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बाघा जतिन: बंगाल का शेर, जिसने अंग्रेजों को दिल्ली तक खदेड़ दिया

बाघा जतिन की कहानी, जिन्होंने ब्रिटिश राज की जड़ें हिलाकर रख दीं थी.

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बाघा जतिन और उनका परिवार (तस्वीर: wikimedia commons)
आज 9 सितम्बर है और आज की तारीख़ का संबंध है एक पुलिस मुठभेड़ से.
मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है,
बेख़ुदी बेसबब नहीं ग़ालिब,  कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है 
पर्दादारी यानी पर्दे में छुपा हुआ इतिहास जो दिखाई नहीं देता लेकिन वर्तमान पर पूरा असर डालता है. कॉज़ैलिटी की भाषा में बात करे तो इफ़ेक्ट का कॉज़ हमेशा छुपा हुआ रहता है. जो तब दिखाई देता है, जब एक इंसानी दिमाग़ इतिहास की कड़ियों को आपस में जोड़ता है. तारीख़ के इस एपिसोड को बनाते हुए हमें ये महसूस हुआ कि पिछले कई एपिसोड की कड़ियां आज के क़िस्से से जुड़ती हैं. Truth is stranger than fiction 11 अगस्त के एपिसोड में हमने आपको खुदी राम बोस की कहानी सुनाई थी. 1908 में उन्हें अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था. आज के क़िस्से की शुरुआत होती है इसके ठीक एक साल पहले यानी 1907 से. जगह- बंगाल का सिलीगुड़ी शहर.
यहां पढ़ें- खुदीराम बोस: 18 साल का लड़का, जो फांसी का फंदा देख मुस्कुरा उठा

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खुदीराम बोस (तस्वीर: wikimedia)


रेलवे स्टेशन पर एक आदमी दौड़ा चला जा रहा है. उसके हाथ में पानी है. जिसकी उसके बीमार दोस्त को ज़रूरत है. दौड़ते-दौड़ते वो एक ब्रितानिया ऑफ़िसर से टकरा जाता है. ऑफ़िसर के मन में भारतीयों के लिए नफ़रत और कमर में एक ˈबैटन थी. उसने आव देखा ना ताव, उस आदमी पर बैटन से कई बार प्रहार कर दिए. किसी की हिम्मत तो थी नहीं कि उससे कुछ कह सके. सो अंग्रेज ऑफ़िसर मारने के बाद मुड़कर जाने लगा. तभी उसे अपने कंधे पर एक हाथ महसूस हुआ. ऑफ़िसर को लगा किसी अंग्रेज साथी ने हाथ रखा होगा. मुड़कर देखा तो ये एक भारतीय का हाथ था. उसने अंग्रेज ऑफ़िसर से सवाल पूछा,
‘तुमने उस बेचारे आदमी को क्यों मारा, उसकी क्या गलती थी?’
अंग्रेज ऑफ़िसर को ऐसे सवालों की आदत तो थी नहीं. उसने अपने तीन और साथियों को बुला लिया. लड़ाई शुरू हो गई. एक भारतीय और 4 अंग्रेज. अगर किसी फ़िक्शन में ये बताया जाए कि उस अकेले भारतीय ने 4 अंग्रेजों को धूल चटा दी, तो हम कहते कि बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है.
लेकिन कहते हैं ना, ‘ट्रूथ इस स्ट्रेंजर देन फ़िक्शन’. तो ये बात शत प्रतिशत सही है कि उस दिन एक भारतीय ने चार अंग्रेजों को अकेले लपेट लिया था.
बाद में जब इस आदमी को अदालत में पेश किया गया तो बयान देने एक भी गवाह सामने नहीं आया. कारण- अंग्रेजों को ये प्रचार नहीं करवाना था कि एक भारतीय ने चार चार अंग्रेजों को पटखनी दे दी थी.
‘वाइट मैन बर्डेन’ उस दिन ‘वाइट मैन शेम’ में तब्दील हो गया था. बाघा जतिन की कहानी   4 अंग्रेजों से अकेले निपट लेने वाला ये भारतीय कौन था? ये थे ज़तींद्रनाथ मुखर्जी जिन्हें बाघा जतिन के नाम से भी जाना जाता है.
आज़ादी के आंदोलन में उनके योगदान को ज़ाहिर करने के लिए एक अंग्रेज अधिकारी का ही बयान सुनिए. 1913 में कोलकाता पुलिस के डिटेक्टिव डिपार्टमेंट के हेड और बंगाल के पुलिस कमिश्नर रहे चार्ल्स टेगार्ट ने जतिन के लिए कहा था,
 “अगर बाघा जतिन अंग्रेज होते तो अंग्रेज उनका स्टेच्यू लंदन में ट्रेफलगर स्क्वायर पर नेलसन के बगल में लगवाते”
नेलसन कौन? पूरा नाम एडमिरल होरेशियो नेलसन. इन्होंने 1805 में ब्रिटेन की तरफ़ से नेपोलियन की सेना के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ा था. ब्रिटेन के सबसे बड़े हीरोज़ में से एक. नेलसन की बाकी कहानी अंग्रेज सुनाएं. हम आपको सुनाते हैं भारत के हीरो की कहानी. बाघा जतिन की कहानी.
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ट्रेफलगर स्क्वायर, केन्द्रीय लन्दन, इंग्लैड में स्थित एक चौक है (तस्वीर : Wikimedia Commons)


7 दिसम्बर 1879 को कुष्टिया में जतिन का जन्म हुआ. आज ये जगह बांग्लादेश में पड़ती है. पिता का देहांत छोटी उम्र में ही हो गया था. इसलिए जतिन मां के आंचल में पलकर बड़े हुए. और छोटी उम्र में ही स्टेनोग्राफी सीखकर एक नौकरी पर लग गए.  उनके नाम के पीछे की कहानी सुन लेंगे तो 4 लोगों को पटकने वाली बात पर भी यक़ीन हो जाएगा.
बात 1906 की है. जतिन अपने गांव गए हुए थे. पता चला कि गांव के आसपास एक बाघ घूम रहा है. बाघ मवेशियों को ना मार दे. इसलिए गांव के लड़कों ने एक टोली बनाई और बाघ को खदेड़ने पहुंच गए. इतने लोगों को सामने से आता देख बाघ ने टोली पर हमला कर दिया. इनमें से एक जतिन का चचेरा भाई भी था. भाई को मुसीबत में देख जतिन बाघ के ऊपर चढ़ बैठे. कुछ देर चले संघर्ष में बाघ ने जतिन को लहूलुहान कर डाला. तभी जतिन को याद आया कि उनकी कमर में एक खुकरी (गोरखा लोगों का ट्रेडमार्क हथियार) रखी हुई है. जतिन ने खुकरी निकाली और बाघ के सीने में दे मारी. बाघ वहीं ढेर हो गया.
इस मुठभेड़ में जतिन को भी काफ़ी चोट आई थी. उनका इलाज किया Lt. कर्नल डॉक्टर सर्बाधिकारी ने. डॉक्टर सर्बाधिकारी को बाघ से मुठभेड़ का पता चला तो उन्होंने इंग्लिश प्रेस में ये किस्सा छपवा दिया. साथ ही इंडियन सोल्जर्स की एक बटालियन का नाम भी जतिन के नाम पर रख दिया.
तब से जतिन का नाम हो गया, बाघा जतिन. बंगाल की क्रांति 1905 में बंगाल पार्टिशन के बाद स्वदेशी मूवमेंट की शुरुआत हुई तो जतिन भी उससे जुड़ गए. इन्हीं दिनों वो श्री अरबिंदो के भी सम्पर्क में आए. अरबिंदो और उनके भाई ने एक पार्टी बनाई हुई थी. नाम था जुगांतर पार्टी. अरबिंदो के मार्गदर्शन से जतिन ने नौजवानों को जुगांतर पार्टी से जोड़ने का काम सम्भाला. इसके लिए उन्होंने बंगाल के नौजवानों को एक नारा दिया,
‘आमरा मोरबो, जगत जागबे’
यानी
‘हम अपनी जान देंगे, तभी देश जागेगा’
1912 में बंगाल में भीषण बाढ़ आई. जतिन बाढ़ पीड़ितों की मदद में लग गए. यहां उनकी मुलाक़ात हुई रास बिहारी बोस से. दोनों ने मिलकर तय किया कि अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए पूरे भारत में क्रांति की ज़रूरत है.
इसके बाद आंदोलनकारियों के दो धड़े बनाए गए. उत्तर भारत में कमान सम्भाली रास बिहारी बोस ने, और पूर्व में जतिन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन जारी रखा. बंगाल में क्रांतिकारी रोज़ किसी नई घटना को अंजाम दे रहे थे. अंग्रेज़ अपनी राजधानी कलकत्ता से उठाकर दिल्ली ले गए, उसकी एक बड़ी वजह बंगाल की क्रांति भी थी.
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रास बिहारी बोस (तस्वीर: Wikimedia Commons)


28 जुलाई के एपिसोड में हमने आपको कोमागाटा मारू जहाज़ की त्रासदी के बारे में बताया था. साल था 1914. प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था. भारत में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह की लहर चल रही थी. कोमागाटा मारू जहाज़ जब कलकत्ता के तट पर पहुंचा तो अंग्रेज़ अधिकारियों ने जहाज़ पर सवार यात्रियों पर गोलियां चला दीं, जिससे 28 भारतीयों की मृत्यु हो गई. इस घटना ने आंदोलन की आग को और भी भड़का दिया.
यहां पढ़ें- कनाडा पहुंचे 376 भारतीय क्यों दो महीनों तक भूखे-प्यासे रहे?

बर्लिन में एक इंटरनैशनल प्रो इंडिया कमिटी का गठन किया गया. इसका नेतृत्व कर रहे थे वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय. वीरेंद्र के अमेरिका की ग़दर पार्टी और भारत में युगांतर पार्टी से सम्बंध थे. 1915 में उत्तर भारत में ग़दर पार्टी और रास बिहारी बोस के नेतृत्व में एक म्यूटिनी की कोशिश की गई, जिसे अंग्रेजों ने दबा दिया.
उत्तर भारत में क्रांतिकारी जिन माउज़र का उपयोग कर रहे थे. वो 1914 में हुई रोड्डा आर्म्स हाइस्ट के दौरान हाथ लगी थी. इस घटना के बारे में हमने आपको 26 अगस्त के एपिसोड में बताया था.
यहां पढ़ें- क्रांतिकारी दिनदहाड़े बंदूक़ें लूट ले गए और अंग्रेजों को तीन दिन तक खबर ना लगी.

जिस समय नॉर्थ इंडिया में म्यूटिनी हुई. जतिन ने कोलकाता के फ़ोर्ट विलियम्स कॉलेज में डेरा जमाया हुआ था. वो हथियारों के कंसाइनमेंट का इंतज़ार कर रहे थे. उत्तर भारत में म्यूटिनी की कोशिश हुई तो अंग्रेजों ने बंगाल में भी धरपकड़ शुरू कर दी. अंग्रेजों की दबिश से बचने के लिए जतिन अपने चार साथियों के साथ बालासोर, उड़ीसा पहुंच गए. बंगाल से उड़ीसा दरअसल प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन और जर्मनी की लड़ाई चल रही थी. जर्मनों को लगा कि अगर वो भारत में आज़ादी के आंदोलन को हवा देंगे तो ब्रिटेन को झटका लगेगा. इसी के तहत एक जर्मन क्राउन प्रिंस ने भारत दौरे पर जतिन से मुलाक़ात की थी. जतिन क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे. क्राउन प्रिंस ने जतिन से मुलाक़ात कर भरोसा दिलाया कि जर्मनी क्रांतिकारियों को हथियारों की सप्लाई करेगा. कोलकाता के तट पर अंग्रेजों ने ज़बरदस्त पहरा दिया हुआ था. उन्हें जर्मन और भारतीय क्रांतिकारियों के गठजोड़ की भनक लग चुकी थी. इसीलिए जतिन ने आगे के आंदोलन के लिए उड़ीसा को चुना क्योंकि उड़ीसा के तट पर जर्मन हथियारों की सप्लाई हो सकती थी.
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ऐसी 50 बंदूक़ें रोडा एंड कंपनी से लूटी गई थीं (तस्वीर: Icollector.com)


उड़ीसा पहुंचकर उन्होंने यूनिवर्सल इम्पोरियम नाम की एक दुकान खोली. यहां से वो बर्लिन की प्रो इंडिया कमिटी से सम्पर्क कर सकते थे. तय हुआ कि दो जर्मन जहाज़ उड़ीसा के तट पर पहुंचेंगे. एनी लारसन और मेवरिक नाम के दो जहाज़ हथियार लेकर भारत की तरफ़ निकले. लेकिन तट पर पहुंचने से पहले ही अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई और उन्होंने हथियारों समेत दोनों जहाज़ों को अपने कब्जे में ले लिया. प्लान फेल हो चुका था. जतिन को इसकी खबर लगी तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,
‘ये घटना हमें कुछ संकेत दे रही है. आज़ादी अंदर से आती है, बाहर से नहीं’
लेकिन जतिन को अहसास ना था कि ग़द्दारी भी अंदर से ही आती है. कुछ लोगों ने जतिन के ठिकाने का पता अंग्रेजों को बता दिया. कुछ ही दिन में पुलिस उनके दरवाज़े तक पहुंच गई. जतिन तब तक वहां से फ़रार हो चुके थे. लास्ट स्टैंड पुलिस से बचने के लिए जतिन अपने 4 साथियों के साथ पैदल निकल गए. मुख्य रास्तों को अवॉइड करने के लिए उन्होंने कीचड़ से भरे खेतों को पार किया. उड़ीसा में एक नदी बहती हैं, बुदी बालम. एक रात जब वो उसके तट पर फ़ंस गए तो उन्होंने मानसून में उफनती नदी को पार किया. इस दौरान पुलिस लगातार उनका पीछा कर रही थी. ख़तरनाक रास्तों को पार करते हुए वो बालासोर में चाशाखंड क्षेत्र के पास एक मैदान में पहुंचे. उसे अपना फ़ाइनल वॉर ग्राउंड बना लिया.
पांचों क्रांतिकारी एक चट्टान की ओट लेकर छुप गए, उन दिनों माउज़र पिस्तौलों के साथ एक लकड़ी का हत्था लगा होता था. उसकी टेक लगाकर उन्होंने उसे राइफ़ल की तरह सेट कर दिया. पुलिस पहुंची तो दोनों तरफ़ से गोलियां चलने लगी. इस लड़ाई को ‘बैटल ऑफ़ बालेश्वर’ के नाम से जाना जाता है. जो आज ही के दिन यानी 9 सितम्बर, 1915 के दिन लड़ी गई थी.
डेढ़ घंटे चली मुठभेड़ में जतिन का एक साथी शहीद हो गया. इनका नाम था चित्ताप्रिया रे चौधरी. जतिन के पेट में भी एक गोली लग गई थी. मौत को नज़दीक आता देख उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा कि वो सरेंडर कर दें. उन्होंने कहा कि तुम्हें हमारे भाइयों को बताना है कि हम डकैत नहीं बल्कि आज़ादी के सिपाही हैं. जतिन को बालासोर हॉस्पिटल ले जाया गया. जहां उन्होंने अगले ही दिन दम तोड़ दिया. उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ़ 35 वर्ष थी.
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जिस जगह पर जतिन की अंग्रेजों से मुठभेड़ हुई थी, वहां पर बना स्मारक, रक्त तीर्थ (तस्वीर: Wikimapia)


उनके बाकी तीन साथियों निरेंद्रनाथ दासगुप्ता, मनोरंजन सेनगुप्ता और ज्योतिष चंद्र पाल को अदालत में पेश किया गया. निरेन और मनोरंजन को दो महीने बाद ही फांसी पर चढ़ा दिया गया. दोनों की उम्र क्रमशः 23 और 16 साल थी. ज्योतिष को उम्र क़ैद की सजा दी गई. जेल में रहने के दौरान उन्होंने जतिन और उनके साथियों की कहानी कोयले से जेल की दीवारों पर लिख डाली. 1924 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई.
जिस स्थान पर जतिन और इसके साथियों ने अंग्रेजों से लड़ाई की थी. वहां अब एक स्मारक बना हुआ है. जिसका नाम है रक्त तीर्थ.
बाघा जतिन की पूरी कहानी जानने के लिए आप पृथ्विंद्र  मुखर्जी की किताब ‘The Intellectual Roots of India’s Freedom Struggle (1893-1918)' पढ़ सकते हैं. आज के एपिसोड के अधिकतर क़िस्से इसी किताब से लिए गए हैं.