साल 1983. जिक्र आते ही याद आता है वर्ल्ड कप. भारतीय क्रिकेट के लिए उजाले की किरण. इतिहास इसी तरह याद रखा जाता है. लेकिन इतिहास सिर्फ उजाले से नहीं बनता . उसके हिस्से की कालिख भी साथ साथ चलती है. इतिहास के पन्नों पर कालिख का एक ऐसा ही निशान पड़ा था फरवरी 1983 में. असम के एक छोटे से गांव, नेली के पास 1800 लोगों को भीड़ ने इकठ्ठा होकर क़त्ल कर डाला. गैर सरकारी आंकड़ा 3000 मौतों का है. (Nellie Massacre) इस घटना को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुई सबसे बड़ी नरसंहार की घटना माना जाता है. क्यों हुआ था ये नरसंहार? असम में दशकों से चल रहे नागरिकता विवाद से इसका क्या सम्बन्ध है?
7 घंटे में मार दिए गए 1800 लोग!
साल 1983 में असम में नेली नाम के गांव में भीड़ द्वारा 3 हजार से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था.
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नेली में हुए हत्याकांड के पीछे की कहानी एक और बड़े विवाद से शुरू होती है. (Assam Movement)भारत का पूर्वोत्तर राज्य असम शुरू से ही नागरिकता के विवाद से जूझता रहा है. भारत में आजादी के बाद जो पहली जनगणना हुई थी, वो 1951 में हुई थी. इस जनगणना के आंकड़ों को एक साथ इकट्ठा करके आगे की योजनाओं के लिए इस्तेमाल किया जाना था. इसके लिए नैशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटिजन्स (NRC) बनाया गया, जिसमें सारे आंकड़े दर्ज किए गए. योजना पूरे देश के लिए थी, लेकिन असम इकलौता ऐसा राज्य था, जिसने NRC को मान्यता दी और अपने प्रदेश में लागू किया.
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असम में बाहर से आए लोग
इसका मुख्य कारण था नागरिकता विवाद. असम में समय-समय पर बाहर से आकर लोग बसे और बसाए गए थे. आजादी के पहले अंग्रेज़ों ने मध्य और उत्तर भारत से लोगों को असम लेकर आए थे. ताकि वो चाय बागानों में मजदूरी करें. 20 वीं सदी की शुरुआत में पूर्वी बंगाल के मेमनसिंह इलाके से लोग लाकर असम में बसाए गए. इसी तरह बंटवारे के बाद पूर्वी पाकिस्तान से आए हजारों लोग असम में बसाए गए. पूर्वी पाकिस्तान में दमन के चलते ऐसे ही वक्त वक्त पर लोगों का कारवां असम में आकर ठहरा. आंकड़ों के अनुसार 1947 से 1951 तक 2 लाख, 70 हजार रिफ्यूजी पूर्वी पाकिस्तान से असम आए. 1951 से 1961 तक ये संख्या, 2 लाख 21 हजार थी. वहीं 1971 के युद्ध के बाद रिफ्यूजियों की संख्या में अचानक विस्फोट हुआ और अगले दस सालों में लगभग 18 लाख रिफ्यूजी असम में आकर बस गए.
रिफ्यूजियों का ये मुद्दा सरकार के लिए बड़ा सरदर्द था. साल 1962 से 1972 तक सरकार ने कई बार ट्रिब्यूनल बनाए , ताकि लोगों की नागरिकता की जांच हो सके. लेकिन हर बार ये मुद्दा विवाद के चलते कहीं पहुंच नहीं सका. इस बीच 1963 में विदेश मंत्रालय ने पहली बार चेतावनी दी कि असम में बाहर से आ रहे लोगों को वोटिंग लिस्ट में जोड़ा जा रहा है. असम धीरे-धीरे बारूद का एक ढेर बनता जा रहा था. साल 1979 में हुई एक घटना ने बारूद के इस ढेर में चिंगारी लगा दी. हुआ यूं कि असम के एक सांसद हीरालाल पटोवारी की अचानक मृत्यु हो गई. लिहाजा इलेक्शन कमीशन ने तय किया कि उनकी सीट पर उप चुनाव करवाए जाएंगे. इसकी क्रम में वोटर लिस्ट को अपडेट करने की प्रक्रिया शुरू हुए. और यहीं से शुरू हुआ हंगामा. इल्जाम लगे कि नई वोटर लिस्ट में गैरकानूनी रूप से रह रहे विदेशियों को भी जोड़ दिया गया है. इलेक्शन कमीशन ने अपनी जांच में पाया कि ये दावे सही हैं. वोटर लिस्ट में 45 हजार ऐसे नामों को जोड़ दिया गया था, जो गैरकानूनी थे.
जैसे ही ये खबर बाहर निकली. असम में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू हो गए. ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) नाम का छात्रों का एक संगठन इन प्रदर्शनों में सबसे मुखर था. उनकी मांग थी कि 13 और जिलों की वोटर लिस्ट सार्वजनिक की जाए. इस मामले में 27 अगस्त 1979 को असम में एक ऑल पार्टी मीटिंग रखी गयी. सब पार्टियों ने मिलकर तय किया कि जब तक वोटर लिस्ट से विदेशियों का नाम नहीं हटा लिया जाए, तब तक असम में कोई चुनाव नहीं होंगे. छात्रों के इस विरोध का नतीजा हुआ कि 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में असम की 14 सीटों में से केवल दो पर चुनाव हो पाए. अगले दो सालों में असम में जबरदस्त हिंसा हुई. आंकड़ों के अनुसार 1979 से 1982 के बीच 272 हत्याएं, 1404 मारपीट की घटनाएं, 425 आगजनी की घटनाएं और 330 बम विस्फोट की घटनाएं हुईं.
चुनावों की घोषणा
सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच 23 राउंड की बातचीत हुई. लेकिन हर बार मुद्दा इस बात पर अटक गया कि नागरिकता के लिए कट ऑफ डेट कब की मानी जाएगी. जनवरी 1983 में आंदोलन के नेता मुलाक़ात के बाद गुवाहाटी लौट रहे थे, जब उन्हें पता चला कि इंदिरा गांधी सरकार ने चुनाव की घोषणा कर दी है. चुनाव की तारीख 14, 17 और 20 फरवरी रखी गयी थी. इस घोषणा के बाद असम ने एक ज्वालामुखी की शक्ल इख्तियार कर ली. जिसका विस्फोटक नतीजा दिखा 18 फरवरी 1983 को. गुवाहाटी के पास एक नेली नाम के एक गांव में. नेली गांव गुवाहाटी से कुछ 70 किलोमीटर की दूरी पर बसा है. 1989 तक यह इलाका नौगांव जिले का हिस्सा था. ज़्यादातर आबादी किसानों की थी. यहां स्थानीय तिवा, कोछ जनजाति के लोग रहते थे. इसके अलावा 14 गांव ऐसे थे, जो मुस्लिम बहुल थे. इनमें से अधिकतर वो थे जो आजादी से पहले पूर्वी बंगाल से आकर यहां बसे थे.
अंग्रेज़ों ने पूर्वी बंगाल से आने वाले लोगों को पश्चिम और मध्य बंगाल के इलाकों में बसाया. लेकिन फिर धीरे धीरे आबादी बड़ी और ये लोग कोपली नदी के किनारे आकर बस गए. आजादी के बाद तत्कालीन सरकार की ‘ज़्यादा अन्न पैदा करो’ स्कीम के तहत कई अप्रवासियों को भी इस इलाके में बसाया गया था. यानी ऐसा नहीं था कि ये सब मुसलमान अवैध नागरिक थे. लेकिन फरवरी 1983 में घटनाएं ऐसी घटीं, कि ये सब देखने वाला कोई नहीं था. सरकार चुनाव का ऐलान कर चुकी थी. मकीको किमुरा अपनी किताब, “The Nellie Massacre of 1983: Agency of Rioters” में लिखती हैं,
“सेना के डेढ़ लाख जवान असम में तैनात किए गए थे. प्रति 57 वोटर -एक जवान. पूरा असम युद्ध के मैदान में तब्दील हो चुका था”.
नेली नरसंहार
इतनी तैयारियों के बावजूद इन चुनावों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई. जिसकी आंच नेली गांव तक भी पहुंची.
15 फ़रवरी की बात है. नौगांव जिले में स्थित एक पुलिस स्टेशन के अफ़सर ने मोरीगांव में तैनात पांचवी बटालियन के कमांडर को एक सन्देश भेजा. इसमें लिखा था,
“ख़बर है कि पिछली रात नेली गांव के इर्द-गिर्द बसे गांवों से तकरीबन 1000 असमिया लोग ढोल बजाते हुए नेली गांव के नजदीक इकट्ठा हो गए हैं. उनके पास धारदार हथियार हैं. नेली गांव के अल्पसंख्यक भयभीत हैं, किसी भी क्षण उन पर हमला हो सकता है. शांति स्थापित करने के लिए तुरंत कार्रवाई का निवेदन किया जाता है.”
इलाके के लोग डरे हुए थे. उन्होंने घर से बाहर आना-जाना बंद कर रखा था. 17 फरवरी को पुलिस बल के दो ट्रक भर जवान इलाके में पहुंचे. और गांव वालों को आश्वाशन दिया कि वो लोग पास में ही गश्त पर तैनात हैं. सुरक्षा का आश्वासन पाकर अगली सुबह गांव वाले अपने-अपने काम पर निकले. तभी पता चला कि नेली के उत्तर-पूर्व में बसे बोरबोरी में फ़साद शुरू हो गया है. कुछ देर में दंगाइयों ने कपोली नदी के किनारे बसे मुस्लिम बहुल गांवों को तीनों तरफ से घेर लिया. इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार हेमेन्द्र नारायण तब वहीं मौजूद थे. अपनी रिपोर्ट में वो लिखते हैं,
“पहले उन्होंने डेमलगांव के मुसलमानों के घरों में आग लगाई. पहले सफ़ेद धुआं निकला, जो जल्द की काले धुंए में बदल गया, और फिर उस धुंए ने लाल लपटों का रूप ले लिया. कुछ ही मिनटों में सारे घर ढह गए”
गांव वालों को लगा इसके बाद वो बख्स दिए जाएंगे. लेकिन ये हमले का शुरुआती प्लान था. लोगों के छुपने की कोई जगह नहीं बची थी. एक-एक कर लोगों को मारा जाने लगा. जान बचाने के लिए लोग दूसरे गांव की तरफ भागे. भगदड़ में बूढ़े बच्चे बीमार, जो भी पीछे छूटा, मार डाला गया. अंत में जो लोग CRPF के कैम्प तक पहुंचे, वही अपनी जान बचा पाए. सरकारी आंकड़ों के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 के आसपास थी. वहीं अन्य अनुमानों में इस आंकड़े को 3000 के आसपास बताया जाता है. इनमें 70 फीसदी महिलाएं और 20 फीसदी बूढ़े थे. नेली हत्याकांड का नाम आप में से काफी कम लोगों ने सुना होगा. इसके जांच कमीशन की कहानी और भी सीक्रेट है. नेली में हुए हत्याकांड की जांच के लिए सरकार ने त्रिभुवन प्रसाद तिवारी की अध्यक्षी में एक कमीशन बिठाया.
जांच का कमीशन
कमीशन को अपनी रिपोर्ट 6 महीने में सब्मिट करनी थी. बाद में कमीशन का कार्यकाल जनवरी 1984 तक बढ़ा दिया गया. इसके बावजूद कमीशन ने जो रिपोर्ट भेजी, उसके कभी पेश नहीं किया गया. त्रिभुवन प्रसाद तिवारी जो बाद में पॉन्डिचेरी के गवर्नर बने, उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि जांच कमीशन की रिपोर्ट सीक्रेट है. 547 पन्नों की इस रिपोर्ट की सिर्फ तीन कॉपियां तैयार हुईं. जिनमें से एक असम सरकार के पास है, एक केंद्र सरकार के पास और एक खुद तिवारी के पास. ये रिपोर्ट साल 2023 तक भी सार्वजनिक नहीं हो पाई है. इस हत्याकांड के बाद के सालों में कुल 688 एफ़आईआर दर्ज़ हुई, 310 चार्ज शटें पेश की गईं. पर नतीजा वही रहा. किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.
बॉस्निया नाम का एक देश है यूरोप में. बॉस्निया की राजधानी है, सैरायेवो. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यहां नाजियों ने यातना शिविर बना रखे थे. बाद में पता चला कि इन शिविरों में रहने वाले यहूदी आपस में लतीफे गढ़ा करते थे. एक लतीफा यूं है कि,
“जब कोई एक आदमी को मारता है तो उसे जेल होती है
कोई 20 लोगों को मार दे तो उसे पागल करार दिया जाता है
लेकिन अगर कोई 2 लाख लोगों को मार दे तो उसे जिनेवा में शांति समझौते के लिए बुलाया जाता है”
यातना शिविरों से निकला ये लतीफा आने वाली दुनिया के लिए सन्देश था. नेली में मारे गए लोगों को कभी इंसाफ नहीं मिला. सरकार ने बस 5000 रूपये मुआवजा देकर मामला निपटा दिया. कांग्रेस चुनाव जीत गई. वहीं 1985 में राजीव गांधी सरकार के दौरान असम एकॉर्ड पर हस्ताक्षर हुए. जिनके तहत कि असम में हुई हिंसा में जिन लोगों के खिलाफ FIR हुई थी, वो वापिस ले ली गई. नेली के लोग 2 हफ्ते बाद वापिस अपने गांव लौट गए. और इस घटना को हमेशा के लिए भुला दिया गया.
वीडियो: तारीख़: नितीश कटारा हत्याकांड की पूरी कहानी