23 मई 1973 की सुबह. लखनऊ का मिजाज हमेशा की तरह कुछ ठहराव लिए हुए था. लेकिन शहर के बीच एक कॉलेज में गहमागहमी चल रही थी. लखनऊ यूनिवर्सिटी में उस रोज़ एग्जाम चल रहे थे. अपनी डेस्क पर चेहरा गढ़ाए छात्र और हॉल में चलकदमी करते शिक्षक. ये सब चल ही रहा था कि अचानक एग्जाम हॉल में छात्रों की एक भीड़ इंटर हुई और नारे लगाने लगी. एग्जाम दे रहे छात्र कुछ समझ पाते, इससे पहले ही उनकी कॉपियां छीनी जा चुकी थीं. कुछ छात्रों ने प्रतिरोध किया तो भीड़ में से एक बोला, चलो, एग्जाम कैंसिल हो चुके हैं.
जब UP में पुलिस रोकने के लिए आर्मी बुलानी पड़ी!
1973 में UP पुलिस (PAC) की कुछ बटालियंस ने विद्रोह कर दिया. इस विद्रोह को भारत का सबसे बड़ा पुलिस विद्रोह माना जाता है.
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हॉल में मौजूद शिक्षकों को अब तक कुछ समझ नहीं आ रहा था. इस बीच उन्हें रजिस्ट्रार ऑफिस से धुआं निकलता दिखा. सब दौड़ कर बाहर पहुंचे तो पता चला कि रजिस्ट्रार ऑफिस में किसी ने आग लगा दी है. टैगोर लाइब्रेरी में भी किताबें आग के हवाले की जा रही थीं. छात्र ये सब क्यों कर रहे थे, इसका पता अभी तक नहीं लग पाया था. तभी कुछ छात्र हॉस्टल की तरफ से दौड़ते हुए आए. उन्होंने जो बताया और भी हैरतअंगेज़ था. आग लगाने वाले छात्र नहीं थे. बल्कि ये सब PAC यानी उत्तर प्रदेश प्रांतीय पुलिस बल के जवान कर रहे थे. क्यों? जब 1973 में UP में पुलिस ने विद्रोह कर दिया और आर्मी बुलानी पड़ी(1973 Provincial Armed Constabulary revolt). आर्मी और पुलिस के बीच लड़ाई हुई और मुख्यमंत्री को इस्तीफ़ा देना पड़ा. क्यों हुआ था ये सब?
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PAC का इतिहास
किस्से की शुरुआत होती है 1937 से. उत्तर प्रदेश को तब यूनाइटेड प्रोविंस के नाम से जाना जाता था. 1937 में एक ब्रिटिश अफसर कर्नल थॉम्पसन ने यूनाइटेड प्रोविंस में एक नए सशस्त्र बल की नींव रखी. जो मिलिट्री पुलिस से अलग थी. इस बल की मांग UP के जमींदारों की तरफ से की गई थी. जो अपने लिए विशेष सुरक्षा चाहते थे. नतीजतन सरकार ने एक एक्ट पास कर प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलेरी यानी PAC का गठन किया. 1937 में कर्नल थॉम्पसन ने PAC की दो कंपनियों से PAC की शुरुआत की. इन कंपनियों में ब्रिटिश इंडियन आर्मी की एक पूर्व रेजिमेंट, ब्राह्मण रेजिमेंट के सैनिक भर्ती किए गए थे. खास बात ये थी कि PAC के जवानों का भत्ता जमींदारों द्वारा मुहैया कराया जा रहा था.
1937 से शुरुआत होकर 1942 तक PAC की कई बटालियन खड़ी की गई. जिनमें अधिकतर भूमिहार और राजपूतों को रिक्रूट किया गया था. इन बटालियंस का गठन सेना की तर्ज़ पर किया गया था. लेकिन इनका काम शहर में क़ानून व्यवस्था बनाए रखने का था. खासकर ऐसे मसलों में जो जमींदारों और उच्च वर्ग से जुड़े होते थे. मसलन VIP लोगों की सुरक्षा में PAC के जवानों को तैनात किया जाता था. आजादी के बाद भी PAC बरक़रार रही और 1956 में इसका नाम प्रादेशिक आर्म्ड प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलेरी कर दिया गया. और 1962 से 1973 के बीच इसमें 17 नई बटालियन जोड़ी गई. इनका काम तब मूल रूप से दंगा रोकने और VIP को सुरक्षा पहुंचाना हुआ करता था. शुरुआत में इस बल को UP पुलिस के मुकाबले बेहतर सुविधाएं मिलती थीं. लेकिन 1972 आते-आते PAC में जवानों की संख्या काफी ज्यादा होने लगी. और काम का बोझ भी बढ़ता गया. लिहाजा सुविधाओं को गिरावट आई. और जवानों में अंदर ही अंदर एक असंतोष पनपने लगा.
PAC के जवानों की शिकायत क्या थी? जवानों का कहना था कि उनसे नौकरों वाले काम कराए जाते हैं. सीनियर अफसर उनसे अपने कपड़े और बर्तन धुलवाते हैं. उन्हें यूनियन बनाने की आजादी भी नहीं थी. इसके अलावा नाक़ाई सुविधाओं और कम तनख्वाह को लेकर भी जवान शिकायत कर रहे थे. इन सब कारणों से असंतोष इतना बढ़ा कि PAC में अराजकता दिखने लगी. ख़बरें आई कि PAC के दस्ते आर्डर की नाफ़रमानी कर रहे हैं. इसी बीच 1973 में हुई एक घटना ने PAC का उपद्रव खुलकर सामने ला दिया. मई महीने में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) उत्तर प्रदेश का दौरा करने वाली थीं.
इंदिरा के उत्तर प्रदेश दौरे से हुए हंगामा
1971 बांग्लादेश युद्ध से इंदिरा का जो भौकाल बना था, वो अब कुंद होने लगा था. देश में महंगाई बढ़ रही थी. लोगों में केंद्र सरकार के प्रति गुस्सा था और इस गुस्से की आंच UP की कांग्रेस सरकार तक आ रही थी. कमलापति त्रिपाठी(Kamalapati Tripathi) तब UP के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. उन्होंने इंदिरा के दौरे के लिए सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम करवाए. इस काम का जिम्मा PAC को दिया गया. लेकिन PAC ने तैनाती का आदेश मानने से इंकार कर दिया. इस नाफ़रमानी से एक बड़े विद्रोह की शुरुआत हुई जो जल्द ही पूरे प्रदेश में फ़ैल गया. राजधानी लखनऊ में इसका ख़ास असर देखने को मिला. वहां यूनिवर्सिटी के छात्र PAC के समर्थन में खड़े हो गए. पूरे कैम्पस में आगजनी होने लगी. मामला इतना बड़ा कि आखिरकार सरकार को आर्मी बुलानी पड़ी.
रिटायर्ड आर्मी कर्नल मेहरोत्रा तब लखनऊ यूनिवर्सिटी में छात्र हुआ करते थे. टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए वो बताते हैं,
“मैं महानगर में PAC बटालियन के क्वार्टर्स के पास रहता था. शाम पांच बजे के आसपास वहां आर्मी पहुंच गई. तूफानी नाले के पास आर्मी के जवानों ने पोजीशन ली. तब तक अफवाह फ़ैल गई थी कि PAC के जवान आर्मरी लूटने की योजना बना रहे हैं. कुछ ही देर में वहां गोलियां चलने लगीं. और रात भर चलती रहीं. अगली सुबह हमने सुना कि PAC के जवानों को आर्मी की गाड़ियों में डालकर ले जाया जा रहा था.”
उधर यूनिवर्सिटी में छात्र लगातार प्रदर्शन कर रहे थे. शाम सात बजे तक यूनिवर्सिटी में कई जगह आगजनी की घटनाएं हुईं. पुलिस को मौके पर भेजा गया लेकिन वो भी सिचुएशन को कंट्रोल नहीं कर पाई. पुलिस अफसरों को छात्रों द्वारा कैम्पस से खदेड़ दिया गया. इसके बाद आर्मी को यूनिवर्सिटी भेजा गया. आर्मी ने तार बाड़ लगाकर कैम्पस में घेरा लगाया और यूनिवर्सिटी को खाली करा दिया गया. हॉस्टल में जो छात्र रह रहे थे उन्हें भी बाहर निकाल दिया गया. अगले रोज़ यूनिवर्सिटी की अनिश्चितकाल के लिए छुट्टी कर दी गई.
अतुल अंजन जो आगे जाकर CPI के नेशनल सेक्रेटरी बने, तब लखनऊ यूनिवर्सिटी में छात्र नेता हुआ करते थे. अतुल बताते हैं कि छात्रों की तरफ से उन्होंने इस विद्रोह को लीड किया था. उनके और PAC जवानों के बीच बातचीत भी हुई थी. PAC को लग रहा था कि अगर वो छात्रों से हाथ मिला लें तो सरकार को घुटनों पर ला देंगे. इस बाबत PAC के विद्रोही जवानों और छात्र नेताओं के बीच कई मीटिंग हुईं. फंड इकठ्ठा किए गए और पैम्फलेट भी बंटवाए गए. इसके बाद 22 मई की रात छात्रावासों से विद्रोह की शुरुआत हुई. अतुल बताते हैं कि उनका प्लान ऑल इंडिया रेडियो के ऑफिस को कब्ज़े में लेने का था. इसके बाद वो लोग रेडियो से PAC के साथ होने वाले अन्याय की बात ब्रॉडकास्ट करते.
मुख्यमंत्री का इस्तीफ़ा
तब छात्र रहे आशीष शुक्ला इस घटना से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा साझा करते हैं. आशीष बताते हैं कि लाइब्रेरी और बाकी जगह हुई आगजनी और तोड़फोड़ के बाद एग्जाम की आंसर कॉपीज़ गायब हो गई थी. ऐसे में एक छात्र को इतिहास के एग्जाम की कॉपी रास्ते पर पड़ी हुई मिली और उसने उसे बतौर यादगार अपने पास रख लिया. अंत में क्या हुआ? इस मामले में सरकार को आर्मी बुलानी पड़ी थी. आर्मी और PAC के बीच संघर्ष में PAC के 35 जवान मारे गए. वहीं लगभग दो दर्जन आर्मी के जवानों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी. पांच दिन चले संघर्ष के बाद आर्मी सिचुएशन पर काबू पाने में सफल हुई. तब तक इस घटना की खबर पूरे देश में फ़ैल चुकी थी. इस मामले में तब सरकार की काफी किरकिरी हुई थी. विद्रोह के खात्मे के बाद सरकार ने कुछ कड़े कदम उठाए. 500 PAC जवानों को निष्काषित कर दिया गया. और 795 जवानों पर मुक़दमा चलाया गया.
इसके बावजूद हंगामा थमने का नाम नहीं ले रहा था. अंत में मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी को इस्तीफ़ा देना पड़ा. और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. इसके बाद नवम्बर 1973 में हेमवंती नंदन बहुगुणा मुख्यमंत्री बने. CM बनते ही उन्होंने PAC की कई मांगो को मंजूर कर लिया. कहानी यहीं खत्म न हुई. इस घटना का असर आगे यूपी की राजनीति पर भी दिखा. साल 1978 में अलीगढ में सांप्रदायिक दंगे हुए. नेशनल माइनॉरिटी कमीशन ने अपनी 20 पन्नों की रिपोर्ट में दंगों के दौरान PAC की कार्यशैली पर सवाल उठाए. इसी प्रकार साल 1987 में मेरठ में हाशिमपुरा नरसंहार(Hashimpura massacre) की घटना हुई. इस दौरान भी PAC पर साम्प्रदायिक रूप से लोगों को निशाना बनाने का आरोप लगा. लेकिन इन तमाम घटनाओं में सरकार PAC पर कोई एक्शन लेने से बचती रही.
हाशिमपुरा की घटना के वक्त विभूति नारायण आईपीएस अधिकारी की हैसियत से एक वरिष्ठ पद पर तैनात थे. 2015 में एक कांफ्रेस के दौरान बोलते हुए उन्होंने दावा किया कि तत्कालीन सरकार ने पीएसी बल के विद्रोह के डर से कोई कार्रवाई नहीं की. राय के अनुसार हाशिमपुरा की घटना के बाद उन्होंने एक मीटिंग में ये बात उठाई थी. उन्होंने कहा,
"उस वक्त मुझसे कहा गया कि अगर कार्रवाई की गई तो पीएसी बल विद्रोह कर देगा. तब मैंने कहा था कि अगर पीएसी बगावत करती है तो उससे निपटने के लिए सेना बुलाई जाएगी, क्योंकि अगर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई तो यह न्याय के लिए खतरा होगा. उसके 24 घंटे के अंदर वह केस मेरे हाथों से ले लिया गया और सीआईडी के सुपुर्द कर दिया गया”.
हाशिमपुरा मामले में साल 2018 में जाकर PAC के 16 लोगों को सजा सुनाई गई.
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