बात तब की है जब इंदिरा गांधी नई-नई प्रधानमंत्री बनी थीं. लोकसभा में माहौल गरमाया हुआ था. जोरदार बहस के बीच मोर्चा संभाला हुआ था विजय लक्ष्मी पंडित ने. जो खुद एक के बाद एक अपनी ही सरकार की नीतियों पर शब्दबाण बरसा रही थीं. भाषण ख़त्म हुआ. विजयलक्ष्मी पंडित बैठने को हुईं तो उनकी नज़र इधर की ओर बेंच पर बैठे राम मनोहर लोहिया (Ram Manohar Lohia) की तरफ गई.
जब नेहरू के हमलावर को बचाने पहुंच गए लोहिया!
भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और महान समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया एक प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे, उन्होंने समाजवादी राजनीति और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई. 1963 में लोहिया लोकसभा के लिये चुने गए, उन्हें सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना करने के लिये जाना जाता था. साल 1967 में 12 अक्टूबर के दिन दिल्ली में उनका निधन हो गया था.
लोहिया उनसे बोले, “पंडित जी, आप ट्रेजरी बेंच पर क्यों बैठी हैं. आपकी सही जगह तो यहां विपक्ष के बीच है”. विजयलक्ष्मी पंडित ने आंखें तरेरते हुए सवाल का जवाब एक और सवाल से दिया. बोलीं, “जंगलियों के साथ कौन बैठेगा.”
लोहिया मुस्कुराए और बोले, “जंगलियों से घबराइए मत, सीता को भी जंगल में उनके ही साथ रहना पड़ा था.”
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महिलाओं के लिए अपने वक्त से कहीं आगे की सोच रखने वाले डॉक्टर लोहिया घूंघट, बुर्का जैसी प्रथाएं पसंद नहीं करते थे. कहते थे, आज की भारतीय स्त्री को सावित्री या सीता होने से कहीं ज्यादा जरुरत है, द्रौपदी होने की. अपने निजी जीवन में भी वो इसी प्रकार की उदारवादिया बरतते थे. शादी करने के बजाय उन्होंने जिंदगी भर एक लिव इन रिलेशनशिप में रहना चुना और अपने साथ काम करने वाली महिलाओं के साथ भी हमेशा बराबरी का व्यवहार किया. इसी से जुड़ा एक किस्सा है कि एक बार संसद के बाहर पटना ईस्ट से सांसद तारकेश्वरी सिन्हा उन्हें मिलीं. लोहिया ने उनका हाथ पकड़ा और साथ में एक कॉफ़ी हाउस ले गए. तारकेश्वरी बोलीं, "मुझे इस माहौल में शर्मिंदगी महसूस हो रही है”. लोहिया ने तंज़ कसते हुए कहा, ‘तुम तो VIP घर में पैदा हुई हो न’.
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तारकेश्वरी ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि लोहिया (Lohia) ने उन्हें एक कुर्सी पर बिठाया और वेटर से कॉफी लाने को कहा. देखते ही देखते कॉफ़ी हाउस में कई लोग लोहिया के इर्दगिर्द जमा हो गए. कुछ देर बाद वेटर बिल लेकर आया. जो कि 43 रुपये का हो गया था. लोहिया ने अपनी जेब खाली की. कुल जमा 7 रूपये थे. इसके बाद वहां मौजूद तमाम लोगों ने पैसे जोड़े. यहां तक कि वेटर भी अपने जेब से पैसे निकालने लगा. तब लोहिया ने उसे रोकते हुए कहा, नहीं तुम नहीं.
ऐसा ही एक और मौका था जब तारकेश्वरी और लोहिया आमने-सामने हुए. तारकेश्वरी ने इस बार पहले निशाना साधते हुए कहा, आप औरतों और उनके अधिकारों के बारे में इतनी बात करते हो,
तो फिर आपने शादी क्यों नहीं की. लोहिया ने अबकी जवाब दिया, “क्या करते, तुमने मौका ही नहीं दिया.”
साल 1955 की बात है. 12 मार्च की तारीख थी. प्रधानमंत्री नेहरू (Nehru) नागपुर के दौरे पर थे. यहां कार से उतरते हुए अचानक एक रिक्शे वाले ने उन पर चाकू से हमला कर दिया. हालांकि इस हमले में नेहरू को कोई नुकसान नहीं हुआ. लेकिन अधिकारियों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. तहकीकात के बाद पता चला कि रिक्शा चलाने वाला नेहरू से नाराज था. उसका नाम बाबूराव लक्ष्मण कोचले था. बाबूराव की नारजगी के पीछे कारण था कि पुलिस ने उसे अहमदाबाद दंगों के मामले में नामजद किया हुआ था. बाबूराव का कहना था कि ये झूठा केस है. उसने इस बाबत नेहरू को कई पत्र लिखे थे जिनका उसे कोई जवाब नहीं मिला. इसी बात से नाराज होकर वो एक 6 इंची चाकू लेकर नेहरू से सवाल-जवाब करने पहुंच गया. इस मामले में उसे 6 साल की जेल हुई.
जब लोहिया को ये खबर पता चली तो वो सीधे उससे मिलने पहुंच गए. राम मनोहर लोहिया के साथी हरिभाऊ लिमये लिखते हैं कि लोहिया ने इस बाबत उन्हें एक पत्र लिखकर कहा था कि वो बाबूराव से मुलाक़ात का इंतज़ाम करवाएं. यशवंतराव च्वहाण तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. हरिभाऊ ने उन्हें पत्र लिखकर कहा कि लोहिया जेल में बाबूराव से मिलना चाहते हैं. लोहिया पहुंचे तो जेल निरीक्षक ने पूछा, “आप इस रिक्शावाले को कैसे जानते हैं?”
तब लोहिया ने जवाब दिया,” हम दोनों एक ही दुनिया में पैदा हुए हैं.”
लोहिया ने बाबूराव से मुलाक़ात कर उनके परिवार की आर्थिक स्थिति के बारे में पूछा. और जाते-जाते बाबूराव के नाम से कुछ पैसे जेल निरीक्षक के पास जमा कर गए ताकि जरुरत पड़ने पर काम आएं. बाबूराव से मुलाक़ात के बाद लोहिया ने अखबार में एक लेख भी लिखा, ‘प्रधानमंत्री बनाम एक रिक्शा चालक.’ इसके अलावा उन्होंने बाबूराव की रिहाई को लेकर और खूब जतन किए. उन्होंने हरिभाऊ से कहा कि पोलियो ने बाबूराव का हाथ ख़राब कर दिया है. वो बचपन से विकलांग है. तो फिर ये कैसे संभव है कि वो प्रधानमंत्री पर जानलेवा हमला करता. हमें उसका केस हाई कोर्ट में ले जाना चाहिए.
हरिभाऊ ने जब कहा कि इससे कुछ न होगा तो लोहिया ने सीधे नेहरू को ही पत्र लिखा. इसके बाद बाबूराव को एक साल बाद ही रिहाई मिल गई.
साल 1967 के चुनाव भारतीय राजनीति के इतिहास में बदलाव का चरण माने जाते हैं. उस साल हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस 9 राज्यों में सत्ता से बाहर हो गई. इनमें से एक राज्य बिहार भी था, जहां कांग्रेस ने 128 सीटें जीती लेकिन बहुमत हासिल नहीं कर पाई. दूसरे नंबर पर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी थी जिसे 68 सीटें प्राप्त हुईं. वहीं जनसंघ को 26, CPI को 24 और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 18 सीट मिलीं. विपक्ष का गठबंधन सरकार बनाने में सफल रहा. हालांकि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के पास गठबंधन में सबसे ज्यादा सीट थी, लेकिन कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए लोहिया समझौते को तैयार हो गए. और इस तरह महामाया प्रसाद सिन्हा बिहार के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने. वहीं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से कर्पूरी ठाकुर को उप मुख्यमंत्री का पद मिला. भिंडेश्वरी प्रसाद मंडल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे और उस साल हुए लोकसभा चुनाव में जीतकर सांसद बने थे. लेकिन सरकार बनते ही वो बिहार पहुंचे और स्वास्थ्य विभाग का जिम्मा संभाल लिया.
इधर जब बिहार में ये खेल चल रहा था, लोहिया इस बात से अंजान केरल में थे. उस वक्त आज जैसे संचार माध्यम नहीं थे जिससे कोई भी सूचना तत्काल कहीं भी पहुंचाई जा सके. जब लोहिया दिल्ली लौटे तब उन्हें पता चला कि मधेपुरा के सांसद बीपी मंडल बिहार सरकार में मंत्री बन गए हैं और अब मंत्री पद बचाने के लिए विधान परिषद का हिस्सा बनना चाहते हैं.
लोहिया इस बात से इतने नाराज हुए कि उन्होंने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. लोहिया इस कदर गुस्सा थे कि एक बार जब कर्पूरी ठाकुर उनसे मिलने आए तो लोहिया ने मिलने से इनकार कर दिया. और अपने सचिव उर्मिलेश से कहा, “उन्हें चाय दो और कहो कि बजाय मुझसे मिलने में समय नष्ट करने के, अपने काम पर ध्यान दें”
लोहिया दिल्ली में थे. आए दिन बिहार के नेताओं का उनके यहां तांता लगा रहता. ये देखकर उन्होंने अपने पार्टी के राज्यसभा सांसद भूपेंद्र नारायण से कहा,
“तुम्हारे सारे मंत्री तो रोज़ दिल्ली में बैठे रहते हैं. ऐसा करो तुम बिहार की राजधानी पटना के बजाय दिल्ली ही बना लो.”
लोहिया को मनाने की खूब कोशिशें हुईं लेकिन वो तब तक नहीं माने जब तक बीपी मंडल ने इस्तीफ़ा न दे दिया. अगली बार जब कर्पूरी ठाकुर लोहिया से मिलने आए तो उन्होंने स्वागत करते हुए कहा, “आइए, आइए नेताजी बैठिए.” लोहिया का गुस्सा अब ख़त्म हो चुका था.
1950 के दशक की बात है. हैदराबाद में राज भवन के ठीक बगल में पन्नालाल पित्ती का बंगला मोती भवन था. एक दोपहर लंच के वक्त डॉक्टर लोहिया यहां पधारे. मीटिंग के बाद एक लड़का लोहिया से मिला और उन्हें कागज़ का एक पन्ना थमाया. लोहिया ने देखा कि पन्ने पर उनका अपना स्केच बना हुआ था. लड़के का नाम था मकबूल फ़िदा हुसैन.
लोहिया और हुसैन की दोस्ती हो गई. एक रोज़ दिल्ली में हुसैन लोहिया को करीम होटल में खिलाने ले गए. खाना खाते हुए, लोहिया ने हुसैन से पूछा, “मैंने देखा है कि प्रधानमंत्री आवास में नेहरू की एक तस्वीर लगी है, जिस पर तुम्हारा नाम लिखा है. तुम्हे नेहरू की तस्वीर बनाने की क्यों सूझी?”
इससे पहले कि हुसैन कुछ जवाब देते, लोहिया ने कहा,
“मुझे तो तुम्हारी बनाई वो तस्वीर अच्छी लगी, जो इलस्ट्रेटेड वीकली में छपी है. उसमें लग रहा है कि नेहरू डूब रहे हैं और पानी उनके गले तक आ गया है.”
इस पर MF हुसैन ने जवाब दिया, “लोहियाजी, यही तो मॉडर्न आर्ट की खूबी है. यहां दर्शक पर निर्भर करता है कि वो तस्वीर में क्या मतलब निकाल ले.”
लोहिया ने हुसैन की पीठ थपथपाते हुए कहा,
“तुम ऐसी तस्वीरों की दुनिया से घिरे हुए हो जो टाटा-बिड़ला के बैठक में टंगी रहती हैं. तुम इस दुनिया से बाहर क्यों नहीं आते. रामायण की तस्वीरें बनाओ. उन तस्वीरों को भारत के गावों में ले जाओ. शहरों की बंद दीवारों के पीछे, पैंट की जेब में हाथ डाले लोग तुम्हारी पेंटिंग के सामने बस खड़े रहते हैं. जबकि गांव के लोग ऐसे नहीं है. वो तुम्हारी तस्वीर के रंगों में डूबकर उन्हें नाच गानों से भर देंगे.“
हुसैन लिखते हैं कि लोहिया की बात उनके दिल पर तीर की तरह लगी. इसके बाद हुसैन ने रामायण से जुड़ी 150 से अधिक तस्वीरें बनाई. हुसैन बताते हैं
“इन तस्वीरों को बनाने के लिए मुझे कोई रुपया नहीं मिला. मैं सिर्फ लोहियाजी की बात रखने के लिए ये तस्वीरें बना रहा था. लेकिन जब मैं इन तस्वीरों के साथ गांव गया, तो लोहियाजी की बात सच निकली. गांव के लोग इन तस्वीरों के आगे झुक कर प्रणाम कर रहे थे. जबकि शहरों में मेरी तस्वीरों को पूछने वाला कोई न था.”
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