भारत की आज़ादी के पहले की बात है. लाहौर में तांगा चलने वाले मंगू कोचवान को एक रोज़ पता चलता है कि भारत में नया कानून आने वाला है. जिससे अंग्रेज़ों का राज ख़त्म हो जाएगा. कानून के लागू होने के तारीख थी 1 अप्रैल. ठीक उसी दिन एक गोरा आदमी मंगू के तांगे को रोकता है. मंगू उससे पूछता है, साहिब बहादुर कहां जाना मंगता?
गोरा अंग्रेज़ जवाब देता हैं, “हीरा मंडी”
'किराया पांच रूपये होगा', मंगू जवाब देता है.
दोनों के बीच किराए को लेकर झड़प शुरू होती है और देखते-देखते मंगू उसे जमकर लात-घूंसे जमा देता है. मंगू के अनुसार उस दिन नया क़ानून लागू हो गया था. इसलिए वाजिब किराया मांगना उसका हक़ था. लेकिन फिर कुछ ही देर में पुलिस वाले आए और मंगू को जेल में ठूंस दिया गया.
संजय लीला भंसाली की आने वाली वेब सीरीज 'हीरा मंडी' की असली कहानी
मुगलों के बनाया शाही मोहल्ला कैसे बदनाम रेड लाइट एरिया में तब्दील हो गया. जानिए कहानी लाहौर के रेड लाइट एरिया की.

अभी आपने जो पढ़ा, वो सआदत हसन मंटो की एक कहानी ‘नया कानून.’ का मजमून है. आगे जाकर इस कहानी को पाकिस्तान में बारहवीं के छात्रों के सिलेबस में जोड़ा गया. सिर्फ एक छोटे से अंतर के साथ. कहानी में जहां मंगू हीरामंडी कहता है, उसमें से हीरा हटा दिया गया. वजह? दरअसल हीरा मंडी को लाहौर रेड लाइट एरिया है (Lahore Red Light Area). क्या है इस हीरा मंडी का इतिहास. चलिए जानते हैं. (Sanjay Leela Bhansali Heera Mandi)
मुग़लों का बसाया शाही मोहल्लाहीरा मंडी यानी हीरों का बाज़ार. कभी लाहौर की इन गलियों में दाखिल होने वाले हर शख्स को हवेलियों से घुंघरू की आवाज आती थी. लगता था मानों पूरा शहर ही ढोलक की थाप पर थिरक रहा हो. नाच गाना पेश करने वाली इन लड़कियों को तवायफ कहा जाता था. आज ये नाम कुछ कालिख ओढ़ चुका है लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं था. शायरी, संगीत, नृत्य और गायन जैसी कलाओं में तवायफों को महारत हासिल होती थी और एक कलाकार के तौर पर उनको बेहद इज्ज़त मिलती थी. ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि उन्नीसवीं सदी के अंत में लखनऊ की तवायफें राजकीय ख़ज़ाने में सबसे ज़्यादा टैक्स जमा किया करती थीं.

भारत की तवायफों की कहानी अपने आप में काफी लम्बी है लेकिन फिलहाल हीरा मंडी पर चलते हैं. एकदम शुरू से शुरुआत करें तो साल 1584 की बात है. मुग़ल बादशाह अकबर ने फतेहपुर सीकरी से अपने बोरा बिस्तर समेटा और लाहौर आकर बस गए. 1598 तक लाहौर मुगलिया सल्तनत की राजधानी रहा. और इस दौरान इस शहर ने कई रंग देखे. अकबर ने लाहौर किले के पास दरबारी अमीरों और मुलाज़िमों के लिए एक रिहायशी इलाक़ा बनवाया.
जल्द ही इसने मोहल्ले का रूप ले लिया. और चूंकि ये शाही दरबार के नजदीक था इसलिए इसे शाही मोहल्ला कहा गया. धीरे-धीरे इस इलाके में तवायफों का आना हुआ. इनमें से अधिकतर काबुल से लाई गई थीं. इनका काम था दरबार में नाच गाने का प्रोग्राम कर बादशाह का जी बहलाना. नृत्य के इस तरीके को मुजरा कहा जाता था. और नाच गाना सिखाने के लिए बाकायदा उस्ताद रखे जाते थे. तवायफों को वो ओहदा हासिल था कि लोग अपने बच्चों को तमीज़ और तहज़ीब सिखाने के लिए उनके पास भेजा करते थे. मुग़ल काल में तवायफों और शाही मोहल्ले की ये शान बरक़रार रही लेकिन फिर 18वीं सदी में ये शानो शौकत उजड़ गई.
महाराजा रणजीत सिंह का इश्क़पहले नादिर शाह ने भारत पर आक्रमण किया, फिर अहमद शाह अब्दाली ने. दोनों की मंज़िल दिल्ली थी लेकिन रास्ते में लाहौर पड़ता था. सो वो भी बच न सका. उस दौर में अब्दाली का आतंक इस कदर था कि एक कहावत प्रचलित हो गई. खांदा-पींदा लाहे दा -बाकी अहमद शाहे दा, अर्थात जो खाया-पिया वही अपना है, बाकी तो अब्दाली लूट कर ले जाएगा.

अब्दाली के हमले के दौरान ही लाहौर में पहली बार वेश्यालय बने. पहला धोबी मंडी में और दूसरा मोहल्ला दारा शिकोह में. अफ़ग़ान सैनिक जहां हमला करते थे, वहां से औरतों को उठा लाते थे. और उन्हें लाहौर में बने वेश्यालयों में भर्ती कर देते थे. इस दौरान तवायफों का काम लगभग बंद हो गया. ध्यान दीजिए कि तब वेश्या होना और तवायफ होना दो अलग-अलग बातें थीं. अफ़ग़ानों के बाद के लाहौर पर सिक्खों का राज कायम हुआ. महाराजा रणजीत सिंह के दौर में तवायफों की संस्कृति एक बार फिर शुरू हुई. और बताया तो यहां तक जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह इनमें से एक के इश्क में पड़ गए थे.
इस कहानी के कई अलग-अलग वर्जन हैं. एक वर्जन कहता है कि महाराजा ने तवायफ से शादी कर ली. जिसके चलते हरमंदिर साहिब में उन्हें कोड़े मारे जाने सुनाई गई. हालांकि इस पर भी मतभेद हैं और कई इतिहासकार कहते हैं कि सज़ा बस सुनाई गई, असल में कोड़े मारे नहीं गए. खैर. एक दूसरा वर्जन भी है जो कहता है कि शादी नहीं हुई थी. बस इश्क़ हुआ था. महाराजा ने उसके कहने पर लाहौर में एक मस्जिद बनवाई, जिसे मस्जिद-ए तवायफ कहा गया. और बाद में उसके लिए शाही मोहल्ले के पास एक घर भी बनवाया.
नाम हीरा मंडी कैसे पड़ा?सिखों की फौज के एक जनरल हुआ करते थे. हीरा सिंह डोगरा. महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद उन्होंने शाही मोहल्ले में एक बाज़ार की शुरुआत की. तवायफों के इस मोहल्ले में काफी भीड़ रहती थी. इसलिए हीरा सिंह ने सोचा, क्यों न यहां एक अनाज मंडी बना दी जाए. यहीं से इस जगह का नाम हीरा सिंह दी मंडी पड़ गया. जो आगे जाकर शॉर्ट में हीरा मंडी हो गया. सिक्खों के दौर में हीरा मंडी में रहने वाली तवायफों को दरबारी संरक्षण मिला हुआ था. लेकिन फिर दो एंग्लो-सिक्ख युद्धों में सिक्खों की हार हुई और लाहौर पर ब्रिटिशर्स का कब्ज़ा हो गया.

अंग्रेज़ माल उगाहने आए थे, सो वो काहे को तवायफों को भत्ता देते. धीरे धीरे शहर में एक बार फिर वेश्यालय खुल गए. तवायफें रोज़ी रोटी की खातिर जिस्मफरोशी को मजबूर हो गई थीं. सो अंग्रेज़ सैनिक उनका खूब फायदा उठाते थे. हीरा मंडी का इलाका अंग्रेज़ छावनी से एकदम नज़दीक था. सबसे ज़्यादा तवायफें यहां रहती थीं. 1860 के आसपास इस इलाके में प्लेग फैला, सो अंग्रेज़ों ने अपनी छावनी छोड़ दी और शहर के बाहर जा बसे. प्लेग के गुज़रने के बाद यहां की हवेलियों को रईसों ने खरीद लिया और वो तवायफों को संरक्षण देने लगे. जिसके चलते हीरा मंडी में नाच गाने का कल्चर बना रहा. अंतर बस इतना आया कि मुजरा अब हीरा मंडी में ही दिखाया जाता था. जिसे देखने रईस और संभ्रांत लोग यहाँ चलकर आते थे.
बीसवीं सदी की शुरुआत में हीरा मंडी का बड़ा नाम हुआ करता था. नूरजहां और ख़ुर्शीद बेगम जैसे कलाकारों की शुरुआत भी यहीं से हुई थीं. सर गंगाराम, जिनके नाम पर दिल्ली का गंगाराम हॉस्पिटल बना है, उनका घर भी यहीं था. उस दौर में हीरा मंडी दंगल के लिए जाना जाता था. कुश्ती का नहीं बल्कि संगीत का दंगल. 1940 के दशक में यहां उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां और उस्ताद उमीद अली ख़ा के बीच एक जबरदस्त दंगल हुआ था , जिसे देखने हज़ारों की भीड़ उमड़ी थी. दंगल का नतीजा क्या रहा? दोनों दिग्गज रातभर गाते रहे. कोई हार मानने को तैयार नहीं था. बड़ी मुश्किल से उन्हें रोका गया. और अंत में दोनों को विजेता घोषित कर दिया गया. जीत की ये खुशी हालांकि ज़्यादा दिन कायम न रही.
पाकिस्तान बनने के बाद1947 में बंटवारे के बाद लाहौर पाकिस्तान के हिस्से चला गया. जिसकी स्थापना ही धार्मिक पहचान के आधार पर हुई थी. सो हीरा मंडी में पुरानी शान औ शौकत न रही. इसके बावजूद तवायफों का कल्चर कुछ तीन दशकों तक कायम रहा. लेकिन फिर 1978 में जिया उल हक़ तानशाह बन गए और पाकिस्तान में धर्म का फ्लेवर दोगुना हो गया. जिया उल हक़ ने मुजरों पर बैन लगा दिया और तवायफें हीरा मंडी से बेदर हो गईं. बाद में तवायफ़ के पेशे की जगह वेश्यावृति ने ले ली. और कभी लाहौर की शान समझा जाने वाला शाही मोहल्ला रात के अंधेरे में होने वाले जिस्मफ़रोशी के कारोबार में गुम हो गया.
जहां तक भंसाली की इसी नाम से आने वाली वेब सीरीज़ की बात है, भंसाली बताते हैं कि उन्हें ये आईडिया कुछ 16 साल पहले उनके दोस्त मोईन बेग ने दिया था. भंसाली तभी इस पर फिल्म बनाना चाहते थे, लेकिन फिर वो 'सावरिया' बनाने में लग गए. गंगूबाई बनाने के बाद उन्हें फिर इस स्क्रिप्ट की याद आई और उन्होंने नेटफ्लिक्स को कहानी सुनाई. भंसाली फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन फिर नेटफ्लिक्स को ये कहानी इतनी पसंद आई कि उन्होंने सीरीज़ की पेशकश कर दी.
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