13 अक्टूबर 1935 का दिन. येवला में अछूत समझे जाने वाले हजारों लोगों के सामने बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) ने घोषणा करते हुए कहा, 'मैं हिंदू के रूप में पैदा जरूर हुआ हूं लेकिन हिंदू के रूप में हरगिज नहीं मरूंगा'.
जिस घटना ने पहली बार आंबेडकर के मन में छुआछूत को लेकर सवाल उठाया !
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के जीवन की वो घटनाएं जिन्होंने उन्हें आम्बेडकर बनाया
इस घटना के 21 साल बाद 14 अक्टूबर 1956 में उन्होंने अपने हजारों अनुयायियों के साथ मिलकर बौद्ध धर्म अपना लिया था. उनके इस कदम ने दलित आंदोलन और बौद्ध धर्म दोनों को गति दी. 1950 की जनगणना के अनुसार भारत में बौद्धों की संख्या डेढ़ लाख से कुछ कम थी. आंबेडकर के बाद दलितों के बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के परिणामस्वरूप केवल 10 साल में ये संख्या बढ़कर 32 लाख से ज़्यादा हो गई. हालांकि डॉक्टर इसके बाद ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहे. सिर्फ दो महीने बाद ही यानी 6 दिसंबर 1956 के रोज़ उनकी मृत्यु हो गई. तब से इस दिन को महापरिनिर्वाण दिवस (Mahaparinirvan Diwas) के रूप में मनाया जाता है. इस मौके पर हमने सोचा डॉक्टर आंबेडकर के जुड़ी कुछ ऐसी घटनाओं से आपको रूबरू करवाएं, जिन्होंने उनकी जिंदगी और भारत देश पर एक बड़ा असर डाला.
मुसलमान का पानीसबसे पहले उस किस्से के बारे में सुनिए जिसने 9 साल के आंबेडकर को जाति के बारे में पहली बार सोचने के लिए मजबूर किया. इस घटना का जिक्र डॉक्टर आंबेडकर ने अपनी आत्मकथा 'वेटिंग फॉर वीजा’ में किया है.
साल 1901 की बात है. डॉक्टर आंबेडकर का परिवार तब सतारा में रहता था. उनकी मां की मृत्यु हो चुकी थी और पिता फौज से रिटायर होने के बाद कोरेगांव में खजांची की नौकरी करने लगे थे. एक बार गर्मियों की छुट्टी में उनके पिता ने आंबेडकर को उनके भाई बहनों समेत कोरेगांव बुलाया. सब लोग रेलवे स्टेशन पहुंचे. वहां से ट्रेन मसूर तक गई. जो कोरेगांव का सबसे नजदीकी स्टेशन था. पिता ने लिखा था कि वो स्टेशन पर चपरासी को भेज देंगे. लेकिन आंबेडकर और उनके भाई-बहन स्टेशन पर ही खड़े रह गए. अगले एक घंटे तक कोई नहीं आया. स्टेशन मास्टर ने बच्चों को देखा तो पूछा, ‘सब चले गए, तुम लोग यहां क्यों खड़े हो’. आंबेडकर ने बताया कि उन्हें कोरेगांव जाना है और वो अपने पिता या उनके चपरासी का इंतज़ार कर रहे हैं. डॉक्टर आंबेडकर लिखते हैं,
“हमने कपड़े-लत्ते अच्छे पहने हुए थे और हमारी बातचीत से भी कोई नहीं पकड़ सकता था कि हम अछूतों के बच्चे हैं. इसलिए स्टेशन मास्टर को यकीन हो गया था कि हम ब्राह्मणों के बच्चे हैं. वे हमारी परेशानी से काफी दुखी हुए.”
कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर ने पूछा, तुम कौन हो. आंबेडकर ने जवाब दिया. हम महार जाति के हैं. ये सुनते ही स्टेशन मास्टर के चेहरे के हाव भाव बदल गए और वो अपने कमरे की ओर लौट गया.
आंबेडकर और उनके भाई बहन परेशान थे. स्टेशन के पास ही कुछ बैलगाड़ी वाले खड़े थे. लेकिन कोई भी अछूत को ले जाकर अपवित्र होने को तैयार नहीं था. आंबेडकर दोगुने पैसे देने को भी तैयार थे, लेकिन तब भी कोई राजी न हुआ. इसके बाद स्टेशन मास्टर ने एक युक्ति निकाली. उसने आंबेडकर से पूछा, क्या तुम बैलगाड़ी चला सकते हो?
आंबेडकर ने हां में जवाब दिया.
स्टेशन मास्टर ने एक गाड़ी वाले को पेशकश की कि वो दोगुने पैसे लेगा लेकिन बैलगाड़ी चलाएगा नहीं. बस साथ-साथ चलता रहेगा. आम्बेडर और उनके भाई बहन गाड़ी में बैठ गए. गाड़ी अपने रास्ते चलने लगी. और चलते-चलते रात हो गयी. सबके लिए घर से टिफन रखा गया था. लेकिन पीने के लिए पानी नहीं था. कुछ देर बाद उन्हें एक चुंगी वाले की झोपड़ी दिखाई दी. आंबेडकर ने सोचा कि उससे पानी मांगा जाए. आंबेडकर पानी लेने जा ही रहे थे कि बैलगाड़ी वाले ने चेताया, ‘चुंगी वाला हिन्दू है, वो महारों को पानी नहीं देगा’. उसने कहा, ‘उसे बताना कि तुम मुसलमान हो, शायद पानी मिल जाए.’
आंबेडकर ने चुंगी वाले से पानी मांगा. चुंगी वाले ने सवाल पूछा, कौन हो. आंबेडकर ने जवाब दिया, मुसलमान हैं. आंबेडकर अच्छी खासी उर्दू बोल सकते थे, लेकिन इससे भी उनका काम न बना. चुंगी वाले ने उनसे कहा, ‘तुम्हारे लिए यहां पानी नहीं है. दूर पहाड़ी पर है. वहां से ले आओ.’
अब तक काफी रात हो चुकी थी. पहाड़ी पर जाना संभव नहीं था. इसलिए सबने बैलगाड़ी को खोलकर उसमें बिस्तर डाला. और सब वहीं सो गए. आम्बेकडर लिखते हैं,
“मेरे दिमाग में चल रहा था कि हमारे पास भोजन काफी है, भूख के मारे हमारे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं लेकिन पानी के बिना हमें भूखे सोना पड़ रहा है और पानी इसलिए नहीं मिल सका क्योंकि हम अछूत हैं.”
जब ये घटना घटी तब आंबेडकर 9 साल के थे. वो लिखते हैं कि इस घटना ने उनके दिमाग में गहरा असर डाला. ऐसा नहीं था कि उन्हें पहली बार छुआछूत का सामना करना पड़ रहा था. स्कूल में वो बाकी बच्चों के साथ नहीं बैठ सकते थे. उन्हें एक कोने में अकेले बैठना पड़ता था. वो अपने साथ एक बोरा लेकर आते थे जिसे सफाई करने वाला भी नहीं छूता था. पानी पीने के लिए भी एक चपरासी उन्हें घड़े से पानी निकालकर देता था. अगर चपरासी न हो तो उन्हें प्यासा ही रहना पड़ता था.
यहां तक कि धोबी भी उनके कपड़े नहीं धोते थे. छुआछूत के चलते नाई भी उनके बाल काटने से इंकार कर देते थे. लेकिन इससे पहले आंबेडकर के मन में कभी ये सवाल नहीं उठा था कि ऐसा क्यों हो रहा है. आंबेडकर लिखते हैं, ‘अब तक मुझे लगता था कि छुआछूत एक सामान्य चीज है. कुछ लोग होते हैं, जिन्हें दूसरे लोग छूना नहीं चाहते.’
इस अनुभव ने उन्हें जातिवाद और छुआछूत को एक नए नजरिए से देखने के लिए मजबूर कर दिया. उनके मन में पहली बार सवाल उठा कि छुआछूत का कारण क्या है. ये गरीबी तो हरगिज नहीं हो सकती. आंबेडकर के पिता अच्छी खासी नौकरी करते थे. इन्हीं कारणों से आगे चलकर जब संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया तो इसमें गरीबी को मुद्दा नहीं बनाया गया. आंबेडकर का कहना था दिक्कत गरीबी से कहीं बड़ी है. गरीब फिर भी अमीर बन सकता है, लेकिन एक पिछड़ी जाति का आदमी कितनी मेहनत कर ले , कभी अगड़ी जातियों के बराबर नहीं समझा जाएगा.
जब आंबेडकर ने लिखा अपनी मृत्यु का ख़तदूसरी घटना वो है जब आंबेडकर विदेश से पढ़ाई बीच में ही छोड़कर भारत लौटे. उनकी स्कॉलर शिप का इंतज़ाम बड़ौदा के महाराज़ ने करवाया था. इसलिए भारत आते ही आंबेडकर बड़ौदा पहुंचे. आंबेडकर लिखते हैं कि विदेश में रहने के दौरान उनके मन से अछूत होने का भाव मिट चुका था. लेकिन भारत लौटते ही उन्हें दुबारा उसी छुआछूत का डर सताने लगा. बड़ौदा में रहने के लिए उन्हें कोई जगह नहीं मिली. हिन्दू होटलों में उन्हें रहने देने को कोई तैयार नहीं था. उन्होंने अपने एक ईसाई दोस्त से बात की. लेकिन वो भी बात को टाल गया. आखिर में वो एक पारसी सराय में रहने के लिए पहुंचे. सरायवाले ने भी ये कहते हुए कमरा देने से इंकार कर दिया कि वहां सिर्फ पारसी रहा सकते हैं. आखिर में किसी तरह वो तैयार हुआ और डॉक्टर आंबेडकर को सबसे ऊपरी मंजिल पर एक घुप्प अंधेरा कमरा दे दिया, जिसमें न लाइट थी, न आसपास कोई बोलने वाला. आंबेडकर बताते हैं कि इस दौरान वो बहुत ही अकेला महसूस करते थे. फिर भी उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही उन्हें एक सरकारी घर मिल जाएगा, रहने के लिए. आंबेडकर कुछ दिन तक उसी सराय में रहे. अंत में एक रोज़ 10 बारह पारसी आए और आंबेडकर को कमरे से निकाल दिया. इस घटना के बारे में आंबेडकर ने लिखा है,
महाड़ सत्याग्रह“उस दिन मुझे अहसास हुआ कि जो आदमी हिंदुओं के लिए अछूत है वो पारसियों के लिए भी अछूत है”
साल 1927 की बात है. आंबेडकर के पास रोज़ ढेरों लोगों के पत्र आते थे. जिनमें अछूतों पर होने वाले अत्याचार का जिक्र होता था. एक दिन एक ऐसा ही पत्र उनके पास आया, महाड़ से. जिसमें लिखा था कि वहां अछूतों को चाबदार तालाब से पानी नहीं लेने दिया जाता. एक बार कुछ अछूतों ने वहां से पानी लेने की कोशिश की तो उन्हें बहुत मारा गया, घर जला दिए गए, और परिवार वालों को जूतों से पीटा गया. आंबेडकर ने निश्चय किया कि वो महाड़ जाएंगे. 19 और 20 मार्च को डॉक्टर आंबेडकर ने कोलाबा में अछूतों की बैठक बुलाई. आंबेडकर ने यहां अपने सम्बोधन में कहा,
“भाइयों, ऐसा प्रयत्न करो, जिससे तुम्हारे बच्चे तुमसे अच्छी हालत में जिन्दगी बिता सकें. अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो फिर तुम मनुष्य कहलाने योग्य न रहोगे.’
उसी रात बैठक में तय हुआ कि अगली सुबह से सत्याग्रह शुरू होगा. सुबह सबेरे आंबेडकर अपने हजारों अनुयायियों के साथ तालाब पहुंचे. उन्हें पहले खुद अंजुली से पानी लेकर खुद पिया और फिर सबने बारी-बारी से ऐसा किया.महाड़ सत्याग्रह भारत में जातिवाद के खिलाफ पहला सत्याग्रह था. जैसा कि अपेक्षित था इस घटना ने अगड़ी जातियों को काफी नाराज़ किया. एक अफवाह फ़ैल गई कि अछूत कल वीरेश्वर मंदिर में जाने वाले हैं. जिसके बाद डॉक्टर आंबेडकर और उनके अनुयाियियों पर हमला हुआ, जिसमें काफी लोगों चोट आई.
कुछ दिनों बाद सवर्णों ने तालाब की शुद्धि करवाई. तालाब का पानी निकाल कर पंचगव्य से भरे कुछ घड़े मंत्र पढ़ते हुए तालाब में उड़ेले गए. तब जाकर तालाब की शुद्धि मानकर पानी दुबारा प्रयोग हुआ. डॉक्टर आंबेडकर का सत्याग्रह यहीं समाप्त नहीं हुआ. इसके नौ महीने बाद 24 दिसंबर 1927 को महाड़ में एक और सत्याग्रह की तैयारी हुई. लेकिन इससे पहले ही कुछ सवर्णों ने अदालत जाकर तालाब पर अपना दावा थोक दिया. आंबेडकर क़ानून का सम्मान करते थे. इसलिए अदालत का फैसला आने तक उन्होंने सत्याग्रह को टाल दिया. अदालत में मुकदमा 10 साल तक चला. 1937 को बम्बई हाईकोर्ट ने अछूतों के पक्ष में फैसला देते हुए उन्हें चाबदार तालाब से पानी लेने का हक़ सौंप दिया.
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