एनकाउंटर... डॉन... माफिया... बाहुबली.... उत्तर प्रदेश की राजनीति में ये शब्द नए नहीं हैं. लेकिन अधिकतर वक्त सिर्फ हवा में तैरते रहते हैं. फिर आता है एक मौका, जब ये शब्द हवा से निकलकर स्याही में ढलते हैं और चस्पा हो जाते हैं अखबारों और न्यूज़ चैनलों की हेडलाइंस पर. साल १९९८ में एक ऐसी ही घटना हुई थी. एक एनकाउंटर. उस नामी डॉन का जिसका आतंक कुछ ऐसा था कि एक बार प्रधानमंत्री अटल वाजपेयी को अपना लखनऊ दौरा रद्द करना पड़ा था. जिसकी हिमाकत उस हद तक जा पहुंची थी कि उसने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की ही सुपारी ले ली थी. ये कहानी है उत्तर प्रदेश के कुख्यात डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला की. (Shri Prakash Shukla)
UP का वो डॉन जिसने मुख्यमंत्री की सुपारी ले ली थी!
25 साल का एक डॉन जिसने 6 करोड़ रूपये में उत्तर प्रदेश के सीएम की सुपारी ले ली थी. जानिए कहानी श्री प्रकाश शुक्ला की.
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श्रीप्रकाश शुक्ला के पास वो सब कुछ था, जिसकी किसी इंसान को चाह हो सकती है. पैसा, पावर, ऊंचे लोगों तक पहुंच. ये सब उसे हासिल हुआ था जुर्म की बदौलत. श्रीप्रकाश शुक्ला को जुर्म से कोई परहेज़ नहीं था. उसकी तमन्ना इंडिया का सबसे बड़ा डॉन बनने की थी. दाऊद से भी बड़ा. वो टीवी पर आना चाहता था. उसकी ये तमन्ना पूरी भी हुई. सितम्बर 1998 में ज़ी टीवी पर आने वाले क्राइम शो, इंडियाज़ मोस्ट वांटेड में एक पूरा शो उसके नाम से एयर हुआ. लेकिन शोहरत का ये जश्न सिर्फ एक हफ्ते कायम रहा. 22 सितम्बर 1998 की दोपहर 2 बजकर 15 मिनट पर दिल्ली गाज़ियाबाद हाईवे पर एक एनकाउंटर में वो मारा गया. श्रीप्रकाश पुलिस के हत्थे कैसे चढ़ा, पूरी कहानी जानेंगे. लेकिन पहले जानते हैं उसके डॉन बनने के सफर के बारे में. (Police Encounter)
बहन को छेड़ा तो जान से मार डालाश्रीप्रकाश की शुरुआत हुई गोरखपुर से. यहां मामखोर नाम के एक गांव में उसके पिता स्कूल-मास्टर थे. लेकिन श्रीप्रकाश का दिल पढ़ाई में नहीं था. उसे पहलवानी का शौक था. चौड़ी छाती और लम्बे कद का श्रीप्रकाश जल्द ही अखाड़ों में नाम कमाने लगा. पहलवानी चलती रहती तो शायद उसकी जिदंगी का सफर कुछ और ही होता, लेकिन फिर साल 1993 में हुई एक घटना ने उसकी कहानी का रुख मोड़ दिया. हुआ यूं कि एक रोज़ राकेश तिवारी नाम के एक लफंगे ने श्रीप्रकाश की बहन को देखकर सीटी बजा दी. प्रकाश ने उसे इतना मारा कि उसकी मौत ही हो गयी. पुलिस के डर से वो बैंकॉक भाग गया. कुछ साल बाद लौटा लेकिन अब उसने पहलवानी छोड़, जुर्म की राह पकड़ ली.

बिहार के मोकामा में उन दिनों एक डॉन का बोलबाला था- सूरजभान. श्रीप्रकाश ने उसे अपना गॉडफादर बनाया और धीरे-धीरे जुर्म का एम्पायर बनाने लगा. जल्द ही उसने सुपारी लेने का काम शुरू कर दिया. साथ ही किडनैपिंग, ड्रग्स और लॉटरी जैसे धंधों में वो पारंगत हो चुका था. इन धंधों को उसने यूपी बिहार, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और नेपाल तक फैलाया. जल्द ही वो अपराध जगत में एक जाना-माना नाम बन गया.
जैसे-जैसे बदमाशी में उसका नाम बढ़ा, उसकी अय्याशी के शौक भी बढ़ते गए. महंगी कॉलगर्ल्स, बड़े होटल, मसाज पार्लर, सोने की ज़ंजीरें और तेज़ भागने वाली कारें- ये उसके कुछ पसंदीदा शौक थे. श्रीप्रकाश खुद को एकदम फ़िल्मी डॉन समझता था. दोस्तों में डींगे हांकता था कि हर रोज़ उसके टेलीफोन का ही खर्चा 5 हजार रूपये है. हालांकि इतने से भी वो संतुष्ट नहीं था. यूपी माफिया का गढ़ था. श्रीप्रकाश को अहसास था कि यहां ऐसे-ऐसे दिग्गज है, जो उसे महज नौसिखिया समझते हैं. इसलिए उसने तय किया कि वो एक बड़े कांड को अंजाम देगा, ताकि उसके नाम का भौकाल जम जाए.
सबसे बड़ा डॉनसाल 1997 की बात है. यूपी के महराजगंज की लक्ष्मीपुर विधानसभा से विधायक थे, वीरेंद्र शाही. जिन्हें ठाकुरों का सर्वमान्य नेता माना जाता था. एक दोपहर श्रीप्रकाश शुक्ला ने लखनऊ में सरेआम वीरेंद्र शाही को गोलियों से भून दिया. पूरे यूपी में हल्ला मच गया. हर गैंग को इसकी खबर लग चुकी थी कि एक नए छोकरे ने पुराने बाहुबली को ख़त्म कर दिया. और साथ ही ये भी कि पूर्वांचल की जमीन में एक नए खिलाड़ी का उदय हो चुका है. शुक्ला यहीं नहीं रुका.

उसकी लिस्ट में अगला नंबर था, कल्याण सिंह सरकार में कैबिनेट मंत्री हरिशंकर तिवारी का. तिवारी भी कम बड़े बाहुबली ना थे. 15 साल से विधायक थे और एक चुनाव तो उन्होंने जेल में रहते ही जीत डाला था. श्रीप्रकाश की नज़र हरिशंकर तिवारी की सीट पर थी. उसे अहसास हो गया था कि एक बार विधायकी की गंगा में नहा लिया तो फिर कोई उसका बाल भी बांका ना कर पाएगा. हरी शंकर तिवारी श्रीप्रकाश शुक्ला से ख़ौफ़ खाए थे, कहा जाता है कि वो शुक्ला के पिता को हर समय अपने साथ रखते थे ताकि वो उन पर हमला करने की हिम्मत ना करे.
तिवारी तो बच गए. लेकिन जल्द ही श्रीप्रकाश ने एक और हत्याकांड को अंजाम दिया. बिहार सरकार में बाहुबली मंत्री थे बृज बिहारी प्रसाद. UP के आखिरी छोर तक उनका सिक्का चलता था. श्रीप्रकाश शुक्लाा ने पटना में उन्हें गोलियों से भून डाला. 13 जून 1998 को इंदिरा गांधी हॉस्पिटल के सामने वो अपनी लाल बत्ती वाली कार से उतरे ही थे कि एके-47 से लैस 4 बदमाश उन्हें गोलियों से भूनकर फरार हो गए.
शुक्ला-जिन्दा या मुर्दाइस क़त्ल के पीछे श्रीप्रकाश का उद्देश्य था रेल्वे के ठेकों पर वर्चस्व स्थापित करना. इसी फिराक में कई छुटभइये बदमाशों को उसने दौड़ा-दौड़ाकर मारा था. जैसे-जैसे श्रीप्रकाश के अपराध का ग्राफ़ बढ़ा, पुलिस रिकॉर्ड में उसके नाम से दर्ज पन्ने भी बढ़ते गए. पुलिस के रडार पर तो वो काफी समय से था लेकिन 1998 के आसपास पुलिस को एक ऐसी खबर मिली जिसने प्रशासन के हाथ पांव फुला दिए. पता चला कि शुक्ला ने यूपी के CM कल्याण सिंह की सुपारी ले ली है. वो भी 6 करोड़ रूपये में. यूपी पुलिस की स्पेशल टास्क फ़ोर्स अब उसके पीछे थी. STF का अब एक ही मकसद था- श्रीप्रकाश शुक्ला, ज़िंदा या मुर्दा. सारे घोड़े दौड़ा दिए गए.

अगस्त 1998 के आखिरी हफ्ते में पुलिस को अहम सुराग मिला. पता चला कि दिल्ली के वसंत कुंज में उसने किराए पर एक फ्लैट लिया है. यहीं से वो अपना धंधा चलाता था. फोन के ज़रिए. वो हमेशा ध्यान रखता था कि एक ही नंबर बार-बार यूज़ न करे. इसके लिए उसने 14 सिमकार्ड ले रखे थे.सितंबर 1998 उसने लखनऊ के एक बिल्डर को धमकी दी. हर बार की तरफ इस बार भी उसकी मांग सीधी थी- 'हर फ्लैट पर 50 हजार रुपये की रंगदारी.' लेकिन रंगदारी रंग लाती इससे पहले ही इस कॉल की खबर पुलिस तक पहुंच गई. भारत में तब सेलफोन नए नए आए थे. मुजरिमों ने इनकाइस्तेमाल शुरू तो किया लेकिन वो इस बात से अनजान थे कि ये फोन आसानी से ट्रैक किए जा सकते हैं. और फोन कॉल के ज़रिए किसी की लोकेशन का पता भी लगाया जा सकता है.
यही बात श्रीप्रकाश शुक्ला की गिरफ्तारी का कारण भी बनी. पुलिस ने उसका फोन ट्रैक करना शुरू किया. यहीं पर श्रीप्रकाश शुक्ला से एक बड़ी गलती हो गयी. नंबर बदलने के बजाय उस हफ्ते में उसने एक ही नंबर इस्तेमाल किया. इससे पुलिस के लिए उसे ट्रैक करना आसान हो गया. 21 सितंबर के रोज़ पुलिस के हाथ एक पुख्ता जानकारी लगी. एक मुखबिर ने बताया कि शुक्ला अगली सुबह पौने छह बजे दिल्ली एयरपोर्ट से रांची के लिए फ्लाइट पकड़ेगा. पुलिस ने फील्डिंग बैठाई लेकिन शुक्ला अपनी अच्छी किस्मत के चलते मौके पर पहुंचा ही नहीं. हालांकि किस्मत की ये मेहरबानी ज़्यादा देर न चली.
दिनदहाड़े एनकाउंटर22 सितंबर की दोपहर श्रीप्रकाश अपने घर से निकला, गाजियाबाद में अपनी गर्लफ्रेंड से मिलने के लिए. उसका फोन अभी भी पुलिस के रडार पर था. पुलिस को पता था वो इसी रस्ते वापसी करेगा, सो उत्तर प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फ़ोर्स बीच राह उसका इंतज़ार करने लगी.

दोपहर डेढ़ बजे श्रीप्रकाश अपनी नीली सिएलो कार में मोहननगर फ्लाइओवर पर पहुंचा. यहां उसे पुलिस की पांच गाड़ियां खड़ी दिखाई दीं. उसकी कार का नंबर था, HR26 G 7305. ये एक फ़र्ज़ी नंबर था, जो असल में किसी स्कूटर को आवंटित हुआ था. श्रीप्रकाश को अंदाज़ा था कि मौका मिलने पर पुलिस उसके एनकाउंटर से भी गुरेज़ नहीं करेगी , इसके बावजूद सरेंडर करने का उसका कोई इरादा नहीं था.
गाड़ी में उसके साथ कुछ और लोग भी मौजूद थे. गाड़ी वो खुद चला रहा था जबकि अनुज प्रताप सिंह उसके साथ आगे और सुधीर त्रिपाठी पीछे बैठा था. पुलिस की गाड़ी देखकर उसने अपनी स्पीड तेज़ करने की कोशिश की. लेकिन तभी इंस्पेक्टर वीपीएस चौहान ने अपनी जिप्सी उसकी कार के आगे अड़ा दी. निकलने की फिराक में शुक्ला ने अपनी गाड़ी को तेज़ी से बाईं ओर काटा. अब उसकी गाड़ी सीधे यूपी आवास विकास कालोनी की ओर भाग रही थी. करीब एक किलोमीटर पीछा करने के बाद पुलिस ने उसे चारों ओर से घेर लिया. अब आख़िरी मुठभेड़ की बारी थी.
शुक्ला और उसके साथियों ने पहला फायर किया और एक के बाद एक 14 राउंड फायर किए. बदले में पुलिस ने 45 गोलियां दागी और मिनटों के अंदर उसको और उसके साथियों को मार गिराया गया. इस एनकाउंटर को तब कवर किया था इंडिया टुडे के रिपोर्टर, सुभाष मिश्रा और कुमार संजय सिंह ने. अपनी रिपोर्ट में वो लिखते हैं,
बदमाशी और रंगबाज़ीका नशा शुक्ला के अंत का कारण बना. आखिरी दिनों में वो राजनीति में उतरने का मन बना चुका था. और संभव है जल्द ही वो सत्ता से अपनी सेटिंग बिठा लेता. तब यूपी के राजनैतिक हालात ऐसे थे कि लोग मजाक में कहने भी लगे थे. कि कहीं वो यूपी का मुख्यमंत्री न बन जाए. मज़ाक़ अपनी जगह लेकिन चिंता की बात ये है कि शुक्ला के दौर में और शायद आज भी कई नौजवान हैं, जो शुक्ला सी ज़िंदगी जीने का अरमान रखते हैं.
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