आज ही के दिन यानी 14 सितम्बर, 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया था. और इसीलिए आज के दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. और दूसरी-
आज ही के दिन सन 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने अमेरिकी संसद में अंग्रेज़ी में भाषण दिया था. संयुक्त राष्ट्र सभा में हिंदी में भाषण देने के लिए मशहूर अटल जब अमेरिका गए तो वहां ये सम्भव नहीं था कि वो हिंदी में बोलते. लेकिन इसके ठीक बीस साल बाद एक अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान खुद हिंदी में वोट मांग रहा था. बात 2020 के अमेरिकी चुनाव की हो रही है, जब ट्रम्प भारतीयों को रिझाने के लिए कह रहे थे, ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’.
क्या अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को अंग्रेज़ी समझ नहीं आती? फिर भी उन्हें रिझाने के लिए ट्रम्प हिंदी में बोल रहे थे. इसकी एकमात्र वजह थी, भाषा. इस रंग बदलती दुनिया में 20वीं सदी के महानतम दार्शनिकों में से एक हैं, लुडविग विट्गेंस्टाइन. जिन्हें भाषा के दर्शन का पितामह माना जाता है. उन्होंने कहा था,
‘The limits of my language mean the limits of my world.’यानी
"मेरी भाषा की सीमा ही तय करती है कि मेरी दुनिया की सीमा क्या होगी."

26 अप्रैल, 1889 को लुडविग विट्गेंस्टाइन का जन्म विएना में हुआ था.(तस्वीर: wikimedia)
अब प्रश्न उठता है कि आख़िर भाषा से दुनिया की सीमा कैसे तय होती है. भाषा को लेकर दर्शन का एक पुराना लेकिन बेसिक सवाल है,
अगर नीले रंग को लाल कह दिया जाए तब भी नीला रंग क्या नीला ही रहेगा?बेसिक लॉजिक से लगता है, ज़रूर नीला ही रहेगा. किसी चीज़ को कुछ और कह देने से उस चीज़ में परिवर्तन हो जाएगा, ऐसा मानना बिल्कुल बेवक़ूफ़ी की बात लगती है. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? कुछ उदाहरणों से समझते है, अंग्रेज़ी भाषा में नीला रंग यदि हल्का हो तो उसे लाइट ब्लू कह दिया जाता है. और ऐसे ही यदि गहरा नीला रंग हो तो उसे डार्क ब्लू कहा जाता है.
लेकिन रशियन भाषा में लाइट ब्लू और डार्क ब्लू के लिए अलग अलग शब्दों का प्रयोग होता है. नीला, डार्क नीला और हल्का नीला. ये तीनों रशियन भाषा में अलग-अलग रंग हैं. लाइट ब्लू के लिए रशियन में ‘गोलुबॉय’ शब्द का उपयोग किया जाता है. इसी तरह डार्क ब्लू को रशियन में ‘सीनी’ कहा जाता है.
अब सवाल ये कि शब्द अलग-अलग होने से क्या फ़र्क पड़ गया. फ़र्क ये पड़ा कि अगर एक पेंटिंग में नीले रंग का शेड बदल दिया जाए तो, एक अंग्रेज़ी भाषी व्यक्ति के लिए कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ेगा. लेकिन एक रशियन व्यक्ति से पूछा जाएगा तो उसके लिए पेंटिंग का रंग बिल्कुल नया और अलग हो जाएगा. शीशा हो या दिल हो.. मान लीजिए आप घर में कुछ काम कर रहे हैं. इस दौरान गलती से एक गिलास को ठोकर लग जाती है और वो गिर जाता है. अब ये सब गलती से हुआ है. यानी एक ऐक्सिडेंट है. लेकिन अगर एक अंग्रेज़ी भाषी से पूछा जाएगा तो वो कहेगा,
‘He broke the glass.’यानी
“उसने गिलास तोड़ दिया” या “उसके द्वारा गिलास टूट गया”देखिए कि यहां ज़ोर सब्जेक्ट पर है. ‘उसने’ गिलास तोड़ दिया. इसके बजाय एक स्पेनिश भाषी कहेगा,
‘ग्लास टूट गया’इसका कारण भाषा का स्ट्रक्चर है. अंग्रेज़ी भाषा में सेंटेंस का स्ट्रक्चर SVO ऑर्डर के तहत होता है. यानी पहले सब्जेक्ट, फिर वर्ब और अंत में ऑब्जेक्ट. लेकिन स्पेनिश में ऑर्डर का कोई महत्व नहीं है. सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट को स्पेनिश में सफ़िक्स के थ्रू डिनोट किया जाता है.
अंग्रेज़ी भाषा के स्ट्रक्चर के कारण ज़्यादा सम्भावना है कि अंग्रेज़ी भाषी याद रखेगा कि ‘किसने किया’. जबकि एक स्पेनिश भाषी याद रखेगा कि ‘क्या हुआ’. भाषा के कारण घटना का महत्व कर्ता से कम या अधिक हो सकता है. इसी तरह एक अंग्रेज़ी भाषी व्यक्ति अगर बोले
“I broke my arm”तो यह पूरी तरह से जायज़ है. समझाने की ज़रूरत नहीं कि किसी दुर्घटना में हाथ टूटा है. लेकिन किसी और भाषा में इस वाक्य का कोई मतलब नहीं होगा. जैसे हिंदी में अगर कहा जाए कि ‘मैंने अपना हाथ तोड़ दिया’ तो इसका मतलब है, व्यक्ति ने अपना हाथ जानबूझकर तोड़ा है. इन दो उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि भाषा का हमारे रोज़मर्रा के जीवन पर क्या असर होता है. दो अलग-अलग भाषा बोलने वाले व्यक्ति दुनिया को बिलकुल अलग नज़र से देखते हैं. मैकाले और 'द लैंग्विज गेम' आज़ादी से पहले सारा सरकारी काम अंग्रेज़ी में होता था. होता भी क्यों ना. अंग्रेज थे तो अंग्रेज़ी भाषा ही चलनी थी. केवल 200 सालों में अंग्रेज़ी ने भारत में ऐसी पकड़ बना ली थी कि आज़ादी के बाद भी मजबूरन अंग्रेज़ी को राजकाज की भाषा बनाए रखना पड़ा. इसकी शुरुआत हुई थी, 1835 में. जब अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा व्यवस्था में दख़ल देना शुरू किया. इसमें एक नाम जो सबसे कुख्यात है, वो है लॉर्ड मैकाले का.

लॉर्ड मैकाले (तस्वीर: Wikimedia)
पुनर्जन्म का कॉन्सेप्ट हिंदू धर्म में है. लेकिन इसी भारतीय संस्कृति से नफ़रत करने वाले लॉर्ड मैकाले ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि भारतीय हर 6 महीने में उसका ही पुनर्जन्म करते रहेंगे. हम बात कर रहे हैं सोशल मीडिया और वॉट्सऐप पर लॉर्ड मैकाले की स्पीच की. वो स्पीच जिसमें उसने कहा था कि पूरे भारत में भ्रमण के दौरान मैंने एक भी भिखारी नही देखा. और इसका कारण है यहां की भाषा और संस्कृति. ख़ैर पुनर्जन्म तो छोड़िए. इस स्पीच के जन्म का श्रेय भी हम भारतीयों को ही जाता है. क्योंकि ना तो मैकाले कभी पूरा भारत घूमा, ना ही उसने ब्रिटिश संसद में ऐसा कोई भाषण दिया था.
हां! 1935 में उसने एक रिपोर्ट ज़रूर तैयार की थी. जिसका नाम था ‘मिनट ऑफ़ एजुकेशन’. और सोशल मीडिया के शूरवीरों को एक बात का श्रेय ज़रूर जाता है. वो ये कि लॉर्ड मैकाले ने जो रिपोर्ट बनाई थी, उसका लमसम यही निकलता है कि वो भारत की भाषा और संस्कृति को अंग्रेजों से कमतर और नीचे दर्जे का समझता था. इसके बावजूद उसका मुख्य ऐम कुछ और था. उसका मानना था कि अगर अंग्रेज भारत में शिक्षा पर खर्च करें तो उसका फ़ायदा भी उन्हें मिले. ‘मिनट ऑफ़ एजुकेशन’ में वो लिखता है,
‘हम अंग्रेज़ी बोलने वालों का एक ऐसा वर्ग तैयार करें जो हमारे और शासित लोगों के बीच पुल का काम करें. उनका रंग और खून तो भारतीय हो, पर सोच, नैतिकता और बुद्धिमता अंग्रेजों के मुताबिक़ हो.’संविधान सभा में हिंदी भारत आज़ाद हुआ तो भाषा को लेकर एक नई बहस शुरू हो गई. संविधान सभा को तय करना था कि भारत की आधिकारिक भाषा क्या होगी. हिंदी पट्टी के नेताओं ने कहा कि चूंकि हिंदी सबसे ज़्यादा बोले जाने वाली भाषा है. इसलिए इसे ही राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए. भारत में भाषा की बहस क्षेत्रीय अस्मिता की बात से उपजती है. लेकिन केरल में अगर कोई और भाषा बोली जाए तो इससे दिल्ली में रहने वाले किसी व्यक्ति को क्या दिक़्क़त हो सकती है.
इसलिए ये समझना ज़रूरी है कि सवाल इसको लेकर नहीं था कि आम लोग कौन सी भाषा बोलते हैं बल्कि ये कि राजकाज की भाषा कौन सी होगी. भारत में, जहां कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बोली बदल जाती है. वहां किसी एक भाषा को सार्वभौमिक कह देना अतार्किक बात थी. लेकिन राजकाज के लिए कोई एक ही भाषा हो सकती थी.

संविधान सभा (तस्वीर: भारत सरकार)
संविधान के तहत आज़ादी के बाद केंद्र और राज्यों में शक्ति का बँटवारा होना था. और दक्षिण के अधिकतर राज्यों में ये सम्भव नहीं था कि सरकारी कामकाज के लिए हिंदी को अपनाया जाए. इसका एक मुख्य कारण ये था कि इस तरह सरकारी पदों में एक भाषी लोगों का आधिपत्य हो जाता और बाक़ी लोग पीछे रह जाते.
इसीलिए दक्षिण के अधिकतर नेताओं ने इसका विरोध किया. हंगामा तब खड़ा हुआ जब इस मुद्दे पर बहस के दौरान संविधान सभा के एक मेम्बर, आर.वी. धुलेकर ने कह दिया,
‘जो लोग हिंदुस्तानी नहीं बोल सकते, उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं.’धुलेकर साहब को इस बात का क्रेडिट जाता है कि उन्होंने पाकिस्तान जाने को नहीं कहा. वो भी तब जबकि पाकिस्तान जाने के लिए पासपोर्ट की ज़रूरत भी नहीं थी. बहस आगे बढ़ी तो संविधान सभा की एक सब कमिटी ने रेकेमेंड किया कि हिंदुस्तानी, जो देवनागरी या पर्शियन लिपि में लिखी हो, भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. और जब तक ज़रूरत हो अंग्रेज़ी को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा जाए. राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा अंततः मुंशी-अय्यंगर फ़ॉर्म्युले के तहत तय हुआ कि हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा. साथ ही ये भी तय हुआ कि अगले 15 सालों तक राजकीय काम के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग किया जाएगा. लेकिन इसमें ये भी निहित था कि धीरे-धीरे अंग्रेज़ी को फ़ेज़आउट कर हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में उपयोग किया जाएगा. जब 15 सालों का तय वक्त पूरा होने को आया तो 1963 में अंग्रेज़ी को हटाने की माँग दुबारा ज़ोर पकड़ने लगी. दक्षिण भारत में छात्रों ने हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए. नतीजतन सरकार ने ऑफिशियल लैंग्विज ऐक्ट 1963 पास किया. जिसके अनुसार, अंग्रेज़ी को राजकीय भाषा के रूप में बरकरार रखने का प्रावधान था. इसमें भी हिंदी को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया गया लेकिन कोर्ट, विधायी दस्तावेजों और राज्य-केंद्र के बीच संचार की भाषा अनिवार्य रूप से अंग्रेज़ी ही बनी रही. और तब से लेकर अब तक शासकीय काम के लिए हिंदी का मुद्दा ज्यों का त्यों बना हुआ है. क्याप और अटल की कविता हमने ऊपर बताया था कि आज़ के दिन 2000 में अटल जी ने अमेरिकी सीनेट में भाषण दिया था. तो भाषा को लेकर उनका भी एक किस्सा सुनाते चलते हैं. मनोहर श्याम जोशी, हिंदी भाषा के बड़े साहित्यकारों में उनका नाम आता है. उनका एक उपन्यास है ‘क्याप’. जिसके लिए जोशी जी को 2005 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
क्याप शब्द हिंदी का नहीं है. ये कुमाऊंनी बोली का शब्द है. जिसका हिंदी में अर्थ किया जाए तो उसका मतलब होता है, ‘कुछ अजीब सा.’ लेकिन क्याप का जो एसेंस है वो कोई कुमाऊंनी भाषी (जैसे कि मैं) ही समझ सकता है. इसी तरह कोई मराठी भाषी मराठी के कई ऐसे शब्द बता सकता है, जिनका हिंदी में अनुवाद नहीं किया जा सकता. दुनिया की सभी भाषाओं में ऐसे तत्व हैं जो ऐसी भावनाएँ व्यक्त करते हैं, जिसे कोई ऐसा व्यक्ति की समझ सकता है जो उस भाषा को बोलने वाला हो.

अटल जी द्वारा श्याम मनोहर जोशी को लिखा हुआ पत्र (फ़ाइल फोटो)
1977 में जब अटल बिहारी बाजपेयी विदेश मंत्री थे. तो उन्होंने साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका में अपनी कविता छपने के लिए भेजी. पत्रिका के एडिटर थे मनोहर श्याम जोशी. कविता जब नहीं छपी तो उन्होंने एडिटर को एक पत्र लिखकर भेजा,
“प्रिय सम्पादक जी, जयरामजी की. अत्र कुशलम् तत्राशस्त. अपरंच समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था. पता नहीं आपको मिला या नहीं. पहुंच की रसीद अभी तक नहीं मिली. नीका लगे तो छाप लें, वरना रद्दी की टोकरी में फेंक दें. इस संबंध में एक कुण्डली लिखी है”इसके बाद बाजपेयी जी ने एक कविता लिखी हुई थी.
कैदी कवि लटके हुए, सम्पादक की मौज कविता ‘हिन्दुस्तान’ में मन है कांजी हौज मन है कांजी हौज, सब्र की सीमा टूटी तीखी हुई छपास, करे क्या टूटी-फूटी कह कैदी कविराय, कठिन कविता कर पाना लेकिन उससे कठिन कहीं कविता छपवाना.जोशी जी भी तब के माने हुए पत्रकार और साहित्यकार थे. सो उन्होंने अटल जी को इसी कलेवर में जवाब लिखकर पत्र भेजा. उन्होंने लिखा,
“आदरणीय अटल जी महाराज, आपकी शिकायती चिट्ठी मिली, इससे पहले कोई एक सज्जन टाइप की हुई एक कविता दस्ती दे गये थे कि अटल जी की है. न कोई खत, न कहीं दस्तखत. आपके घर फोन किया तो किन्हीं ‘पी.ए.’ महोदय ने कह दिया कि हमने कोई कविता नहीं भिजवाई. आपके पत्र से स्थिति स्पष्ट हुई और सम्बद्ध कविता पृष्ठ 15 पर प्रकाशित भई. आपने एक कुण्डली कही तो हमारा कवित्व भी जागा.”

श्याम मनोहर जोशी का अटल जी तो लिखा जवाब (फ़ाइल फोटो)
साथ में जोशी जी ने एक कविता भी चस्पा की हुई थी.
कह जोशी कविराय, सुनो जी अटल बिहारी, बिना पत्र के कविवर, कविता मिली तिहारी.
कविता मिली तिहारी, साइन किंतु न पाया, हमें लगा चमचा कोई, खुद ही लिख लाया.
कविता छपे आपकी यह तो बड़ा सरल है टाले से कब टले, नाम जब स्वयं अटल है