साल 1940-41 की बात है. 10 साल का एक लड़का चंद्रमोहन स्टेशन पर खड़ा था. महात्मा गांधी के इंतज़ार में. ट्रेन से गांधी कुछ ही देर में पहुंचने वाले थे. चंद्रमोहन को उसकी दादी ने 3 रूपये दिए थे. जो उस समय के हिसाब से काफी बड़ी रकम थी. गांधी तीरसे दर्ज़े के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे. साथ में कस्तूरबा, और उनके सचिव भी थे. ट्रेन अपने तय वक्त से 13 घंटे लेट पहुंची. काफी लोग जो गांधी के इंतज़ार में आए थे, निराश होकर चले गए. चंद्रमोहन वहीं खड़ा रहा. बापू से मिलने की जिद में न उसने कुछ खाया था, न सोया था. जब गांधी पहुंचे तो स्टेशन मास्टर ने खुद चंद्रमोहन को उनसे मिलवाया. खूब तारीफ़ भी की.
क्या था ओशो की मौत का सच?
आचार्य रजनीश जिन्हें दुनिया ओशो के नाम से जानती है उनकी मृत्यु 19 जनवरी 1990 के दिन भारत में हुई थी. ओशो कि मौत के साथ कई विवाद जुड़े हुए हैं, क्या ये एक सामान्य मृत्यु थी या इसके पीछे कोई और सच्चाई छुपी हुई है?
गांधी मुस्कुराए, बालक से पूछा कि जेब में क्या है? लड़के का जवाब था, तीन रुपए. इसे दान कर दो. गांधी ने कहा. उनके पास एक बक्सा था जिसमें वे दान जमा कर रहे थे. चंद्रमोहन ने कहा, हिम्मत हो तो ले लो. या फिर ये बताओ कि किस लिए दान करूं. गांधी ने कहा, ये रुपए गरीबों के लिए दान कर दो. चंद्रमोहन ने 3 रुपए बक्से में डाले और पूरा बक्सा उठाकर चल दिये. चकित गांधी ने पूछा कि ये क्या कर रहे हो. चंद्रमोहन ने कहा पैसा गरीबों के लिए है, मेरे गांव में कई गरीब हैं, मैं पैसा उन्हें दूंगा. आप चाबी और दे दो. कस्तूरबा हंसने लगीं, कहा,
"आज पहली बार आपको कोई टक्कर का मिला. ये बक्सा मुझे अपनी सौतन लगने लगा था. बढ़िया है बेटा ले जा इसे."
चंद्रमोहन ने कस्तूरबा की बात सुनकर वो बक्सा वहीं छोड़ दिया और स्टेशन से भाग गया. चन्द्रमोहन जैन नाम के इस लड़के को आज आप ओशो के नाम से जानते हैं. और भी कई नाम थे ओशो के. आचार्य रजनीश, भगवान. लेकिन अंत समय में उन्होंने ओशो नाम अपनाया. आज ओशो की पुण्यतिथि है. 19 जनवरी 1990 को पुणे के आश्रम में उनका निधन हो गया था. ओशो तमाम उम्र विवादों से घिरे रहे. उसी तरह एक विवाद ओशो की मौत से भी जुड़ा. क्या ओशो की मौत स्वाभाविक रूप से हुई थी? क्या इसमें और भी कोई एंगल था?
पुणे से अमेरिका
ओशो की कहानी शुरू होती है साल 1931 से. मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में पैदा होने वाले ओशो का असली नाम रजनीश चन्द्र मोहन जैन था. दर्शन में रूचि थी, सो उसी के प्रोफ़ेसर बन गए. 60 के दशक में ओशो ने पब्लिक में बोलना शुरू किया. तर्क देने और बोलने में तेज थे. 1969 में उन्हें दूसरे वर्ल्ड हिन्दू कॉन्फ्रेंस में बुलाया गया. यहां उन्होंने कहा,
”कोई भी ऐसा धर्म, जो जीवन को व्यर्थ बताता हो, वो धर्म नहीं है”.
पुरी के शंकराचार्य नाराज हो गए. उन्होंने ओशो का भाषण रुकवाने की भी कोशिश की. इसी बीच ओशो की एक किताब मार्केट में आई. और आते ही किताब ने हंगामा मचा दिया, नाम था संभोग से समाधि. नाम से ही आप समझ सकते, किताब कितनी कंट्रोवर्सिअल थी. इस किताब ने ओशो को इंडिया में वर्ल्ड फेमस कर दिया. उन्होंने पुणे के कोरेगांव पार्क में अपना आश्रम बनाया. यहां वो ध्यान सिखाते थे. दुनिया भर से लोग इस आश्रम में आने लगे थे. जिसके चलते 1977 के आसपास उनकी सरकार से खटपट भी हो गई थी. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ओशो के धुर विरोधी थे. ओशो को लगा कि भारत में अब बात नहीं बनेगी तो उन्होंने अमेरिका जाने की ठान ली.
अमेरिका के ओरेगॉन राज्य में तकरीबन 64, 229 एकड़ बंजर ज़मीन पर बड़ा सा कम्यून बनाया गया. नाम दिया गया रजनीशपुरम. तीन वर्षों के भीतर ही उनके अनुयायियों ने बंज़र जमीन से एक सुंदर शहर में बदल दिया. इस शहर में लगभग 7000 से अधिक नागरिक थे. इसके अलावा फायर ब्रिगेड, पुलिस, रेस्टोरेन्ट, शॉपिंग मॉल, टाउन हाउस, 42,000 फीट लम्बी हवाई पट्टी, सार्वजनिक बस सेवा के अतिरिक्त, सीवेज प्लांट और जलाशय जैसी सारी आधारभूत सुविधाएं और लग्ज़री यहां मुहैया थीं. इस दौर में ओशो कहने लगे थे, मैं अमीरों का गुरु हूं. इस समय पर उनके पास 93 रॉल्स रॉयस कारें इकठ्ठा हो चुकी थीं.
रजनीशपुरम और भारत वापसी
एक मशहूर किस्सा है कि तब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अमिताभ बच्चन के बराबर कद रखने वाले विनोद खन्ना, अपना घर-बार, करियर छोड़कर रजनीशपुरम जा बसे थे.
रजनीशपुरम ओशो का सपना था, एक नई दुनिया बसाने का. लेकिन जैसा कि कहते हैं, नर्क जाने का रास्ता बेहद अच्छी नीयतों से तैयार होता है. ओशो के कम्यून में कई गड़बड़ियां होने लगी. मां आनंद शीला नाम की उनकी सेक्रेटरी को बायोटेरर अटैक में दोषी पाया गया और उन्हें 20 साल की सजा हुई. ओशो कहते रहे कि उन्हें शीला के कारनामों का पता नहीं था. उनके शिष्यों को इस बात पर भरोसा था लेकिन अमेरिकी सरकार के मुंह खून लग चुका था. सरकार पहले से ही रजनीशपुरम को सन्देह की दृष्टि से देख रही थी. इसका कारण था अमेरिकी सरकार का एक पुराना कड़वा अनुभव.
साल 1979 में दक्षिण अमेरिका के एक देश गुयाना में एक घटना हुई थी. जहां जिम जोन्स नाम के एक तथाकथित गुरु के कारण 918 लोगों की मौत हो गई. इनमें अधिकतर अमेरिकी नागरिक और एक अमेरिकी सांसद भी शामिल थे. जिम जोन्स ने भी रजनीशपुरम की तरह एक शहर बसाया था, जोन्सटाउन. जहां उसने एक नए धर्म की शुरुआत की. हालांकि ये धर्म नहीं, एक कल्ट था. वो कहता था वो एक नई दुनिया बसाएगा, जहां सब बराबर होंगे. इस सब्ज़बाग की ख्वाहिश में हजारों लोग जोन्स टाउन गए और मारे गए.
बहरहाल जोन्सटाउन हादसे के बाद अमेरिकी सरकार ऐसे कल्ट्स के प्रति काफी सतर्क रहने लगी थी. इसलिए जैसे ही मां आनंद शीला वाला केस हुआ, सरकार ने रजनीशपुरम पर शिकंजा जड़ना शुरू कर दिया. प्रवासी अधिनियम के उल्लंघन और कई अन्य मामलों में ओशो को गिरफ्तार कर लिया गया. कई दिन जेल में बिताने के बाद ओशो को देशनिकाला दे दिया गया. अमेरिका के अलावा 21 देशों ने उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. और ओशो को भारत लौटना पड़ा. रजनीशपुरम का आश्रम दोबारा बंजर हो गया. ओशो की अधिकतर रॉल्स रॉयस बेच दी गईं.
ओशो की मौत को लेकर विवाद
भारत में ओशो ने एक बार फिर अपने पुणे के आश्रम में प्रवचन देना शुरू किया. 1985 में ओशो भारत आए और इसके बाद सिर्फ 5 साल जीवित रहे. 58 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. तारीख थी 19 जनवरी 1990. जिस तरह तमाम उम्र ओशो का विवादों से नाता रहा, उनकी मौत भी उसी तरह विवाद का केंद्र बनी. ओशो की मौत को लेकर बहुत से कन्फ्यूजन हैं और कई थ्योरीज हैं. माना जाता है अमेरिकी सरकार ने ओशो को ‘थेलियम’ नाम का स्लो पॉइजन दे दिया था, जिससे धीरे-धीरे वो मौत की तरफ बढ़े. अमेरिका से लौटने के बाद ओशो ने खुद बताया कि मुझमें ज़हर के लक्षण हैं. मेरा रजिस्टेंस कमजोर हो गया है. मुझे खुद इस बात का शक था. जब मुझे अमेरिका में गिरफ्तार किया गया था, और बिना कोई वजह बताये उन्होंने मुझे बेल नहीं दी. इसके बाद ही मुझमें ज़हर के लक्षण के आ गये.
एक दूसरी कॉन्सपिरेसी थियोरी है जिसमें कहा जाता है कि ओशो की हत्या हुई थी, उनकी प्रॉपर्टी के लिए. पत्रकार अभय वैद्य ने इस पूरे घटनाक्रम पर एक किताब लिखी है. नाम है, “व्हू किल्ड ओशो”. इस किताब में वैद्य कुछ सवाल उठाते है. मसलन ओशो की मृत्यु के पिछली रात करीब 1 बजे डॉक्टर गोकुल गोकानी को आश्रम से फोन गया. उन्हें बिना नाम लिए ये कहा गया कि किसी की तबीयत ख़राब है, जल्दी आ जाएं. 2015 में एक अपने एक स्टेटमेंट में गोकानी ने बताया कि उन्हें पूरे 4 घंटे बाद ओशो के कमरे में जाने दिया गया. गोकानी बताते हैं कि ओशो के हाथ में उल्टियों की छीटें थीं. ऐसा लग रहा था जैसे उनके मरने का इंतज़ार किया जा रहा था.
वैद्य सवाल उठाते हैं कि उस रोज़ आश्रम में और डॉक्टर भी मौजूद थे. फिर बाहर से डॉक्टर क्यों बुलाया गया. और ओशो को हॉस्पिटल क्यों नहीं ले जाया गया. गोकानी ने बयान में बताया,
''अमृतो ने कहा ओशो ने अभी-अभी शरीर छोड़ा है. आपको उनका डेथ सर्टिफिकेट लिखना है. उनका शरीर गर्म था और साफ़ है कि उन्होंने अपना शरीर एक घंटे से पहले नहीं छोड़ा होगा.’’
गोकानी के अनुसार, उन्होंने ओशो को अंतिम सांस लेते हुए नहीं देखा. इसलिए उन्होंने जयेश और अमृतो से उनकी मृत्यु की वजह पूछी. उन्होंने गोकानी से दिल की बीमारी के बारे में लिखने को कहा, ताकि शव का पोस्टमार्टम न हो सके. सवाल ये भी है कि गोकानी ने उल्टियों के बारे में क्यों कुछ नहीं पूछा? बाद में उनका अंतिम संस्कार भी बहुत हड़बड़ी में किया गया. इस मामले में आश्रम की तरफ से आधिकारिक बयान में कहा गया कि यही ओशो की इच्छा थी. वो चाहते थे कि उनका शरीर 10 मिनट से ज्यादा सबके सामने न रखा जाए. ये बातें लिखित में नहीं थी.
इसके बाद एक सवाल ये भी उठा कि ओशो के परिवार, उनकी माता जी को उनकी तबीयत बिगड़ने के बारे में क्यों नहीं बताया गया. ओशो की सेक्रेटरी नीलम कहती हैं जब उन्होंने ओशो की मां को मौत की बात बताई तो उन्होंने कहा –
''नीलम, उन्होंने उसे मार दिया.''
इस मामले में एक बड़ा बवाल साल 2013 में खड़ा हुआ. जब अचानक विदेश के एक कोर्ट में ओशो की वसीयत पेश की गई. 1990 से इस वसीयत के बारे में पहले कभी किसी ने नहीं सुना था. ये वसीयत ओशो के जुड़े टेड मार्क के एक केस में पेश की गई थी. हालांकि कभी ओशो ने खुद कहा था, कॉपीराइट वस्तुओं और चीज़ों का तो हो सकता है लेकिन विचारों का नहीं.
ये केस भारत भी पहुंचा. ओशो के एक फ़ॉलोवर हैं, योगेश ठक्कर. कुछ साल पहले उन्होंने इस वसीयत को कोर्ट में चैलेंज किया था. योगेश के अनुसार ये वसीयत जाली है. योगेश का कहना था कि ओशो आश्रम की हज़ारों करोड़ की संपत्ति, किताबों और ऑडियो वीडियो से मिलले वाले करोड़ो की रॉयल्टी को जाली तरीके से हड़पा जा रहा है. मामला बॉम्बे हाई कोर्ट तक पहुंचा. और 2018 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने योगेश की अपील को ठुकरा दिया. जांच एजेंसियों द्वारा इस मामले में अदालत के सामने एक ‘C समरी’ रिपोर्ट दाखिल की थी. C सामरी वो रिपोर्ट होती है, जिसमें किसी जांच एजंसियां सही या गलत दोनों निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाती. मामला यहीं नहीं रुका.
कुछ लोगों ने दिसम्बर 2018 में इस वसीयत की ट्रुथ लैब्स नाम की एक फॉरेंसिक लैब से जांच कराई गई. लैब ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वसीयत में ओशो के जाली दस्तखत किए गए थे. मामला तब से दुबारा कोर्ट में है. ओशो की मृत्यु का ये विवाद ऐसे तमाम विवादों की फेहरिश्त में शामिल है, जिसका ठीक ठीक जवाब शायद ही मिल सके. हालांकि ओशो, 21 वीं सदी में वो अभी भी उतने ही लोकप्रिय हैं. उनकी किताबें हजारों की संख्या में बिकती हैं. और लोकप्रियता के वर्तमान पैमानों से मापें तो ओशो के वीडियो सोशल मीडिया पर लाखों की संख्या में देखे जाते हैं. उनके फॉलोवर्स मानते हैं कि ओशो, न पैदा हुए न मरे. बस इस धरती पर 11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 के बीच भ्रमण के लिए आए.
वीडियो: तारीख: रेलवे में जब छिड़ी इंच और मीटर की लड़ाई!