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गंगा नहर: इंजीनियरिंग का कमाल, नदी के ऊपर से बहा दी नहर!

1842 में अंग्रेज़ इंजीनियर प्रोबी थॉमस कॉटली ने हरिद्वार से गंगा नहर का निर्माण शुरू किया था.

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साल 1842 में थॉमस कॉटली ने गंगा नहर का निर्माण शुरू किया था (तस्वीर: Wikimedia Commons)

उत्तर भारत में गंगा और यमुना के बीच का जो रीजन है, दोआब कहलाता है. आब यानी पानी, और दोआब यानी दो नदियों के बीच का इलाका. माना जाता है कि जब हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यताएं नष्ट हुई तो हमारे पूर्वज, इसी इलाके में आकर बसे. बढ़िया मौसम, खूब सारी धूप, और यमुना और गंगा का पानी. तराई का ये इलाका किसानी ने लिए एकदम मुफीद जगह थी.

लेकिन नदियां फिर नदियां हैं. किसी साल पानी इतना आए कि खेत के खेत बहा ले जाए, कभी इतना कि दो बूंद के लिए तरसा दे. अधिकतर के लिए ये किस्मत है. ऊपर वाले की मर्जी के आगे क्या ही किया जा सकता है. फिर कुछ 170 साल पहले, एक आदमी ने गंगा के असीम प्रवाह पर लगाम लगाने का बीड़ा उठाया (Upper Ganga Canal). ताकि दोआब को साल भर पानी मिल सके. इसके नतीजे में हमें मिली गंगा नहर. हरिद्वार से शुरू होने वाली ये नहर यह नहर सहारनपुर, मुज़फ़्फ़नगर, मेरठ, गाज़ियाबाद, बुलन्दशहर, अलीगढ़, मथुरा, एटा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी, इटावा, कानपुर, फ़र्रुख़ाबाद औरफ़तेह पुर आदि ज़िलों की लगभग 7 लाख हैक्टेयर जमीन तक पानी पहुंचाती है.

इस काम का श्रेय जाता है एक शख्स को, जिसका नाम था, सर प्रोबी थॉमस कॉटली (Proby Cautley). एक अंग्रेज़ इंजीनियर जिसने बिना आधुनिक यंत्रो के लगभग 500 किलोमीटर लम्बी नहर बना डाली. इस काम में कॉटली के सामने काफी सारी दिक्कतें आईं. उन्हें अपनी ही हुकूमत से लड़ना पड़ा. पैसे की दिक्कत थी. आधुनिक उपकरण नहीं थे. और इन सबसे बड़ी दिक्कत थी, स्थानीय हिन्दू जनता को उस नदी पर एक बांध बनाने के लिए राजी करना, जो उनके लिए सिर्फ एक नदी नहीं थी, बल्कि उनकी आस्था का केंद्र थी. गंगा कैनाल बनाने के दौरान ही भारत का पहला इंजीनियरिंग संस्थान बना, और चली भारत की पहली रेलगाड़ी.

उत्तर भारत में अकाल 

उत्तर भारत के लिए गंगा और यमुना, ये दो नदियां जीवनदायिनी हैं. साल 1837 की बात है. उस साल उत्तर भारत में मानसून समय से नहीं आया. जिसके चलते दोनों नदियों में पानी कम हो गया. ऐसा सूखा पड़ा कि 8 लाख जानों को लील गया. लोग घरबार छोड़कर जाने लगे. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शासन काल में पहली बार ऐसा अकाल देखा. लोगों ने अपनी जमीनें छोड़ दी. जिसके चलते ब्रिटिश हुकूमत को लगभग 1 करोड़ भू राजस्व का नुकसान हुआ.

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भीमगोडा बैराज (तस्वीर: wikimedia Commons)

जॉर्ज ऑकलैंड तब भारत के गवर्नर जनरल हुआ करते थे. उन्होंने अपने माहततों को इस समस्या का हल ढूंढने का निर्देश दिया. एक तरीका था, जिस पर सालों से विचार चल रहा था. गंगा पर नहर का निर्माण करना, ताकि कृत्रिम तरीके से पूरे उत्तर भारत में पानी पहुंचाया जा सके. एक ब्रिटिश इंजीनीयर प्रोबी थॉमस कॉटली को इस काम के लिए सर्वे का जिम्मा मिला. 1839 में कॉटली ने हरिद्वार से सर्वे की शुरुआत की. 6 महीनों तक जंगली रास्तों से चलते हुए गंगा के किनारे सर्वे का काम पूरा किया. जिसके अंत में उन्होंने हरिद्वार से कानपुर तक एक 500 किलोमीटर लम्बे कैनाल का प्रस्ताव पेश किया. 

शुरुआत में कॉटली के प्लान को हाथों हाथ लेते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टर्स ने उन्हें फंड भी जारी कर दिए. हरिद्वार में कनखल से कॉटली ने खुदाई की शुरुआत की. लेकिन फिर लार्ड एलेनबरो नए गवर्नर जनरल बने, और उन्होंने ये कहते हुए काम रोक दिया कि ये पैसे की बर्बादी है. बहुत कोशिशों के बाद वो कॉटली को 2 लाख रूपये प्रति वर्ष देने को तैयार हुए. हालांकि उस समय के हिसाब से ये रकम बहुत ज्यादा थी, लेकिन इतने बड़े प्रोजेक्ट के लिए इससे कहीं ज्यादा पैसे चाहिए थे. फिर 1844 में नार्थ वेस्ट प्रोविंस के लेफ्टिनेंट गवर्नर, जेम्स थॉमसन ने एक आईडिया दिया. उन्होंने प्रस्ताव रखा कि इस नहर के जरिए न केवल सिंचाई का काम होगा, बल्कि सामान लाने ले जाने के लिए भी इसका उपयोग किया जाएगा. इस प्रस्ताव का मतलब था, गंगा कैनाल प्रोजेक्ट अब सिर्फ खर्च ही नहीं, कमाई का प्रोजेक्ट भी बन गया था. थॉमसन ने प्रोजेक्ट की राशि एक लाख रूपये बढ़ा दी. 

इस तरह कॉटली का बजट तो बढ़ गया , लेकिन उनके लिए चुनौतियां भी बढ़ गई. क्योंकि एक सिंचाई वाली नहर और नाव चलाने वाली नहर में काफी अंतर होता है. नाव चलाने के लिए आपको ढलान और बहाव को जगह-जगह पर नियंत्रण करना होता है. कॉटली ने इस चुनौती को स्वीकार किया और अपने काम में लग गए. उन्होंने आसपास के खानाबदोश लोगों को इस काम के लिए तैयार किया और खुदाई का काम शुरू हो गया. इस बीच 1845 में कॉटली की तबीयत अचानक ख़राब हो गई. जिसके चलते उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ा. इंग्लैंड में रहते हुए कौटली ने ब्रिटेन और इटली में इस्तेमाल लाई गई नई तकनीकों को सीखा और नई ऊर्जा के साथ भारत लौटे. 

अंग्रेज़ ने कराई गणेश पूजा

भारत का राजनैतिक वातावरण भी तब तक उनके लिए मुफीद हो चुका था. हेनरी हार्डिंग नए गवर्नर जनरल बन चुके थे. हार्डिन ने और अधिक सर्वे कराए, खुद प्रोजेक्ट का दौरा किया और अंत में इसके लिए 20 लाख रूपये सालाना की मंजूरी दे दी. हार्डिंग के बाद लार्ड डलहौजी ने भी इस प्रोजेक्ट का पूरा समर्थन किया और बजट को मंजूरी देते रहे. इस तरह कॉटली के लिए आर्थिक समस्याएं तो दूर हो गई. लेकिन अभी बड़ी समस्या बाकी थी. 

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सोलानी एक्वाडक्ट और गंगा नहर का डिज़ाइन प्लान (तस्वीर: IIT Roorkee) 

नहर में पानी देने के लिए एक बैराज बनाए जाने की जरुरत थी. और ये बैराज बनना था हरिद्वार में हर की पैड़ी के नजदीक भीमगोड़ा नाम की जगह पर. इस स्थान पर मान्यता है कि महाभारत काल में भीम ने अपना पैर मारा था, जिससे चट्टान में पानी फूट निकला था. कॉटली यहीं पर एक बैराज बनाना चाहते थे, ताकि पानी को इकठ्ठा कर नियंत्रित तरीके से नहर में भेजा जा सके. लेकिन हरिद्वार के पण्डे पुजारियों ने इस काम में अड़ंगा लगाना शुरू कर दिया. हर की पैड़ी, जैसा कि आप जानते होंगे, हिन्दू धर्म की आस्था में बड़ा स्थान रखता है. यही वो जगह है जहां कुम्भ के दौरान लाखों लोग स्नान के लिए आते हैं. तब भी आते थे. ऐसे में पंडों का कहना था कि देवी गंगा पर बांध बनाना बहुत बड़ा अपशकुन होगा. कॉटली उनसे भिड़े नहीं. बल्कि आज से 150 साल पहले उस अंग्रेज़ ने जिस सलीके से धार्मिक भावनाओं को संभालते हुए अपना काम किया, उसकी नजीर मिलना दुर्लभ है.

कॉटली ने प्रस्ताव दिया कि वो बांध में एक गैप छोड़ देंगे जिससे गंगा निर्बाध रूप से हर की पैड़ी तक बह सकेगी. इतना ही नहीं पंडों को खुश करे के लिए उन्होंने हर की पैड़ी पर नए घाट बनाने की पेशकश की. और जब भीमगोड़ा में बैराज बनाने के शुरुआत हुई, कॉटली ने गणेश पूजा करवाकर इस काम की शुरुआत की. अब नहर बनाने में आ रही सामजिक चुनौतियों का भी समाधान हो चुका था. अब बारी थी इंजीनियरिंग की दिक्कतों की. 

सोलानी एक्वाडक्ट और IIT रूड़की  

हरिद्वार से रुड़की तक नहर का काम बिना ज्यादा रुकावटों के हो गया, लेकिन रुड़की में सोलानी नदी रास्ते में पड़ती थी, जिसका बहाव बारबार नहर को काट डालता था. इसके लिए कॉटली ने एक नया रास्ता खोजा. उन्होंने सोलानी के ऊपर लगभग आधे किलोमीटर तक एक्वाडक्ट का निर्माण करवाया (Solani Aqueduct). यानी इस आधे किलोमीटर में आपको नदी के ऊपर बहती हुई मिलेगी. इंजीनियरिंग का ये अदभुत नमूना बनाने के लिए दो साल का वक्त लगा. और इस काम को पूरा करने के लिए विशेष रूप से रूड़की में एक शिक्षा संस्थान की शुरुआत हुई. थॉमसन कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, जो आगे चलकर देश का सातवां IIT (IIT Roorkee) बना. इस कॉलेज में ट्रेन हुए पहले ब्रिटिश अफसर्स ने नहर के निर्माण में योगदान दिया. 

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जेम्स थॉमसन और IIT रूड़की की एक पुराणी तस्वीर (तस्वीर: IIT रूड़की )

सोलानी में बना एक्वाडक्ट भारत का पहला एक्वाडक्ट था. इस एक्वाडक्ट के चलते भारत को अपना पहला स्टीम इंजन भी हासिल हुआ. दरअसल प्रोबी थॉमस कॉटली ने ईटें बनाने के लिए जिन भट्टों का निर्माण करवाया था, उनमें एक खास प्रकार की मिट्टी लगती थी. ये मिट्टी रुड़की के पास एक जगह पीरान कलियर से लाई जाती थी. शुरुआत में मजदूर मिट्टी की ढुलाई करते थे. जिसके चलते काम धीमा चल रहा था. 1851 में कॉटली ने तय किया कि इस काम के लिए एक रेल पटरी बिछाई जाएगी. इस तरह 22 दिसंबर 1851 को पीरान कलियर से रुड़की तक, भारत की पहली मालवाहक रेल चलाई गई (First train in India). पहली पैसेंजर ट्रेन इसके दो साल बाद यानी 1853 में बोरी बन्दर से थाने के बीच चली थी. 

सबसे बड़ी नहर 

कॉटली के प्रयासों के चलते साल 1854 में ये नहर बनकर तैयार हुई. 8 अप्रैल 1854 को इसे पहली बार खोला गया. तब इसकी कुल लम्बाई 560 किलोमीटर थी, वहीं इससे 492 किलोमीटर की ब्रांचेज, और 4800 किलोमीटर्स की छोटी नहरें निकाली गई थीं. जिनसे 5000 गांवो तक पानी पहुंचाया गया. तब दुनिया के जाने माने इंजीनियर इस नहर को देखने आए थे. स्टेट्समैन अखबार के एडिटर इयान स्टोन ने इस नहर को देखकर लिखा था, “दुनिया में इतनी बड़ी नहर बनाने की ये पहली सफल कोशिश है. ये नहर इटली और मिश्र की नहरों को मिलाकर भी उनसे पांच गुना ज्यादा बड़ी, और अमेरिका के पेंसिल्वेनिया कैनाल से एक तिहाई से भी ज्यादा लम्बी है”

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सोलानी एक्वाडक्ट (तस्वीर: Wikimedia Commons )

इस पूरे प्रोजेक्ट में लगभग डेढ़ करोड़ का खर्चा आया था. 1930 तक इस नहर से यातायात का काम किया जाता रहा, उसे बाद जब दूसरे यातायात के साधन सुलभ हो गए, तो इसमें यातायात बंद कर दिया गया. कॉटली ने इसके बाद देहरादून में नहरों का जाल बिछाया, जिसके बाद वो इंग्लैंड लौट गए. वहां उन्हें नाइटहुड की उपाधि प्रदान की गई. कॉटली उन चंद अंग्रेज़ों में थे, जिन्हें स्थानीय जनता से खूब प्यार मिला. उन्हें बाहर से गोरा लेकिन दिल से भारतीय बुलाया जाता था.  साल 1871 में लन्दन में उनका निधन हो गया था. उनके नाम पर IIT रूड़की में एक छात्रावास, कॉटली भवन का नाम रखा गया है.

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