बात 1990 की है. कोलकाता के भवानीपोर इलाके में के आनंद अपार्टमेंट में एक परिवार रहता था.नागरदास पारेख और यशोमती बेन के दो बच्चे थे. लड़की का नाम हेतल (Hetal Parekh) पारेख और लड़के का नाम भावेश पारेख था. नागरदास पारेख गुजरात से आकर कोलकाता में बसे थे. और यहां सोने और जेवर का धंधा चलाते थे. बेटी हेतल पास ही एक स्कूल वेलेंड गोल्डस्मिथ नाम के स्कूल में पढ़ती थी.
वो केस जिसने फांसी की सजा पर ही सवाल खड़े कर दिए थे
साल 2004 में धनंजय चटर्जी को 14 साल पुराने रेप के केस में फांसी हुई. 21 वीं सदी में भारत में फांसी का ये पहला मामला था. इस केस में बाद में कुछ ऐसे पहलू भी सामने आए जिससे फांसी की सजा को लेकर नए सिरे से बहस खड़ी हुई.
एक दिन की बात है, हेतल अपने स्कूल से घर आती है और अपनी मां से शिकायत करती है कि सोसायटी का गार्ड उस पर फिकरे कस रहा था. 2 मार्च की तारीख को हेतल एक और बार मां से शिकायत करती है कि गार्ड ने उसे पिक्चर देखने चलने को कहा. नागरदास इसकी शिकायत सोसायटी मेंबर्स से करते हैं और गार्ड का तबादला कर दिया जाता है. 5 मार्च को गार्ड धनंजय चटर्जी (Dhananjoy Chatterjee) को एक नई जगह रिपोर्ट करना था लेकिन वो उस दिन वहां न जाकर आनंद अपार्टमेंट में दोबारा ड्यूटी देने पहुंच जाता है. ड्यूटी का वक्त था सुबह 6 बजे से दोपहर 2 बजे तक.
वारदात के दिन क्या हुआ?5 तारीख को पारेख परिवार के सभी लोग अपने अपने काम पर निकलते हैं. घर पर सिर्फ मां थी. हेतल का उस दिन एग्जाम था. एग्जाम देकर वो 1 बजे के आसपास घर पहुंचती है. शाम 5.30 पर यशोमती बेन घर से निकलती हैं और पास के एक मंदिर में पूजा करने चली जाती हैं. हेतल अब घर पर अकेली थी. उसी समय धनंजय एक दूसरे गार्ड से कहता है कि उसे तीसरे माले पर जाना है. वजह पूछने पर वो बताता है कि उसे मालिक को फोन करके बताना है कि वो जल्द ही नई जगह पर ड्यूटी ज्वाइन कर लेगा.
इसके बाद धनंजय लिफ्ट के जरिए तीसरे माले ताक पहुंच जाता है. उसी समय धनंजय जिस कम्पनी के थ्रू गार्ड लगा था, उस कम्पनी का एक बंदा आनंद अपार्टमेंट में आता है. और पूछताछ करता है कि क्या नए गार्ड ने ड्यूटी ज्वाइन की या नहीं. घड़ी में 5 बजकर 45 मिनट हो रहे थे. पूछताछ पर कंपनी के आदमी को पता चलता है कि नया गार्ड नहीं आया और धनंजय ही ड्यूटी पर आया है. आदमी दूसरे गार्ड से धनंजय के बारे में पूछता है तो पता चलता है कि धनंजय तीसरे माले पर है. इसके बाद दूसरा गार्ड धनंजय को आवाज लगाता है. धनंजय तीसरे माले से नीचे झांक कर जवाब देता है कि वो नीचे आ रहा है.
नीचे आकर धनंजय कंपनी के आदमी से गेट के बाहर कुछ देर बात करता है. और बताता है कि कुछ पर्सनल कारणों से उस दिन वो नई जगह ड्यूटी पर नहीं जा पाया. कम्पनी का आदमी धनंजय से कहता है कि अगले दिन वो नई जगह ड्यूटी पर रिपोर्ट करे. इसी समय यशोमती पारेख घर लौटती हैं. उन्हें पता चलता है कि धनंजय उनके घर एक टेलीफोन करने गया था. इसके बाद वो अपने फ्लैट पर जाकर बेल बजाती हैं. जब बड़ी देर तक कोई जवाब नहीं देता तो दरवाजा तोड़ दिया जाता है. अंदर हेतल खून से लथपथ थी. उसके कपड़े फटे हुए थे और शरीर पर कई जगह चोट के निशान थे. हेतल की हत्या कर दी गयी थी. लगभग तीन घंटे बाद नागरदास पारेख पुलिस को इत्तिला करते हैं. और तहकीकात शुरू हो जाती है.
धनंजय के खिलाफ सबूत और गवाहशुरुआती पूछताछ में ही पुलिस को धनंजय पर शक हो जाता है. लेकिन अगले सात दिन तक धनंजय पुलिस के हाथ नहीं लगता. 12 मार्च को पुलिस धनंजय को उसके गांव से पकड़ती है. वहां पुलिस को वो कपड़े बरामद होते हैं जो उसने वारदात के वक्त पहने थे. उसके घर से एक घड़ी भी मिलती है जो नागरदास के घर से चोरी हो गई थी.
पूछताछ में धनंजय बताता है कि वो बेगुनाह है और 5 मार्च को अपने छोटे भाई का जनेऊ संस्कार करने के लिए वो गांव आया था.
केस कोर्ट में पहुंचता है. हत्या का कोई चश्मदीद नहीं था. और जो सुराग थे वो भी परिस्थितिजन्य या सरकमस्टांसियल थे. ऐसे मामलों में मोटिव तय करना आवश्यक होता है. सरकारी वकील ने दलील दी कि चूंकि विक्टिम यानी हेतल के पिता ने धनंजय की शिकायत कर उसका तबादला करा दिया था. इस वजह से धनंजय ने बदला लेने के इरादे से पहले तो हेतल का रेप करा और फिर उसकी हत्या कर दी.
कई गवाहों ने इस बात की तस्कीद की थी कि अभियुक्त हत्या के वक्त बिल्डिंग में मौजूद था. सबूत के तौर पर एक पीला बटन पेश किया, जो पुलिस को घटनास्थल से मिला था. पुलिस के अनुसार धनंजय ने उस दिन पीले रंग की शर्ट पहनी थी जो पुलिस को बाद में उसके गांव से बरामद हुई. इसके अलावा उस घड़ी को भी पेश किया गया जो धनंजय के घर से बरामद हुई थी.
21वीं सदी की पहली फांसीसारे गवाहों और बयानात के आधार पर कोर्ट ने धनंजय को फांसी की सजा सुनाई , जिसे पहले हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरक़रार रखा. 14 साल जेल में बिताने के बाद साल 2004 में फांसी की सजा तय हुई. 25 जून 2004 को फांसी का दिन मुकर्रर था. लेकिन आज ही के दिन यानी 24 जून को राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम पास धनंजय की माफी अपील पहुंची और फांसी रोक दी गई.
अगले दिन से ही धनंजय की फांसी के समर्थन में आवाजें उठने लगी. तब बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की पत्नी मीरा भट्टाचार्य ने भी फांसी के समर्थन में कैम्पेन चलाया था. 15 अगस्त 2004 को कोलकाता की अलीपोर सेन्ट्रल में जेल में सुबह के चार बजे थे, जब जल्लाद नाटा मालिक एक लीवर खींचते हैं. और 39 साल के धनंजय चटर्जी को फांसी दे दी जाती है. 21 वीं सदी में भारत में पहली बार किसी को फांसी की सजा दी गयी थी.
पारेख परिवार कुछ दिनों बाद कोलकाता से अपना जमा जमाया कारोबार लेकर निकल गया. मीडिया के लिए कहानी यहीं ख़त्म हो चुकी थी. लेकिन एक और कहानी थी जिस पर नजर कुछ साल बाद पड़ी. वो कहानी थी धनंजय के नजरिए से. फांसी के फंदे पर चढ़ते वक्त तक धनंजय यही कहता रहा कि वो निर्दोष है. उसने कभी अपना जुर्म नहीं कबूला. दूसरी कहानी कई साल बाद सामने आई. जब इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट ऑफ कोलकाता के दो स्कॉलर्स ने इस केस का एनालिसिस कर कुछ नए तथ्य सामने रखे.
क्या कहानी कुछ और थी?इस मामले में पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट कह रही थी कि विक्टिम यानी हेतल ने अपने हमलावर के साथ हाथापाई की थी. उसके हाथों पर खून के निशान थे. लेकिन गवाहों के अनुसार धनंजय के कपड़े एकदम साफ़ थे. उनमें कहीं कोई खून का निशान नहीं था. उसके शरीर पर कहीं कोई चोट या खरोंच का निशान भी नहीं था. पुलिस जिस पीली शर्ट की बात कर रही थी उसकी जांच के लिए एक फॉरेंसिक एक्सपर्ट को नियुक्त किया गया.
फॉरेंसिक एक्सपर्ट ने बताया कि धनंजय के कपड़ों पर खून का कहीं कोई निशान नहीं था. इस मामले में उंगलियों के निशान महत्वपूर्ण सुराग हो सकते थे. लेकिन पुलिस को घटनास्थल से या हेतल के शरीर से धनंजय के कोई निशान नहीं मिले थे. हेतल के शरीर पर चाकू के 21 निशान थे. लेकिन मर्डर वेपन भी कभी कोर्ट में पेश नहीं किया गया.
अब बात गवाहों की. पहला गवाह था एक दूसरा गार्ड, जिसने दावा किया था कि 5.45 पर उसने धनंजय को आवाज दी थी और उसने वहां से नीचे झांक के देखा था. एक और गवाह लिफ्टमेंन ने पहले इस बात पर हामी भरी लेकिन बाद में वो अपने बयान से पलट गया. उसने बताया कि उसने धनंजय को 5.45 पर नीचे आते देखा था. लेकिन ऊपर जाते हुए नहीं. दोनों गवाहों की बातें आपस में मेल नहीं खा रही थीं. दूसरा गार्ड कह रहा था कि जब उसने धनंजय को आवाज दी तो उसने तीसरे माले से नीचे देखा. जबकि हर माले पर लोहे की सरिया लगी हुई थी. यानी वहां से कोई नीचे झांके तो नीचे वाला आदमी उसे नहीं देख सकता था.
हेतल की मां और सिक्योरिटी गार्ड के अनुसार हेतल की मां 5.20 पर मंदिर के लिए निकली. जबकि लिफ्टमेन ने बताया कि तब समय 4 बजकर 10 मिनट हो रहा था.
गवाहों के अनुसार धनंजय 5.25 पर बिल्डिंग में घुसा और 5.45 पर बाहर आया. यानी इस पूरे कांड को अंजाम देने के लिए उसके पास सिर्फ 20 मिनट थे. और इस बीच उसे अपना नाम पुकारे जाने पर बहार निकलकर नीचे झांककर जवाब भी देना था. घड़ी चुराने की बात पर भी सवाल उठा क्योंकि उस दिन अपार्टमेंट में और भी कई चीजें थीं. और सिर्फ घड़ी गायब हुई थी. हत्या के बाद धनंजय ने अपने कपड़े क्यों बचाकर रखे थे, ये सवाल भी कोर्ट में कभी नहीं उठा.
फॉरेंसिक एविडेंस के अनुसार हेतल के अंडरगार्मेंट्स में वीर्य के निशान पाए गए. लेकिन कोई DNA टेस्ट नहीं कराया गया. घटनास्थल से मिले खून के निशान भी धनंजय के खून से मैच नहीं कर रहे थे. पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट में सेक्सुअल इंटरकोर्स की बात थी लेकिन रेप किए जाने या जबरदस्ती की कोई बात नहीं मेंशन थी. एक सवाल ये भी था कि अगर हेतल ने धनंजय द्वारा छेड़े जाने की शिकायत की थी तो हेतल ने उसे अंदर घुसने क्यों दिया. जब हेतल की मां घर पहुंची तो दरवाजा अंदर से बंद था. बाहर निकलकर धनंजय ऐसा कर नहीं सकता था और हेतल तो मर चुकी थी. फिर अंदर से दरवाजा बंद किसने किया?
एक बात ये भी पता चली कि जिस गार्ड ने धनंजय के खिलाफ गवाही दी थी, धनंजय ने खुद उसके खिलाफ अपने सुपरवाइजर से कंप्लेंट की थी. कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट पर भी अदालत में ध्यान नहीं दिया गया. ऑफिसियल कहानी के अनुसार हेतल की मौत के बाद उसकी मां उसे डॉक्टर के पास लेकर गई. जबकि वो पहले ही मर चुकी थी. पुलिस को इसके बारे में 3 घंटे बाद बताया गया. सुनवाई के बाद हेतल की मां ने शहर छोड़ दिया और कई बार वो ट्रायल में भी नहीं आई. जल्द ही हेतल के पिता और भाई ने भी शहर छोड़ दिया.
धनंजय के खिलाफ जिस शिकायत की बात की गयी थी उसकी कॉपी भी कभी कोर्ट में पेश नहीं हुई. सबूतों की जिस लिस्ट को अदालत में पेश किया गया, उस पर एक चाय वाले के हस्ताक्षर थे.
एपिलॉग इन सब दलीलों को सुनकर भी कुछ लोग धनंजय को मिली फांसी की सजा से सहमत हो सकते हैं. जो गलत भी नहीं है. बिलकुल संभव है कि इस मामले में दोषी धनंजय ही था. लेकिन एक बात समझना जरूरी है. वो ये कि न्याय इंसान का बनाया कांसेप्ट है. यानी कुछ गलत हो तो उसकी सजा मिलनी चाहिए. लेकिन झूठ भी इंसान का ही बनाया कांसेप्ट है. इसलिए किसी के कह देने भर से कोई दोषी नहीं हो जाता.
इसीलिए सजा देने और न्याय दिलाने के लिए क़ानून बनाया गया. जिसका पालन सावधानी से नहीं किया जाए तो किसी गुनाहगार को छूट मिल सकती है और किसी बेगुनाह को फांसी. क़ानून चूंकि इंसानी सिस्टम है इसलिए गलतियां होना लाजमी है. यही समझकर नीति निर्माताओं ने क़ानून में इस बात का भी ध्यान रखा. इसीलिए क़ानून का मूल भाव यह माना गया कि गलती से गुनाहगार छोड़ें जाएं तो ये फिर भी स्वीकार्य है, लेकिन गलती से किसी बेगुनाह हो सजा हो जाए, ये कतई स्वीकार्य नहीं है.
फांसी के केस में तो ये सिद्धांत और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि आम सजा में गलती हो जाने पर व्यक्ति को रिहाई, हर्जाना मिल सकता है. लेकिन फांसी में ये मुमकिन नहीं. इसलिए फांसी की सजा देते वक्त ये ध्यान देना तो जरूरी है ही कि मामला रेयरेस्ट ऑफ डी रेयर तो हो ही. साथ ही ये तय करना भी जरूरी है कि केस किसी भी रीजनेबल संदेह से परे हो. बाकी धनंजय का केस किसी भी संदेह से परे था या नहीं, ये आप स्वयं तय कर सकते हैं.