महान दार्शनिक लुडविग विट्गेंस्टाइन ने भाषा को लेकर एक थियोरी दी थी. भाषा वो है, जो शब्दों के माध्यम से आपके मन में एक तस्वीर बनाती है. इसलिए ऐसे शब्द जो साफ़ तस्वीर बना सके, सबसे अधिक उपयोगी होते हैं. हिंदी का एक शब्द है जलडमरूमध्य. जल यानी पानी, मध्य यानी बीच में. और डमरु का मतलब तो हम सब जानते ही हैं. इस शब्द से आपके मन में एक तस्वीर बनती है. पानी के बीच में डमरू. कितना आसान है समझना.
भारत ने श्रीलंका को तोहफे में आइलैंड दे दिया!
काछाथीवू द्वीप श्रीलंका और रामेश्वरम (भारत) के बीच स्थित है. यह द्वीप ऐतिहासिक रूप से तमिलनाडु का हिस्सा रहा है लेकिन 1974 में इंदिरा सरकार ने इसे श्रीलंका को सौंप दिया था. भारत में कई बार काछाथीवू द्वीप को श्रीलंका से वापस लेने की मांग उठती रही है.
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फिलहाल हम इस शब्द से शुरुआत इसलिए कर रहे हैं. क्योंकि इस कहानी का संबंध एक जलडमरूमध्य से है. जो हिन्द महासागर में भारत के दक्षिणी छोर और पड़ोसी देश श्रीलंका के बीच बनता है. इसका नाम है पाक जलडमरूमध्य. पानी के इस रास्ते पर कई द्वीप पड़ते हैं. इनमें से एक का नाम है काछाथीवू द्वीप(Katchatheevu Island). इस द्वीप पर कोई रहता नहीं है. साफ़ पानी मुश्किल से मिलता है. और अक्सर मछुवारे यहां अपना जाल सुखाने आदि कामों के लिए रुकते हैं. वीरान सा दिखने वाला ये द्वीप भारत और श्रीलंका के बीच एक लम्बे विवाद का कारण रहा है. श्रीलंका इसे अपना बताता है. और दुहाई देता है एक संधि की. जो साल 1974 में इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) सरकार के बीच हुई थी. (Katchatheevu Island conflict)
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काछाथीवू द्वीप का इतिहास
दावा है कि इस संधि के तहत इंदिरा सरकार ने काछाथीवू श्रीलंका को तोहफे में दे दिया था. लेकिन एक दूसरा दावा भी है. जो बताता है कि ये द्वीप हमेशा से भारत का हिस्सा रहा है. क्या है इस काछाथीवू की कहानी. और 1974 में हुई संधि का किस्सा क्या है. शुरुआत काछाथीवू द्वीप के इतिहास के करते हैं. 285 एकड़ में बसा ये छोटा सा द्वीप भारत के दक्षिणी छोर, रामेश्वरम से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर है. 17वीं सदी में ये मदुरई के एक राजा रामनद के जमींदारी कंट्रोल में आता था. उस दौर में यहां एक चर्च का निर्माण भी कराया गया था. भारत से हर साल हजारों लोग इस चर्च में प्रार्थना के लिए जाते रहे हैं. हालांकि इसके अलावा इस द्वीप पर ज्यादा बसाहट नहीं थी. तमिलनाडु और जाफना से मछुवारे जब इस क्षेत्र में मछली पकड़ने आते तो यहां रुका करते थे.
भारत में ब्रिटिशों के शासन के दौरान जब मद्रास प्रेसेडेंसी की स्थापना हुई तो ये द्वीप अंगेर्जों के कंट्रोल में आ गया. 1921 में इस द्वीप पर हक़ को लेकर पहली बार विवाद जन्मा. चूंकि श्री लंका जो तब सीलोन के नाम से जाना जाता था, वहां भी अंग्रेज़ों का कंट्रोल था. इसलिए ब्रिटिश सरकार ने इस द्वीप का सर्वे करवाया. और इस द्वीप को श्रीलंका का हिस्सा बताया. हालांकि भारत की तरफ से इस पर विरोध दर्ज़ हुआ. क्योंकि जैसा पहले बताया ऐतिहासिक रूप से ये एक भारतीय राजा के कंट्रोल में आता था. बहरहाल 1947 तक ये विवाद ज्यों का त्यों ही रहा. 1947 में सरकारी दस्तावेज़ों के हिसाब से इसे भारत का हिस्सा माना गया. लेकिन तब भी श्रीलंका ने इस पर अपना अधिकार छोड़ा नहीं.
1974 तक दोनों देश इस द्वीप का प्रशासन संभालते रहे. मुख्य रूप से ये द्वीप मछली पकड़ने की जगह था. इसलिए दोनों देश के मछुवारे इसे इस्तेमाल करते रहे. हालांकि इस बीच दोनों देशों के बीच एक दूसरे की सीमा के उल्लंघन को लेकर कई बार तनाव भी हुआ. समुद्री सीमारेखा विवाद को सुलझाने के लिए साल 1974 में दोनों देशों के बीच एक बैठक हुई. जिसने एक समझौते का रूप लिया. ये समझौता दो हिस्सों में हुआ था. 26 जून को कोलम्बो में और 28 जून को दिल्ली में. इस समझौते के तहत एक खास चीज ये हुई कि भारत ने काछाथीवू श्रीलंका को दे दिया (India-Sri Lanka maritime boundary agreements). हालांकि एक सवाल ये कि क्या भारत की सरकार अपनी जमीन ऐसे ही किसी दूसरे देश को दे सकती है. तो इसका जवाब है नहीं. इसके लिए संविधान संसोधन की जरुरत थी.
इससे बचने के लिए सरकार ने इसे विवादित जमीन मानते हुए इसे श्रीलंका को सौंप दिया. हालांकि इस समझौते में ये भी निहित था कि भारतीय मछुवारे इस द्वीप पर जा सकेंगे. लेकिन क्या वे लोग मछली पकड़ने के काम कर सकेंगे? इसका इस समझौते में साफ साफ़ उल्लेख नहीं था. लिहाजा श्रीलंका सरकार ने माना कि भारतीत मछुवारे केवल जाल सुखाने और आराम करने जैसी गतिविधियों के लिए इस द्वीप का इस्तेमाल कर सकेंगे. इसके अलावा भारतीयों को इस द्वीप पर बने चर्च में भी बिना वीज़ा जाने की इजाजत थी. इस समझौते के बाद दक्षिण के राज्यों के तरफ से काफी हो हल्ला मचा था. तमिल नाडु के मुख्यमंत्री एम करूणानिधि ने तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिख इस समझौते पर एतराज़ भी जताया था.
इंदिरा और बंडरानाइक के दोस्ती
सरकार इस कदम से पीछे नहीं हटी. इसका एक कारण श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री सिरीमा बंडरानाइक(Srimavo Bandaranaike) और इंदिरा गांधी की दोस्ती को माना जाता है. ट्रिविया के लिए ये भी जान लीजिए कि बंडरानाइक दुनिया की पहली महिला थीं, जो किसी देश की प्रधानमंत्री मंत्री चुनी गई. बंडरानाइक भी इंदिरा की तरह एक ताकतवर नेता थीं. और इंदिरा की ही तरह उन्होंने भी अपने देश में आपातकाल लगाया था. साल 1980 की बात है. बंडरानाइक और उनके बेटे अनुरा पर इमरजेंसी के दौरान सत्ता के दुरूपयोग की जांच चल रही थी. 1977 के चुनावों में बंडरानाइक की विपक्षी पार्टी United National Party ने उनकी और इंदिरा की दोस्ती को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए नारा दिया था, आज भारत, कल श्रीलंका. यानी जैसे भारत में इंदिरा की हार हुई है, वैसी ही बंडरानाइक की हार होगी.
इत्तेफाक से बंडरानाइक के बेटे अनुरा की छवि भी एकदम इंदिरा के बेटे संजय गांधी जैसी थी. उन पर भी जमीन घोटाले को लेकर जांच चल रही थी. एक रोज़ सदन में विपक्षी नेता अनुरा पर हमला बोल रहे थे. गुस्से में अनुरा अपनी सीट पर खड़े हुए और मेज थपकाते हुए बोले,
“रुको, मिसेज़ गांधी के जीतने का इंतज़ार करो, तब तुम देखोगे..”
बहरहाल अपनी मेन स्टोरी पर लौटते हुए जानते हैं काछाथीवू द्वीप विवाद पर आगे क्या हुआ. 1974 के बाद 1976 में दोनों देशों के बीच समुद्री सीमा को लेकर एक और समझौता हुआ. मुख्यतः ये समझौता मन्नार और बंगाल की खाड़ी में सीमा रेखा को लेकर हुआ था. लेकिन इसी समझौते में एक और चीज जुड़ी थी, जिससे काछाथीवू का विवाद और भड़का दिया.
समझौते में लिखा था,
“भारत के मछुवारे और मछली पकड़ने वाले जहाज श्रीलंका के एक्सक्लूसिव इकनोमिक ज़ोन में नहीं जाएंगे”.
एक्सक्लूसिव इकनोमिक ज़ोन यानी समंदर का वो हिस्सा जिस पर श्रीलंका का अधिकार है. इस हिस्से में काछाथीवू द्वीप भी आता था. ये एक बड़ी दिक्कत थी, क्योंकि इस समझौते से पहले भारतीय मछुवारे काछाथीवू द्वीप तक मछली पकड़ने जाते थे. एक और मसला ये था कि सरकार ने ये कदम तमिलनाडु की सरकार से मशवरा किए बिना उठाया था. ये इमरजेंसी का दौर था. और तमिलनाडु में सरकार भंग की का चुकी थी. ये समझौता भारत और श्रीलंका के बीच सीमा विवाद सुलझाने में एक महत्वपूर्ण कदम तो साबित हुआ, लेकिन तमिल नाडु के मछुवारे इससे खासे नाराज थे. इसलिए ये मुद्दा तमिल नाडु की राजनीति में समय समय पर भूकंप पैदा करता रहा.
भारत श्रीलंका जलसीमा विवाद
इसके लगभग डेढ़ दशक बाद, 1991 में तमिल नाडु की विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया. ये प्रस्ताव काछाथीवू द्वीप को वापिस भारत में मिलाने और मछुवारों के अधिकार पुनः हासिल करने की बात करता था. वहीं दूसरी तरह श्रीलंका में गृह युद्ध की आग छिड़ी हुई थी. इसलिए उस समय तो श्रीलंका की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. लिट्टे से जूझ रही श्रींलका की नौसेना के पास इस मुद्दे से निपटने का वक्त नहीं था. इसलिए लम्बे वक्त तक भारतीय मछुवारे इस इलाके में मछली पकड़ने के लिए जाते रहे. साल 2003 ने श्रीलंका सरकार ने प्रस्ताव दिया कि वो भारतीय मछुवारों को मछली पकड़ने के लिए और अधिक लाइसेंस देने पर विचार कर रहा है. लेकिन तब न तमिल नाडु ना ही केंद्र सरकार ने इस पर कोई ध्यान दिया.
साल 2009 में लिट्टे का खात्मा होते ही इस मुद्दे ने तूल पकड़ना शुरू किया. श्रीलंका की नौसेना ने इस इलाके में सुरक्षा बढ़ा दी. जिसके चलते भारतीय मछुवारे जैसे ही इस इलाके में जाते, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता. गिरफ्तारी की घटनाएं जैसे जैसे बढ़ने लगी, मुद्दे ने राजनीति को भी हलकाना शुरू कर दिया. तमिल नाडु के नेताओं पर लगातार दबाव पड़ रहा था कि वो इस मुद्दे को केंद्र सरकार के सामने उठाए. 2008 में AIADMK नेता जयललिता इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची. उनकी तरफ से दलील दी गई कि बिना संविधान संसोधन के सरकार ने भारत की जमीन किसी और देश को दे दी. 2011 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने विधानसभा में इस बाबत एक प्रस्ताव भी पारित करवाया.
2014 में इस मामले पर सरकार की तरफ से दलील देते हुए अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा,
“काछाथीवू द्वीप एक समझौते के तहत श्रीलंका को दिया गया. और अब ये अंतर्राष्ट्रीय बाउंड्री का हिस्सा है. आप इसे वापिस कैसे लेंगे. काछाथीवू वापिस लेने के लिए आपको युद्ध लड़ना होगा”
2015 में इस मामले में श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के एक बयान से काफी विवाद हुआ था. एक टीवी चैनल से बात करते हुए उन्होंने कहा,
“अगर भारतीय मछुवारे इस इलाके में आएंगे तो उन्हें गोली मार दी जाएगी”.
तब दक्षिण के नेताओं की तरफ से इस बयान पर काफी तीखी प्रतिक्रिया भी आई थी. चूंकि ये मछुवारों की रोजी रोटी से जुड़ा मुद्दा है, इसलिए समय समय पर तमिल नाडु की राजनीति इसको लेकर गर्माती रहती है. काछाथीवू द्वीप का मुद्दा दो देशो से जुड़ा है. इसलिए इस विषय पर भारत एकतरफा कदम नहीं उठा सकती है. जहां तक बाचतीत और प्रयासों की बात है, वो 2023 में भी जारी है.
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