कानपुर के डिप्टी कलेक्टर की प्रताप पर खास नज़र रहती थी. जिसका कारण भी वाजिब था. प्रताप वो पत्रिका थी कि जिसके एडिटर को एक बार मानहानि के मामले में जेल हुई, तो पाठकों ने मिलकर जुर्माने की रक़म अदा कर दी थी. डिप्टी कलेक्टर ने कोड वर्ड देखा तो एक ही नज़र में पहचान गया, दाल में कुछ काला है. एडिटर साहब को बुला भेजा. लेकिन प्रताप का एडिटर, साहब नहीं था. वो गणेश शंकर विद्यार्थी थे और उनका इतना ही परिचय काफ़ी था. आइरिश क्रांतिकारी होते तो.. साल 1913 में गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर पहुंचे और वहां उन्होंने प्रताप नाम की पत्रिका निकाली. बटुकदेव शर्मा तब भागलपुर में एक मासिक मैगज़ीन के एडिटर हुआ करते थे. यूं तो मैगज़ीन न्यूज़ छापने का दावा करती थी लेकिन असल में क्रांतिकारी इसका उपयोग अपनी गतिविधियों के लिए किया करते थे. पुलिस तक जैसे ही खबर पहुंची, बटुकदेव को लगा अब किसी भी दिन धर-पकड़ हो सकती है. बटुकदेव ने अम्बिका प्रसाद सिन्हा से मदद मांगी. अम्बिका को सिर्फ़ एक जगह का नाम सूझा, कानपुर. जहां गणेश शंकर विद्यार्थी ‘प्रताप’ का सम्पादन किया करते थे.

मुंशी प्रेमचंद और महावीर प्रसाद द्विवेदी (तस्वीर: Wikimedia Commons)
बटुकदेव ने विद्यार्थी के नाम एक पत्र लिखा और मदद मांगी. साथ में लिखा अगर आप अपनी पत्रिका के अगले अंक में एक संकेत दे दें, तो मैं इसके सहमति मानकर आपके पास पहुंच जाऊंगा. इसके बाद अगले अंक में एक ‘कोड वर्ड’ छपा और बटुकदेव कानपुर पहुंच गए. प्रताप के ऑफ़िस में तब एक खास कमरा हुआ करता था. जिसमें जाने की इजाज़त किसी को नहीं थी. यहीं से बटुकदेव नाम बदलकर प्रताप में काम करने करने लगे.
बटुकदेव तो बच गए लेकिन पत्रिका में छपी कोड वर्ड वाली बात ज़िला अधीक्षक को पता चल गई थी. अधीक्षक ने विद्यार्थी को अपने ऑफ़िस बुलावा भेजा. विद्यार्थी पहुंचे तो केलक्टर ने हड़काने के भाव से कोड वर्ड के बारे में पूछा. कलेक्टर जतलाना चाहता था कि हिंसा का विरोध करने वाले विद्यार्थी क्रांतिकारियों का साथ देकर ग़लत कर रहे थे.
विद्यार्थी ने जवाब दिया, अगर मेरी जगह तुम होते और मदद मांगने वाले आइरिश क्रांतिकारी होते तो तुम भी यही करते. दरअसल कलेक्टर आइरिश मूल का था और आइरलेंड में ब्रिटेन के ख़िलाफ़ विद्रोह के स्वर उपज रहे थे. वहां भी क्रांतिकारियों की वही मंशा थी जो भारत में थी. ब्रिटेन से आज़ादी. इसके बाद कलेक्टर से कुछ ना कहते बना. और विद्यार्थी अपने रास्ते चले गए. भगत सिंह से मुलाक़ात गांधी के रास्ते पर चलने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी का यहां से क्रांतिकारियों ने रिश्ता जुड़ा और एक बार जुड़ा तो हमेशा बना रहा. हालांकि गणेश शंकर विद्यार्थी क्रांति के हिंसक तरीक़ों का समर्थन नहीं करते थे. लेकिन 18-20 साल के लड़के जो देश के लिए जान देने को तैयार थे, उनके लिए विद्यार्थी के दिल में बहुत इज्जत थी. इसलिए कभी भी मदद का कोई मौक़ा नहीं चूकते.

विद्यार्थी लाहौर जेल में बंद भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त से मिलने भी गए. (Wikimedia Commons)
कुछ इसी तरह गणेश शंकर विद्यार्थी की मुलाक़ात भगत सिंह से भी हुई. तब तक प्रताप एक मासिक ना होकर दैनिक अख़बार में तब्दील हो गया था. और विद्यार्थी अंग्रेजों के ख़िलाफ़ तो लिख ही रहे थे, साथ में भारतीय सामंत वादी रियासतों की पोल भी खोल रहे थे.
भगत सिंह तब नेशनल कॉलेज, लाहौर में पढ़ रहे थे. और कॉलेज के दिनों से ही भगत सिंह के घरवाले उनकी शादी के पीछे लग गए थे. ख़ासकर भगत की नानी, जो अक्सर बीमार रहती और अपने नाती को ब्याहते देखना चाहती थी. भगत शादी के लिए हरगिज़ राज़ी नहीं थे और तय कर चुके थे कि सिर्फ़ क्रांति की राह पर चलेंगे. उन्होंने अपने प्रोफ़ेसर जय चंद्र विद्यालंकर से सलाह मांगी. विद्यालंकर ने उन्हें कानपुर की राह दिखाई. 1924 में भगत कानपुर पहुंचे. और गणेश शंकर विद्यार्थी से मुलाकात की. विद्यार्थी से अपनी समस्या शेयर की तो उन्होंने जवाब में कहा,
“देखो लड़के, आजादी की चाहत ऐसी है मानो कोई परवाना शमा पर फ़ना हो जाना चाहता हो. जलती हुई शमा में एक बार दाखिल हो गए. तो ये उम्मीद मत रखना कि बाक़ियों की पास जाकर उन्हें भी शमा तक लेकर आऊंगा. एक बार जलने की ठान ली तो वापसी का रास्ता बंद कर लेना ही ठीक है.”तब भगत सिंह का निश्चय और पक्का हुआ और उन्होंने कानपुर में ही रुक जाने की ठानी. अपना नाम बदलकर बलवंत सिंह रखा. और इसी नाम से प्रताप में लिखने लगे. यही उनकी मुलाक़ात बटुकेश्वर दत्त, चंद्र्शेखर आज़ाद, और बिजॉय कुमार सिन्हा जैसे क्रांतिकारियों से हुई. ‘डायरशाही ओ डायरशाही’ आज ही के दिन यानी 25 मार्च 1931 को एक धार्मिक दंगे में गणेश चंद्र विद्यार्थी की हत्या कर दी गई थी. वो पत्रकारिता के उस स्कूल से आते थे, या कहना चाहिए, उन्होंने पत्रकारिता के उस स्कूल की शुरुआत की, जहां पत्रकार का मकसद सत्ता को आईना दिखाना था. और यहां सत्ता का अर्थ सिर्फ़ सरकार से नहीं, हर उस केंद्र से था, जहां ताक़त इकट्ठा होती है.

उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में 9 नवंबर 1913 को ‘प्रताप’ की नींव पड़ी (तस्वीर: Wikimedia Commons)
साल 1921 में जब रायबरेली में किसान आंदोलन हुआ ज़मींदारों ने अंग्रेजों की मिलीभगत से किसानों पर गोलियां चलवा दीं. विद्यार्थी सबसे पहले वहां पहुंचे और प्रताप में ‘डायरशाही ओ डायरशाही’ नाम से लेख लिखा. इस हत्याकांड को उन्होंने दूसरा जलियावाला बाग कांड कहा. अंग्रेजों ने विद्यार्थी को गिरफ़्तार कर जेल में डलवा दिया. हवाला दिया राजद्रोह क़ानून का.
विद्यार्थी पक्ष में मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, श्री कृष्ण मेहता जैसे राष्ट्रीय नेता बतौर गवाह पेश हुए. लेकिन फिर भी विद्यार्थी केस हार गए और उन्हें जेल में डाल दिया गया. अपनी पत्रकारिता के चलते कुल पांच बार जेल गए लेकिन लिखना नहीं छोड़ा.
1928 में उन्होंने सत्ता के ख़िलाफ़ जाकर ‘काकोरी के शहीद’ नाम से बिस्मिल की आत्मकथा छपवाई. और काकोरी कांड की असलियत पूरी दुनिया के सामने रखी. लाहौर जेल में भगत सिंह और उनके साथियों ने भूख हड़ताल की शुरुआत की. तो विद्यार्थी ने प्रताप में खूब ज़ोर शोर से भगत सिंह के विचारों को छापा. अगर वे लायक होंगे अपने लिखे में वो हमेशा धार्मिक उन्माद का विरोध किया करते थे. राष्ट्रीयता शीर्षक से उनका एक लेख बड़ा फ़ेमस हुआ. इसमें वो लिखते हैं,
‘हमें जानबूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और गलत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए. हिंदू राष्ट्र- हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं. इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है.’

कानपुर का वो भवन जहां प्रताप अख़बार का दफ़्तर हुआ करता था (तस्वीर: smbpatrika.page)
इसी प्रकार उन्होंने दूसरे ख़ेमे को भी नहीं बख्शा. अपने लेख में वो आगे लिखते हैं,
‘ऐसे लोग जो टर्की, काबुल, मक्का या जेद्दा का सपना देखते हैं, वे भी इसी तरह की भूल कर रहे हैं. टर्की, काबुल, मक्का या जेद्दा उनकी जन्मभूमि नहीं है. इसमें कुछ भी कटुता नहीं समझी जानी चाहिए, यदि कहा जाए कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और अगर वे लायक होंगे तो उनके मरसिये भी इसी देश में गाए जाएंगे.’साल 1931 में विद्यार्थी इस धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गए, जब वो एक दंगा शांत करवाने अकेले निकल पड़े थे. हुआ ये कि 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई. और पूरे देश में बंद का आहवान हुआ. 24 मार्च को कानपुर में बंद के दौरान अचानक हिंसा भड़क उठी. अगले दिन शाम को उनकी लाश एक ढेर में मिली. क्या हुआ, किसी को पता नहीं था. प्रताप बाबा के नाम से किसानों के बीच प्रसिद्ध गणेश शंकर विद्यार्थी की इस प्रकार मौत पर हंगामा खड़ा हो गया. किसानों की माँग पर एक इन्क्वायरी कमिटी बिठाई गई. एक चश्मदीद ने उस दिन का आंखो-देखा हाल बताया. दंगा रोकने के लिए जान दे दी इंक्वरी कमिटी के आगे पेश हुए इक़बाल कृष्ण कपूर ने बताया कि 25 की सुबह 9 बजे विद्यार्थी अपने घर से निकले. वो शहर के डिप्टी कलेक्टर के पास पहुंचे और उससे दंगाइयों को गिरफ़्तार करने को कहा. साल 1931 में ऐसे ही एक दंगे के दौरान पुलिस की त्वरित कार्रवाई ने एक बड़ी घटना को अंजाम होने से पहले ही रोक दिया था. लेकिन इस बार सरकार की मंशा कुछ अलग थी. डिप्टी कलेक्टर तकी अहमद सिर्फ़ 2 हवलदारों के साथ दंगा स्थल पर पहुंचा. इटावा बाज़ार में हालात बहुत बिगड़ चुके थे. विद्यार्थी पहुंचे तो उन्होंने देखा एक 30 साल के हिंदू लड़के ने 30 मुसलमानों को आसरा दिया हुआ था. तब किसी ने उन्हें बताया कि मुस्लिम इलाक़ों में हालात ज्यादा ख़राब हैं, उन्हें वहां जाना चाहिए. विद्यार्थी रुके रहे और तब तक वहां से आगे नहीं गए जब तक सभी घायलों को अस्पताल ना पहुंचा दिया गया.

गणेश शंकर विद्यार्थी की अंतिम यात्रा में उम्दा जनसमूह (तस्वीर: smbpatrika.page)
विद्यार्थी को पता चला इटावा बाज़ार से भीड़ बंगाली मुहल्ले की तरफ़ बढ़ गई है. विद्यार्थी वहां पहुंचे लेकिन तब तक वहां घरों को आग लगा दी गई थी. वहां से लोगों को निकालकर वो राम नारायण बाज़ार ले गए. चश्मदीद के अनुसार घायलों को लेने एक लॉरी आई लेकिन उसके ड्राइवर को भी गोली मार दी गई. विद्यार्थी इसके बाद चौबे गोला गए. अब तक दो कांस्टेबल साथ चल रहे थे. लेकिन वहां हालात इतने ख़राब हो चुके थे कि हवलदारों ने भागने में ही भलाई समझी. मेस्टन रोड के पास की मस्जिद के आगे एक भीड़ इकट्ठा थी. शाम के 4 बज चुके थे. वहां विद्यार्थी ने कुछ 200 मुसलमानों को समझाया और उनके लीडरों से बात की. इन लोगों को समझाने के बाद विद्यार्थी वापस चौबे गोला गए लेकिन तब तक वो बिलकुल अकेले हो चुके थे.
गणपत सिंह नाम के एक चश्मदीद के अनुसार गणेश दो तरफ़ा भीड़ के बीच में फ़ंस चुके थे. कुछ लोगों ने उन्हें गली में ले जाने की कोशिश की, ताकि उनकी जान बच सके. लेकिन उन्होंने ये कहते हुए इनकार कर दिया कि, एक ना एक दिन तो सबको मरना है. इसके बाद भीड़ ने विद्यार्थी पर हमला कर दिया. एक ने चाकू भोंका तो दूसरे ने कुल्हाड़ी से वार किया. दो दिन बाद उनकी हॉस्पिटल के एक ढेर में उनकी लाश मिली. जिसकी हालत इतनी बुरी कर दी गई थी कि उनके सफ़ेद खादी के कपड़ों से उन्हें पहचाना गया. इसके अलावा उनकी जेब में 3 चिट्ठियां मिली जो उन्होंने उसी सुबह लिखी गई थीं.
अपने आदर्शों के लिए 41 साल की उम्र में गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपनी जान दे दी. लेकिन पत्रकारिता का जो मानक वो स्थापित करके गए, और सिर्फ़ पत्रकारिता ही नहीं, इंसानियत का, वो आज भी इस प्रोफ़ेशन का शिखर माना जाता है.
इस आर्टिकल के लिए शोध के लिए हमें डॉक्टर एम.एल. भार्गव की किताब बिल्डर्स ऑफ़ मॉडर्न इंडिया: गणेश शंकर विद्यार्थी से बहुत मदद मिली.