एक पुरानी कहानी है. सिकंदर को दुनिया जीतनी थी. उसकी सेनाओं से तमाम देशों को घुटने पर ला दिया लेकिन जब वो अफ़ग़ानिस्तान पहुंचा, उसे मुंह की खानी पड़ी. सिकंदर की सेनाओं ने तीन साल तक अफ़ग़ानिस्तान में डेरा जमाए रखा. इसके बाद भी नतीजा सिफर था. एक रोज़ सिकंदर के पास एक चिट्ठी आई. उसकी मां ने इस चिट्ठी में उसे कुरेदते हुए पूछा था,
जब इंदिरा ने पाक राष्ट्रपति की बोलती बंद की!
सोवियत अफ़ग़ान युद्ध के दौरान भारत ने पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था. लेकिन जिया उल हक़ ने उसे ठुकरा दिया.
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“तुम कैसे योद्धा हो, इतनी छोटी से जमीन जीतने में तुम्हें इतना वक्त लग रहा है?”
सिकंदर ने खत का जवाब नहीं दिया. बस अफ़ग़निस्तान के तीन इलाकों की मिट्टी लेकर अपनी मां के पास भिजवा दी. साथ में लिखा , इसे बगीचे में डाल देना. सिकंदर की मां ने ऐसा ही किया. अगले रोज़ उस शहर में लड़ाई शुरू हो गयी. लोक एकदूसरे की जान के प्यासे हो गए. सिकंदर की मां को उसके सवाल का जवाब मिल चुका था. इस किस्से से आप समझ गए होंगे कि क्यों अफ़ग़ानिस्तान को ‘साम्राज्यों की कब्रगाह’ कहा जाता है. इतिहास बार बार इसकी मिसाल पेश करता रहा है. लेकिन हर नए आक्रांता को लगता है कि वो इस इतिहास को बदल देगा. साल 1979 में सोवियत संघ को ये मुगालता हुआ. और उसने दूसरे के फटे में टांग अड़ा दी. हालांकि हश्र उनका भी यही हुआ. 10 साल तक अग़निस्तान में अपनी भद्द पिटवाने सोवियत संघ की सेनाओं को अफ़ग़ानिस्तान से लौटना पड़ा(Soviet–Afghan War).
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15 फरवरी 1989 के दिन सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान ने आधिकारिक तौर पर इस युद्ध के खात्मे की घोषणा की(Soviet–Afghan War 24 Dec 1979 – 15 Feb 1989). सोवियत अफ़ग़ान युद्ध ने पूरी दुनिया पर बड़ा असर डाला. इस युद्ध दे सोवियत संघ के विघटन की नींव पड़ी. पाकिस्तान को भी बहुत फायदा हुआ. सोवियत सेना से लड़ने के नाम पर उसने अमेरिका हथियारों और डॉलर की खूब उगाही की. भारत एकदम पड़ोस में था, लिहाजा असर हम पर भी हुआ. इस युद्ध में भारत का क्या रोल था? साथ ही जानेंगे वो किस्सा जब अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत ने पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाया.
सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान में घुसा क्यों?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें 1973 से शुरुआत करनी होगी. अफ़ग़ानिस्तान पर तब राजा ज़हीर शाह का राज़ था. ज़हीर शाह पिछले 40 सालों से अफ़ग़ानिस्तान पर राज़ कर रहे थे. फिर एक रोज़ उनका तख्तापलट हो गया. तख्तापलट करने वाला उनका अपना ही भतीजा था. नाम मोहम्मद दाऊद ख़ान(Mohammad Daud Khan). दाऊद खान सेना में जनरल रह चुके थे. और इससे पहले अफ़ग़ानिस्तान के प्रधानमंत्री भी. इस दौर में सोवियत संघ को अफ़ग़ानिस्तान में अच्छे ताल्लुकात थे. एशिया में अफ़ग़ानिस्तान का महत्व देखते हुए, सोवियत संघ की तरफ से अफ़ग़निस्तान में अच्छा ख़ासा निवेश हुआ था. वहीं अफ़ग़ान आर्मी को ट्रेनिंग भी सोवियत संघ में मिलती थी.
सोवियत संघ का मोहम्मद दाऊद ख़ान पर ख़ासा असर था. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान को गणतंत्र बनाने की ठानी, और साल 1973 में राजा ज़हीर शाह को सत्ता से हटा दिया. दाऊद खान देश के पहले राष्ट्रपति बने. अपनी इस मुहीम में उन्हें सोवियत संघ का खूब समर्थन मिला. लेकिन सत्ता में आते ही दाऊद खान ने अमेरिका की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया. ये बात सोवियत संघ को एकदम नागवार थी. अफ़ग़ानिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी का एक गुट भी इस बात से हरगिज़ खुश नहीं था. इस गुट का नाम था, खल्क गुट, और इसके नेता थे, नूर मोहम्मद तराक़ी. अप्रैल 1978 में तराकी ने दाऊद खान को सत्ता से हटाने के लिए एक षड्यंत्र रचा. दाऊद खान के महल पर हमला कर परिवार समेत उनकी हत्या कर दी गयी. और नूर मोहम्मद तराक़ी खुद प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठ गए. तैराकी को सोवियत संघ का फुल सपोर्ट था. लेकिन आम लोग उनके खिलाफ हो गए थे. 6 महीने सत्ता में रहने के बाद तराकी का भी हश्र दाऊद खान जैसा हुआ. अक्टूबर 1978 में उनके अपने ही डिप्टी पीएम हफ़ीज़ुल्लाह अमीन(Hafizullah Amin) ने उनकी हत्या करवा दी.

ये हत्या सोवियत संघ के लिए एक बड़ा झटका थी. लियोनिड ब्रेझनेव(Leonid Brezhnev) तब सोवियत राष्ट्रपति हुआ करते थे. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य दखल की ठान ली. रेड आर्मी ने अपनी तैयारियां शुरू कर दीं. फिर आया 24 दिसंबर, 1979 का दिन. ऑपरेशन को हरी झंडी मिल गई. आधी रात में सोवियत संघ के 280 मिलिट्री एयरक्राफ़्ट काबुल में उतरे. तकरीबन 25,000 सैनिकों को एयरलिफ़्ट कर काबुल में उतारा गया. सोवियत आर्मी को बहुत कम विरोध झेलना पड़ा. काबुल बहुत आसानी से उनके कब्ज़े में आ गया. 27 दिसंबर को स्पेशल दस्ते ने प्रधानमंत्री हफ़ीज़ुल्लाह अमीन को मार दिया. सोवियत संघ ने बाबराक कमाल को सत्ता सौंपी. बतौर कठपुतली सरकार. सब आदेश मॉस्को से आते थे. एकमात्र ‘हां’ के ऑप्शन के साथ. सोवियत सेनाएं तुरंत वापस लौटने के मूड में नहीं थी. उनका इरादा था, काबुल से बाहर सुदूर गांवों तक में कम्युनिस्ट सरकार को स्थापित करना.
पाकिस्तान को हुआ फायदा
अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ की एंट्री का पूरी दुनिया में भरपूर विरोध हुआ. अमेरिका ने अपने सहयोगी देशों की गोलबंदी की और सोवियत संघ के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया. उसने पीछे के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान के कबीलाई लड़ाकों को मदद पहुंचानी शुरू की. इस सब का सबसे बड़ा फायदा मिला पाकिस्तान को. जिया उल हक़ तब तक पाकिस्तान के तानाशाह बन चुके थे. उन्होंने ISI की मदद से अफ़ग़ान लड़ाकों को ट्रेनिंग देनी शुरू की. चूंकि ये लड़ाई सोवियत संघ के खिलाफ हो रही थी, इसलिए इस काम में उन्हें अमेरिका से भरपूर मदद मिली. अमेरिका ने पाकिस्तान को हथियार और डॉलर देना शुरू किया. भारत के लिए कितनी बड़ी खतरे की घंटी थी, ये इस बात से समझ सकते हैं कि इस्लामाबाद में पाकिस्तानी जनरल कहा करते थे,
“अल्लाह ने हमसे बांग्लादेश ले लिया लेकिन बदले में रूसियों को अफ़ग़ानिस्तान भेज दिया”.
सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध पर भारत का क्या रवैया था, ये जानने के लिए एक किस्सा पढ़िये. जो भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और तब मास्को में भारत के राजदूत रहे इंदर कुमार गुजराल(Inder Kumar Gujral) ने बताया था. गुजराल बताते हैं कि जिस दिन सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान में इंटर हुई, वो मास्को में ही थे. उन्होंने कई सोवियत अधिकारियों से इस बाबत पूछा तो उन्हें हैरानी हुई कि किसी को इस बात की खबर ही नहीं थी. यहां तक कि सरकार में काफी ऊंचे ओहदे पर बैठे, और बाद में सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने, मिखाइल गोर्बाचेव को भी इसकी जानकारी नहीं थी. गुजराल बताते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में दखल का प्लान जल्दीबाज़ी में लिया गया था. और इस मामले में वो CIA के जाल में फंस गए थे.

CIA चाहती थी कि सोवियत संघ का अफ़ग़ानिस्तान में वही हश्र हो जो अमेरिका का वियतनाम और ईरान में हुआ था. इधर जिस रोज़ सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान में घुसी, भारत में लोकसभा चुनाव चल रहे थे. सत्ता अभी चौधरी चरण सिंह के हाथ में थी. अमेरिका सोवियत संघ के खिलाफ UN पहुंच चुका था. इस दौरान हुई वोटिंग में भारत ने सोवियत संघ के खिलाफ वोटिंग की. लेकिन जैसे ही चुनाव पूरे हुए भारत में माहौल बदल गया. इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) की सत्ता में वापसी हो चुकी थी. तुरंत सोवियत विदेश मंत्री आंद्रे ग्रोमिको भारत पहुंचे और उन्होंने इंदिरा से मुलाक़ात की.
सोवियत संघ से नाराज थीं इंदिरा
गुजराल लिखते हैं कि इस मीटिंग में वे और नरसिम्हा राव भी मौजूद थे. मीटिंग में क्या हुआ? ग्रोमिको लगातार इंदिरा को समझाने की कोशिश कर रहे थे. इस पूरी मीटिंग के दौरान इंदिरा ने कुछ नहीं कहा. अंत में ग्रोमिको ने इंदिरा से पूछा, क्या वो सोवियत संघ की स्थिति से इत्तेफाक रखती हैं. इंदिरा ने दो टूक जवाब दिया, नहीं. इस जवाब ने ग्रोमिको को हक्का बक्का कर दिया. क्योंकि भारत और सोवियत संघ के रिश्ते काफी मजबूत थे और इस मामले में उन्हें भारत के समर्थन की जरुरत थी. वहीं भारत को पता था कि ये युद्ध आगे जाकर उसके लिए एक बड़ी मुसीबत का सबब बनेगा. पाकिस्तान को इस युद्ध के नतीजे में अमेरिका से हथियार मिल रहे थे. वहीं सउदी अरब जैसे देशों से भी उसे लगातार सहयोग मिल रहा था. पाकिस्तान की जियोपॉलिटिकल स्थिति अचानक बहुत मजबूत हो गई थी. इसलिए इंदिरा सोवियत संघ के इस कदम से खासी नाराज़ थीं.
इसके बाद सोवियत संघ ने भारत को मानाने की एक और कोशिश की. पहली मीटिंग फेल रहने के बाद अगली सुबह ग्रोमिको एक और बार इंदिरा से मिलने पहुंचे. इस बार वो अपने साथ सोवियत राष्ट्रपति लियोनिड ब्रेझनेव का एक खास सन्देश भी लेकर आए थे. क्या था इस सन्देश में? सोवियत संघ ने पेशकश रखी कि वो भारत को 13 साल की क्रेडिट लाइन देगा. इसका मतलब था कि सोवियत संघ भारत को जो हथियार बेचता था, भारत उसकी कीमत अब 13 साल में अदा कर सकता था. इससे पहले ये टाइम लिमिट 10 सालों की हुआ करती थी. भारत कबसे इस कोशिश में लगा था कि क्रेडिट लिमिट 20 सालों तक बढ़ाई जाए, लेकिन हर बार सोवियत संघ की तरफ से ये कहकर इंकार कर दिया जाता कि ऐसी रियायतें कम्युनिस्ट देशों को भी नहीं मिलती.
बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान मुद्दे पर भारत के महत्व को देखते हुए, 1980 में सोवियत संघ ने क्रेडिट लिमिट 13 साल करने की पेशकश की. लेकिन इंदिरा इस बार भी राजी न हुई. और सोवियत डेलिगेशन को खाली हाथ लौटना पड़ा. अंत में सोवियत संघ को 17 साल की क्रेडिट लिमिट भारत को देनी पड़ी. बदले में भारत ने इस युद्ध में सोवियत संघ का समर्थन किया और UN में उनके खिलाफ होने वाली किसी भी वोटिंग से खुद को दूर रखा. इस दौरान अमेरिका की तरफ से भी भारत को रिझाने की बहुत कोशिश हुई. लेकिन भारत अपने रुख में अड़ा रहा. इसी जंग से जुड़ा और किस्सा है जो भारत और पाकिस्तान के दरम्यान हुआ था. साल 2017 में CIA द्वारा डीक्लसिफाय किए गए कुछ दस्तावेज़ों से पता चला कि अफ़ग़ानिस्तान के हालात देखते हुए भारत की तरफ से पाकिस्तान की तरफ हाथ बढ़ाया गया था.

इंदिरा ने जिया की बोलती बंद की
सत्ता में आते ही इंदिरा गांधी ने नरसिम्हा राव को पाकिस्तान भेजा ताकि वो मसले पर जिया उल हक़ से मिलकर बात कर सकें. हालांकि जिया उल हक़(Zia ul Haq) ने तब भारत के ऐसे किसी प्रस्ताव से इंकार कर दिया था. बांग्लादेश युद्ध के दिनों से ही जिया उल हक़, इंदिरा से खौफ खाते थे. बल्कि इंदिरा की मृत्यु के बाद जब राजीव प्रधानमंत्री बने, तो जिया ने कहा था कि वो इंदिरा की बजाय राजीव से बात करना पसंद करेंगे. दरअसल जिया को डर था कि सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध के बहाने भारत पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम को ख़त्म करने की कोशिश कर सकता है.
इस मुद्दे पर अप्रैल 1980 में इंदिरा और जिया की मुलाक़ात हुई. ये मुलाक़ात ज़िम्बाब्वे में हुई थी. इस मुलाकात से जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा है. दरअसल इंदिरा और जिया की मुलाक़ात के पहले जिया के कुछ बयान अखबारों में छपे थे. जिसमें उन्होंने भारत के खिलाफ जमकर ज़हर उगला था. इसलिए जिया को डर था कि इस मीटिंग के दौरान इंदिरा का बर्ताव रूखा रहेगा. इसके बरअक्स, इंदिरा मुस्कुराते हुए जिया से मिलीं और उनकी खूब आवभगत की. जिया बोले,
“मैडम, प्लीज़ अखबारों में लिखी बातों पर भरोसा मत जिया कीजिए”
इस पर इंदिरा ने जवाब दिया,
“हां, आखिरकार ये अखबार आपको एक डेमोक्रेट और मुझे एक तानाशाह बताते हैं”
जिया की बोलती बंद हो चुकी थी.
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