंड से बाहर भेजना शुरू किया. ताकि वहां अपने लोगों को बसा सके. इन लोगों को साइबेरिया, कजाकस्तान जैसे दूरस्त इलाकों में भेज दिया गया. यहां सोवियत लेबर कैम्प्स बने थे. जिन्हें गुलाग नाम की एक सोवियत सरकारी एजेंसी कंट्रोल करती थी. गुलाग की स्थापना लेनिन के दौर में ही गई थी. लेकिन इन्हें असली ताकत मिली स्टालिन के राज में. 1930 -1945 के बीच करीब 40 लाख लोगों को इन कैम्पस में भेजा गया. इनमें वो लोग थे जिन्हें सरकार का दुश्मन माना जाता था, या कोई भी व्यक्ति जिसे 3 साल से ज्यादा की सजा हुई हो. कहने को ये करेक्शन कैंप्स थे. लेकिन यहां हाड़तोड़ मजदूरी कराई जाती थी. उन्हें भूखा रखा जाता, टॉर्चर किया जाता. एक एस्टीमेट के हिसाब से इन कैंप्स में रहने वाले 17 लाख लोग या तो वहां रहने के दौरान या बाहर आकर मारे गए थे.
सोवियत कब्ज़े के दौरान 1940 से 1941 के बीच स्टालिन ने 12 लाख पोलिश लोगों को उनकी जमीन से विस्थापित कर दिया. इनमें से 7 लाख से अधिक लोग लेबर कैंप्स में मारे गए. जिनमें एक तिहाई बच्चे थे. 1941 में ये स्थिति बदली. जब ऑपरेशन बारबोसा के तहत जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया. स्टालिन के सर मुसीबत आई तो उसने दूसरे देशों से मदद की अपील की. ब्रिटेन में तब पोलेंड की निर्वासित सरकार चल रही थी. ब्रिटेन ने मदद के एवज में स्टालिन ने मांग की कि वो पोलेंड को उसकी स्वायत्ता वापिस दे दें. स्टालिन तैयार हो गया. और इस तरह 1941 में निर्वासित पोलिश सरकार और जर्मनी के बीच एक संधि हुई. संधि के तहत सोवियत संघ और निर्वासित पोलिश सरकार के बीच डिप्लोमेटिक रिश्तों की शुरुआत हुई. और स्टालिन ने हिटलर के साथं हुए सभी पुराने समझौतों को निरस्त कर दिया. साथ ही सभी पोलिश नागरिकों को आम माफ़ी दे दी.
एक छोटे से अंतराल के लिए पोलिश लोगों को सोवियत संघ से बाहर जाने की आजादी भी दे दी गई. इस मौके का फायदा उठाकर पोलिश लोगों ने एक सेना बनाई. जिसका नाम था एंडर्स आर्मी. इस सेना का नाम एक पोलिश जनरल व्लादिस्लाव एंडर्स के नाम पर पड़ा था. जनरल एंडर्स ने मौके का फायदा उठाकर हजारों औरतों और बच्चों को लेबर कैंप्स से रिहा करवाया. इन्हें कैस्पियन समंदर के रास्ते ईरान भेजा गया. वांडा एलिस नाम की एक पोलिश रिफ्यूजी बताती हैं,
“साइबेरिया में रहने के दौरान हमें एक एक टुकड़ा ब्रेड के लिए लड़ना पड़ता था. जब हम भागे तो हमें ट्रेन के डब्बों में भेड़ बकरियों की तरह रहना पड़ा. हजारों बच्चे इस दौरान मारे गए. ट्रेन में टॉयलेट करने को जगह नहीं थी, इसलिए जब कभी ट्रेन रुकती हमें जल्दी से उतारकर नित्य क्रिया करनी होती थी. हजारों मारे गए. ये केवल चमत्कार था कि हम किसी तरह बच आए”.
ईरान पहुंचकर भी इन लोगों को आराम न मिला. सोवियत यूनियत ने उत्तरी ईरान पर कब्ज़ा कर लिया था. इसलिए इन्हें वहां से भी भागना पड़ा. कुछ महीने ईरान में रहने के बाद ये लोग अलग अलग देशों में गए. इन देशों के नाम थे, भारत, यूगांडा, केन्या, साउथ अफ्रीका, न्यूजीलैंड और मेक्सिको. गौर कीजिए इनमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन जैसे देशों का नाम नहीं है. कारण- अमेरिका अपने सहयोगी स्टालिन को नाराज नहीं करना चाहता था. इसलिए जो पोलिश रेफ्यूजी अमेरिका पहुंचे, उन्हें मेक्सिको भेज दिया गया.
कहानी में जाम साहेब दिग्विजय सिंह की एंट्री कैसे हुई?इनका पूरा नाम था दिग्विजय सिंहजी रतनजीत सिंह जी जडेजा. आजादी से पहले गुजरात में कच्छ के खाड़ी के दक्षिणी छोर पर एक सल्तनत हुआ करती थी, नाम था नवांनगर. यहां जडेजा राजपूतों का शासन था. आजादी के बाद ये भारतीय संघ का हिस्सा हो गया. और शहर का नाम पड़ गया जामनगर. यहां के राजाओं को जामसाहेब कहकर बुलाया करते थे. इसी परिवार में साल 1895 में दिग्विजयसिंहजी का जन्म हुआ. लन्दन में पढ़ाई के बाद वे 1919 में ब्रिटिश आर्मी में कमीशन हो गए. 1931 में कैप्टन के पद से रिटायर हुए. साल 1933 में जामसाहेब रतनसिंहजी की मौत के बाद वे नवांनगर रियासत के महाराजा बने. द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद उन्हें इम्पीरियल वॉर कैबिनेट का हिस्सा बनाया गया. कैबिनेट का हिस्सा रहते हुए महाराजा दिग्विजयसिंह को पोलिश रिफ्यूजियों की हालत का पता चला, जो तब दुनिया भर से मदद की गुहार लगा रहे थे. ऐसे मौके पर महाराजा ने उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाया.
ब्रिटिश सरकार पोलिश रिफ्यूजियों के भारत आने को लेकर खुश नहीं थी. उनका भी कारण वही था. वो अपने सहयोगी स्टालिन को नाराज नहीं करना चाहते थे. लेकिन महाराजा इस बात पर अड़ गए. और सरकारी लालफीताशाही को दरकिनार करते हुए 500 पोलिश रिफ्यूजियों को अपने यहां शरण दी. इनमें काफी संख्या में बच्चे थे. महाराजा दिग्विजयसिंह ने उनसे कहा,
भारत ने दी पोलिश रिफ्यूजियों को शरण“नवांनगर की जनता मुझे बापू कहती है, आज से मैं तुम्हारा भी बापू हूं”
ये वो दौर था जब भारत खुद युद्ध की मार झेल रहा था. इसके बावजूद भारत वो पहला देश बना जिसने पोलिश रिफ्यूजियों को अपने यहां शरण दी.
महाराजा दिग्विजय सिंह ने बाकी रियासतों को भी मनाया. टाटा घराने और कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी की मदद से रिफ्यूजियों के लिए चंदा इकठ्ठा किया गया. 1942 से 1948 के बीच लगभग 6 हजार पोलिश रिफ्यूजियों को भारत में शरण दी गई. बालाचड़ी में इनके लिए पहला कैम्प बनाया गया. इसके अलावा एक कैम्प कोल्हापुर के नजदीक वालीवाड़े में बनाया गया.
दुनियाभर में जहां रिफ्यूजियों को न्यूनतम आसरा दिया जाता था. वहीं भारतीय कैंप्स में रहने की सारी सुविधाएं थीं. बच्चों के लिए अलग कमरे, अलग बिस्तर, खाना, कपड़ा समेत चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध थीं. महाराजा दिग्विजय ने यहां बच्चों के पढ़ने का इंतज़ाम भी किया. इनके लिए पोलेंड से किताबें मंगवाई ताकि वो अपनी भाषा में पढ़ सकें. इतना ही नहीं एक चर्च भी बनाया गया ताकि लोग अपने धार्मिक अनुष्ठान कर सकें.
1945 में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ. पोलेंड सोवियत यूनियत का हिस्सा बन गया. 1946 में पोलिश सरकार ने इनकी वापसी की मांग की. इसके बावजूद इनमें से अधिकतर 1948 तक भारत में ही रहे. और 1948 के बाद अलग-अलग देशों में रहने के लिए चले गए. 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पोलेंड ने राजधानी वॉरसॉ में दिग्विजय सिंहजी के नाम पर एक चौक का नाम रखा. साथ ही पोलैंड ने महाराजा को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ दि ऑर्डर ऑफ मेरिट भी दिया. बालाचड़ी में दिन गुजारने वाले लोगों के एक डेलीगेशन ने साल 2018 में यहां का दौरा किया. बालाचड़ी में अपना बचपन गुजारने वाली जेन बिलेकी कहती हैं,
“महाराजा नहीं होते तो पता नहीं हमारा क्या होता. मैं एक पोलिश हूं, और अपने देश से बहुत प्यार करती हूं लेकिन मेरी आत्मा का एक हिस्सा आज भी भारत में है. मुझे लगता है पोलेंड के साथ साथ भारत भी मेरा अपना घर है”.
महराजा दिग्विजयसिंहजी की कहानी भारतीय इतिहास की उन कहानियों में से हैं. जिन पर हम गर्व कर सकते हैं. जिनसे पता चलता है कि भारत को महान बनाने वाली असली चीज कौन सी है. हम ‘वसुदेव कुटुम्बकम’ की परंपरा वाले देश के नागरिक हैं. वो देश, जो अपने नागरिकों को ही नहीं, वरन दुनिया के सभी लोगों को अपना मानता है. ये बात यथार्थ में शायद पूरी तरह सत्य नहीं, लेकिन एक देश के तौर पर हमारा आदर्श तो बन ही सकती है.
वीडियो देखें-जर्मनी में रहकर हिटलर को ललकारने वाला भारतीय कौन था?