मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (Aurangzeb)ने मुग़ल साम्राज्य को असीम विस्तार दिया. लेकिन जैसे ही दुनिया के फारिग हुए मुगलों की शानो-शौकत भी अपने साथ ले गए. औरंगज़ेब के बाद मुग़ल सल्तनत का पतन क्यों हुआ? UPSC के इस सवाल का पोथी भर जवाब लिखा जा सकता है. मुग़ल सल्तनत (Mughal Empire) के दौर में हिन्दुस्तानी संगीत पर शोध करने वाली कैथरीन ब्राउन मानती हैं कि इस सवाल के उत्तर में एक जवाब हो सकता है, औरंगज़ेब का संगीत पर पाबंदी लगाना.
मुग़ल बादशाह, जिसे अपनी मर्दानगी का सबूत देना पड़ा था
मुग़ल साम्राज्य के 13वें बादशाह मुहम्मद शाह ने 1719 से 1748 तक राज किया.
अकबर हो या शाहजहां, औरंगज़ेब से पहले मुग़ल दौर में कला का बड़ा सम्मान हुआ करता था. लेकिन औरंगज़ेब के आते ही सब बदल गया. इसका बड़ा कारण था दारा शिकोह से दुश्मनी. दारा शिकोह की उदारवादी सोच को प्रोपोगेंडा बनाकर उन्होंने कट्टर मुस्लिम धड़े को अपने साथ किया था. और उन्हीं के बल पर सत्ता पर काबिज़ हुए थे. इसलिए बादशाह बनते ही उन्होंने इस्लामी तौर-तरीकों के पालन पर सख्ती लगाना शुरू किया. और साल 1668 में एक फरमान जारी करते हुए गीत-संगीत, नाच-गाने पर बैन लगा दिया. इतालवी पर्यटक निकोलाओ मनूची ने अपने यात्रा संस्मरण में इस दौर का एक रोचक किस्सा बयान किया है.
कब्र जरा गहरी खोदनाहुआ यूं कि औरंगज़ेब के फरमान से दिल्ली में कलाकारों की भूखे मरने की नौबत आ गई. जो भी गीत-संगीत में लिप्त पाया जाता, उसे गिरफ्तार कर लिया जाता, और गाजे-बाजे सब तोड़फोड़ डाले जाते. कलाकारों के पास जब रोज़ी का कोई जरिया न बचा तो उन्होंने मिलकर एक रास्ता निकाला. एक जुम्मे के रोज़ जब औरंगज़ेब जामा मस्जिद में नमाज पढ़ने जा रहे थे, हजार कलाकारों का एक काफिला वहां से गुजरने लगा.
ये सब अपने सर पर ढोल-बाजे लिए हुए थे. बादशाह ने देखा तो पूछा कि ये सब क्या चल रहा है. रोते-पीटते लोगों ने बताया कि बादशाह के आदेश से संगीत की मौत हो गई है. बस अब जनाजा निकालकर दफनाने जा रहे हैं. औरंगज़ेब कुछ देर ठहरे और फिर जवाब दिया, ‘कब्र जरा गहरी खोदना’.
औरंगज़ेब की मौत के 15 साल साल बाद गाजे-बाजे कब्र से जिन्दा होकर बाहर आए, और एक बार दुबारा दिल्ली की महफ़िलों की रौनक बने. ये हिमाकत करने वाला मुग़ल बादशाह कौन था, और क्यों इस बादशाह को अपनी मर्दानगी का सबूत देना पड़ा था? चलिए जानते हैं.
मुहम्मद शाह रंगीला (Muhammad Shah Rangila)1707 में औरंगज़ेब की मौत हुई. अगले कुछ सालों में दिल्ली में बादशाह मक्खियों की तरह टपके. और फिर 27 सितम्बर 1719 को तख़्तनशीन हुए ‘रौशन अख्तर’ उर्फ़ मुहम्मद शाह. जो मुगलिया वंश में 13वें नंबर के बादशाह थे. 16 साल की उम्र में सय्यद भाइयों की मदद से उन्होंने तख़्त हासिल किया और फिर असफ जाह की मदद से उन्हें भी ठिकाने लगा दिया. मुहम्मद शाह के आते ही दिल्ली में बहार एक बार फिर लौट आई. औरंगज़ेब के ज़माने में बंद हुए गाजे-बाजे फिर ताल बिठाने लगे.
मुहम्मद शाह की सीमा विस्तार में कोई रूचि नहीं थी. उनके दौर में मराठाओं ने दिल्ली पर हमला किया, लेकिन उन्होंने फिर भी जंग में हिस्सा नहीं लिया और अपने नवाबों को जंग के लिए भेजते रहे. उन्होंने कला और संगीत को जमकर बढ़ावा दिया और कलाकारों की पौ बारा होने लगी.
इसी दौर में कव्वाली और गजलों का दौर भी शुरू हुआ. मुहम्मद शाह ने उर्दू से प्रभावित होकर उसे राजदरबार की भाषा बनाया. उर्दू दरअसल तब लश्करी-जबान के नाम से जानी जाती थी. लश्कर यानी फौज या सैनिक कैम्प. उर्दू का जन्म इन्हीं लश्करों में हुआ था. तुर्क, अफ़ग़ान, राजपूत, मुग़ल सैनिक फौज में शामिल थे. और इन्हीं लोगों के बीच अलग-अलग भाषाओं के मेल से उर्द बनी. इसमें अरबी, फारसी, अफगानी, तुर्की, और यूनानी समेत तमाम भाषाओं के शब्द शामिल थे. उर्दू बोलने में कमोबेश आसान थी. इसलिए कुलीन वर्ग के लोग उर्दू बोलने वालों को अपने से नीचे दर्ज़े का समझते थे. सैनिक शिविरों से निकलकर उर्दू धीरे-धीरे आम लोगों की भाषा बन गयी.
उर्दू और हिंदी के मेल को हिन्दवी या हिन्दुस्तानी भाषा कहा जाता था. और नए प्रकार के कवि इसी में लिखने लगे थे. इन्हें शायर कहा जाता था. मुहम्मद शाह के दौर में शायरों को खूब सम्मान मिला और दिल्ली दरबार में मुशायरों के दौर चलने लगे. यहां तक कि खुद बादशाह भी शायरी करने लगे थे और उन्होंने अपना तखल्लुस 'सदा रंगीला' रखा था. रियाया ने दोनों को मिलाकर मुहम्मद शाह रंगीला कर दिया. और तब से उन्हें इसी नाम से जाना गया.
शायरी और शेरवानीरंगीला नाम सुनते ही लगता है जैसे किसी रंगीन मिजाज आदमी के लिए कहा गया हो. और मुहम्मद शाह ने भी इस नाम को सादिक करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने किसी भी जंग में हिस्सा नहीं लिया. बल्कि उनका सारा दिन मुर्गे लड़ाने, बाजागरी, जादू, ये सब देखने में गुजरता था.
रातें और भी रंगीन होती थीं. बादशाह को एक अनोखा शौक ये भी था कि उन्हें औरतों के कपड़े पहनना पसंद था. वो दरबार में अक्सर जानना लिबास पहनकर आ जाते थे. और इसी के चलते उनके नामर्द होने की अफवाह भी फैलने लगी थी. मजबूरन उन्हें मर्दानगी साबित करने के लिए एक पेंटिंग बनवानी पड़ी जिसमें उन्हें एक कनीज के साथ सेक्स करते हुए दिखाया गया था.
मुहम्मद शाह रंगीला को यूं तो एक कमजोर बादशाह माना जाता है. लेकिन उनके दौर में दिल्ली दुनिया का सबसे बड़ा शहर था. और इसके ऐश्वर्य की ख्याति देश-विदेशों तक फ़ैली थी. दरगाह क़ुली ख़ान उनके एक दरबारी थे. जिन्होंने मरकए-दिल्ली नाम से एक किताब लिखी थी. किताब के अनुसार दिल्ली के आम लोग भी तब ऐश से रहते थे. इसी दौर में दिल्ली में कहवा-खाना यानी कॉफ़ी हाउस का चलन शुरू हुआ. जहां बैठकर लोग शायरी और कव्वाली सुनते थे. इसी दौर में दिल्ली के अमीरों ने अपने पहनावे में भी बदलाव किया और तुर्क चोगे की बजाय शेरवानी पहनने का चलन शुरू हुआ. इसके अलावा मुहम्मद शाह के दौर में एक बड़ा बदलाव आया हिन्दुस्तानी संगीत में.
कुली खान ने अदा रंग और सदा रंग नाम के दो गायकों का जिक्र किया है जिन्होंने ख़याल गायकी की शुरुआत की. इससे पहले दिल्ली में ध्रुपद गाया जाता था.
क़ुली ख़ान लिखता है,
दिल्ली दूर है!'खुदा रंग के नाखून जैसे ही साज के तारों को छूते हैं, दिलों में एक हुक सी उठती है और उसकी आवाज मानो अपने साथ बदन से जान लेकर चली जाती है.”
अब तक हमने आपको बताया कि बादशाह रंगीला रंगीनियों में व्यस्त रहते थे. लेकिन अंत में एक ऐसा दौर भी आया जब रंगीला को अपने दुश्मनों का सामना करना पड़ा. 1738 की बात है. एक रोज़ बादशाह अपनी आरामगाह में पसरे हुए थे. शराब और नाच का दौर चल रहा था. अचानक एक हरकारा दौड़ता हुआ आया को बादशाह को एक चिट्ठी पकड़ाई. बेहद जरूरी सन्देश ली हुई इस चिठ्ठी को बादशाह ने पकड़ा और शराब के प्याले में डुबोते हुए अर्ज किया,
आईने दफ्तार-ए-बेमाना घर्क-ए-मय नाब उला.
यानी, बिना मतलब की चिट्ठी को तो नीट दारू में डुबा देना ही बेहतर है.
ये देखकर हरकारे के पसीने छूटने लगे. उसने दरख्वास्त की, हुजूर नादिर शाह पहुंचने वाला है. रंगीला के कान में जूं तक ना रेंगी. बोतल से प्याले में शराब उड़ेलते हुए बोले,
‘हनूज दिल्ली दूरस्त’, यानी दिल्ली बहुत दूर है. लेकिन न दिल्ली दूर थी न नादिर शाह ही फौज.
दो कारण. पहला तो यही कि उसे पता था मुगलों ने दौलत-ए-दिल्ली पर रंगीला बिठा रखा है. जो लड़ने में एकदम कच्चा था. दूसरा कारण पॉलिटिकल था. हुआ यूं कि 1738 आते-आते नादिर शाह ने ऑटोमन साम्राज्य को हराकर पारस पर अपना राज मजबूत कर लिया था. इसके बाद उसकी नजर पड़ी कंधार पर. जहां कुछ कबीले विद्रोह में सर उठाने लगे थे. कंधार पर हमला करने से पहले नादिर शाह ने मुहम्मद शाह को एक पैगाम भेजा. जिसमें लिखा था कि कंधार से कबीले वाले भागकर मुग़ल टेरेटरी में शरण लेने आएंगे, तुम्हें ऐसा होने से रोकना है. मुहम्मद शाह ने कब किसी की सुनी थी जो अब सुनता!
उसने कोई ध्यान न दिया. और फिर वही हुआ, जैसा नादिर शाह ने कहा था. काबुलीवालों ने मुग़ल बॉर्डर में शरण ले ली. नादिर शाह ने एक और अल्टीमेटम भेजकर कहा, कि उन्हें हमारे हवाले कर दो. रंगीला बादशाह फिर भी नहीं चेता. इसके बाद नादिर शाह ने दिल्ली पर हमले की ठान ली और काबुल जलालाबाद, पेशावर और लाहौर को नेस्तोनाबूत करता हुआ दिल्ली की सरहद तक आ पहुंचा. तब मुग़ल कमांडर भागता हुआ मुहम्मद शाह के पास पंहुचा और बोला, हुजूर, दिल्ली के बाहर फौज का समंदर खड़ा हुआ है. दो मील चौड़ाई और 6 मील लम्बाई तक सैनिक ही सैनिक हैं.
नादिर शाह ने दिल्ली को चारों तरफ से घेर कर वहीं डेरा डाल लिया. हफ्ते भर में मुग़ल कैम्प में रसद खत्म होने लगी. तब नादिर शाह ने मुहम्मद शाह को बातचीत के लिए न्योता भेजा. मुहम्मद शाह पहुंच भी गए. सिर्फ चंद बॉडीगार्ड्स के साथ. और नादिर शाह ने उन्हें कैद कर लिया. इसके दो दिन बाद दोनों सुलतान साथ साथ दिल्ली में दाखिल हुए. नादिर शाह को बादशाह की आरामगाह में रुकवाया गया जबकि मुहम्मद शाह खुद जनाना क्वार्टर में शिफ्ट हो गए. दिल्ली बेवा चुकी थी. बस जनाजा निकलना बाकी था. वो भी जल्द ही निकला.
दिल्ली लूटकर दिल्ली को बचायानादिर शाह के 40 हजार सैनिक शहर में दाखिल हो चुके थे. लोग बढ़े तो अनाज के दाम भी बढ़ने लगे. इस चक्कर में पहाड़गंज में एक रोज़ नादिर शाह के सैनिकों की एक दुकानदार से बहस हो गई. दंगा शुरू हो गया. जल्द ही अफवाह फ़ैल गयी कि नादिर शाह को एक जनाना गार्ड ने क़त्ल कर दिया है. भीड़ ने पारस की सैनिकों पर हमला बोल दिया. दोपहर तक 900 सैनिक मारे गए. जब नादिर शाह को ये खबर मिली तो उसने कत्लेआम के आदेश दे दिए. अगली सुबह वो लाल किले से अपने घोड़े पर बैठकर शहर के मुआयने के लिए निकला. और चांदनी चौक से करीब आधा मील दूर रौशन-उद-दौला की मस्जिद पर जाकर खड़ा हो गया. ताकि एक ऊंची जगह से ठीक से शहर का मंजर देख सके. सुबह 9 बजे कार्रवाई शुरू हुई. और कुछ ही देर में दरीबा, चांदनी चौक और जामा मस्जिद के पास की गलियां खून में नहा गई.
अगले कुछ दिनों तक वो कत्लेआम मचा कि दिल्ली की 30 हजार जनता को गाजर मूली की तरह काट डाला गया. दक्कन में निजाम उल मुल्क को खबर लगी तो उन्होंने अवध के नवाब सआदत खान से कहा की किसी तरह इस मारकाट को रुकवाओ. सआदत खां ने निजाम को झिड़क कर अपने कैम्प से बाहर निकल दिया. और उसी शाम ज़हर खाकर अपनी जान दे दी.
इसके बाद निजाम खुद हाथ-पांव जोड़कर नादिर शाह के पास पहुंचे और जनता को बख्श देने की भीख मांगी. नादिर शाह तैयार हो गया. लेकिन उसने निजाम से कहा कि इसके बदले उसे 100 करोड़ चुकता करने होंगे.
मरता क्या न करता. अगले कुछ दिनों में निजाम ने दिल्ली को लूटा और उससे 100 करोड़ जमा किए. 348 साल में जमा की गई मुग़ल दौलत एक झटके में इस हाथ से उस हाथ में चली गयी. करोड़ों के हीरे जवाहरात, सोना चांदी, इतना सब कुछ लूटा गया कि नादिर शाह के मुंशी पूरी तरह हिसाब भी न कर सके. सब कुछ ले चुकने के बाद भी नादिर शाह का मन नहीं भरा था. आखिर में उसने मुग़ल दरबार की शान, तख़्त-ए-ताऊस को उठाया और वापिस लौट गया. उसमें जड़े कोहिनूर और तैमूरिया माणिक भी उसके साथ चले गए. और साथ ही चला गया मुग़ल सल्तनत का सारा वैभव और धनधान्य.
बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला का क्या हुआ?बादशाह ने एक और जंग देखी. 1747 में अहमद शाह अब्दाली ने मुग़ल रियासत पर हमला किया. इसमें मुग़ल सेना को जीत मिली लेकिन उसे भारी नुकसान झेलना पड़ा. इस जंग में बादशाह का एक चहेता कमांडर कमरुद्दीन भी मारा गया. इस खबर से मुहम्मद शाह को ऐसा शॉक लगा कि अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई. और 26 अप्रैल 1748 को दुनिया से रुखसत हो गए.
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