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इश्क़ में अस्पताल, ये सिर्फ टाटा ही कर सकते थे!

कैसे बना एशिया का सबसे बड़ा कैंसर हॉस्पिटल?

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टाटा मेमोरियल अस्पताल की स्थापना 28 फरवरी 1941 को सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट द्वारा की गई थी (तस्वीर-Wikimedia commons/Facebook)

इश्क़ में ताजमहल हो जाना, सुना होगा आपने. लेकिन क्या इश्क़ में हॉस्पिटल होना सुना है. नहीं सुना तो सुनिए. कहानी ऐसे प्रेम की, जिसके चलते भारत के पहले कैंसर हॉस्पिटल की नींव रखी गई. कैसे एक हीरे को गिरवी रखकर बची एक कम्पनी और फिर उसी हीरे को बेचकर बची लोगों की जान. इस कहानी का तेंदुलकर से क्या कनेक्शन है और कैसे आता है इस कहानी में होमी जहांगीर भाभा का नाम? (Tata Memorial Hospital)

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साल 1988 की बात है. 14 और 16 साल की उम्र के दो लड़के क्रिकेट के मैदान में गर्दा उड़ा रहे थे. 664 रन की पार्टनरशिप और पार्टनर्स के नाम- सचिन रमेश तेंदुलकर और विनोद कांबली. जिस पारी से पहली बार दुनिया ने सचिन का नाम सुना. वो हैरिस शील्ड नाम के एक इंटर स्कूल टूर्नामेंट में खेली गई थी. हैरिस शील्ड की शुरुआत 1886 में हुई थी. और जिसने शुरुआत की, उनका नाम था, सर दोराब जी टाटा- टाटा ग्रुप के जन्मदाता जमशेदजी टाटा के बेटे. क्रिकेट के अलावा और खेलों से भी दोराबजी का गहरा रिश्ता था. वो भारतीय ओलंपिक संघ के पहले अध्यक्ष थे. और 1920 में उनकी ही बदौलत भारतीय खिलाड़ियों का पहला दल ओलंपिक में हिस्सा ले पाया था. बाक़ायदा तीन खिलाड़ियों को तो उन्होंने अपने पैसे पर भेजा था. (Dorabji Tata)

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Jamsetji Tata
टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा दोराबजी टाटा के पिता थे (तस्वीर-Wikimedia commons)

ये दोराबजी ही थे जिन्होंने अपने पिता के सपने टाटा स्टील को समृद्ध किया और टाटा पावर की नींव रखी. ये दोनों कंपनियां आज टाटा ग्रुप की सबसे बड़ी पहचान हैं. हालांकि दोराबजी की पहचान सिर्फ़ एक बिज़नेसमैन तक सीमित नहीं है. उनकी कहानी में एक लड़की का किरदार बहुत ज़रूरी है. कहानी जिसकी शुरुआत होती है साल 1896 में. दोराबजी की उम्र 35 के पार हो गई थी. और पिता जमशेदजी उनकी शादी को लेकर चिंता में रहने लगे थे. पुरानी फिल्मों में जैसा होता है, ऐसे में एक ही आदमी आपके काम आता है. आपका पुराना दोस्त. एक रोज़ जमशेदजी मैसूर में अपने बचपन के एक दोस्त से मिलने पहुंचे. वहां दोस्त की बेटी को देखते ही उन्होंने उसे मन ही मन अपनी बहू बना लिया. पढ़ने, खेलने से लेकर तमाम चीजों में काबिल इस लड़की का नाम था मेहरबाई. लेकिन अभी भी एक दिक्कत बाकी थी.

दोराबजी से शादी के बारे में सीधी-सीधी बात करना मुश्किल था. ऐसे में उनके बग़ावती तेवर सामने आ जाते थे. लिहाज़ा जमशेदजी ने एक दूसरी तरकीब निकाली. उन्होंने कारोबार के बहाने दोराबजी को मैसूर भेज दिया. साथ ही बातों बातों में ये भी कह दिया कि वे उनके बचपन के दोस्त से हालचाल पूछ आएं. तीर निशाने पर बैठा और 1897 में ठीक वैलेंटाइन डे के रोज़ मेहरबाई और दोराबजी की शादी हो गयी. दोराबजी जहां खेलों के पैरोकार थे. वहीं मेहरबाई खुद एक जबरदस्त खिलाड़ी थी. 1924 में पेरिस ओलंपिक्स में भाग लेने वाली वो पहली भारतीय महिला थीं. और उनका एक इंटरोडक्शन ये भी है कि उनके भाई जहांगीर एक नामी वकील थे. जिनकी औलाद आगे जाकर भारत में परमाणु क्रांति की वजह बनी. औलाद का नाम - होमी जहांगीर भाभा.

Dorabji Tata with Lady Meherbai Tata
दोराबजी टाटा अपनी पत्नी लेडी मेहरबाई टाटा के साथ (तस्वीर-Twitter/Tata group)

फ़िल्मों की मानें तो अधिकतर प्रेम कहानियों का अंत शादी में होता है. लेकिन दोराबजी और मेहरबाई की कहानी शादी के बाद शुरू हुई. एक किस्सा सुनिए. साल 1924 की बात है. टाटा स्टील की माली हालत ख़राब चल रही थी. तब मेहरबाई ने अपनी सबसे कीमती संपत्ति को दोराबजी को सौंप दिया था. ताकि उसे गिरवी रखकर वो बैंक से लोन ले सकें. ये कीमती संपत्ति जुबली डायमंड नाम का एक हीरा था. जो शादी के कुछ साल बाद दोराबजी ने मेहरबाई को तोहफ़े में दिया था. 245 कैरेट का ये हीरा लंदन से ख़रीदा गया था. कोहिनूर से 2 गुना आकार वाले इस हीरे की कीमत एक करोड़ रूपये से ऊपर थी. कंपनी की हालत जब सुधरने लगी, दोराबजी ने इसे वापिस हासिल कर लिया लेकिन किस्मत ऐसी कि मेहरबाई इसे फिर कभी पहन नहीं पाई. साल 1931 में एक खतरनाक कैंसर से उनकी मौत हो गई.

भारत में तब कैंसर असाध्य बीमारी थी. दुनियाभर में इसके इलाज का तरीका अपने शुरुआती चरणों में ही था. रेडियम से की जाने वाली रेडिएशन थेरेपी कैंसर के इलाज के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाती था. लेकिन भारत में सिर्फ़ एक दो संस्थान थे जो रेडियम पर शोध कर रहे थे. लिहाज़ा काफ़ी कोशिशों के बावजूद मेहरबाई की जान नहीं बचाई जा सकी. पत्नी की मृत्यु से दुखी दोराबजी ने उनकी याद में दो ट्रस्ट शुरू किए. लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट और सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट. ये दोनों सस्थाएं परोपकार के काम के लिए बनी थीं. दिलचस्प बात ये जुबली हीरा, जिसे दोराबजी अपनी पत्नी के लिए गिरवी से छुड़ाकर लाए थे, ट्रस्ट के फंड्स जुटाने के लिए उन्होंने इसे बेच दिया.

इस दौरान दोराबजी को मुम्बई के तत्कालीन गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स ने सलाह दी कि वो कैंसर के इलाज़ के रेडियम संस्थान की शुरुआत करें. दोराबजी तब मुम्बई के एक अस्पताल में रेडियम विंग बनाने में जुटे थे. लेकिन ये काम शुरू होता, उससे पहले ही 1932 में उनकी भी मृत्यु हो गई. हालांकि जिस जज़्बे के साथ दोराबजी ने अपनी यात्रा शुरू की थी, वह कम नहीं हुआ. दोराबजी के अधूरे सपने को पूरा करने के लिए सर नौरोजी सकलतवाला टाटा ग्रुप के नए अध्यक्ष बने. सकलतवाला रिश्ते में जमशेदजी टाटा के भांजे थे. और इसी तरह दोराबजी के साथ उनका ममेरे भाई का रिश्ता बैठता था. टाटा ग्रुप के साथ-साथ दोराबजी ट्रस्ट की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं के कंधे थी.

Sir Nowroji Saklatvala
नौरोजी सकलतवाला टाटा समूह के अकेले गैर टाटा अध्यक्ष थे (तस्वीर-Tata group)

एक रोज़ समुद्री यात्रा के दौरान सकलतवाला की मुलाक़ात डॉक्टर जान स्पाइस से हुई. स्पाइस बीजिंग, चीन के एक मेडिकल कॉलेज में कैंसर विभाग के प्रमुख थे. सकलतवाला ने भारत में कैंसर हॉस्पिटल बनाने के लिए उनकी मदद मांगी. और डॉक्टर स्पाइस तैयार भी हो गए. यहां एक बार और हॉस्पिटल की शुरुआत में रुकावट आई जब 1938 में सकलतवाला की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. इसके बाद टाटा ग्रुप और ट्रस्ट की ज़िम्मेदारी JRD टाटा को मिली.

JRD ने फ़ैसला किया कि टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल नाम का एक अस्पताल बनेगा लेकिन उसमें किसी भी तरह से ब्रिटिश सरकार का कोई हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. 30 लाख रुपए के फंड से अस्पताल का निर्माण शुरू हुआ. इसी बीच 1939 में सेकेंड वर्ल्ड वॉर की शुरुआत हो गई. और अस्पताल के निर्माण के लिए विदेश से जिन विशेषज्ञों की बुलाया गया था. वो काम बीच में छोड़कर चले गए. डॉक्टर स्पाइस भी वापिस चीन चले गए. अस्पताल के निर्माण का काम ठप हो गया. इसके बाद भी JRD टाटा हार नहीं माने. जैसे-तैसे करके 2 साल के अंदर उन्होंने अस्पताल का काम पूरा करवाया और फरवरी 1941 में ये बनकर तैयार हो गया.

1991 stamp dedicated to Tata Memorial Centre
टाटा मेमोरियल सेंटर की 50वीं वर्षगांठ पर समर्पित 1991 का डाक टिकट (तस्वीर-Wikimedia commons)

सात मंज़िला इमारत में बना ये अस्पताल तब सभी आधुनिक सुविधाओं से लैस था. और भारत ही नहीं बल्कि पूरे एशिया में अपनी तरह का पहला कैंसर अस्पताल था. इसका उद्घाटन करते हुए बॉम्बे के तत्कालीन गवर्नर सर रोजर लुमले ने कहा था,

“यह अस्पताल कैंसर के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय लड़ाई में भारत का पहला बड़ा योगदान है.”

दशकों तक टाटा मेमोरियल अस्पताल एशिया में कैंसर के इलाज़ का एकमात्र क़ेंद्र रहा और साल 1952 में यहीं भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र की शुरुआत हुई. 1957 तक ये अस्पताल टाटा ट्रस्ट के अंदर चलता रहा लेकिन फिर भारत सरकार ने इसके हेल्थ मिनिस्ट्री के अधीन कर लिया. इस वक्त तक कैंसर के इलाज में रेडीएशन का अधिकाधिक उपयोग होने लगा था, इसलिए  1962 में टाटा मेम्मोरियल हॉस्पिटल को डिपार्टमेंट ऑफ़ अटॉमिक एनर्जी को सौंप दिया गया. वर्तमान यानी साल 2023 में भी ये परमाणु ऊर्जा विभाग के तहत की काम करता है. आज हर साल यहां 65 हज़ार कैंसर के मरीज़ों का इलाज होता है. और इनमें से 70 % से अधिक का इलाज मुफ़्त किया जाता है.

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