भारतीय सरजमीं कई युद्धों की गवाह रही है. एक से बढ़कर एक भीषण युद्ध. पानीपत का युद्ध, बक्सर का युद्ध. हल्दीघाटी का युद्ध. इन युद्धों के परिणामों ने भारतीय इतिहास को कई सिलवटें दीं. हालांकि वो युद्ध जो भारतीय इतिहास का पन्ना पलट गया, वो जमीन के बजाय पानी पर लड़ा गया था. एक ऐसा युद्ध जो शुरु कारोबार के लिए हुआ था, लेकिन फिर बदले की लड़ाई बन गया. एक पिता के लिए अपने बेटे की मौत का बदला. जिसके लिए उसने अपने राजा से भी बगावत कर डाली. एक ऐसा युद्ध जिसमें एक तरफ पांच सल्तनतें थीं और दूसरी तरफ पुर्तगाल (Portugese in India).
भारतीय समंदर में हुई इस लड़ाई ने दुनिया बदल दी!
दीव का युद्ध साल 1509 में लड़ा गया था. इस युद्ध में एक तरफ पुर्तगाल कि सेना थी और दूसरी ओर थी ओटोमन, वेनिस, मामलुक, गुजरात और कालीकट की सेनाएं. इस युद्ध का मकसद था भारत में मसालों के कारोबार पर कब्ज़ा करना.
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हम बात कर रहे हैं, दीव के युद्ध(The Battle of Diu) की. ये युद्ध लड़ा गया था आज ही के रोज़. यानी 3 फरवरी को. साल था 1509. जिसमें एक तरफ था पुर्तगाल और दूसरी तरफ, ओटोमन, वेनिस, मामलुक, गुजरात और कालीकट की संयुक्त सेनाएं थीं. क्यों लड़ा गया ये युद्ध? युद्ध का परिणाम क्या हुआ? और क्यों इस युद्ध को इतिहास के 6 सबसे महत्वपूर्ण युद्धों में गिना जाता है? ये कहानी शुरू होती है वास्को डी गामा के भारत आगमन से. वास्को डी गामा(Vasco da Gama) की यात्रा से पुर्तगाल को एक बड़ा फायदा हुआ. उन्हें भारत से व्यापार का एक सीधा रास्ता मिल गया. भारत से उन्हें क्या चाहिए था- मसाले.
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मसालों के कारोबार में 20 गुना मुनाफा
10 वीं शताब्दी से 16 वीं शताब्दी तक भारत से यूरोप तक मसाले पहुंचाने का एक ही रास्ता था. फारस की खाड़ी और लाल सागर से होते हुए यमन तक, वहां से मिश्र और आगे यूरोप तक. इस पूरे रास्ते पर इस्लामिक शासकों का कंट्रोल था. और उन्हें इस व्यापार में खूब मुनाफा होता था. उदाहरण के लिए, कालीकट से मसाले ख़रीदे जाते थे- 4.64 डकेट में. डकेट यानी सोने के सिक्के जो तब पूरे यूरोप में मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे. इनकी शुरुआत इटली के एक राज्य वेनिस से हुई थी. वेनिस तब अपने आप में एक शक्तिशाली साम्राज्य हुआ करता था. और उनका मसालों के इस व्यापार में एक बड़ा हिस्सा था.
4.64 डकेट में ख़रीदे गए मसाले मिस्त्र ले जाकर 25 डकेट में बेचे जाते. वेनिस जाते-जाते इनकी कीमत हो जाती थी 56 डकेट. और जब तक ये पुर्तगाल पहुंचते, इन्हें 80 डकेट में खरीदा जाता. यानी भारत से पुर्तगाल पहुंचते- पहुंचते मसालों की कीमत 20 गुना हो जाती थी. ये सौदा पुर्तगाल को काफी महंगा पड़ता था. इसलिए 1498 में जब वास्को डी गामा ने भारत तक समुद्री रास्ता ढूंढ लिया तो पुर्तगाल को व्यापार का सीधा रास्ता मिल गया. साल 1500 में पुर्तगाल ने अपना एक जहाजी बेड़ा भारत भेजा, ताकि यहां कालीकट के जामोरिन(Zamorin of Calicut) से व्यापार संधि की जा सकी. लेकिन इस संधि से पहले से चले आ रहे व्यापार को खतरा हो सकता था. इसलिए जामोरिन ने संधि से इंकार तो किया ही, साथ ही पुर्तगाली बेड़े पर हमला कर उसे तहस नहस कर दिया. इसके बाद पुर्तगालियों ने जामोरिन के दुश्मन कोचीन से हाथ मिलाया और इस तरह कोचीन में पुर्तगाल की पहली फैक्ट्री तैयार हुई. पुर्तगाल ने कम दामों में मसालों को यूरोप भेजना शुरू कर दिया. जिससे दक्षिण भारत में व्यापार की नई लड़ाई शुरू हो गई.
अब तक इस ट्रेड में गुजरात के सुल्तान, जमोरिन और जैसा कि पहले बताया था वेनिस राज्य का एकाधिकार था. अब पुर्तगाली इसमें सेंध लगाने लगे थे. ये देखकर गुजरात कालीकट और वेनिस ने मिस्र से मदद मांगी. क्यूंकि मिश्र ही इस व्यापार का मुख्य केंद्र हुआ करता था. मिश्र पर तब मामलुक सुल्तान अल अशरफ कंसूह अल गौरी का शासन था. उनके लिए भारत से मसालों का व्यापार ही उनकी आय का मुख्य सोर्स हुआ करता था. इसलिए जैसे ही उन्हें ये खबर लगी, उनके कानों में घंटियां बजने लगीं. मामलुक काफी ताकतवर राजवंश था. उनकी घुड़सवार सेना तब दुनिया में सबसे ताकतवर मानी जाती थी. लेकिन पानी पर वो काफी कमजोर थे.
इसलिए जब भी उनके जहाज भारत से लाला सागर की तरफ मसाले लेकर जाते, पुर्तगाली उन पर हमला कर देते. इस चक्कर में जामोरिन समेत तमाम साझेदारों को काफी नुकसान होने लगा था. अंत में साल 1505 में पुर्तगालियों से निपटने के लिए मामलुक सुल्तान ने अपना एक जंगी बेड़ा भारत की ओर रवाना किया. इस काम में उन्हें वेनिस से भी मदद मिली.
15 सितम्बर 1505 को ये जंगी बेड़ा भारत के लिए रवाना हुआ. इस बेड़े में मामलुक, तुर्की, वेनेशियाई और ग्रीक योद्धाओं को मिलाकर कुल 1100 सैनिक थे. और इस बेड़े को कमांड कर रहे थे, एडमिरल हुसैन अल कुर्दी. ये बेड़ा दो साल के लम्बे इंतज़ार के बाद 1507 में भारत पहुंचा.
पुर्तगाली वाइसरॉय का बदला
यहां आकर हुसैन अल कुर्दी ने गुजरात के मुज़फ़्फ़रीद सुल्तान महमूद बेगड़ा से मुलाकात की. उन्होंने अल कुर्दी को दीव भेज दिया. दीव के गवर्नर का नाम था, मालिक अय्याज़. मलिक अय्याज़ एक गुलाम था, जिसने तरक्की करते हुए दीव के गवर्नर का पद हासिल किया और इसे व्यापार का एक बड़ा बंदरगाह बना दिया. अल कुर्दी ने मलिक अय्याज़ से मुलाकात कर उसे पुर्तगालियों के साथ युद्ध में शामिल होने के लिए मनाया. हालांकि मलिक अय्याज़ पुर्तगालियों से बेवजह पंगा नहीं लेना चाहता था, लेकिन दीव तब गुजरात सल्तनत के अधीन था. इसलिए उसे आधे अधूरे मन से हुसैन अल कुर्दी की बात माननी पड़ी.
मार्च 1508 में गुजरात और मामलुक जंगी बेड़े ने मिलकर पुर्तगालियों पर हमला बोल दिया. महाराष्ट्र में चौल के तट के पास ये लड़ाई हुई. जिसमें मामलुक बेड़े ने पुर्तगाल के एक बड़े जहाज को डुबा दिया. लेकिन साथ ही उन्हें भी काफी नुकसान हुआ और उन्हें वापस दीव की ओर लौटना पड़ा. इस युद्ध में पुर्तगाल को कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं हुआ था. लेकिन फिर एक शख्स की मौत ने इस लड़ाई को व्यापारिक लड़ाई से व्यक्तिगत लड़ाई में बदल दिया. चौल के युद्ध में जिस शख्स की मौत हुई थी, उसका नाम था, लोरेंको डी अल्मेडा. ये कौन था? लोरेंको डी अल्मेडा भारत में पुर्तगाल के वाइसरॉय डॉम फ्रांसिस्को डी अल्मेडा(Dom Francisco de Almeida) का बेटा था. वाइसरॉय अपने बेटे की मौत से बौखला गया. उसने बदले की प्रतिज्ञा लेते हुए ऐलान किया,
“जिसने मुर्गी के चूजे को खाया है, उसे मुर्गी को भी खाना होगा, या फिर उसका दाम चुकाना होगा”
व्यापार पर कब्ज़े के लिए शुरु हुई लड़ाई अब बदले की लड़ाई में बदल चुकी थी. इस बीच पुर्तगाल ने फ्रांसिस्को डी अल्मेडा को वापस बुलाने की भी कोशिश की. और अपना एक नया वाइसरॉय भारत भेजा लेकिन फ्रांसिस्को ने अपना पद छोड़ने से इंकार कर दिया. वो किसी भी हालत में अपने बेटे की मौत का बदला लेना चाहता था. कैसे लिया गया बदला? अब ये सुनिए. 9 दिसंबर 1508 के रोज़ फ्रांसिस्को ने एक जंगी बेड़ा तैयार कर दीव की ओर रवाना किया. दीव पहुंचने से पहले उन्होंने कोंकण में दाभोल बंदरगाह पर हमला किया. दाभोल तब बीजापुर सल्तनत के कंट्रोल में हुआ करता था. इसके बावजूद कोई परवाह न करते हुए फ्रांसिस्को ने इस बंदरगाह को नेस्तोनाबूत कर डाला.
ये हमला इतना भीषण था कि बंदरगाह के लोग ही नहीं सारे कुत्ते भी मार डाले गए. इसके बाद फ्रांसिस्को ने चौल और माहिम के बंदरगाह पर हमला किया. यहां भी वो ही हश्र हुआ जैसा दाभोल का हुआ था. जब इस मारकाट की खबर दीव के गवर्नर मालिक अय्याज़ तक पहुंची, उसने फ्रांसिस्को का गुस्सा शांत करने के लिए उसे एक माफी पत्र लिखा. इसके जवाब में फ्रांसिस्को ने लिखा,
“मैं, वाइसरॉय, तुम्हें, यानी मालिक अय्याज़ को वादा करता हूं कि अपने लड़ाकों के साथ तुम्हारे शहर में घुसूंगा और जिन लोगों ने मेरे बेटे के हत्या की है. और जिन्होंने इस काम में मदद की है, उन सभी से इस मौत का बदला लूंगा. अगर मैं ऐसा नहीं कर पाया तो तुम्हें और तुम्हारे शहर को पूरी तरह बर्बाद कर दूंगा”
दीव की जंग
मालिक अय्याज़ के लिए बड़ी पशोपेश की स्थिति थी. अगर वो हुसैन अल कुर्दी का साथ देता तो पुर्तगाली उसे न छोड़ते और अगर वो हुसैन का साथ न देता तो उसे गुजरात के सुल्तान के गुस्से का सामना करना पड़ता. यही हालत हुसैनअल कुर्दी की थी. वो खाली हाथ मिश्र नहीं लौट सकता था. अंत में दोनों ने फैसला किया कि वो मिलकर पुर्तगाली हमले का सामना करेंगे. दोनों ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी. जंगी बेड़े को मजबूती देने के लिए कालीकट से करीब 150 जंगी जहाज मंगवाए गए. 2 फरवरी 1509 को पुर्तगाली बेड़ा दीव पहुंचा. दीव की तरफ से कमान संभाल रखी थी मामलुक एडमिरल हुसैन अल कुर्दी ने. नक्शा देखेंगे तो आपको दीव और मुख्य भूभाग के बीच एक वॉटर चैनल दिखेगा. कुर्दी को लगा अगर वो अपने जहाजों को इस चैनल में डिफेंसिव फार्मेशन में तैनात कर दे तो पुर्तगालियों का बेहतर सामना कर पाएंगे. ये उनके लिए एक बड़ी गलती साबित हुई.
सुबह 11 बजे लड़ाई शुरू हुई. पुर्तगाली बेड़े की तरफ से कुर्दी के जहाजों पर गोले दागे गए. हुसैन अल कुर्दी के मुख्य जहाज को काफी नुकसान पहुंचा. जैसा कि पहले बताया कुर्दी ने अपने कुछ छोटे जहाजों को दीव और मेनलैंड के बीच चैनल में तैनात कर रखा था, ताकि वक्त आने पर वो पुर्तगालियों पर पीछे से हमला कर दिया. लेकिन पुर्तगालियों ने इस रणनीति को भांपते हुए चैनल का मुहाना ही बंद कर दिया. जिसके चलते अब ये जहाज पुर्तगाली आर्टिलरी की एकदम सीध में आ गए. दिन के अंत तक मामलुक जंगी बेड़ा पूरी तरह तबाह हो गया. हुसैन अल कुर्दी ने जान बचाने के लिए भागने में ही भलाई समझी. उनके जो सैनिक पकड़े गए उन्हें फ्रांसिस्को डी अल्मेडा ने बेरहमी से मार डाला. कई जिन्दा जला दिए गए, वहीं कई को तोप के मुहाने पर लगा कर उड़ा दिया गया.
दीव की जीत के बाद फ्रांसिस्को डी अल्मेडा ने नए वाइसरॉय को जिम्मेदारी सौंप दी और खुद पुर्तगाल की ओर लौट गया. हालांकि वहां पहुंचने से पहले ही उसकी भी हत्या हो गई. जाते-जाते फ्रांसिस्को ने पुर्तगाल के राजा को एक खत लिखते हुए चेतावनी दी
”जब तक तुम समंदर में ताकतवर हो, भारत तुम्हारा है, लेकिन अगर ये ताकत कमजोर हुई तो जमीन पर मजबूत से मजबूत किला भी तुम्हें नहीं बचा सकता”
फ्रांसिस्को डी अल्मेडा की ये बात भविष्यवाणी साबित हुई. पुर्तगालियों ने अगली एक सदी तक भारत के तटीय व्यापार पर कंट्रोल बनाया रखा, और भारत पर यूरोपीय शासन की शुरुआत हो गयी. चूंकि दीव का युद्ध भारत में यूरोपीय शासन की नींव रखने के लिए निर्णायक साबित हुआ था, इसलिए विलियम वेयर ने अपनी किताब 50 Battles That Changed the World, में इस लड़ाई को छठे स्थान पर रखा. वेयर लिखते हैं
”15 वीं सदी तक ऐसा लग रहा था कि इस्लामिक ताकतें दुनिया पर अपना वर्चस्व जमा लेंगी लेकिन दीव की हार ने इस संभावना को ख़त्म कर दिया”.
दीव की हार के कुछ सालों बाद मामलुक वंश भी ख़त्म हो गया. 1517 में ओटोमन साम्राज्य के साथ युद्ध में हार के साथ ही उनके साम्राज्य का अंत हो गया. इसके बाद ओटोमन साम्राज्य और पुर्तगालियों के बीच लड़ाई का एक नया दौर शुरू हुआ.
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