एक रोज़ सुल्तान के एक अमीर ने दरबार में फ़रमाया,
खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैनलेकिन सुल्तान को सिर्फ़ एक ही नगाड़ा सुनाई देता है, जंग का. और हिंदुस्तान फ़तह किए बिना सुख-चैन का सवाल ही कहां उठता है. आज 24 मार्च है और आज की तारीख का सम्बंध है अलाउद्दीन ख़िलजी के दक्कन अभियान से. दिल्ली वाया देवगिरी 1306 तक अलाउद्दीन ख़िलजी ने उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था. अब बारी दक्कन की थी. जहां उन्होंने अपने कुछ ज़्यादा ही खास मलिक कफ़ूर को भेजा. हालांकि अलाउद्दीन ने पहली बार दक्कन पर नज़र नहीं डाली थी. उनका दक्कन कैपेंन तभी शुरू हो चुका था जब वो सुल्तान बने भी नहीं थे.
अलाउद्दीन खिलजी (तस्वीर: Commons)
1296 में जब दिल्ली पर जलालुद्दीन ख़िलजी का राज था. तब अलाउद्दीन को कारा का गवर्नर नियुक्त किया गया था. अलाउद्दीन का अरमान था, अपने अंकल को हटाकर तख़्त पर खुद क़ाबिज़ होना. इसके लिए ज़रूरत थी पैसों की. जिससे सेना खड़ी की जा सके.
फ़रवरी 1296 में अलाउद्दीन ने बादशाह को एक ख़त भेजा. जिसमें उन्होंने लिखा कि वो चन्देरी पर हमला करने जा रहे हैं. और जल्द ही उसे जीतकर बादशाह के आगे पेश होंगे. 26 फ़रवरी तारीख़ थी जब अलाउद्दीन 8000 घुड़सवारों के साथ कारा से निकले. लेकिन उनका असली मकसद था देवगिरी पर हमला.
विंध्याचल की पहाड़ियां दक्कन को उत्तर भारत के हमलों से बचाकर रखती थी. इसलिए दक्कन की राजनीति में उत्तर से कम ही दख़ल पड़ता था. 13वीं सदी के अंत में यहां चार राज्य हुआ करते थे. आज जहां औरंगाबाद पड़ता है, वहीं यादवों की राजधानी देवगिरी हुआ करती थी. पूर्व में तेलंगाना था, जिसकी राजधानी वरंगल थी, और यहां काकतीय वंश का शासन था. इसके अलावा होयसल वंश था, जिसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी. और चौथा, बिलकुल दक्षिण छोर में बसा पांड्य साम्राज्य था. यहां किसी दर्ज़ी की ज़रूरत नहीं देवगिरी दक्कन का एक शक्तिशाली साम्राज्य था. यहां यादवों का शासन था. और यहां के महाराज थे रामचंद्र देव. 12वीं सदी तक देवगिरी चालुक्य राजाओं के अधीन था. फिर 12 वीं शताब्दी के अंत में राजा भिल्लमा ने विद्रोह कर देवगिरी को अलग राज्य के तौर पर स्थापित किया. आगे चलकर राजा सिंघन ने देवगिरी को एक ताकतवर और समृद्ध राज्य बनाया. और 1271 के बाद महाराजा रामचंद्र देव ने देवगिरी की सत्ता सम्भाली. दक्कन तब अकूत धन दौलत से पटा पड़ा था.
मार्को पोलो (तस्वीर: Getty)
13 वीं सदी में जब मार्को पोलो दक्कन पहुंचा तो उसने इस इलाक़े की बेशुमार धन दौलत का ज़िक्र किया.
“यहां किसी दर्ज़ी की ज़रूरत नहीं. प्रजा तो छोड़ो राजा भी अंग वस्त्र नहीं पहनता है. लेकिन इस बात का कोई अचरज नहीं है. लोग इतने आभूषण पहनते हैं कि अंग वस्त्र की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती.”ये वो दौर था जब दक्कन के राजकुमार अपने पिता की धन दौलत में और इज़ाफ़ा किया करते थे. सालों से इकट्ठा हुई दौलत ने दक्कन को मालामाल कर दिया था. अपने प्रवास के दौरान मार्को पोलो ने लिखा,
“जब पिता की मृत्यु होती है तो कोई भी पुत्र पिता की संपत्ति को छूता तक नहीं. वो कहते हैं- जैसे हमारे पिता ने संपत्ति इकट्ठा की, अपनी बारी में हमें और ज़्यादा दौलत इकट्ठा करनी है.”फिरिश्ता के अनुसार इस इलाक़े में गरीब भी ज़ेवर पहनते थे और अमीर लोग तो सोने चांदी के बर्तनों में खाना खाया करते थे. देवगिरी से संधि 1296 में जब अलाउद्दीन देवगिरी पहुंचे तो वो इसी धन-दौलत की फ़िराक में थे. बदक़िस्मती से तब देवगिरी के राजकुमार शंकरदेव एक दूसरे अभियान पे निकले हुए थे. और देवगिरी की ताकतवर सेना को अपने साथ लेकर चले गए थे. देवगिरी का किला 600 फुट ऊंची चट्टान पर बना था. और इसे भेदना कठिन था. इसलिए अलाउद्दीन ने हमला किया तो रामचंद्र अपने परिवार सहित किले की शरण में चले गए.
देवगिरी का किला (तस्वीर:ASI)
अलाउदीन के लिए ज़रूरी था कि जल्द से जल्द देवलगिरी पर फ़तह पाई जाए. इसके दो कारण थे. पहला कि दिल्ली में अलाउद्दीन के विरोधी बादशाह के कान भरने लगे थे. इतने दिनों तक खिलजी की गैर नामौजूदगी से सवाल उठना लाज़मी था. दूसरा अलाउद्दीन दक्कन के हिंदू शासकों की नज़र में नहीं आना चाहते थे. इसलिए दक्कन में घुसते ही उन्होंने ये खबर फैलाई कि वो जलालुद्दीन के दरबार से बेदख़ल हुए एक अमीर हैं और दक्कन में शरण लेने पहुंचे हैं.
देवगिरी राज्य कभी किसी आक्रमण से नहीं गुजरा था. इसलिए मेंटेनेंस ना होने के चलते समय के साथ किले की सुरक्षा में कुछ सुराख़ पैदा हो गए थे. अलाउद्दीन की सेना ने इसका फ़ायदा उठाया और किले पर चढ़ाई शुरू कर दी. फिर भी किला कई दिन तक तक सुरक्षित रहा.
फिर अलाउद्दीन ने एक और अफ़वाह फैलाई कि उनकी टुकड़ी सिर्फ़ वैनगार्ड है और 20 हज़ार घुड़सवारों की शाही सेना पीछे से आ रही है. राजा रामचंद्र को जब ये पता चला तो उन्होंने संधि करने में ही भलाई समझी. जिसके तहत राजा रामचंद्र देव ने अलाउद्दीन को बहुत सी धन दौलत और साथ में सालाना चौथ देने का वादा किया.
जब ये संधि हो रही थी, तब राजकुमार शंकर देव देवगिरी से सिर्फ़ तीन कोस की दूरी पर थे. उन्हें संधि की खबर लगी तो उन्होंने ग़ुस्से में अलाउद्दीन पर आक्रमण कर दिया. इस जंग में शंकर देव की हार हुई और अलाउद्दीन बहुत्व सी धन दौलत लेकर कारा लौट गए. देवगिरी पर दूसरा हमला इसके बाद जलौद्दीन ख़िलजी कारा पहुंचे और वहां उनकी हत्या करके अलाउद्दीन ख़िलजी ने राज्य हथिया लिया. दिल्ली के तख़्त पर बैठते ही अलाउद्दीन ने उत्तर भारत में अपना राज्य मज़बूत किया. 1304 पर उन्होंने गुजरात पर हमला किया और 1305 में मलवा को भी अपने कब्जे में ले लिया.
मालिक कफूर (तस्वीर: Commons)
इस बीच मंगोल लगातार उत्तर भारत पर आक्रमण कर रहे थे. 1306 में उन पर निर्णायक जीत हासिल करने के बाद अलाउद्दीन ने दक्कन पर ध्यान दिया. साल 1307 में अलाउद्दीन ने अपने खास जनरल मलिक कफ़ूर को दक्कन के अभियान पर भेजा. जिसका पहला चरण देवगिरी था.
देवगिरी पर हमले के इतिहासकार अलग-अलग कारण बताते हैं. जियाउद्दीन बरनी के अनुसार जब अलाउद्दीन मंगोलो से निपट रहे थे, तब देवगिरी ने उन्हें चौथ भेजना बंद कर दिया. जिसके चलते अलाउद्दीन ने देवगिरी पर आक्रमण किया. कुछ मध्यकालीन इतिहासकार इसका एक और कारण बताते हैं.
1298 में जब अलाउद्दीन ने गुजरात पर आक्रमण किया तो वहां राजा करण देव द्वितीय का राज्य था. अलाउद्दीन ने करण देव को हराया और रानी कमला देवी को दिल्ली ले जाकर उनसे शादी कर ली. करण देव और कमला देवी की एक संतान भी थी, देवल देवी. 1304 में जब अलाउद्दीन ने गुजरात पर दोबारा आक्रमण किया तो करण देव को भागकर देवगिरी में शरण लेनी पड़ी. उनकी बेटी देवल देवी भी देवगिरी में ही थी. इतिहासकार फिरिश्ता के अनुसार कमला देवी अलाउद्दीन के सबसे प्रिय रानी थी. और उन्होंने ही अलाउद्दीन से देवल देवी को दिल्ली लाने को कहा. इसी के चलते अलाउद्दीन ने मालिक कफ़ूर को देवगिरी पर हमला करने भेजा. देवल देवी की कहानी अमीर खुसरो के लिखे अनुसार आज ही के दिन यानी 24 मार्च 1307 को कफ़ूर ने देवगिरी पर हमला किया. और वो राजा रामचंद्र देव को बंदी बनाकर दिल्ली ले गया. हालांकि ज़ियाउद्दीन बरनी के हिसाब से साल 1308 में कफ़ूर ने देवगिरी पर हमला किया था. वहीं फिरिश्ता के अनुसार साल 1306 में ये सब हुआ.
अमीर खुसरो के लिए आशिका में देवल देवी की कहानी (तस्वीर: Commons)
1304 में करण देव जब देवगिरी की शरण में पहुंचे तो राजा रामचंद्र ने उन्हें प्रस्ताव दिया कि वो देवल देवी की शादी राजकुमार शंकरदेव से कर दें. लेकिन करण देव ने इंकार कर दिया. बाद में 1307 में जब मलिक कफ़ूर ने हमला किया तो करण देव भागे-भागे रामचंद्र के पास पहुंचे. और उनसे देवल देवी की शादी राजकुमार से कराने की मिन्नत करने लगे. राजकुमारी को किले में भेजा गया लेकिन उससे पहले ही ख़िलजी के सैनिकों से उसे पकड़ लिया और दिल्ली ले गए. साथ ही कफ़ूर ने राजा रामचंद्र को बंदी बनाकर अलाउद्दीन के सामने पेश किया. 6 महीने बाद अलाउद्दीन ने रामचंद्र को वापस देवगिरी भेज दिया और वे अलाउद्दीन के वसाल की तरह राज करने लगे.
देवल देवी की कहानी को लेकर भी मतभेद हैं. आधुनिक इतिहासकार RC मजूमदार और HC राय चौधरी देवल देवी की कहानी को असली बताते हैं. फिरिश्ता के लिखे में इसका ज़िक्र मिलता है. लेकिन KM मुंशी और G.H. Ojha जैसे कुछ लेखक और इतिहासकार इस बात से इंकार करते हैं कि देवल देवी जैसी कोई राजकुमारी थी भी. देवल देवी और ख़िज़्र ख़ान की कहानी पहली बार अमीर खुसरो की मसनवी ‘आशिका’ में मिलती है. जिसे बाद में बरनी ने भी दोहराया. KM मुंशी के अनुसार ये सिर्फ़ एक काल्पनिक कथा थी जो खुसरो ने राज दरबार को खुश करने के लिए रची थी. अलाउद्दीन के समकालीन इब्न बतूता के लिखे में भी देवल देवी का कोई ज़िक्र नहीं मिलता. देवगिरी साम्राज्य का अंत बहरहाल बरनी और फिरिश्ता जो अलाउद्दीन के समय से ज़्यादा नज़दीक हुए, उनके अनुसार 1307 से लेकर 1311 के बीच दक्कन के राज्यों से बहुत सी धन दौलत इकट्ठा कर मालिक कफ़ूर वापस दिल्ली पहुंचा. तब तक अलाउद्दीन ने देवल देवी की शादी अपने बेटे ख़िज़्र खान के साथ करवा दी थी. 1313 में राजा रामचंद्र देव की मृत्यु के बाद उनके बेटे शंकरदेव ने एक बार और बगावत की. लेकिन उसे भी कुचल दिया गया. 1317 में खिलजियों ने देवगिरी को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया. और ज़ब तुग़लक़ों का शासन आया तो इस शहर का नाम पड़ गया दौलताबाद. 1317 में ही देवगिरी का यादव साम्राज्य भी ख़त्म हो गया.
आखिरी खिलजी सुल्तान मुबारक शाह खिलजी (तस्वीर: Commons)
1316 में अलाउद्दीन ख़िलजी की मौत के बाद तख़्त के लिए उनके बेटों की बीच लड़ाई हुई. मुबारक शाह ने तब ख़िज़्र खान को मारकर सत्ता पर कब्जा किया और मालिक कफ़ूर को भी मरवा दिया. मुबारक शाह ने देवल देवी को अपनी पत्नी बनाया लेकिन उनकी भी हत्या कर दी गई. इत्तेफ़ाक ये कि मुबारक शाह की हत्या करने वाला भी एक गुजराती ही था.
1304 में जब अलाउद्दीन ने गुजरात पर हमला किया तो एक लड़के को अपने साथ दास बनाकर दिल्ली लाया. इस लड़के को इस्लाम क़बूल करवाया गया. और बडा होकर यही लड़का बना खुसरौ ख़ान. जिसने मुबारक ख़ान की हत्या की थी. खुसरौ ख़ान ने भी देवल देवी से शादी की और दिल्ली के तख़्त पर क़ाबिज़ हुआ. सिर्फ़ 2 महीने चले शासन के बाद 1320 में घियासुद्दीन तुगलक ने खुसरौ को एक जंग में हराकर उसकी हत्या कर दी. और इसी के साथ ख़िलजी वंश का अंत हो गया और हिंदुस्तान पर तुगलकों का शासन शुरू हुआ.