आज एक हाइपोथेटिकल सिनारियो से शुरुआत करते हैं. मान लीजिए लल्लन का दुश्मन है कल्लन. जिसे वो अपने रास्ते से हटा देना चाहता है. अब लल्लन है फुल जादू टोने पर विश्वास करने वाला आदमी. सो वो गया एक तांत्रिक के पास और बोला, सर जी एक काम करो, कुछ मंतर वंतर मारो और कल्लन को रास्ते से हटा दो. अब इत्तेफाक ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद कल्लन की ज़हर दिए जाने से मौत हो गई. पुलिस ने तहकीकात की लेकिन पता नहीं लगा पाई कि ज़हर किसने दिया है.
जब अदालत में पहली बार लड़ा गया काले जादू का केस
साल 1873 में बॉम्बे हाई कोर्ट के सामने पहली बार एक ऐसा केस आया जिसमें काले जादू का जिक्र था. जानिए क्या था ये केस और किस आधार पर दिया था अदालत ने फैसला

इस दौरान पुलिस को पता चला कि कल्लन का एक दुश्मन था, लल्लन. जिसने कुछ दिन पहले ही एक तांत्रिक को पैसे दिए थे, ताकि वो जादू टोने से कल्लन को रास्ते से हटा दे. पुलिस लल्लन और तांत्रिक को पकड़ती है और ले जाती है अदालत. ये ध्यान में रखिए कि लल्लन या तांत्रिक ने कल्लन को ज़हर दिया, इसका कोई सबूत नहीं है. लल्लन ने काला जादू करने को कहा था, और काले जादू से कोई मरता हो, क़ानून इस बात को मानता नहीं. अब सोचिए अदालत लल्लन को कसूरवार मानेगी या नहीं?
जब तक आप इस पर सोचते हैं, अपन चलते हैं, इतिहास के पिटारे से निकले एक असली केस पर. साल 1873 में एक ऐसा ही केस बॉम्बे उच्च न्यायालय के सामने आया था. जब बॉम्बे में तीन लोगों की हत्या हुई. और बाद में मामला काले जादू का निकला. लेकिन दिक्कत ये खड़ी हुई कि हत्याओं का पुलिस के पास कोई सबूत नहीं था. फिर भी सजा हुई. कैसे? इसी से जुड़ी है हमारी आज की कहानी.
नोट : (शहर का नाम मुम्बई हो जाने के बावजूद बॉम्बे हाई कोर्ट का नाम आज भी बॉम्बे हाई कोर्ट ही है).
साल 1872: डे गा षड्यंत्रइस केस की शुरुआत होती है साल 1872 के नवम्बर महीने की 15 तारीख से. मुंबई में ग्रांट रोड, रॉयल थिएटर के पास डे गा परिवार रहता था. उस रोज़ शाम को खाना खाने के बाद डे गा परिवार के दरवाजे पर घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने एक आदमी केक लेकर खड़ा था.

केक काटकर परिवार में बांटा गया और सबने एक-एक टुकड़ा खा लिया. और बचे हुए केक को कुछ रिश्तेदारों के वहां भिजवा दिया गया. रात 11 बजे के अचानक सबकी तबीयत ख़राब होने लगी. जिन नौकरों ने केक खाया था, उन्होंने भी पेट में दर्द की शिकायत की. अगली सुबह तक परिवार में दो लोगों की मौत हो गई. साफ़ था कि केक में ज़हर मिलाया गया था. इसके अलावा केक जिन रिश्तेदारों में भिजवाया गया था, वो भी बीमार पड़ने लगे और उनमें से भी एक की मृत्यु हो गई. जैसे ही खबर फ़ैली, पूरे इलाके में दहशत फ़ैल गई. सवाल था कि ज़हरीला केक भिजवाया किसने, और कोई क्यों डे गा परिवार की हत्या करना चाहता था.
पुलिस ने केक लाने वाले शख्स की छानबीन की. तो पता चला उसने खुद भी केक खाया था, जिसके चलते उसकी मौत हो गई थी. केस में आगे न कोई सबूत मिला न गवाह, इसलिए फ़ाइल धरी की धरी रह गई. कहानी का दूसरा सिरा खुलता है कुछ दिनों बाद. जब पुलिस के पास अली मुहम्मद नाम का मुखबिर पहुंचता है. और बताता है कि पेस्टोनजी डिनशा नाम का एक वकील दो लोगों को रास्ते से हटाने की सोच रहा है.
इसके बाद पुलिस अपना जाल बिछाती है. पेस्टोनजी ने सखाराम नाम के एक बिचौलिए को काम सौंपा था कि वो किसी तांत्रिक का जुगाड़ करे. साखारम ने ये बात अली मुहम्मद को बताई और उसने पुलिस को बता दी. अली मुहम्मद, सखाराम को ख़ाकीशाह नाम के एक तांत्रिक के बारे में बताता है. इसके बाद दोनों पार्टियों के बीच मीटिंग तय होती है. कमाठीपुरा के एक घर में पेस्टोनजी, सखाराम, अली मुहमद और ख़ाकीशाह तय वक्त पर पहुंचते हैं. पुलिस को इस मुलाकात का पहले से पता था. इसलिए सादी पोशाक में पुलिस के आदमी वहां मौजूद थे, ताकि जो कुछ हो रहा है, उसे देख सुन सकें.
काले जादू का मामलामीटिंग के दौरान पेस्टोनजी बताते हैं कि वो दो लोगों को अपने रास्ते से हटाना चाहते हैं. लेकिन इस काम के लिए उनकी एक शर्त थी. इसके लिए ज़हर जैसी किसी चीज का इस्तेमाल नहीं होना था. क्योंकि इससे बात पुलिस तक पहुंच सकती थी. पेस्टोनजी ख़ाकीशाह से कहते हैं कि उसे अपने ‘इल्म’ यानी काले जादू से ये काम करना होगा. ख़ाकीशाह तैयार हो जाता है और पेस्टोनजी से कहता है कि उसे शिकार की तस्वीर चाहिए होगी, जिसके बाद वो आसमानी किताब से इसका हल निकाल लेगा.

पेस्टोंजी ख़ाकीशाह से कहते हैं कि जैसे ही शिकार बीमार पड़ेगा वो उसे 500 रूपये देंगे और काम पूरा हो जाने पर बाकी 2 हजार रूपये. यहां पर ये कहानी डे गा परिवार वाले केस स जुड़ती है. क्योंकि पेस्टोनजी जिन दो लोगों को ठिकाना लगाना चाहते थे, उनका नाम था निकोलस डे गा और उनकी पत्नी रोज़ मैरी डे गा. मामला जमीन जायदाद का था. दरअसल रोज़ मेरी डे गा की पिता की मौत के बाद पेस्टोनजी वकील के नाते उनकी वसीयत को संभाल रहे थे. लेकिन इस दौरान उन्होंने डे गा परिवार की रकम और जमीन हड़प ली थी. और अब डे गा परिवार उनसे पैसा और जमीन वापस मांग रहे थे. लेकिन पेस्टोनजी के ऊपर भारी कर्ज़ा था और वो पैसे वापस करने की हालत में नहीं थे. इसलिए पहले तो उन्होंने डे गा परिवार से कुछ समय की मोहलत मांगी. जब पैसे वापस न हुए तो डे गा परिवार ने कोर्ट केस कर दिया. केस की तारीख नजदीक आ रही थी, इसलिए कोई चारा न देखते हुए पेस्टोनजी ने डे गा दम्पति को अपने रास्ते से हटाने की सोची.
दो हफ्ते पहले डे गा परिवार के पास जो केक पहुंचा था, वो भी पेस्टोनजी की कारस्तानी थी. लेकिन उस दिन निकोलस डे गा और उनकी पत्नी बच गए. पेस्टोनजी की किस्मत अच्छी थी कि पुलिस के हाथ कोई सुराग न लगा. इसलिए उन्होंने तंत्र मंत्र का रास्ता अपनाने की ठानी. और इसी चक्कर में वो पहुंचे तांत्रिक के पास.
मामला बॉम्बे हाई कोर्ट पहुंचाकमाठीपुरा में पुलिस ये सब सुन रही थी. वो तुरंत पेस्टोनजी और सखाराम को गिरफ़्तार कर कोर्ट में पेश करती है. जहां उन पर डे गा दम्पति की हत्या की साज़िश का केस चलता है. बॉम्बे हाई कोर्ट में तब जज के अलावा एक ज्यूरी पैनल हुआ करता था. यानी आम लोगों का एक पैनल जो केस की सारी दलीलों को सुनकर अपना फैसला देता है. वर्तमान में ये नियम अमेरिका सहित कई देशों में चलता है, लेकिन भारत में अब ज्यूरी पैनल का नियम नहीं है.

पेस्टोनजी के बचाव पक्ष की तरफ से पेश होने वाले दो अनुभवी वकील थे, थॉमस ऐंटसी और जॉन डंकन. जबकि सखाराम का केस लड़ रहे थे बदरुद्दीन तैयबजी, जिनके बारे में फेमस है कि वो बॉम्बे हाई कोर्ट में केस लड़ने वाले पहले भारतीय वकील थे और आगे जाकर इंडियन नेशनल कांग्रेस के तीसरे अध्यक्ष भी बने. अभियोग पक्ष की तरफ से पेश होने वाले थे, सर एंड्रू स्कोबल और मिस्टर फर्गसन. केस सुनने वाले जज का नाम था सर लिटिलटन बेली और उनके साथ एक 12 सदस्यीय ज्यूरी भी थी, जिसके सभी मेंबर भारतीय थे.
अभियोग पक्ष की तरफ से केस का सारा दामोदार पुलिस गवाहों पर था जिन्होंने साजिश की बात सुनी थी. इसके अलावा जहरीले केक से डे गा परिवार के तीन लोगों की मौत का मसला भी था. लेकिन इस बात को अभियोग पक्ष अदालत में नहीं उठा सकता था. वो इसलिए क्योंकि उस केस को पेस्टोनजी से जोड़ने के लिए उनके पास कोई सबूत नहीं था. इसलिए केस में अभियोग पक्ष की तरफ से सिर्फ एक दलील दी गयी कि पेस्टोनजी और सखाराम ने हत्या की साजिश की थी, और चाहे हत्या को अंजाम न भी दिया गया हो, तब भी ये अपराध साबित करने के लिए काफी था.
बचाव पक्ष ने एक सवाल उठाया. उन्होंने कहा माय लार्ड, क्या क़ानून मनाता है कि जादू टोने से किसी की हत्या हो सकती है. अगर नहीं तो किस आधार पर मुवक्किल को सजा दी जाएगी. सारा कोर्ट सन्नाटे में. करें तो करें क्या. क़ानून की किताब में कहीं लिखा नहीं था कि जादू टोने के लिए कोई सजा दी जाए.
अदालत ने काले जादू पर सजा दे दी?केस 12 मेंबर वाली ज्यूरी को तय करना था. जो क़ानून के पढ़े लिखे लोग नहीं थे ,वो तो सामान्य लोग थे. चाहे जादू टोन के लिए कोई क़ानून न हो, तब भी सामान्य समझ से मामला हत्या की साजिश का था. इसलिए अभियोग पक्ष ज्यूरी को ये भरोसा दिलाने में सफल हो गया कि ये हत्या की साजिश का मामला है. इस केस में पेस्टोन जी और सखाराम को 7 साल कारावास की सजा सुनाई गई.

इसके बाद बचाव पक्ष ने केस की दोबारा सुनवाई की अपील डाली. जिसे स्वीकार किया गया और मामला पहुंचा, बॉम्बे हाई कोर्ट की पांच मेंबर वाली बेंच के पास. जिसके चीफ जस्टिस थे, सर माइकल वेस्ट्रॉप. आज ही के दिन यानी 29 जून 1817 को वेस्ट्रॉप की पैदाइश हुई थी.
फुल बेंच के सामने बचाव पक्ष ने दलील रखी कि पिछला फैसला गलत आधार पर दिया गया था. और इस मामले में गलती जज की थी, जिन्होंने ज्यूरी के सदस्यों को बताना चाहिए था कि जादू टोन के हिसाब से सजा नहीं दी जा सकती. आखिर में मामला फंसा ‘इल्म’ पर. याद कीजिए पेस्टोनजी ने ख़ाकीशाह से कहा था कि ‘इल्म’ के जरिए डे गा दम्पति को रास्ते से साफ़ करे. अब यहां कॉमन सेन्स से समझ में आता है कि इल्म का मतलब जादू टोना था. लेकिन अभियोग पक्ष हाई कोर्ट को ये विश्वास दिलाने में सफल हो गया कि ‘इल्म’ का मतलब सिर्फ जादू टोना नहीं बल्कि और तरीके भी हैं.
पेस्टोनजी और सखाराम की सजा बरक़रार रखी गई. हाई कोर्ट का ये केस तब बहुत फेमस हुआ था क्योंकि एक तो पहली बार अदालत के काले जादू के मामले में फैसला दिया था. दूसरा इस फैसले का मतलब था अगर पेस्टोनजी ने ‘इल्म’ न कहकर सिर्फ जादू टोना बोला होता तो उन्हें इस मामले में रिहाई मिल सकती थी.
अब चकित होने के लिए एक और फैक्ट सुनिए. आज यानी साल 2022 में भी भारत में IPC में मानव बलि जैसे अन्धविश्वास को केवल तभी क़ानून का उल्लंघन माना जाता है, जब किसी की हत्या कर दी गई हो. किसी को चुड़ैल बताकर प्रताड़ित करने और चोट पहुंचाने को भी सिर्फ ‘साधारण चोट’ के दायरे में रखा गया है. और महाराष्ट्र कर्नाटक और आसाम जैसे सिर्फ गिने-चुने राज्य हैं जहां अन्धविश्वास के खिलाफ कानून बन पाए हैं.