साल 1983. बिहार विधानसभा में काम करने वाली एक लड़की की मौत होती है. और चार घंटे के अंदर चुपचाप उसके शरीर को ले जाकर दफना दिया जाता है. ये खबर एक अखबार के हाथ लगती है. और फिर हरकत में आते हैं एक IPS ऑफिसर. तफ्तीश जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, एक-एक कर परतें खुलती हैं. लड़की को दफनाने की जल्दबाज़ी यूं ही नहीं की गई थी. उसकी मौत के बाद दो-दो रिपोर्ट तैयार हुई थीं. दोनों में मौत की वजह अलग-अलग. आगे तफ्तीश में कुछ बड़े नाम जुड़ते हैं. पता चलता है कि लड़की के रसूख वाले लोगों से संबंध थे. पुलिस पर दबाव था, मामले को निपटाने का. लेकिन जांच अफसर अड़ जाते हैं. (Bihar Bobby Scandal)
बिहार का बॉबी कांड, जब एक लड़की की मौत छुपाने में पूरी सरकार लग गई!
साल 1983 मई के महीने में बिहार की राजधानी पटना के दो मशहूर अखबारों के फ्रंट पेज पर एक ख़बर छपी जिसने सबको चौंका दिया. ये खबर थी बिहार के बॉबी हत्याकांड की, जो हमेशा के लिए एक राज़ बनकर फाइलों में दफन हो गया.
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लड़की के शरीर को निकालकर पोस्ट मॉर्टम किया जाता है. जो रिपोर्ट आती है, उससे बिहार में हड़कंप मच जाता है. फिर शुरू होता है राजनीति का असली खेल. सत्ता के हाथ न्याय का गला किस कदर दबोच लेते हैं, ये कहानी उसकी एक बानगी है. क्या हुआ था 1983 में बिहार में? क्या था बिहार का बॉबी हत्याकांड, जिसने पूरे देश को हिला दिया था. कैसे एक पुलिस अफसर ने इस हत्याकांड की परतें खोलीं. और कैसे सत्ता ने उसके हाथ रोक दिए.
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बेबी बन गई बॉबी
किस्से की शुरुआत होती है 11 मई 1983 से. पटना से निकलने वाले एक लोकल दैनिक अख़बार में उस रोज़ एक खबर छपी थी. खबर थी एक मौत की. श्वेता निशा त्रिवेदी नाम की एक लड़की, जो बिहार विधानसभा में टाइपिस्ट का काम करती थी. कांग्रेस की एक वरिष्ठ नेता और विधान परिषद की तत्कालीन सभापति राजेश्वरी सरोज दास की गोद ली हुई बेटी. 35 साल की श्वेता निशा दिखने में बेहद खूबसूरत थी. घर पर उनका निक नेम बेबी था. लेकिन उसकी मौत के बाद खबरनवीसों ने उसका नाम बॉबी कर दिया. शायद राज कपूर की फिल्म बॉबी से प्रेरित होकर. आगे जाकर ये केस बॉबी हत्याकांड नाम से मशहूर हुआ. इसलिए सरलता के लिए हम भी बॉबी नाम का ही यूज़ करेंगे. तो जैसा कि पहले बताया बॉबी की मौत की खबर अखबार में छपी. इसमें उसकी मौत पर कई सवाल उठाए गए थे. सबसे बड़ा सवाल था कि जल्दबाज़ी में बॉबी के शरीर को दफनाया क्यों गया और कहां दफनाया गया.
पब्लिक के लिए खबर रोचकता का सबब थी, लेकिन एक पुलिस अधिकारी को इस दाल में काला नजर आ रहा था. इस पुलिस अधिकारी का नाम था, किशोर कुणाल. कुणाल पटना के तत्कालीन SSP हुआ करते थे. 2021 में उनकी लिखी एक किताब रिलीज़ हुई, 'दमन तक्षकों का'. इस किताब में कुणाल ने इस केस को लेकर कई खुलासे किए. सिलसिलेवार तरीके से चलें तो कुणाल ने अखबार की इस खबर के आधार पर केस की जांच शुरू की. उन्होंने सबसे पहले बॉबी की माताजी राजेश्वरी सरोज दास से पूछताछ की. दास ने उन्हें बताया कि 7 मई की शाम बॉबी अपने घर से निकली और फिर देर रात वापिस आई. घर आते ही उसने पेट में दर्द की शिकायत की. जल्द ही उसे खून की उल्टियां होने लगी. जल्दबाज़ी में उसे पटना मेडिकल कॉलेज ले जाया गया. और इमरजेंसी वार्ड में भर्ती कराया गया.
इसके बाद उसे घर भेज दिया गया जहां उसकी मौत हो गई. दास के पास से पुलिस को कुछ ऐसा मिला जिससे पक्का हो गया कि इस मामले में कुछ गड़बड़ जरूर है. दरअसल बॉबी की मौत के बाद दो रिपोर्ट तैयार की गई थीं. एक जिसमें कहा गया था कि मौत की वजह इंटरनल ब्लीडिंग है. वहीं एक दूसरी रिपोर्ट में कहा गया था कि बॉबी की मौत हार्ट अटैक से हुई है. एक में मौत का वक्त सुबह के 4 बजे लिखा था, तो दूसरी में साढ़े चार बजे. असल में मौत की वजह क्या थी, और मौत का वक्त क्या था, ये पता करने का सिर्फ एक तरीका था. ऑफिसर कुणाल ने तय किया कि बॉबी का शरीर निकाल कर पोस्टमार्टम करवाया जाएगा. अदालत से इजाजत लेकर पोस्टमार्टम करवाया गया. और उसमें से अलग ही बात निकलकर सामने आई. बॉबी के विसरा की जांच में 'मेलेथियन' नाम का जहर पाया गया. इस रिपोर्ट ने पुलिस के शक को हकीकत में बदल दिया. अब साफ हो चुका था कि बॉबी का कत्ल किया गया था.

बॉबी की हत्या हुई थी?
अब बारी थी पता लगाने की कि बॉबी को जहर किसने दिया? कुणाल ने बॉबी का बैकग्राउंड की तफ्तीश की तो पता चला कि बॉबी का रसूखदार लोगों से मिलना जुलना था. एक बात ये भी पता चली कि 1978 में जब बॉबी को विधानसभा में नौकरी मिली तो वहां एक विशेष प्राइवेट एक्सचेंज बोर्ड लगाया गया था. सिर्फ इसलिए ताकि बॉबी को टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी मिल जाए. बाद में वो बोर्ड बंद कर दिया गया और बॉबी को टाइपिस्ट के नौकरी मिल गयी. विधानसभा में नौकरी के दौरान उसकी कई नेताओं और विधायकों से अच्छी जान पहचान हो गई थी. तफ्तीश के लिए कुणाल एक और बार बॉबी की माताजी के सरकारी आवास पहुंचे. यहां उन्होंने पाया कि बॉबी की चीजें गायब हैं. उसी सरकारी आवास से लगा एक आउट हाउस हुआ करता था. जहां दो लड़के रहते. पुलिस ने उनसे पूछताछ की. उन लड़कों ने बताया कि 7 मई की रात वहां बॉबी से मिलने के लिए एक आदमी आया था. इस शख्स का नाम था रघुवर झा. रघुवर झा कांग्रेस की एक बड़ी नेता राधा नंदन झा का बेटा था.
अपनी किताब में कुणाल बताते हैं कि रघुवर झा के बारे में उन्हें बॉबी की मां राजेश्वरी सरोज दास ने भी बताया था. दास का कहना था कि रघुवर झा ने बॉबी को एक दवाई दी थी. जिसके बाद उसकी तबीयत बिगड़ने लगी. और बाद में उसकी मौत हो गई. बॉबी ने चूंकि ईसाई धर्म अपना लिया था. इसलिए उसे दफनाया गया. पुलिस के अनुसार केस का मुख्य अभियुक्त विनोद कुमार था. जिसने नकली डॉक्टर का रोल किया रघुवर झा के कहने पर बॉबी को दवाई पीने को दी. चूंकि केस में एक बड़े नेता के बेटे का नाम आ रहा था, इसलिए मामला हाई प्रोफ़ाइल बन गया. पुलिस की जांच जैसे -जैसे आगे बड़ी, सत्ता के गलियारों में हड़कंप मचने लगा. अदालत में केस पहुंचा. वहां राजेश्वरी दास ने अपने बयान में बताया कि कैसे नकली डॉक्टर से बॉबी का इलाज़ करवाया गया और झूठी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बना दी गई.
केस की ख़बरें अब लोकल अख़बारों से देश के अख़बारों तक पहुंच चुकी थी. धीरे-धीरे इस केस में और कई लोगों का नाम जुड़ा. इनमें से कुछ सत्ताधारी विधायक और सरकार में मंत्री तक थे. जल्द ही मामले में राजनीति का रंग भी ओड़ लिया. विपक्ष की कम्युनिस्ट पार्टी ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री आरोपियों को न पकड़ने के लिए पुलिस पर दबाव डाल रहे हैं. विपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर, इस मामले में बार बार CBI जांच की मांग कर रहे थे. कुणाल लिखते हैं कि इस केस में उन पर काफी दबाव था. उनके वरिष्ठ अधिकारी ऐसे बर्ताव कर रहे थे मानों सच का पता लगाकर उन्होंने कोई गुनाह कर दिया है. ऐसे में एक रोज़ कुणाल के पास सीधे मुख्यमंत्री का कॉल आया. जगन्नाथ मिश्र तब बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. कुणाल लिखते हैं कि CM ने उनसे पूछा, ये बॉबी कांड का मामला क्या है.

कुणाल ने उन्हें जवाब दिया, सर कुछ मामलों में आपकी छवि अच्छी नहीं है, किंतु चरित्र के मामले में आप बेदाग हैं, इस केस में पड़िएगा तो यह ऐसी आग है कि हाथ जल जाएगा. अत: कृपया इससे अलग रहें. किताब के अनुसार जवाब सुनकर मुख्यमंत्री ने फोन रख दिया था. आगे क्या हुआ. चूंकि मामला नेताओं की साख से जुड़ा था इसलिए सरकार पर भी दबाव पड़ रहा था. इस बीच मई 1983 में लगभग 4 दर्ज़न विधायक और मंत्रियों की एक टीम मुख्यमंत्री से मिली. कहते हैं सरकार बचाने के लिए जग्गनाथ मिश्र प्रेशर में आ गए. और 25 मई को ये केस CBI को सौंप दिया गया.
CBI ने पलटा खेल
CBI ने दिल्ली से एक रिपोर्ट तैयार कर दी. CBI की रिपोर्ट में कहा गया कि मामला क़त्ल का नहीं बल्कि आत्महत्या का है. रिपोर्ट के अनुसार बॉबी अपने प्रेमी से मिले धोखे से परेशान थी. इसलिए उसने सेंसिबल नामक टेबलेट खा लिया था. इसके अलावा CBI ने कहा कि मरने से पहले बॉबी ने अपने प्रेमी को एक पत्र भी लिखा था. इस रिपोर्ट के अनुसार रघुवर झा इस मामले में निर्दोष था. और घटना के दिन वो एक शादी में शिरकत करने गया था. साथ ही CBI ने पटना पुलिस पर आरोप लगाया कि उन्होंने उन दो लड़कों को टॉर्चर किया, उन्हें रघुवर झा की फोटो दिखाई और उनसे उसका नाम लेने को कहा. CBI रिपोर्ट के अनुसार बॉबी ने जो खत लिखा था वो उसकी मां ने जला दिया. और भी काफी दस्तावेज़ जलाए गए ताकि बड़े लोगों का इस केस में नाम ना आए.
CBI की ये रिपोर्ट जैसे ही सामने आई, बिहार में विपक्ष ने फिर हंगामा खड़ा कर दिया. क्योंकि CBI की रिपोर्ट नेताओं को क्लीन चिट दे रही थी. तब पटना की फॉरेंसिक लैब की तरफ से भी CBI की रिपोर्ट पर सवाल उठाए गए. उनके अनुसार पोस्टमार्टम में सेंसिबल टैबलेट का कोई अंश नहीं था. और बॉबी की मौत 'मेलेथियन' जहर से हुई थी. इस पर CBI ने सफाई देते हुए कहा कि गलती से लेबोरेटरी में रखे किसी दूसरे विसरा से बॉबी के विसरा में मेलेथियन चला गया होगा. ये कहकर CBI ने इसे आत्महत्या का केस बताकर केस बंद कर दिया. किशोर कुणाल हमेशा कहते रहे कि उनकी नज़र में ये एक मर्डर केस था. जनसत्ता की एक रिपोर्ट बताती है कि सालों बाद एक विधायक ने इस केस में एक हैरतअंगेज़ दावा किया. कहा था,
“अगर हम लोग मामला रफा-दफा नहीं करवाते तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता क्योंकि हमाम में सब नंगे थे”

हालांकि इस बयान में हैरतजंगेज़ कुछ भी नहीं था. क्यूंकि CBI मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के भाई पूर्व CM ललित नारायण मिश्र की हत्या की गुत्थी नहीं सुलझा पाई तो एक आम लड़की की बिसात ही क्या थी. बहरहाल इस केस से जुड़े अफसर किशोर कुणाल की किताब का एक रोचक किस्सा आपको सुनाते चलते हैं. बात 1978 की है. कुणाल मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में एक ट्रेनिंग कोर्स के लिए गए हुए थे. यहां उन्हें जो कमरा अलॉट हुआ, उसमें एक और अफसर पहले से रह रहे थे. कुणाल लिखते हैं कि कमरे में घुसते ही उन्होंने देखा कि वे महाशय महज़ अंडरवियर बनियान में बैठे हैं. और सामने शराब की बोतल रखी हुई हैं. कुणाल ने उनसे पूछा कि क्या यहां शराब पीने की परमिशन है. इस पर उन जनाब ने जवाब दिया,
“अफसर शराब न पिएगा तो ताकत कहां से लाएगा”
आगे बोले,
“IAS का फुल फॉर्म जानते हो. इंडियन ऑलमाइटी सर्विस. यूं ईश्वर को ऑलमाइटी कहते हैं लेकिन यहां धरती पर हम ही ईश्वर हैं”
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