4 जनवरी 1963 की बात है. इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर भोलानाथ मलिक और उनके साथी एक इमारत की छत पर खड़े हैं. सामने भीड़ टकटकी लगाए छत की ओर देख रही है. उन्हें इंतज़ार है किसी खास चीज का. मलिक अपने हाथ उठाते हैं. उनके हाथ में लड़की की एक छोटी सी डिब्बी थी. भीड़ जो अब तक लगभग छटपटाने लगी थी, डिब्बी को देखकर कुछ शांत हुई. क्या था इस डिब्बी में?
एक बाल की चोरी से जब भारत पाक में हुए दंगे!
जब हज़रतबल दरगाह से हज़रत मोहम्मद पैगंबर साहब का बाल चोरी हो गया था.
पैगंबर मुहम्मद का बाल. जिसे मू-ए-मुकद्दस ( Moi-e-Muqqadas) कहा जाता है.जो कुछ दिन पहले चोरी हुआ और आज अचानक वापिस लौट आया था. लेकिन आवाम को यकीन नहीं था. आवाम को शक हुआ. क्या सरकार नकली डिब्बी ले आ गई है? आवाम की तसल्ली का एक ही तरीका था. तय हुआ कि कुछ रोज़ बाद आवाम डिब्बी का दीदार खुद कर सकेगी. इस बीच डिब्बी को एक खास सेफ की सुरक्षा में रखा दिया था. ये सब कश्मीर की हज़रतबल दरगाह (Hazratbal Shrine) में हो रहा था. उधर दूर दिल्ली में हड़कंप में थी. नेहरू परेशान थे और दिल का दौरा पड़ने से बीमार भी. बाल का मिलना बहुत जरूरी था. इसलिए उनका पूरा लाव लश्कर कश्मीर पहुंचा. कमान संभाली लाल बहादुर शास्त्री ने. इसके अलावा गृह मंत्री, गुलजारीलाल नंदा, गृह सचिव- वेंकट विश्वनाथन और IB की पूरी टीम कश्मीर में डेरा डाले हुए थी.
आवाम को शांत करने के लिए दीदार की की तारीख 6 फरवरी तय की गई. हालांकि उससे पहले एक काम और होना था. 4 फरवरी को कुछ धर्मगुरुओं को बुलाया गया. दोपहर 3 बजे मजिस्ट्रेट ने सेफ की सील तोड़ी. डिब्बी को बाहर निकाला गया. डिब्बी के अमानतदार, अब्दुल रहीम ने डिब्बी खोली और उसे एक-एक कर 14 लोगों की नजरों के पास लेकर गया. इनमें से एक फ़क़ीर मिराक शाह ने डिब्बी के अंदर झाकर देखा. डिब्बी में झांकते ही उनके मुंह से निकला, हक़. यानी ‘सच है’. वहां मौजूद लोगों ने एक स्वर में कहा, मबरूक, मबरूक यानी ‘मुबारक हो’. दो दिन बाद, 6 तारीख के रोज़ कुछ 60 हजार लोगों ने डिब्बी का दीदार किया. और इसी के साथ 37 दिन के इस ड्रामे का पटाक्षेप हो गया.
इन 37 दिनों तक इस्लामिक दुनिया में मानों क़यामत आ गई थी. भारत और पाकिस्तान दोनों जगह दंगे शुरू हो गए थे. पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र जाने की बात कर रहा था. कश्मीर में मुख्यमंत्री हटाने की नौबत आ गयी थी. हालांकि कारण यही था या नहीं, ये साफ़ नहीं लेकिन नेहरू को इस दौरान दिल का दौरा पड़ गया था. जिसके बाद उनकी तबीयत ख़राब रहने लगी. डिब्बी मिलने उन्होंने भोलानाथ मलिक को फोन कर कहा था,
“मलिक, तुमने कश्मीर को बचा लिया ”
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मू-ए-मुकद्दस का इतिहास
शुरुआत करते हैं एकदम पीछे से. 17 वीं सदी की बात है. सय्यद अब्दुल्ला मदीना से भागकर भारत आए. और अपने साथ तीन पवित्र चीजें लेकर आए. हजरत अली की पगड़ी, उनके घोड़े की जीन, और मू-ए-मुकद्दस, यानी पैगम्बर मुहम्मद की दाढ़ी का बाल. सय्यद अब्दुल्ला की मौत के बाद उनके बेटे सय्यद हामिद इन पवित्र निशानियों के अमानतदार बनाए गए. यहां से मू-ए-मुकद्दस कश्मीर कैसे पहुंचा, इसको लेकर अलग अलग कहानियां चलती हैं. एक किस्सा है कि सय्यद हामिद ने मू-ए-मुकद्दस कश्मीर के एक रईस कारोबारी, नूरुद्दीन को बेच दिया था. जबकि एक और कहानी बताती है कि एक रोज़ सय्यद के ख़्वाब में हजरत मुहम्मद आए और उनसे कहा कि तीन में एक पवित्र निशानी, नूरुद्दीन को दे दें, हिफाजत से रखने के लिए.
बहरहाल हुआ जो भी नूरुद्दीन अपने साथ मू-ए-मुकद्दस को लाहौर लेकर आ गए. हिंदुस्तान में इस दौर में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का राज था. उनको इस घटना का पता चला तो उन्होंने, नूरुद्दीन को गिरफ्तार कर मू-ए-मुकद्दस हथिया लिया. औरंगज़ेब ने इसे अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में रखवा दिया. यहां से इसे साल 1700 में कश्मीर भेजा गया. कश्मीर में इसे नक्शबंद साहिब दरगाह में रखा गया. मू-ए-मुकद्दस का दीदार करने के लिए हजारों की संख्या में लोग आते थे. जगह छोटी पड़ने लगी तो उसे सादिकाबाद ट्रांसफर कर दिया गया. यहां इसे एक मस्जिद में रखवाया गया. इस मस्जिद की कहानी भी बड़ी इंटरेस्टिंग है. पहले ये आम इमारत हुआ करती थी. नाम था इशरत महल.
1623 में इसका निर्माण कश्मीर के सूबेदार सादिक खान ने करवाया था. 1634 में जब शाहजहां ने यहां का दौरा किया तो उन्होंने यहां प्रार्थना हॉल का निर्माण कराया. साल 1700 में इसी जगह पर मू-ए-मुकद्दस को रखवाया गया था. जिसके बाद इसे हज़रतबल दरगाह के नाम से जाने जाना लगा. इसकी देखरेख का जिम्मा नूरुद्दीन की बेटी इनायत बेगम के जिम्मे थी. इनायत बेगम की शादी जिस परिवार में हुई उनका आख़िरी नाम बंदे था. इसके बाद परम्परा बन गई कि इसी परिवार के मर्द वारिस मू-ए-मुकद्दस की देखरेख करेंगे. ये सिलसिला सदियों तक यूं ही चलता रहा. अब यहां से सीधे चलते हैं साल 1963 पर.
पैगंबर का बाल कैसे हुआ चोरी?
27 दिसंबर की बात है. खलील नाम का एक खादिम, जो दरगाह में ही सोया करता था, सुबह उठा, वुजू करने के बाद वो नमाज़ अदा करने के लिए मुख्य हॉल में पहुंच गया. यहां उसकी नजर सीधे हुजरा-ए-खास पर पड़ी. हुजरा-ए-खास यानी वो जगह जहां मू-ए-मुकद्दस को रखा गया था. वहां जो नजारा था, उससे खलील के होश फाख्ता हो गए. हुजरा-ए-खास के चांदी के दरवाज़े टूटे पड़े थे. अंदर एक सेफ था, जिसके लिए तीन चाबियों की जरुरत पड़ती थी. उसे भी तोड़ा गया था. खलील ने अंदर चेक किया तो लकड़ी की वो डिब्बी, जिसमें मू-ए-मुकद्दस रखा रहता है, गायब थी. खलील सीधा दरवाज़े से बाहर भागा. और सीधे चीफ ट्रस्टी अब्दुर रहमान बंदे के घर गया. मिनटों में खबर आग की तरह फ़ैल गई. घण्टे के भीतर कुछ 50 हजार लोग काले झंडों के साथ दरगाह के सामने इकठ्ठा हो गए. कई जगह गोली चलने की खबर आई. हालात गंभीर होते जा रहे थे.
तुरंत ये मुद्दा केंद्र सरकार तक पहुंचा. अब यहां ध्यान दिजिए कि ये 1960 के दशक का कश्मीर था. कश्मीर के सबसे बड़े नेता और पूर्व मुख्यमंत्री शेख़ अब्दुल्ला जेल में डाले जा चुके थे. उनकी जगह बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन फिर कामराज प्लान के तहत वो भी हटा गए. और उनकी जगह ख्वाजा शम्सुद्दीन को कश्मीर का मुख्यमंत्री बना दिया गया. कश्मीर में राजनैतिक हालात अस्थिर बने हुए थे. वहीं एक दूसरी मुसीबत सीमा पार से आ रही थी. पाकिस्तान आंख दिखा रहा था. और 1962 का युद्ध हारने के बाद नेहरू पुराने वाले नेहरू नहीं रह गए थे. 1963 में आजादी के बाद पहली बार उनकी सरकार के ख़िलाफ़ सदन में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया था. लेकिन इन सब के बावजूद जो घटना नेहरू के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित हुई, और जिसकी वजह से कथित रूप से उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई. वो थी हज़रतबल की घटना.
जैसे ही उन्हें घटना की खबर मिली, उन्होंने इंटेलिजेन्स ब्यूरो के अधिकारियों को सीधे कश्मीर रवाना किया. पीछे-पीछे गृह मंत्री भी रवाना हुए. साथ ही कश्मीर में मुख्यमंत्री ने भी चीजें सम्भालने की कोशिश की. शम्सुद्दीन ने चोरों को पकड़ने के लिए एक लाख रुपए इनाम की घोषणा की. किसी तरह कश्मीर को उबलने से बचाया जा रहा था. इसके बावजूद लोग शांत होने का नाम नहीं ले रहे थे. अगले ही रोज़ सरकारी दफ़्तरों पर हमले होने लगे. मजबूरन कश्मीर में कर्फ़्यू लगाना पड़ा. ये मुद्दा सिर्फ़ एक मजहब तक सीमित नहीं था. बल्कि इसे कश्मीरियत से जोड़कर देखा गया. कई जगह हिंदू और सिख भी इस प्रदर्शन में शामिल हुए. हर जगह मू-ए-मुकद्दस के वापिस मिलने की दुआ मांगी जा रही थी.
पाकिस्तान में हंगामा
चूंकि ये मुद्दा कश्मीर से जुड़ा था, पाकिस्तान ने भी इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश की. वहां जिन्ना की मज़ार तक जुलूस निकाला गया. पकिस्तानी हुक्मरानों ने इस घटना को भारत सरकार की साज़िश करार दिया. लिहाज़ा पाकिस्तान में दंगे भड़क गए. सैकड़ों लोग मारे गए. नतीजतन ये घटना पूर्वी पाकिस्तान से हिंदुओं के पलायन की एक और गवाह बनी. इसी बीच 31 दिसंबर के रोज़ भोलनाथ मलिक और उनकी टीम कश्मीर पहुंची. उन्होंने केस की छानबीन शुरू की. मलिक के सामने एक बड़ा सुबूत वो चांदी के दरवाज़े थे, जिसमें मू-ए-मुकद्दस रखा हुआ था. चूंकि चोरी करने वाला, चांदी के दरवाज़े छोड़ गया था, इसलिए मलिक ने अंदाज़ा लगाया कि ये सब चोरी की नीयत से नहीं किया गया था. एक थियोरी चली कि शायद किसी ने मू-ए-मुकद्दस के प्राइवेट दीदार करने चाहे थे. और जब वो समय पर इसे लौटा नहीं पाया तो उसने चोरी का सीन बना दिया. उधर 4 जनवरी को कश्मीर के सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह हजरतबल दरगाह गए और ज़ियारत की.
कर्ण सिंह की आमद अपने साथ एक ख़ुशख़बरी लाई. 4 जनवरी की शाम 5 बजे अचानक पता चला कि मू-ए-मुकद्दस लौट आया है. डिब्बी अपने स्थान पर लौट चुकी थी. किसने रखी, क्यों, इसका जवाब किसी के पास नहीं था. और अभी किसी को इस बात की परवाह भी नहीं थी, सबसे ज़रूरी काम था, आवाम को विश्वास दिलाना.
शुरुआत में लोग मू-ए-मुकद्दस की वापसी से खुश थे. लेकिन फिर अचानक लोगों ने सवाल उठाने शुरू कर दिए. कैसे पता कि ये असली मू-ए-मुकद्दस है? ऐसा तो था नहीं कि DNA टेस्टिंग से कोई जांच हो जाती. आखिर में तय हुआ कि इसका फैसला धर्म गुरु करेंगे. कश्मीर के सबसे बड़े संत मीराक़ शाह कशानी को बुलाया गया. कशानी की नजर कमजोर थी. उन्होंने 60 सेकेण्ड तक डिब्बी को घूरकर देखा. ये 60 सेकेण्ड तय करते कि कश्मीर में शांति होगी या एक बार फिर पहले से हालात हो जाएंगे, अंत में कशानी ने मू-ए-मुकद्दस पर मुहर लगा दी. कश्मीर में जश्न का माहौल था. वहीं नेहरू राहत की सांस ले रहे थे. आख़िर में बचा एक सवाल? मू-ए-मुकद्दस चोरी किसने किया और कौन उसे वापिस रखकर गया?
गृहमंत्री गुलज़ारी लाल नंदा ने फ़रवरी 1964 में संसद को जो जानकारी दी, उसके अनुसार, चोरी में तीन लोगों का हाथ था. इनमें से एक दरगाह का ख़ादिम था. वहीं एक का रिश्ता पाकिस्तान से थे. इन तीन लोगों को इस मामले में गिरफ़्तार कर लिया गया. हालांकि एक दूसरी अनाधिकारिक कहानी भी है. जो कश्मीर में दबी ज़बान में सुनाई जाती है. इस कहानी के अनुसार चोरी हुई ही नहीं थी. इंदर मल्होत्रा द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं,
"लगभग सभी को पता था कि हजरतबल के खादिम को बलि का बकरा बनाया गया है. ये माना जाता है कि बख्शी गुलाम मोहम्मद के घर की के बूढ़ी महिला इस पवित्र निशानी के दीदार करना चाहती थी. उन्होंने ही इसे ग़ायब किया और बाद में वापिस भी रख दिया”
इस मामले की जांच करने वाले बीएन मलिक अपने संस्मरणों में लिखते हैं,
“पवित्र निशानी की वापसी एक ख़ुफ़िया अभियान था, इसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता.”
हजरतबल की घटना के दौरान ही नेहरू की तबीयत फ़िर ख़राब हुई. और चंद महीने बाद मई 1964 में उनकी मृत्यु हो गई.
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