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जब मुंबई के लोग टाइम ट्रेवल करने लगे!

आजादी के आठ साल बाद तक बॉम्बे बाकी भारत से अलग टाइम पर चलता रहा

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19 वीं सदी के दौरान बॉम्बे में तीन टाइम स्टैंडर्ड्स का उपयोग हो रहा था, मद्रास, बॉम्बे और पोर्ट स्टैंडर्ड (तस्वीर: Pexels)

संभव है किसी दिन टाइम मशीन जैसी किसी अफलातूनी चीज का अविष्कार हो. और अपन चलें 19वीं सदी के भारत में. स्पेसिफिक कहें तो बॉम्बे में. तो ऐसा हो कि किसी रोज़ घड़ियाल बजे, नौकरी पर जाना हो और आप पहुंचे ठीक 8 बजे ऑफिस. लेकिन ये क्या, आप देखते हैं कि बाकी लोग 7.21 से आए हुए हैं. और तब ये अंतर महज समय का अंतर न होगा, बल्कि होगा एक तीखा पॉलिटिकल स्टेटमेंट. आप पूछेंगे वो कैसे?

बात दरअसल तब की है जब भारत में एक नहीं तीन-तीन घड़ियां चलती थीं. 1880 के आसपास जब ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप में स्टैंडर्ड टाइम अपनाने की बात हुई तो भारत में भी ये बहस पहुंची. बिरतानिया हुकूमत चाहती थी मद्रास टाइम को स्टैण्डर्ड मान लिया जाए. और बॉम्बे वाले अड़े थे कि उनका समय स्टैण्डर्ड होगा. यानी जो समय बॉम्बे में होगा वही पूरे भारत में होगा. इस लड़ाई का केंद्र बना एक घंटाघर. राजाबाई नाम का ये घंटाघर तब बॉम्बे का एकमात्र घंटाघर था. सो हुआ यूं कि हुकूमत और बॉम्बे महानगरपालिका के बीच लड़ाई छिड़ गई. बॉम्बे महानगरपालिका ने पेशकश रखी कि अगर बॉम्बे का टाइम स्टैण्डर्ड बना तो राजबाई घंटाघर का पूरा लाइट का खर्चा वो उठाएंगे. ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से भी यही पेशकश रखी गयी. अंत में बॉम्बे वाले जीत गए. लेकिन ये सिर्फ पहली बैटल थी. आगे ये लड़ाई और लम्बी चली. इतनी लम्बी की आजादी के बाद आठ साल तक बॉम्बे अपने अलग टाइम पर चलता रहा.

क्या थी ये लड़ाई?
भारत में मानक समय (Indian Standard Time) की शुरुआत कैसे हुई. 
भारत की ऐसी कौन सी जगह है जहां आज भी अपना अलग समय चलता है?
चलिए जानते हैं.

आने वाला पल जाने वाला है 24 सेकेण्ड में 

बात शुरू होती है स्टैंडर्ड यानी मानक से. इसका मतलब है किसी एक स्थिर चीज को तुलना के लिए उपयोग करना. अब समय का क्या स्टैण्डर्ड हो. तो प्राचीन भारत में इस स्टैंडर्ड के लिए सांस का उपयोग किया गया. भारत में चौथी सदी में एक ग्रन्थ मिलता है जिसमें समय को अलग-अलग हिस्सों में बांटा गया है. सूर्य सिद्धांत नाम का ये ग्रन्थ एक प्राइम मेरेडियन की बात करता है.

Soorya Siddhant
सूर्य सिद्धांत (तस्वीर: Wikimedia Commons)

सूर्य सिद्धांत के हिसाब से प्राइम मेरेडियन की ये रेखा अवन्ति (आज का उज्जैन) और रोहतक से होकर गुजरती थी.और इसी समय को मानक समय माना जाता था. इस ग्रन्थ के हिसाब से समय दो प्रकार का है, एक मूर्त और एक अमूर्त. अमूर्त समय की सबसे छोटी यूनिट है, त्रुटि. और मापे जा सकने वाले या मूर्त समय की सबसे छोटी यूनिट है प्राण. प्राण यानी सांस के आने-जाने में जितना समय लगता है. इसके बाद आता है पल, जिसमें 6 प्राण होते हैं. इसके बाद घटिका होती है, जिसमें 60 पल होते हैं. और 60 घटिका मिलाकर एक दिन बनाती हैं. मॉर्डन समय से तुलना करें तो एक पल 24 सेकेण्ड का होता है और एक घटिका 24 मिनट की.

आधुनिक भारत की बात करें तो 16 वीं शताब्दी के अंत तक समय सूर्योदय और सूर्यास्त के हिसाब से चलता था. अलग-अलग राज्य अपने हिसाब से समय का सिस्टम चलाते थे. ब्रिटिश आए तो और अपना सिस्टम लेकर आए. और उन्होंने शुरुआत की मद्रास टाइम की. मद्रास टाइम कैसे शुरू हुआ, पहले ये समझिए.

मद्रास टाइम की शुरुआत 

लन्दन के दक्षिण पूर्व में एक शहर है ग्रीनविच. थेम्स नदी के किनारे. 1500 के आसपास तक ब्रिटिश राजमहल यहीं हुआ करता था. इसके आलावा थेम्स नदी के किनारे बेस होने के कारण ये ट्रेड का सेंटर भी हुआ करता था. ट्रेड समुद्री रास्तों से होता था, इसलिए 1665 में चार्ल्स तृतीय ने यहां शाही ऑब्जर्वेटरी बनवाई. ताकि समुद्री यात्रा में मदद मिल सके. ऑब्जर्वेटरी के अहाते में तांबे से एक रेखा बनाई गयी. जिसके एक तरफ दुनिया का पूर्वी आधा भाग था और दूसरी तरफ पश्चिमी आधा भाग.

Madras Observatory
मद्रास ऑब्जर्वेटरी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

कुल मिलाकर करें तो ग्रीनविच से गुजरने वाली इस रेखा को ज़ीरो डिग्री देशांतर रेखा मान लिया गया. इस रेखा के ऊपर जब सूरज आता तो उसे दिन के 12 बजे का समय माना जाता. धीरे-धीरे ये ब्रिटेन का स्टैण्डर्ड टाइम हो गया और जहां-जहां ब्रिटिश कॉलोनियां थीं, वो भी इसी समय के अनुसार चलने लगी. 1796 में ब्रिटिशर्स ने मद्रास में एक ऑब्जर्वेटरी बनाई. और एक ब्रिटिश एस्ट्रोनॉमर जॉन गोलडिंग्हम को उसका जिम्मा सौंपा. गोलडिंग्हम ने गणना कर बताया कि मद्रास से पास होने वाली देशान्तर रेखा का मान, ग्रीनविच रेखा से 5 घंटे 21 मिनट और 14 सेकेण्ड आगे होगा. यही समय कहलाया मद्रास टाइम. अब आगे की कहानी सुनिए, 

16 अप्रैल 1853 को भारत में बोरी बन्दर और थाने के बीच पहली रेल चली. और धीरे-धीरे रेल नेटवर्क कलकत्ता, लाहौर और मद्रास तक फ़ैल गया. अब टाइम टेबल को लेकर दिक्कत होने लगी. क्योंकि हर जगह टाइम अलग था. इसलिए 1870 में मद्रास टाइम को रेलवे का स्टैण्डर्ड टाइम बना दिया गया. इसका एक कारण ये भी था कि मद्रास की देशांतर रेखा बॉम्बे और कोलकाता, जो दो महत्वपूर्ण पोर्ट्स थे, उनके बीच से गुजरती थी. यहां ऑब्जर्वेटरी भी थी. जहां से टेलीग्राफ भेजकर हर जगह का टाइम मिलाया जा सकता था.

बॉम्बे में टाइम ट्रेवल 

धीरे-धीरे मसला उठा कि रेलवे की ही तरह पूरे भारत के लिए एक स्टैंडर्ड टाइम बनाया जाए. ब्रिटिश हुकूमत ने कोशिश की कि मद्रास टाइम को ही स्टैण्डर्ड टाइम बना दिया जाए. लेकिन इसी बात पर बॉम्बे वाले अड़ गए. बॉम्बे का टाइम मद्रास से 30 मिनट पीछे था. और वो मद्रास टाइम के हिसाब से चलने के लिए हरगिज तैयार नहीं थे. इसी बात पर ब्रिटिश हुकूमत और बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन में ठन गई. 1883 तक रेलवे और बाकी सरकारी ऑफिस मद्रास टाइम अपना चुके थे. लेकिन बॉम्बे यूनिवर्सिटी और हाई कोर्ट में बॉम्बे टाइम ही चल रहा था. मतलब इस वक्त आप बॉम्बे में होते तो आपको लगता टाइम ट्रेवल कर रहे हो. आप नौ बजे कहीं जाओ और पता चले कि वहां 8:21 हो रहा है.

Feroz shah Mehta
कांग्रेस के संस्थापकों में से एक फ़िरोज़शाह मेहता (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

1884 में अमेरिका में इंटरनेशनल मेरिडियन कांफ्रेंस हुई. जिसमें तय हुआ कि ग्रीनविच टाइम को ही आधिकारिक मानक समय माना जाएगा. यानी पूरी दुनिया में टाइम GMT के हिसाब से ही तय होगा. ब्रिटिशर्स ने तय कि अलाहबाद से गुजरने वाली देशांतर रेखा को स्टैण्डर्ड टाइम माना जाएगा. यानी GMT से 5 घंटा तीस मिनट आगे. लेकिन इस बार भी बॉम्बे वाले तैयार नहीं हुए. यही हाल कलकत्ता का भी था. वो भी एक मेजर पोर्ट था. और वहां भी लोग अपना समय छोड़ने को तैयार नहीं थे. मजबूरी में 1884 में ब्रिटिश सरकार को दो और स्टैण्डर्ड टाइम बनाने पड़े. कलकत्ता स्टैंडर्ड टाइम और बॉम्बे स्टैंड्रड टाइम.

फिर 1905 का साल आया. बंगाल का विभाजन हुआ. इसी साल लॉर्ड कर्जन ने एक बार दुबारा स्टैण्डर्ड टाइम बनाने की कोशिश की. 1 जनवरी 1906 को भारत में पहली बार इंडियन स्टैण्डर्ड टाइम (IST) की शुरुआत हुई. लेकिन बॉम्बे वाले अब भी हार मानने को तैयार नहीं थे. फ़िरोज़शाह मेहता नाम के एक वकील हुआ करता थे. जिनका रुतबा ऐसा था कि अंग्रेज़ अधिकारी भी उन्हें ‘फेरोशियस मेहता’ कहकर बुलाते थे. फ़िरोज़शाह महता की एक पहचान ये भी है कि वो कांग्रेस के फ़ाउंडिंग मेंबर थे और मुंबई महनगरपालिका के प्रेजिडेंट भी थे.

आजादी के आठ साल बाद तक बॉम्बे अलग समय से चलता रहा 

1906 में जब सरकार ने इंडियन स्टैंडर्ड टाइम की घोषण की तो उन्होंने नगरपालिका का काम रुकवा दिया. लोग विरोध दर्ज़ करने के लिए देर से समय पर जाते. यानी उस समय पर जो बॉम्बे स्टैण्डर्ड टाइम के हिसाब से तय था. उस दौर में देर से आने का मतलब था एक राजनैतिक प्रतिरोध. अंत में सरकार को झुकना पड़ा. और बॉम्बे में अनाधिकारिक तौर पर बॉम्बे टाइम ही चलता रहा.

लाइव हिस्ट्री इंडिया नाम की एक वेबसाइट में. इसमें कैरल लोबो ने बॉम्बे में तब के हालत पर एक बड़ा रोचक लेख लिखा है. लोबो लिखते हैं,

“उस दौर में अखबारों में जो टाइम टेबल छपता था, वो भी दो तरह का होता था. एक में BT यानी बॉम्बे टाइम लिखा होता तो दूसरे में ST यानी स्टैंडर्ड टाइम. विक्टोरिया टर्मिनस की घड़ी में स्टैंडर्ड टाइम दिखाई देता, और वहीं ठीक सामने नगरपालिका की बिल्डिंग में लगी घड़ी बॉम्बे टाइम दिखा रही होती.”

राजनैतिक के साथ-साथ इस विरोध का एक आर्थिक पहलू भी था. बॉम्बे के ट्रेडर, ब्रोकर और बैंकर इंडियन स्टैण्डर्ड के खिलाफ थे. बॉम्बे टाइम फॉलो करने से उन्हें ये फायदा होता कि उनके ऑफिस यूरोप के मुकाबले आधे घंटे देर तक खुले रहते. इस तरह वो आधे घंटे अधिक की ट्रेडिंग आदि कर सकते थे. वहीं फैक्ट्री में काम करने वालों को दिक्कत थी कि IST आने से उन्हें आधा घंटा पहले ऑफिस आना होता. इसी के चलते वो भी विरोध पर उतारू थे. उस दौर में विरोध करने के लिए लोग सरकारी बिल्डिंग्स की घड़ियां बदला देते थे. रोज़ सुबह सरकारी ऑफिसों की घड़ियों को IST के हिसाब से सेट किया जाता और शाम तक वो बॉम्बे टाइम दिखाने लगतीं. ये रोज़ का प्रोग्राम था.

Royal Observatory
ग्रीनविच रॉयल ऑब्जर्वेटरी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

कुछ इसी तरह का हाल बंगाल का भी था. वहां IST को बंगाल विभाजन से जोड़कर देखा जाने लगा. इसलिए जब स्वदेशी आंदोलन ने जोर पकड़ा तो लोगों ने IST को भी विदेशी कहकर ठुकरा दिया. ये हालत 1947 तक बने रहे. आजादी के बाद आज ही दिन यानी 1 सितम्बर 1947 को भारत सरकार ने घोषणा की कि IST ही पूरे भारत का एक समय होगा. हालांकि कलकत्ता में एक साल बाद तक कलकत्ता टाइम चलता रहा. वहीं बंबई ने घड़ी की सुइयां बदलने में पूरे आठ साल का समय लगाया. 1955 में जाकर बॉम्बे में IST अपनाया गया. अब भारत में समय को लेकर कुछ और तथ्य सुनिए. 

वो जगह जहां बाकी भारत से समय अलग चलता है 

भारत में पूर्व और पश्चिम के राज्यों में लगभग 2 घंटे का अंतर है. यानी जहां गुजरात में 4 बजे उजाला होगा तो असम में सूरज ढल चुका होगा. इसके चलते खासकर जाड़ों में पूर्व के राज्यों का काम के लिए कम समय मिल पाता है. और इसी वजह से पूर्वोत्तर के राज्यों की तरफ से ये मांग उठाई जाती है कि उनके लिए एक अलग स्टैंडर्ड बनाया जाए. हालांकि पूर्वोत्तर में एक जगह है जहां एक अलग स्टैण्डर्ड अपनाया जाता है. ये हैं असम के चाय बागान. यहां रौशनी की दिक्कत के चलते घड़ी को एक घंटा आगे करके रखा जाता है. ताकि मजदूरों का ज्यादा समय मिल सके.

अब एक आख़िरी चीज और जान लेते हैं. दुनिया के लगभग 70 देश डे लाइट सेविंग का यूज़ करते हैं. मने गर्मियों में घड़ियों को सुईयों को एक घंटा आगे खिसका दिया जाता है और जाड़ों में दुबारा पीछे. हालांकि ये इस पर भी निर्भर करता है कि आप ग्लोब के पूर्वी तरफ पड़ते हैं या पश्चिमी तरफ. ऐसा क्यों किया जाता है?

गर्मियों में सुबह जल्दी उजाला हो जाता है. इसलिए जहां आप पहले आठ बजे ऑफिस जाते थे, अब भी आठ ही बजे जाएंगे. लेकिन असल में तब 7 बजे होंगे. आप 5 बजे ऑफिस से आते थे तो अब वो समय 4 बजे होगा (हालांकि घड़ी में 5 ही बजे होंगे). इससे होगा ये कि शाम को लोगों को सूरज की रौशनी में रहने का एक घंटा एक्स्ट्रा मिल जाएगा.

डे लाइट सेविंग की शुरुआत सबसे पहले कनाडा में हुई थी. प्रथम विध्व युद्ध में जर्मनी ने डे लाइट सेविंग लागू की ताकि लोग देर तक काम कर सकें. और बिजली और ऊर्जा की बचत हो सके. जहां तक बात भारत की है तो भारत ने भी दो बार डे लाइट सेविंग लागू की. एक बार 1962 में चीन से युद्ध के दौरान और दूसरी बार 1971 के पाकिस्तान युद्ध के दौरान. हालांकि इसे बहुत कम समय के लिए लागू किया गया था.

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