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बंदा सिंह बहादुर के बेटे का कलेजा मुंह में ठूस दिया था मुगलों ने!

गुरु गोविंद सिंह के शिष्य बंदा बहादुर की कहानी

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बंदा सिंह बहादुर का जन्म 27 अक्टूबर 1670 में हुआ था (तस्वीर: alchetron)
17 वीं सदी के उत्तरार्ध की बात है. राजौरी (कश्मीर) में एक राजपूत परिवार में एक लड़के का जन्म हुआ. नाम पड़ा लछमन देव. बचपन से ही तीर कमान का शौक़. घुड़सवारी और शिकार में भी महारत हासिल थी. लड़कपन में घटी एक घटना ने लछमन के मन पर गहरा प्रभाव डाला. हुआ यूं कि एक दिन लछमन जंगल में शिकार के लिए गया. वहां उसने एक हिरनी को निशाने पर लिया और तीर छोड़ दिया. तीर ने अपना काम कर डाला. हिरनी वहीं ढेर हो गई. लछमन उसके पास गया तो पता चला कि वो गर्भवती थी. पेट फाड़ कर देखा, तो वहां दो बच्चे थे. दोनों ने लछमन की आंखो के सामने दम तोड़ा.
इस घटना के बाद लछमन का मन दुनिया से उचट गया. घर-बार छोड़ के वो साधु संन्यासी के भेष में दर-दर भटकने लगा. उसने अपना नाम भी बदल कर माधो दास रख लिया. घूमते-घूमते माधो दास नासिक के पास पंचवटी पहुंचा और वहां बाबा औघड़ नाथ का शिष्य बन गया. 21 साल की उम्र में उसने नांदेड़ में अपना आश्रम बनाया और वहीं रहने लगा. आगे चलकर इलाक़े में उसकी खूब ख्याति फैली.
सितम्बर 1708 में नांदेड़ के आश्रम में गुरु गोविंद सिंह पधारे. औघड़ जोगी माधो दास ने ग़ुस्से में कहा, 'कौन हो तुम और मेरे आश्रम में आने की हिम्मत कैसे हुई.' गुरु साहब ने जवाब दिया, 'सुना है तुम सर्वशक्तियों के मालिक हो. इतना तो तुम्हें पता होना चाहिए.' उसी दिन से माधो दास ने चोग़ा छोड़कर खालसा धर्म अपना लिया. और वो गुरु गोविंद सिंह का शिष्य बन गया. गुरु ने नया नाम दिया. गुरबक्श सिंह. पंजाब की ओर गुरु गोविंद सिंह तब मुग़लों के निशाने पर थे. गुरु तेग़ बहादुर की हत्या के बाद सिखों और मुग़लों के बीच 25 साल से जंग चल रही थी. जिसके चलते गुरु गोविंद सिंह को आनंदपुर साहिब छोड़कर दक्षिण की ओर जाना पड़ा था. गुरु गोविंद सिंह ने गुरबक्श को पंजाब की ओर रवाना किया. उन्होंने कहा कि वो पंजाब में मुग़लों के ख़िलाफ़ सिखों का नेतृत्व करें. सिख इतिहासकारों के हिसाब से गुरु गोविंद सिंह ने तब गुरबक्श को एक दो-धारी तलवार, 3 तीर और पांच साथी भी दिए.
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गुरु गोविंद सिंह (फ़ाइल फोटो)


गुरु की आज्ञा मानते हुए गुरबक्श ने पंजाब की ओर कूच किया. लेकिन उनके पीछे गुरु गोविंद सिंह की हत्या कर दी गई. इसके बाद सिख साम्राज्य की बागडोर गुरबक्श ने सम्भाल ली. अपनी बहादुरी के चलते वो बंदा सिंह बहादुर के नाम से मशहूर हुए. 1708 में औरंगज़ेब की मौत के बाद मुग़ल बागडोर आई बादशाह बहादुर शाह के पास. उसके भाई काम बक्श ने दक्कन में विद्रोह कर दिया था. जिस कारण बहादुर शाह को दक्कन के कैम्पेन पर निकलना पड़ा.
मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए बंदा बहादुर सतलज के किनारे पहुंचे. और वहां के किसानों को अपनी सेना में जोड़ना शुरू किया. औरंगज़ेब की मौत के बाद सरहिंद में ज़मींदारों की ताक़त बढ़ चुकी थी. वो मनमाने ढंग से लोगों से टैक्स वसूली कर रहे थे. सामंतों का उत्पीड़न आम बात थी, लेकिन दिल्ली की ताक़त कमजोर हुई, तो उन्होंने और फ़ायदा उठाना शुरू किया.
सरहिंद में किसान एक काबिल लीडर की तलाश में थे. बंदा बहादुर के कहने पर उन्होंने उनकी सेना में भर्ती होना शुरू कर दिया. उन्हें घोड़ों और पैसों से मदद दी. मुग़ल मनसबदार ऐश फ़रमा रहे थे. कई सालों से सैनिकों को वेतन नहीं मिला था. ऐसे सैनिकों ने भी बंदा बहादुर की फ़ौज में जाना बेहतर समझा. गुरु का बदला 10 हज़ार की फ़ौज हुई तो बंदा बहादुर ने सबसे पहले सोनीपत और कैथल में मुग़लों का ख़ज़ाना लूटा. इसके बाद 1709 में बंदा बहादुर ने सरहिंद के एक क़स्बे को निशाना बनाया. इस कस्बे का नाम सामना था, यहां के गवर्नर वज़ीर ख़ां ने गुरु गोबिंद सिंह के बेटों की हत्या की थी. हमले का मकसद गुरु का बदला लेना था.
सामना के बाद बारी आई सरहिंद की. बंदा बहादुर ने मई 1710 में सरहिंद पर हमला बोला और वहां लौहगढ़ किले पर क़ब्ज़ा कर लिया. इतना ही नहीं लौहगढ़ को राजधानी घोषित करते हुए बंदा बहादुर ने गुरु गोविंद सिंह के नाम वाले सिक्के भी जारी किए. इसके कुछ समय बाद बंदा बहादुर ने उत्तर में राहोन, बटाला, पठानकोट और पूर्व में सहारनपुर, जलालाबाद, मुज़फ़्फ़रनगर पर क़ब्ज़ा कर लिया. अगस्त 1710 तक लाहौर से पूर्व में पंजाब में सिखों का शासन हो चुका था. और इससे दिल्ली सल्तनत और लाहौर के बीच कम्यूनिकेशन में बाधा पड़ रही थी. बहादुर शाह दक्कन के कैम्पेन से लौटा तो उसने सिख साम्राज्य पर नकेल कसने की ठानी.
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मुग़ल बादशाह बहादुर शाह और फ़र्रुख़सियर (तस्वीर: Wikimedia Commons)


29 अगस्त 1710 की घटना है. उस रोज़ मुग़ल सेना में एक अजीब-सा फ़रमान जारी हुआ. बादशाह बहादुर शाह ने आदेश दिया कि मुग़ल सेना में जितने भी हिंदू हैं, उन्हें अपनी दाढ़ी कटवानी होगी. कारण कि मुग़ल सिखों पर हमला करने जा रहे थे. और वो नहीं चाहते थे कि कोई भी सिख गलती से भी सेना में शामिल हो. मुग़ल सेना ने मुनीम ख़ां की अगुवाई में सरहिंद पर आक्रमण किया. मुग़ल सेना के सामने बंदा बहादुर की फ़ौज कमजोर थी. लौहगढ के किले में ज़बरदस्त लड़ाई हुई, लेकिन 60 हज़ार की मुग़ल सेना ने लौहगढ के किले का घेराव कर लिया. तब गुलाब सिंह ने बंदा की जगह ले ली. और बंदा भेष बदलकर किले से निकल गए. उन्होंने चंबा के जंगलों का रुख़ किया. फरमान- जहां कोई सिख दिखे मार दो बंदा के इस तरह हाथ से निकल जाने से बहादुर शाह बहुत नाराज़ हुआ. 10 दिसंबर 1710 को उसने फ़रमान जारी किया कि जहां कोई सिख दिखे उसे मार डाला जाए. बंदा ने जंगलों से ही सिखों को हुकुमनामे भेजे. ताकि वो दुबारा अपनी ताक़त इकट्ठा कर उनसे मिलें. दो साल तक बंदा छुपते-छुपाते रहे. उनके बुलाने पर 1712 में कीरतपुर साहिब में सिखों ने राजा अजमेर चंद हो हराया. अजमेर चंद ने ही पहाड़ी राजाओं को गुरु गोविंद सिंह के ख़िलाफ़ भड़काया था.
1712 में बहादुर शाह की भी मौत हो गई. जिसके बाद उसके बेटों में सत्ता को लेकर ठन गई. मुग़लों में पड़ी फूट का फ़ायदा उठाते हुए बंदा बहादुर ने लौहगढ़ पर दुबारा कब्जा किया. बहादुर शाह की मौत के बाद मुग़लों की कमान फ़र्रुख़सियर ने अपने हाथ में ले ली थी. उसने सबसे पहले समद ख़ां को लाहौर का गवर्नर और उसके बेटे जकरिया ख़ां को जम्मू का फ़ौजदार नियुक्त किया. फिर इन दोनों को बंदा बहादुर के ख़िलाफ़ अभियान शुरू करने को कहा.
3 साल के इस अभियान में समद ख़ां ने बंदा बहादुर को गुरदासपुर शहर से चार मील दूर गुरदास नांगल तक ढकेल दिया. वहां किले की सुरक्षा में बंदा और उनके साथी किसी तरह बचे रहे. समद ख़ां ने यूज़वल टैक्टिक्स का सहारा लेते हुए गुरदास नांगल किले के सारे रास्ते बंद कर दिए. ना खाना अंदर जा सकता था, ना पानी. बंदा पहले भी लौहगढ के किले से भाग निकले थे. इसलिए हमले की बजाय समद ख़ां ने इंतज़ार की नीति अपनाई. बिना खाना पानी के आठ महीने खाने के लाले पड़े तो बंदा और उनके साथी घास पत्तियों पर गुज़ारा करते रहे. उससे भी काम ना बना तो घोड़ों और गधों का मांस खाना पड़ा. आठ महीने किसी तरह गुजरे लेकिन दिसंबर आते-आते दिखने लगा गया था कि बाहर निकलने के सिवा कोई चारा नहीं है. किले के दरवाज़े खुले तो मुग़ल सेना टूट पड़ी. आज ही के दिन यानी 17 दिसंबर 1715 को 300 सिखों को क़त्ल कर लगभग 700 सिखों को बंदा बहादुर सहित गिरफ़्तार कर लिया गया.
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सरहिंद की लड़ाई में बंदा सिंह बहादुर (तस्वीर: bhaisahib.org)


फ़र्रुख़सियर ने आदेश दिया था कि बंदा उसे ज़िंदा चाहिए. मारे गए सिखों के सिर भाले में टांग कर पहले लाहौर के बाज़ार में परेड करवाई गई. और फिर उन्हें दिल्ली ले ज़ाया गया. औरंगज़ेब के जमाने से ही दुश्मनों की नुमाइश का रिवाज था. बंदा और उनके साथियों को देखने के लिए दिल्ली में भीड़ उमड़ी. समद ख़ां का बेटा ज़करिया ख़ां इनकी अगुवाई कर रहा था. मखौल उड़ाने के लिए बंदा को शाही पोशाक पहनाई गई. और हाथी के ऊपर पिंजरे में डाल रखा था. उनके बाकी साथियों को बिना जीन ऊंट पर बिठा रखा था. इनके आगे सिखों के सिर भूसे से भरकर नेजों और बांसों पर टंगे हुए थे.
इन सब को बादशाह फ़र्रुख़सियर के आगे पेश किया गया. फ़र्रुख़सियर ने बंदा और उनके 23 साथियों को मीर आतिश इब्राहिम-ओ-दीन-खां के हाथों सौंप दिया. और मीर आतिश ने उन्हें त्रिपोलिया जेल में कैद कर दिया. बंदा के बाकी साथियों को दिल्ली के कोतवाल सरबराह खां के हवाले कर दिया गया. 5 मार्च 1716 को सजा का ऐलान हुआ. सजा थी, सर कलम किया जाना. ना बोलते ही सिर धड़ से अलग एक बड़े से चबूतरे पर एक-एक आदमी को ले जाकर, एक ही सवाल पूछा जाता, क्या तुम इस्लाम क़बूल करते हो?
हर सिर ना में हिलता गया और धड़ से अलग होता गया. 7 दिनों तक चले इस क़त्ल-ए-आम से कोतवाल सरबराह खां जब थक गया, तो उसने सजा पर रोक लगा दी. उसने फ़र्रुख़सियर से कहा कि मसले को ज़रा ठहरने दिया जाए. कुछ दिन जुल्म सहेंगे. तो होश आएगा और इस्लाम क़बूल कर लेंगे.
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बंदा सिंह बहादुर को यातनाएं देते हुए (तस्वीर: Wikimedia Commons)


3 महीने तक बंदा बहादुर को काल कोठरी में बंद रखा गया. सवाल का जवाब तब भी ना ही था. अंत में 9 जून 1716 को बंदा बहादुर की भी मौत का हुक्म जारी कर दिया गया. सजा से पहले एक आख़िरी उपाय किया गया. बंदा को अच्छे कपड़े पहना कर कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर ले ज़ाया गया और दरगाह के चारों ओर घुमाया गया.
वहां पर कोतवाल ने कहा, 'आख़िरी बार पूछ रहा हूँ मौत या इस्लाम?'
बंदा अपने जवाब पर अड़े थे. कोतवाल को सूझी तो वो उनके चार साल के बेटे अजय सिंह को सामने ले आया. बेटे की गर्दन पर तलवार रख बंदा से फिर वही सवाल दोहराया गया. बंदा की गरदन इनकार में पूरी घूमी भी नहीं कि जल्लाद ने अजय का सर कलम कर दिया. इसके बाद उसने शव से बच्चे का कलेजा निकाला और बंदा सिंह के मुंह में ठूंस दिया. बंदा तब भी डिगे नहीं. उन्होंने मौत चुनी. इसके बाद जल्लाद ने एक ख़ंजर से उनकी दोनों आंखें फोड़ दीं. गर्म सलाख़ों से उनके शरीर को दागा गया. मौत से पहले जितनी सम्भव थी, यातना दी गई. शरीर से मांस नोचा गया. और अंत में शरीर के टुकड़े काटकर अलग-अलग कर दिए गए.
बंदा की मौत के दो साल बाद मराठाओं ने फ़र्रुख़सियर को जंग में हरा दिया. मुग़ल साम्राज्य इसके बाद जहां ढलता चला गया, वहीं महाराजा रणजीत सिंह ने काबुल, श्रीनगर और लाहौर पर क़ब्ज़ा कर उत्तर में एक विशाल सिख साम्राज्य बनाया.