बिहार में गंगा के दक्षि़णी तट पर बसा है भागलपुर (Bhagalpur) शहर. इसी नाम का जिला भी है और डिवीजन भी. सिल्क सिटी के नाम से जाना जाता है और भारत सरकार के स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट का हिस्सा भी है. गेहूं, चावल, ज्वार, और बाजरे की खूब उपजाऊ जमीन है यहां. माना जाता है कि महाभारत की कहानी में कर्ण को दुर्योधन ने जिस अंग प्रदेश का राजा बनाया था, वो भी भागलपुर में ही पड़ता है.
लाशों को छुपाने के लिए खेत में गाड़ा और ऊपर से गोभी बो दी!
1989 में दो महीने तक चले भागलपुर दंगों में हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी.
इसी शहर में साल 1989, अक्टूबर महीने की 24 तारीख की बात है. पतझड़ जाते-जाते पत्तियोें की सरसराहट छोड़ गया था. 29 साल की जमीला बीवी आंगन में झाड़ू कटका कर रही थी. घर के अंदर एक तीन साल की बेटी और 2 साल का बेटा था. जमीला के शौहर मुहम्मद मुर्तजा कुछ काम से बाहर गए थे. 10 बजे के आसपास मुर्तज़ा लौटे. भागे-भागे आए थे. माथे पर शिकन और चेहरे पर पसीना. जमीला के कुछ कहने से पहले ही मुर्तज़ा बोले, “दंगे हो गए हैं, बच्चों को पकड़ो और भागो.”
जमीला ने मुर्तज़ा की सुनी और पूरा परिवार घर छोड़कर निकल गया. हमेशा-हमेशा के लिए. कपड़े-लत्ते, गहने- जेवर सब वहीं छूट गया. और बात सिर्फ़ इस एक परिवार की नहीं थी. बिहार में उस रोज़ इस एक कहानी की कई फोटो कॉपियां बनाई गई थीं. ये कहानी है 1989 भागलपुर दंगों (1989 Bhagalpur Riots 1989) की. जिसे 1984 दिल्ली दंगों और 1992 मुम्बई दंगों की बीच कहीं भुला दिया गया. साथ ही भुला दिया गया उस मुख्यमंत्री को, जिसके शासन में ये दंगा हुआ था.
गोभी का फूल होता है. और गोभी बंद भी होती है. कुछ को पसंद होती है तो कुछ को बेहद नापसंद. गोभी की सब्जी सूखी बनती है और कुछ माहिर खानसामे तो रसवाली गोभी भी बना देते हैं. इसके अलावा गोभी के पकौड़े भी बनाए जाते हैं. शायद दिमाग पर जोर डालें तो गोभी के कुछ और इस्तेमाल भी सोच सकते हैं. सिवाए एक चीज के. सुनिए एक फलसफा,
साल 2021 में जब बंगाल में दंगों की शुरुआत हुई तो सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट शेयर होने लगीं. “इसका बदला, उसका बदला” टाइप. नफरत के इसी खेत में बीच-बीच में कहीं गोभियां भी बोई गई थीं. एक पोस्ट में लिखा था, “क्या बंगाल के किसान गोभी की खेती नहीं करते?”
एक दूसरी पोस्ट में गोभी के फूल को राष्ट्रीय फूल, फल और सब्जी, तीनों घोषित करने की मांग की गई थी. इसके अलावा एक अकाउंट के बायो में लिखा था “गोभी का किसान”
ये सब यूं ही नहीं लिखा जा रहा था. गोभी के पीछे एक सन्देश था, एक संकेत था. क्या था ये संकेत? इसके लिए थोड़ा पीछे चलना होगा. साल 1989. नवंबर महीने की बात है.
बिहार के भागलपुर जिले में लौगांय गांव पड़ता है. उस रोज़ इस गांव में एक खेत खोदा गया. खेत में लहलहाती गोभी उग रही थी. लेकिन खेत गोभी के लिए नहीं खोदा गया था. वहां छोटे-छोटे लाल रिबन निकले थे. बच्चों के बालों में लगाए जाने वाले. रिबन के साथ सर भी थे और शरीर भी. कुछ और जगहों से भी लाशें निकल रही थी. कुल 110 लाशें थी. इनमें 52 छोटे-छोटे बच्चे थे. लौगांय में 25 परिवार रहते थे. 4000 की दंगाई भीड़ ने लगभग सभी को मार डाला था.
पहले लाशों को एक तालाब में डाला गया. जब लाशों की बदबू तेज़ होने लगी तो उन्हें निकाल कर अलग-अलग जगह गाड़ दिया गया. कुछ को एक खेत में दफ़ना के ऊपर से गोभी के बीज डाल दिए गए. और ये मंजर सिर्फ़ लौगांय का नहीं था. दो महीनों तक भागलपुर में चले इन दंगों में हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान चली गई थी. और ये आंकड़ा भी सिर्फ़ सरकारी है.
कैसे हुई थी दंगों के शुरुआत?साल 1989. साम्प्रदायिक माहौल गरमाया हुआ था. अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए ईंटें इकट्ठा होना शुरू हो गई थीं. अगस्त महीने में भागलपुर में एक जुलूस निकला. लोकदेवी विषधरी माई का जुलूस. यूं तो जुलूस हर साल निकलता था, लेकिन उस साल जुलूस में दंगा होते-होते बचा. इसके बाद अक्टूबर महीने में एक और जुलूस निकला, रामशिला जुलूस. जुलूस के रूट पर प्रशासन ने मुहर लगाई. दो महीने पहले हुई घटना के चलते पुलिस का एक बड़ा दस्ता साथ में था.
24 तारीख को तय वक्त पर जुलूस निकला. जुलूस मुस्लिम बहुल तातारपुर इलाके में पहुंचा. कहते हैं कि जुलूस ने भड़काऊ नारे लगाए. ‘बच्चा-बच्चा राम का, बाकी सब हराम का’ कि तभी एकाएक जुलूस के ऊपर ईंट-पत्थर फेंके जाने लगे. एक छोटा बम भी फेंका गया. किसी की जान नहीं गई, मगर जो होना था हो गया था. तुरंत दंगा शुरू हो गया.
शाम तक अफ़वाह फैल गई कि हिंदुओं को मारा गया है. किसी ने कहा, परवत्ती में एक कुएं के अंदर लाशें मिलीं हैं. टुकड़ों में कटी हुईं. इस एक अफ़वाह ने चिंगारी में घी का काम किया और पूरे इलाक़े में दंगा भड़क गया. दो महीने तक भागलपुर जिले में बेहिसाब हिंसा हुई. सैकड़ों लोग मारे गए. 50,000 से ज्यादा लोग बेघर हुए. 250 के आसपास गांवों पर हिंसा ने असर डाला. 27 तारीख को दंगा रोकने के लिए सेना बुलाई गई. बीएसएफ को भी बुलाया गया.
जांच रिपोर्टों ने पाया कि न केवल पुलिस दंगे रोकने में पूरी तरह नाकामयाब रही, बल्कि कई मौकों पर पुलिस ने दंगाइयों की मदद की. शिकायत मिलने पर भी आंख मूंदकर बैठे रहे. कई ऐसे मौके आए जब स्थानीय पुलिस ने सेना और बीएसएफ को गुमराह किया. जान-बूझकर उन्हें भटकाया.
भागलपुर में एक गांव है, चंदेरी. दंगों की शुरुआत से ही गांव की आबादी डरी हुई थी. लेकिन फिर भी वो अपना घर छोड़कर नहीं गए. गांव में जो सबसे बड़ा घर था. सब लोग वहां छिप गए. भीड़ आई, पत्थरबाजी हुई, लेकिन फिर देर रात कश्मीर लाइट इन्फेंट्री की की एक टुकड़ी की तैनाती हुई. और भीड़ तितर बितर हो गई. फिर कुछ देर में पुलिस स्टेशन से एक कॉल आया. उन्हें दूसरे इलाके में दंगों की खबर मिली. जैसे ही सुरक्षा बल चंदेरी से गए, भीड़ दोबारा इकठ्ठा होने लगी.
दो जांच कमिटी, दो अलग-अलग रिपोर्टजावेद इकबाल फ्रीलांस रिपोर्टर है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस अखबार और आउटलुक मैगज़ीन में लिख चुके हैं. भागलपुर दंगों के बारे में बताते हुए वो लिखते हैं,
“27 की सुबह लोगों की भीड़ इकठ्ठा हुई और चंदेरी में लगभग 70 लोगों को मार डाला गया. भटोरिया में 85 लोगों की हत्या हुई. रासलपुर में करीब 30 लोग मरे.”
भागलपुर में दंगों का एक लम्बा इतिहास रहा है. लेकिन 1989 के दंगों में खास बात ये थी कि इस दौरान गांवों में हिंसा की घटनाएं ज्यादा हुई थीं. बहरहाल दंगों के बात सरकार हरकत में आई. मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा, जिनका जन्म आज ही की तारीख यानी, 12 जुलाई, 1917 को हुआ था, दंगों के दौरान दिल्ली में डेरा डाले हुए थे. बाद में सिन्हा प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर लौटे और मोर्चा संभाला. हालांकि तब तक काफी देर हो चुकी थी. राज्य सरकार ने बाद में इन दंगों की जांच कराई.
जांच भी दो बार कराई गई. पहली जांच जस्टिस राम चंद्र प्रसाद सिन्हा और एस शम्सुल हसन के नेतृत्व में हुई. इस रिपोर्ट ने सांप्रदायिक संगठनों और मीडिया के कुछ धड़ों को अफवाह फैलाने का दोषी पाया. कहा गया कि प्रशासन बिल्कुल नकारा साबित हुआ. ऐसा लग रहा था कि लोगों की मौतों से पुलिस-प्रशासन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है. ये सवाल भी किया कि सांप्रदायिक तनाव की आशंका के बावजूद रामशिला जुलूस को तातारपुर से गुजरने की परमिशन क्यों दी गई. इसके अलावा जिला प्रशासन के भी कई अधिकारियों को प्रशासनिक चूक का जिम्मेदार ठहराया गया.
इसके बाद एक और जांच हुई, जस्टिस आर एन प्रसाद की अध्यक्षता में. उनकी रिपोर्ट में भारत के मुसलमानों के लिए नसीहत थी. लिखा था कि अगर आप चाहते हैं कि हिंदुस्तान के लोग आपके ऊपर फिर से भरोसा करें, तो आपको ISI एजेंट्स के साथ अपने संबंध तोड़ देने चाहिए. दो महीने तक ये दंगा चलता रहा. इसके बावजूद जस्टिस प्रसाद ने प्रशासन को क्लीन चिट दे दी. इन दोनों ही रिपोर्टों में मरने वालों की संख्या का जिक्र नहीं किया गया था.
इन दो रिपोर्ट्स के अलावा एक तीसरी थियोरी भी दी गई. भागलपुर में उस दौर में कई गैंग सक्रिय थे. सबसे मजबूत तीन गैंग थे- माधो मंडल गैंग. कामेश्वर यादव गैंग. और राम चंद्रा रमण गैंग. आरोप लगा कि इन गिरोहों ने दंगे की साजिश रची. मुसलमानों की तरफ से भी कुछ गैंग थे. एक था अंसारी गैंग. गिरोहों में भी हिंदू-मुस्लिम की स्थिति थी. उस समय भागलपुर में खूब गैंगवॉर हुआ करता था.
बिहार से कांग्रेस का सफायादंगों का एक असर ये हुआ कि बिहार से कांग्रेस का सफ़ाया हो गया. मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा बड़े कद के नेता थे. लेकिन दंगों के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा. कांग्रेस ने डैमिज कंट्रोल करने की कोशिश की. सिन्हा की जगह ललित नारायण मिश्र के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र को CM बनाया गया. कांग्रेस को लगा कि इतने भर से मुसलमान उसे माफ कर देंगे. मगर ऐसा नहीं हुआ. मुस्लिम कांग्रेस का परंपरागत वोटर था. मगर इस दंगे के बाद स्थितियां बदल गईं.
लालू यादव मंडल के सहारे सत्ता में आए और भागलपुर की घटना को भुला दिया गया. दंगों के बाद कुल 142 FIR हुईं. 1283 लोगों पर आरोप तय हुए. लेकिन सबूतों के अभाव में इनमें से अधिकतर फाइलें बंद कर दी गईं. साल 2005 में इस मामले में 10 लोगों को आजीवन कारावास की सजा हुई. नीतीश कुमार की सत्ता में एंट्री के बाद कुछ और फ़ाइलों को खोला गया. इसके बाद 2007 में लौगांय हिंसा के मामले में 14 और लोगों को सजा मिली.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साल 2005 में ही नए सिरे से दंगों की जांच के कमीशन बनाया. इस जांच कमीशन को लीड कर रहे थे, जस्टिस एन. एन. सिंह. फरवरी 2015 में इस कमीशन ने हज़ार पन्ने की रिपोर्ट दाखिल की. जिसने दंगों के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार, स्थानीय प्रशासन और पुलिस को दंगों को रोकने में असफल रहने का ज़िम्मेदार ठहराया.
दंगों में सब कुछ दुःख और दर्द से सराबोर होता है. लेकिन तमाम मायूसियों के बीच कुछ ऐसी भी कहानियां होती हैं, जिनसे अमन की उम्मीद जगती है. एक ऐसी ही कहानी है अलीम अंसारी और दयानंद झा की. एक मुसलमान. दूसरा मैथिल ब्राह्मण. दोनों बचपन के दोस्त. दोनों दरभंगा के एक स्कूल में साथ पढ़े. कॉलेज भी साथ गए. फिर 1989 का ये भागलपुर दंगा हुआ. अलीम अंसारी कुछ हफ्तों तक अपने गांव में फंस गए. घर में बीमार मां थी. उन्हें दवा की जरूरत थी. बच्चे छोटे थे. दूध मांगते थे. दवाई और दूध कहां से आए. घर में तो राशन भी खत्म हो चुका था. बाहर मौत बंट रही थी. ऐसे में बाजार कौन जाए? फिर क्या हुआ? दोस्त दोस्त के काम आया. करीब एक महीने तक दयानंद झा रोजाना अलीम अंसारी के घर पहुंचते. राशन और बाकी जरूरी चीजें लेकर. लोगों ने उन्हें भी धमकाया. ताना दिया. कहा, मुस्लिम की मदद करते हो? दंगे के वक्त जब मजहबों की जंग हो रही होती है, तब दूसरे मजहब के किसी इंसान की मदद करने वाला अपने मजहब का आदमी भी दुश्मन बन जाता है. मगर दयानंद झा पीछे नहीं हटे. पूरी दोस्ती निभाई.
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